Magazine - Year 1981 - Version 2
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Language: HINDI
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बसन्ती नये वर्ष के अभिनव निर्धारण
बसन्त युग निर्माण अभियान का वर्षारम्भ है। इस अवसर पर योजना के आरम्भ से ही अगले वर्ष के लिए निर्धारण किये और अग्रगामी बनाये जाते हैं। इस बार के निर्धारणों में वरिष्ठ प्रज्ञापुत्रों की एक विशिष्ट बिरादरी को समूचे देव परिवार में से मथ कर नवनीत की तरह ऊपर उभारा गया है और उनसे कहा गया है कि अपने योगदान को काम चलाऊ न रहने देकर दूसरों के लिए प्रेरणाप्रद एवं अनुकरणीय बनाने का साहस जुटाएं। उन्हें प्रज्ञा अभियान का आलोक व्यापक बनाने की एक अतिरिक्त जिम्मेदारी इन्हीं दिनों सौंपी गई है और कहा गया है कि अपने समयदान, अंशदान का अनुपात पहले की अपेक्षा बढ़ाने की चेष्टा करें।
बच्चा बढ़ता है तो उसके भोजन, वस्त्र का अनुपात भी बढ़ता है। उसे अभिभावक ही जुटाते हैं। मिशन का बालक आश्चर्यजनक गति से बढ़ रहा है तद्नुसार उसकी आवश्यकताएं भी अनेक गुनी हुईं और नई-नई फरमाइशें लेकर सामने आई हैं। इसकी पूर्ति यों हर युग-शिल्पी को करनी चाहिए, पर जिनकी अन्तरात्मा में जीवन उछलता है उन्हें अपनी अन्तःप्रेरणा के अनुरूप साहसिकता का परिचय भी देना होगा।
इन दिनों का शौर्य पराक्रम तोप, तलवार चलाने के रूप में नहीं- सृजन प्रयोजनों के लिए प्राण-पण से जुट जाने के रूप में प्रस्तुत करना होगा। समय की माँगें अपने-अपने ढंग की होती हैं और उनकी पूर्ति के लिए सदा एक जैसे उपाय उपचार नहीं अपनाये जाते। इन दिनों का त्याग, बलिदान, पुण्य, परमार्थ एवं तप साधन इस एक ही दिशा में नियोजित होना है कि प्रज्ञा आलोक से व्यापक क्षेत्र को प्रकाशवान बनाने के लिए सूर्य, चन्द्र की तरह घर-घर पहुँचने और द्वार-द्वार पर भटकने वाला अलख जगाया जाय। बादलों को भी यहीं करना पड़ता है। हवा भी जन-जन से संपर्क साधती और बिना माँगे ही उसे प्राण वायु की जीवन सम्पदा से निहाल करती है। प्रज्ञापुत्रों को इसी मार्ग पर चल पड़ने के लिए- इन दिनों विशेष उत्साह दिखाने के लिए कहा गया है।
प्रज्ञापुत्र उन्हें कहा जा रहा है जो अपने ज्ञानघट की राशि से नव-प्रकाशित प्रज्ञा अभियान पत्रिका की छः प्रतियाँ मंगा कर मिशन के पूर्व परिणित चौबीस परिजनों को उसे हर महीने नियमित रूप से पढ़ाने वापिस लेने का उत्तरदायित्व उठायेंगे। इस प्रकार इस परिकर से मिशन की अभिनव प्रेरणाओं और प्रवृत्तियों से परिचित होने का अवसर मिलेगा। साथ ही प्रज्ञापुत्रों के व्यक्तिगत संपर्क से उनकी सक्रियता का- सृजन प्रयोजनों में रस लेने एवं योगदान देने का सिलसिला भी आगे बढ़ेगा। प्रज्ञापुत्रों का यह प्रथम चरण हुआ। दूसरा चरण यह है कि वे इन चौबीस में से तीन ऐसे विकसित करें जो मिशन की जीवन्त सदस्य बन कर एक घण्टा समय और दस पैसा नित्य का अनुदान प्रस्तुत करते रहने की नियमितता बरतें। इन तीन ज्ञानघटों की राशि से युग साहित्य की 360 नव प्रकाशित पुस्तिकाएं मंगाई जा सकेंगी और एक दिन में एक के हिसाब से 360 व्यक्तियों को नियमित रूप से घर बैठे यह अभिनव स्वाध्याय साधन पहुँचाया जाता रहेगा।
इस प्रकार हर प्रज्ञापुत्र का एक चलता-फिरता प्रज्ञा विद्यालय चलेगा, जिसमें 24 पुराने और 360 नये छात्र होंगे। हृदय समस्त नस-नाडियों को बड़ी-बड़ी धमनियों के माध्यम से रक्त पहुँचाता है। ठीक इसी प्रकार मिशन के हृदय की भूमिका निभाने वाले यह प्रज्ञापुत्र अपनी श्रद्धा और लगन के सहारे अपने संपर्क क्षेत्र में आलोक वितरण एवं उमंग उन्नयन के लिए निरन्तर प्रयासरत रहेंगे।
कहना न होगा कि यह छोटी-सी प्रक्रिया अगले वर्ष मिशन का विस्तार 24 गुना करके सच्चे अर्थों में प्रज्ञावतार की प्रथम मोर्चे पर महत्त्वपूर्ण सफलता प्रदान करेगी। जो परिचित होंगे व प्रभावित हुए बिना न रहेंगे। यों वे प्रभावित होंगे और उनका पुरुषार्थ जगेगा। पुरुषार्थ का सृजन प्रयोजन में नियोजन हो सका तो संजोये गये सपनों के साकार होने में किसी प्रकार का सन्देह रह नहीं जायेगा।
प्रस्तुत बसंत पर्व का यह अभिनव निर्धारण है। गत वर्षों में प्रज्ञा पीठें इतनी बड़ी संख्या में बन गई हैं कि अब उन्हें सर्वांगपूर्ण एवं निर्धारित लक्ष्य को पूरा करने के लिए सुव्यवस्थित बनाने पर ध्यान केन्द्रित करना होगा। नये निर्माणों के लिए उतना जोर नहीं दिया जा रहा है जितना कि बन चुके प्रज्ञा संस्थानों को नियोजित करने पर। भवन निर्माण के उपरान्त 1. कार्यकर्ताओं की नियुक्ति 2. कार्य क्षेत्र के हर शिक्षित तक नियमित रूप से युग साहित्य पहुँचाने का प्रबंध 3. जन्म दिवसोत्सवों के माध्यम से हर प्रज्ञा परिजन के घर में परिवार प्रशिक्षण के भाव भरे आयोजन 4. प्रज्ञा संस्थानों में दैनिक प्रशिक्षण का प्रबंध 5. आवश्यक व्यय व्यवस्था के लिए ज्ञानघटों की बड़ी संख्या में स्थापना।
यह पाँचों कार्य जहाँ सम्पन्न हो सकें समझा जाना चाहिए कि व प्रज्ञा संस्थान अपनी स्थापना का मूलभूत प्रयोजन पूरा करने लगा। इस चेतना से रहित कहीं कोई प्रज्ञा संस्थान रहने न पाये, इन दिनों इसी तथ्य पर ध्यान केन्द्रित किया गया है। इन निर्माणों की इमारतें भले ही छोटी हों, पर उनमें सृजनात्मक प्रयोजनों की प्राण चेतना उछलती, उफनती ही दृष्टिगोचर होनी चाहिए। इस वर्ष इसी तथ्य पर पूरा ध्यान दिया जायेगा।
विनिर्मित प्रज्ञा संस्थानों को अपनी उपयोगिता सिद्ध करने और सेवा साधना द्वारा जन सहयोग अर्जित करने के लिए जुटा दिया गया है। आशा की गई है जो बन गये हैं- जो बन रहे हैं- जो बनने वाले हैं वे प्रतिमा पूजन भर तक सीमित रहने वाले वर्तमान देवालयों से सर्वथा भिन्न होंगे और सिद्ध करेंगे कि धर्म तंत्र को पुनर्जीवित करने से जन-मानस को किस प्रकार सत्प्रवृत्तियों में नियोजित किया जा सकता है। उस निर्धारण में नव-निर्मित प्रज्ञा संस्थान कितनी बड़ी भूमिका सम्पन्न कर सकते हैं।
प्रज्ञापुत्रों को अग्रिम मोर्चे पर खड़े करना और प्रज्ञा संस्थानों को निर्धारित क्रिया-प्रक्रिया में सुव्यवस्थापूर्वक जुटा देना, यह दो कार्यक्रम प्रस्तुत बसंत पर्व से प्रमुखता देकर हाथ में लिये गये हैं और सुविस्तृत प्रज्ञा परिवार की चेतना एवं क्षमता से यह दो कार्य अधिकाधिक उत्साह एवं उत्तरदायित्व के साथ सम्पन्न करने के लिए कहा गया है। हर प्राणवान परिजन से पूछा जा रहा है कि इन दो प्रयोजनों के लिए उनके क्षेत्र में क्या हो रहा है और वे व्यक्तिगत रूप से इन दो कार्यों को सुसम्पन्न बनाने के लिए क्या कर रहे हैं? जो नहीं कर रहे उन्हें तत्काल छोटे-बड़े कदम उठाने और शबरी गिलहरी से- केवट, जामवन्त से पीछे न रहने के लिए झकझोरा गया है। इन दिनों की अन्यमनस्कता को लज्जाजनक समझने- व्यस्तता तंगी का बहाना न बनाने के लिए विशेष रूप से आग्रह किया गया है। जो कुछ कर रहे हैं उन्हें पहले की अपेक्षा अनुदान का अनुपात बढ़ाने के लिए कहा गया है। जीवन्त और जागृतों से अपेक्षा की गई है कि वे शिथिलता छोड़ें युग धर्म को समझें और अपनी तत्परता में कई गुनी बढ़ोतरी करने की बात सोचें। युग सन्धि का दूसरा वर्ष- परिपोषण वर्ष है- मिशन का बालक जब तेजी से बढ़ ही रहा है तो उसकी आवश्यकताओं की पूर्ति भी परिवार के समर्थ सदस्यों को ही करनी पड़ेगी।
प्रकृति की प्रेरणा से सभी सजीव वृक्षों में पल्लव फूटते और पुष्प खिलते हैं। नियति की प्रेरणा से प्राणवान प्रज्ञा परिजनों की तत्परता में अभिनव कोंपलें फूटतीं और कलियाँ खिलती सर्वत्र देखी जा सकेगी।
यह कार्यक्षेत्र की चर्चा हुई। दूसरा पक्ष है- सूत्र संचालन केन्द्र। शान्ति-कुँज, ब्रह्मवर्चस्-गायत्री नगर। इस त्रिवेणी संगम के कन्धे पर अनेकानेक उत्तरदायित्व हैं। अध्यात्म और विज्ञान के समन्वय से प्रस्तुत किये गये प्रतिपादन प्रत्यक्षवाद-बुद्धिवाद एवं भौतिकवाद का ऐसा विकल्प प्रस्तुत कर सकेगा, जिससे लोकमानस को भटकाव से, जंजाल से छूटने और उज्ज्वल भविष्य के राजमार्ग पर चल पड़ने का द्वार खुल सके। यज्ञोपैथी अगले दिनों मनुष्य जाति को शारीरिक और मानसिक आधि-व्याधियों से छुटकारा दिला सकी तो समझना चाहिए कि लोक निर्माण के अब तक के प्रयासों में एक शानदार अध्यात्म और जुड़ गया।
मिशन के उद्घोषित दोनों प्रयोजन किस प्रकार सम्पन्न हो सकेंगे। उसकी सम्भावनाएं किस प्रकार बन रही हैं, इसकी अविज्ञात जानकारियाँ सर्वसाधारण को कराने के लिए अगले दिनों अखण्ड-ज्योति के कई अंक लगातार प्रकाशित होंगे, जिनमें (1) मनुष्य में देवत्व के उदय (2) धरती पर स्वर्ग के अवतरण की कार्यपद्धति का अदृश्य एवं अविज्ञात सम्भावनाओं का रहस्योद्घाटन किया जायेगा। किया जाना चाहिए से अब समाधान नहीं होता। क्या हो रहा है और क्या होने जा रहा है? उसकी अदृश्य पृष्ठभूमि में सर्वसाधारण को परिचित कराने वाले यह अंक ऐसे होंगे जिसे तथ्यों के एक स्थान पर प्रस्तुतीकरण की दृष्टि से अभूत पूर्व कहा जा सकेगा।
हरिद्वार केन्द्र को प्राणवान युग शिल्पियों की, महामानवों की उत्पादन प्रयोगशाला के रूप में विकसित किया गया है। गायत्री नगर का निर्माण समय की इसी महत्ती आवश्यकता को पूर्ण करने के लिए किया गया है। उसे युग चेतना में अरुणोदय का प्रमाण परिचय देने वाला ‘उदयांचल’ कहा जाय तो कुछ भी अत्युक्ति व होगी।
युग सन्धि के इन बीस वर्षों में होने वाली उथल-पुथल को दिशा देने और नियन्त्रित रखने की दृष्टि से ऐसी प्राणवान प्रतिभाओं की आवश्यकता बड़ी संख्या में पड़ेगी जो अपने कर्तव्य ही नहीं, व्यक्तित्व की प्रखरता का भी परिचय दे सकें। इस आवश्यकता की पूर्ति प्रज्ञावतार की वास्तविक सेवा सहायता है। सामान्य सृजन प्रयोजनों में विविध पदार्थों और उपकरणों की आवश्यकता पड़ती है। युग सृजन की प्रमुख प्रक्रिया लोकमानस के भावनात्मक नव निर्माण पर आधारित है। इसके लिए जड़-पदार्थों एवं यान्त्रिक उपकरणों की नहीं जाज्वल्यमान व्यक्तियों का प्रयोग उपयोग होगा। अभीष्ट परिवर्तन की प्रमुख भूमिका अतीत में प्रस्तुत हुए युग परिवर्तनों की तरह इस बार भी महामानवों को ही सम्पन्न करनी होगी। इन दिनों इसी आवश्यकता की पूर्ति के लिए जागृत आत्माओं का ध्यान पूरी तरह केन्द्रित होना चाहिए।
कहा जाता रहा है कि गायत्री नगर का निर्माण उच्चस्तरीय प्रतिभाओं को ढालने वाले कारखाने की तरह किया है। भूतकाल में भी इसी प्रयोजन के लिए नालन्दा, तक्षशिला जैसे विश्वविद्यालय बनाये और चलाये गये थे। इससे पूर्व उपर्युक्त केन्द्रों में ऋषियों ने गुरुकुलों एवं आरण्यकों की व्यापक व्यवस्था की थी। तीर्थ शब्द ऐसे ही प्रशिक्षण केन्द्रों के लिए प्रयुक्त होता था जिसमें हर स्तर का भावनाशील अपने को अपेक्षाकृत अधिक सुसंस्कृत बनाने वाली साधना का अभ्यास कर सके। प्राणवान वातावरण की प्रेरणा से अनुप्राणित हो सके।
देश में ऐसे तीर्थों की कमी नहीं थी। उनके निर्माण में मान्धाता जैसे उदारमना अपनी थैलियां खोलते रहते थे। उनके संचालन में ऋषियों की सुविस्तृत बिरादरी अपनी समग्र चेतना को नियोजित किये रहती थी। यही था रहस्य भरा निर्धारण जिसने इस भूमि के 33 कोटि नागरिकों को देव मानव का सम्मान प्रदान किया और इस भूमि को ‘स्वर्गादपि गरीयसी’ की गरिमा से विश्व भर में गौरवान्वित किया। महामानव ही इस विश्व वसुधा की वास्तविक सम्पदा है। प्रगति और समृद्धि का- सद्भावना और सहकारिता का- शान्ति और सुव्यवस्था का वातावरण बनाने का उत्तरदायित्व सदा से ऐसे ही विभूतियाँ उठाती रही हैं। आज ही विषम बेला में समुद्र मंथन जैसी अभूत पूर्व उथल-पुथल में उन्हीं को ढाला, उगाया जाना है। महाकाल की योजना को सुसम्पन्न बनाने में उन्हीं का पराक्रम अग्रिम पंक्ति में खड़ा दृष्टिगोचर होगा।
गायत्री नगर का काम चलाऊ निर्माण उतना हो गया है कि विनिर्मित सीमित स्थान के अनुपात से उन प्रयोजनों का शुभारम्भ किया जा सके जिसके लिए इसे बनाने का संकल्प उठा और एक सीमा तक पूरा हुआ। अब इस वर्ष से इससे वे तीनों ही प्रशिक्षण प्रक्रियाएं विधिवत् आरम्भ की जा रही हैं जिन्हें लक्ष्य रखकर इस निर्माण में डाला गया था।
स्थान सीमित और सुविस्तृत प्रज्ञा परिवार के भावनाशील शिक्षार्थियों की संख्या विस्तार अत्यधिक होने से पाठ्यक्रम छोटे स्वल्पकालीन रखने की व्यवस्था ही बन पड़ी। स्थान अधिक होता तो शिक्षार्थी अधिक संख्या में भी लिये जा सकते थे और उनका पाठ्यक्रम कुछ अधिक समय का बढ़ाया जा सकता था ताकि उसे अधिक समग्र और समर्थ और विस्तृत होने के कारण अधिकाधिक लाभ मिलता, पर प्रस्तुत परिस्थितियों से अभी वैसा सम्भव नहीं है। इतने निर्माण के लिए साधन जुटाना ही कितना कठिन पड़ा है इसे देखते हुए फिलहाल गायत्री नगर में स्थान विस्तार एवं भवन निर्माता की सम्भावना कम ही दिखती है। बड़े आधार बनने पर बड़ा विस्तार भविष्य में होता रहेगा। अभी तो जो सामने है उसी से काम चलाने और तद्नुरूप व्यवस्था बनाने की बात सोची गई है।
जुलाई 81 से तीन प्रशिक्षण वर्ग आरम्भ किये जा रहे हैं। (1) महिलाओं और वयस्क कन्याओं के लिए दो-दो महीने के सत्र (2) पुरुषों और वयस्क बालकों के लिए दो-दो महीने के सत्र। यह दोनों ही दो अलग-अलग इमारतों में चलेंगे। यह दोनों ही स्तर के सत्र वर्ष में पाँच बार होते रहेंगे। (1) जुलाई अगस्त (2) सितम्बर अक्टूबर (3) नवम्बर, दिसम्बर (4) जनवरी, फरवरी (5) मार्च, अप्रैल। इस प्रकार दस महीने में पाँच सत्र सम्पन्न हो जाया करेंगे।
मई, जून में एक-एक सप्ताह के आठ सत्र चलेंगे दोनों महीनों में चार-चार सत्र होंगे। (1) 1 से 6 (2) 7 से 13 (3) 15 से 20 (4) 22 से 27। इन्हें परिवार प्रशिक्षण तीर्थयात्रा पर्यटन एवं परामर्श सत्र कहा जा सकता है। अत्यन्त व्यस्त लोग जिन्हें परिस्थिति वश घर से बाहर जाने का अक्सर अवकाश नहीं मिलता उनके लिए इनकी विशेष उपयोगिता है। गर्मी के दिनों में स्कूलों की-कचहरियों की लम्बी छुट्टियाँ रहती हैं। किसान खेती बाड़ी से निवृत्त हो जाते हैं। उन दिनों परिभ्रमण की बात सभी को सूझती है। साथ में तीर्थयात्रा और उपयोगी सान्निध्य, शिक्षण मिल सके तो फिर सोना सुहागा ही कहना चाहिए।
इस वर्ष गर्मी के दिनों गुरुदेव को आधे से अधिक समय प्रज्ञा पीठों के उद्घाटन प्रवास में रहना पड़ेगा। तो भी ऐसी व्यवस्था बनाई गई है कि उनकी अनुपस्थिति में भी यह सत्र विधिवत चलते रहें।
उपरोक्त तीनों ही सत्रों में प्रशिक्षण के लिए उपयुक्त मनीषियों का प्रबन्ध किया गया है। हर कार्य गुरुदेव ही करें यह बात अब भविष्य में सम्भव न हो सकेगी। उनकी अनुपस्थिति से भी महाकाल के हाथों सूत्र-संचालन उसी प्रकार बना रहेगा जैसा कि अब तक बना रहा है। इस तथ्य को प्रामाणित करने के लिए वे मथुरा छोड़कर हरिद्वार आये थे और सिद्ध किया था कि इस संचालन में व्यक्ति नहीं शक्ति का उत्तरदायित्व है। सर्वविदित है कि गायत्री तपोभूमि और युग निर्माण योजना का कार्य इन दस वर्षों में गुरुदेव के वहाँ न रहने पर भी अनेक गुना अधिक बढ़ा है। हरिद्वार छोड़ कर वे अब गंगोत्री की तैयारी कर रहे हैं। भूमि मिल गई है और आश्रम शक्ति पीठ तो नहीं, पर वे अपने निवास का प्रबन्ध वहाँ कर रहे हैं। समय-समय पर आते जाते तो रहेंगे, पर क्रमशः व्यवस्थाएं सभी अन्य सुयोग्य हाथों में हस्तान्तरित होती चली जायेंगी। इतने पर भी यह निश्चित है कि कहीं किसी कार्यक्रम में तनिक भी व्यतिरेक उत्पन्न न होगा।
उपरोक्त तीन स्तर के प्रशिक्षण सत्रों में वे जब भी हरिद्वार रहेंगे, अपनी उपस्थिति से शिक्षार्थियों को लाभान्वित करते रहेंगे। पर यदि वे नहीं रहें तो भी किसी को निराश होने की आवश्यकता नहीं। इस मिशन को सूत्र संचालक शक्ति की उपस्थिति प्रेरणा एवं उदार सहायता का लाभ उसी प्रकार मिलता रहेगा जिस प्रकार गुरुदेव का शरीर यहाँ रहने पर मिलता है। अगले दिनों यह अनुभूति और भी अच्छी तरह उपलब्ध होगी कि प्रज्ञा अभियान उनके विभिन्न तन्त्रों की कोई व्यक्ति नहीं चलाता वरन् उसके पीछे किसी प्रचण्ड चेतना का अदृश्य सूत्र-संचालन काम करता है। यहाँ यह चर्चा इसलिए करनी पड़ी है कि उपरोक्त तीनों में गुरुदेव की कम उपस्थिति से किसी को निराश होने की आवश्यकता न पड़े।
उपरोक्त तीनों सत्रों का अधिक स्पष्टीकरण इस प्रकार है-
(1) गत सात वर्षों से एक वर्षीय पाठ्य-क्रम वाले कन्या प्रशिक्षण सत्र चलते रहे हैं। वे अपने उद्देश्य की पूर्ति में अत्यधिक सफल रहे हैं। जो लड़कियाँ इस वातावरण में रहकर गई हैं उनमें अपनी सुसंस्कारिता, कुशलता एवं श्रमशीलता का परिचय देकर समूचे संपर्क क्षेत्र को प्रभावित किया। पितृगृह में प्राण प्रिय बनीं। ससुराल में गृहलक्ष्मी सिद्ध हुईं। व्यक्तिगत जीवन में सर्वत्र सहयोग और सम्मान से प्रमुदित रहीं। इन उपलब्धियों को देखकर हर किसी का मन यह चला कि हम भी अपनी लड़की शान्ति-कुँज भेजें। भले ही उसकी स्कूली पढ़ाई में हर्ज होता रहे। ऐसी लड़कियों के विवाह में अभिभावकों को असाधारण सुविधा मिली। शान्ति कुँज की शिक्षण लड़कियाँ देवकन्या कही जाने लगीं और उनके विवाह सुसम्पन्न परिवारों में बिना किसी देन-दहेज की माँग के होते रहे। धनवती, रूपवती एके कोने में बैठी रहीं और गुणवती के नाते शान्ति कुँज की प्रशिक्षित लड़कियों की माँग हर जगह होती रही। उन्हें प्राप्त करने के लिए असंख्यों ललचाते रहे। क्योंकि वे स्थान कम पड़ने के कारण प्रायः दो सौ की संख्या में ही निकल पातीं।
उसी एक वर्षीय कन्या प्रशिक्षण पाठ्य-क्रम को अब दो महीने का कर दिया गया है। संगीत और उद्योग जितना एक वर्ष में पढ़ाया जाता था उसे अब संक्षिप्त कर दिया गया है। इसी प्रकार अन्य पाठ्य-क्रमों का जितना सार भाग था उसे यथावत् रखते हुए विस्तार में कटौती की गई और सार संक्षेप की तरह उसे गागर में सागर भरने के समतुल्य बना दिया गया है।
उसी पाठ्यक्रम को अब प्रौढ़ महिलाओं के लिए भी खोल दिया गया है। पहले महिलाओं का अलग और कन्याओं का अलग पाठ्य-क्रम था अब दोनों ही एक कर दिये गये हैं। दोनों का उद्देश्य परिवार निर्माण की रथ चक्र जैसी उस महान प्रक्रिया को दक्षतापूर्वक सम्पन्न करना है जिस पर व्यक्ति निर्माण और समाज निर्माण के दोनों पहिये घूमते और अग्रगामी बनते हैं। सुसंस्कारी नारी क्या कुछ कर सकती है उसे भली प्रकार समझने और ठीक तरह निभाने के लिए जो जानना और अभ्यास में उतारना आवश्यक है वह सभी इस दो माह के महिला प्रशिक्षण में सम्मिलित करा दिया गया है। शिक्षा आठवीं कक्षा स्तर की, आयु 13 से 40 तक की हो, शारीरिक मानसिक अस्वस्थता न हो, स्वभाव आलसी, झगड़ालू, अस्त-व्यस्त, चोर जैसा न हो तो इन कक्षाओं में प्रवेश पाया जा सकता है।
(2) पुरुषों के तथा वयस्क बालकों के लिए जिन दो-दो महीने के सत्रों की व्यवस्था की गई है, उनमें जीवन जीने की कला प्रमुख और धर्म तन्त्र से लोक शिक्षण प्रक्रिया गौण है। व्यक्ति को किस प्रकार गुण कर्म, स्वभाव की दृष्टि से सुसंस्कृत एवं परिष्कृत होने के लिए अग्रसर होना चाहिए। दृष्टिकोण में दूरदर्शिता, व्यवहार में सज्जनता, कर्तृत्व में प्रखरता, स्वभाव में उदारता का समावेश होने से ही व्यक्तित्व का वजन बढ़ता है। ऐसे लोग ही प्रचुर परिमाण में सहयोग सम्मान पाते और जिस काम में हाथ डालते उसमें सफल होते हैं। इसे पुरातन शब्दावली में अध्यात्म विद्या एवं संजीवनी विद्या कहा जाता था। आज की भाषा में उसे व्यक्तित्व का परिष्कार एवं जीवन में कलाकारिता का समावेश कह सकते हैं। यह उपलब्धि किस प्रकार करतलगत हो, इसके सभी दर्शन सूत्र एवं अभ्यास इस दो माह की प्रशिक्षण प्रक्रिया में सम्मिलित कर दिये गये। योग को कर्म कौशल कहा गया है। संक्षेप में इसे व्यावहारिक जीवन विज्ञान भी कहा जा सकता है। यही है इस दो माह के प्रशिक्षण की पृष्ठ भूमि एवं कार्य पद्धति।
क्या विषय किस प्रकार पढ़ाये जायेंगे, इसका विस्तृत विवेचन इन पंक्तियों में शक्य नहीं तो भी यह समझा जा सकता है कि जिनने पाठ्यक्रम बनाया है उनकी सूक्ष्म दृष्टि असंदिग्ध है। उन पर विश्वास किया जा सकता है और समझा जा सकता है जो पढ़ाया जाता होगा, जिस प्रकार पढ़ाया जाता होगा, उसमें अनावश्यक जंजाल का एक कण भी न होकर सब कुछ इस प्रकार संजोया गया होगा कि शिक्षार्थी इस संगम में स्नान करने के उपरान्त कायाकल्प जैसी स्थिति लेकर वापिस लौटे।
नव-सृजन के लिए धर्मतन्त्र से लोक शिक्षण का निर्धारण प्रज्ञा अभियान के अंतर्गत चल रहा है। इसमें गायन, प्रवचन, भाषण सम्भाषण, समारोह, धार्मिक आयोजन, पौरोहित्य, कर्मकाण्ड के अनेक पक्षों का समावेश है। इन सभी को इस प्रकार इस दो महीने की प्रशिक्षण प्रक्रिया में संजोया गया है कि अगले दिनों शिक्षार्थी को लोक नेतृत्व की भूमिका निभाने में कठिनाई अनुभव न हो।
इस अवधि में शिक्षार्थी की स्थिति के अनुरूप ऐसी साधनाएं भी कराई जाती रहेंगी जो आत्मबल के अभिवर्धन में, आतिथेय क्षमताएं उभारने में, कुसंस्कारों के निराकरण में, प्रखरता प्रतिभा संवर्धन में विशेष रूप से उपयोगी सिद्ध होती है। साधना, स्वाध्याय, संयम, सेवा के प्रतिफल ही धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष के के रूप में परिणित होते हैं। यह योगाभ्यास एवं तप साधन का ही एक छोटा रूप है जिसे हर शिक्षार्थी के लिए एक प्रकार से अनिवार्य ही कर दिया गया है।
जिनके पारिवारिक उत्तरदायित्व हल्के हो चुके, जो लड़के पढ़ तो चुके पर काम से नहीं लगे, उनके पास समय की कमी नहीं रहती। ऐसे लोग इन सत्रों में सम्मिलित होकर अपने खाली समय का श्रेष्ठतम उपयोग कर सकते हैं। यों व्यस्त व्यक्ति भी प्रयत्न करें तो किसी प्रकार इतना समय निकाल ही सकते हैं। 18 से 50 आयु तक के मैट्रिक स्तर की शिक्षा वाले प्रवेश पा सकेंगे। शारीरिक, मानसिक निरोगता, स्वभाव में विनय अनुशासन, स्वच्छता, स्फूर्ति जैसे सज्जनोचित गुणों का रहना आवश्यक है।
(3) ग्रीष्म ऋतु में एक-एक सप्ताह के सत्रों में बच्चों समेत आने की छूट है। इन छोटे सत्रों में समीपवर्ती तीर्थों के पर्यटन की सुविधापूर्ण और ज्ञानवर्धक यात्रा का प्रबन्ध रहेगा। साथ ही बालकों के नामकरण, अन्नप्राशन, मुण्डन, विद्यारम्भ, यज्ञोपवीत संस्कार भी इस जीवन्त तीर्थ स्थान में कराये जा सकेंगे। मन्त्र दीक्षा, गुरु दीक्षा भी इच्छुकों को इसी अवसर पर मिल सकती है। दिवंगत पूर्वजों के लिए श्राद्ध तर्पण की सुविधा भी इस क्षेत्र में की गई है। बच्चों समेत आने की सुविधा मात्र इन्हीं सत्रों में है। महिलाओं और पुरुषों के दो-दो महीने वाले सत्रों में बच्चे साथ लाने का निषेध है।
प्रस्तुत कठिनाई से निपटने, गुत्थियों को सुलझाने, प्रगति के लिये अनुदान प्रोत्साहन पाने की दृष्टि से यह थोड़ा समय भी शिक्षार्थियों के लिए समाधानकारक हो सकता है। अध्यात्म का व्यवहार में समावेश, व्यक्ति, परिवार और समाज का नव-निर्माण, जैसे अनेक विषयों पर जैसा समाधानकारक प्रतिपादन, परामर्श यहाँ उपलब्ध होता है वैसा अन्यत्र कदाचित ही कहीं होता हो। इतने थोड़े समय में तीर्थयात्रा का प्राचीनकाल जैसा लाभ एवं आनन्द परिभ्रमण मनोरंजन, ज्ञानवर्धन एवं परमस्पर्श जैसा सत्संग उपलब्ध करने की दृष्टि से इन सत्रों को अपने ढंग का अनोखा ही कहा जा सकता है। गर्मी के दिनों में जबकि हरिद्वार की धर्मशालाओं तक में सुई रखने को जगह नहीं मिलती और छोटे कमरों का भी उनमें होटलों जितना किराया देना पड़ता है तब गायत्री नगर के सुविधाजनक, प्राकृतिक पवित्र नितान्त सस्ते एवं उच्चस्तरीय वातावरण में पहुँचने और समय क्षेप करने का जितना भी अवसर मिले उसे एक असाधारण सौभाग्य ही समझा जाना चाहिए। मई, जून के दो महीने इस सुयोग के लिए निश्चित करके प्रज्ञा परिवार के परिजनों के लिए एक अभूत पूर्व एवं असाधारण सुयोग का सृजन किया गया है। तीर्थों के प्रति वहाँ की विषैली विकृतियों ने जो अश्रद्धा उत्पन्न की है उसका सहज परिमार्जन शान्तिकुँज गायत्री नगर में पहुँचने पर हो जाता है। सप्तऋषियों की तपस्थली जाह्नवी की सात धाराओं वाली क्रीड़ा भूमि पर बसे हुए गायत्री नगर, ब्रह्मवर्चस और शान्ति-कुँज की गतिविधियों को देखते भर रहने से पूरा समय कट जाता है। अन्यत्र जाने की इच्छा तक नहीं होती। यहाँ का वातावरण ही इतना कुछ प्रदान कर देता है। यहाँ का वातावरण ही इतना कुछ प्रदान कर देता है जितना बहुत समय तक कष्टसाध्य प्रयत्न करते रहने पर भी कदाचित ही किसी को कभी उपलब्ध हो सके।
उपरोक्त सभी सत्रों में आवेदन पत्र भेजकर पूर्व स्वीकृति प्राप्त करनी पड़ती है। स्थान सीमित और आगन्तुकों का दबाव अत्यधिक रहने से यही एक उपाय सुविधाजनक रह जाता है कि समय रहते अपना स्थान सुरक्षित करा लिया जाय। रेलगाड़ियों में स्लीपर पर बैठने की सीट रिजर्व कराने की जिस प्रकार से ही दौड़ धूप करनी पड़ती है, ठीक उसी प्रकार उपरोक्त तीनों प्रकार के सत्रों में से किसी में भी प्रवेश पाने के लिए आवेदन पत्र भेजना पड़ता है। स्वीकृति न मिलने पर भी स्थान पाने की आशा से चल पड़ने वालों को प्रायः निराश ही रहना पड़ता है।
भोजन व्यय सभी शिक्षार्थियों को स्वयं उठाना पड़ता है। हाथ से भोजन बनाने की भी सुविधा है और जो चाहें भोजनालय से अपनी रुचि की खाद्य वस्तुएं खरीद भी सकते हैं।
तीनों सत्रों में किसी में भी आने वालों को निम्न प्रश्नों के उत्तर लिखते हुए आवेदन पत्र भेजना चाहिए।
1. आवेदनकर्ता का पूरा नाम पता 2. आयु 3. शिक्षा 4.व्यवसाय 5. जन्म जाति 6. युग निर्माण के मिशन के साथ यदि पूर्व संबंध रहा हो तो उसका उल्लेख 7. शारीरिक, मानसिक, स्वास्थ्य सही होने का सुनिश्चित आश्वासन 8. आश्रम का अनुशासन पालन एवं सज्जनोचित व्यवहार की प्रतिभा 9. आने में कोई अतिरिक्त उद्देश्य हो तो उसका उल्लेख 10. पिछली जीवनचर्या एवं भविष्य की इच्छा योजना।
छोटे बच्चों को छोड़कर हर वयस्क शिक्षार्थी का आवेदन पत्र अलग-अलग और उसी के हाथ का लिखा होना चाहिए। एक ही सत्र में इतनी संख्या में व्यक्ति आयेंगे। ऐसा लिख देने भर से किसी को भी स्वीकृति नहीं दी जाती। हर व्यक्ति के स्तर पर अलग से विचार करने के उपरान्त ही आने की स्वीकृति दिये जाने का नियम है। देर से आवेदन भेजने वालों को प्रायः इच्छित तारीखें नहीं मिल पातीं, इसलिए यह भी लिख देना चाहिए कि अभीप्सित सत्र भर गया हो तो अन्य किस सत्र के लिए स्वीकृति भेजी जाय।
कन्याओं या महिलाओं के आवेदन पत्र के साथ उनके अभिभावकों की एक अलग स्वीकृति नत्थी रहनी चाहिए। जिसमें छात्रा के साथ अभिभावक का रिश्ता तथा इच्छा से भेजने की बात का उल्लेख रहना चाहिए।
यह कहने की आवश्यकता नहीं कि उपरोक्त तीनों सत्रों के संबंध में तथा प्रज्ञापुत्रों के सोचे गये उत्तरदायित्व के निर्वाह में जिनकी रुचि हो वे शान्ति-कुँज हरिद्वार के पते पर जवाबी पत्र सहित, पत्र-व्यवहार कर लें।