Magazine - Year 1981 - Version 2
Media: TEXT
Language: HINDI
Language: HINDI
आत्म-ज्ञान का तत्त्व दर्शन
Listen online
View page note
Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
भारतीय दर्शन के प्रणेता ऋषियों ने मानव जीवन में जिज्ञासा के अन्यतम महत्त्व को जाना पहचाना तथा प्रत्येक श्रेयार्थी को जिज्ञासु का सर्वश्रेष्ठ पद प्राप्त करने की प्रेरणा दी-
“नान्योवरतुल्य एतस्य कश्चित्।”
(कठ.- 1।22)
- ‘‘सत्य की प्राप्ति में जिज्ञासा से श्रेष्ठ अन्य कोई सहायक नहीं।”
मैं कौन हूँ? कहाँ से आया हूँ? मैं भविष्य में भी रहूँगा या नहीं? प्राणी दुःखी क्यों है? सच्चा सुख क्या है? इन्द्रियों से प्राप्त होने वाला ज्ञान विश्वसनीय है या नहीं? कर्मों का फल मिलता है या नहीं? इस जन्म से पूर्व मेरा अस्तित्व था या नहीं इत्यादि असंख्य प्रश्नों की जिज्ञासा न केवल संसार के दुःखों से पीड़ित प्राणी को ही झकझोरती है, अपितु कई बार सब प्रकार से सुखी मनुष्यों के मन में भी ये प्रश्न उथल-पुथल मचा देते हैं। यह जिज्ञासा दिव्य अग्नि के समान है जिसमें तपने पर मनुष्य का हृदय सत्य के अवतरण का पुण्य तीर्थ बन जाता है।
जिस समय मनुष्य के मन में इन विचारों का चक्र चलता है उस समय उसे समस्त साँसारिक सुख विषवत् प्रतीत होने लगते हैं। राजमहलों के वैभव-विलास में सुकुमारता से पले राजकुमार सिद्धार्थ, महाराजा भर्तृहरि और महावीर जैसे असंख्यों की जीवन-गाथाएं इतिहास के पृष्ठों में बिखरी पड़ी हैं। विचारों का यह झंझावात ही सच्ची जिज्ञासा है जिससे दर्शन का जन्म होता है।
जिज्ञासु के लिए दर्शन का अर्थ मात्र बौद्धिक कला बाजियाँ खाने से नहीं है। वह कमरे के भीतर बंद होकर कुर्सी पर बैठा हुआ अपने कर्त्तव्य की इतिश्री नहीं समझता। आंग्ल भाषा में दर्शन के लिए प्रयुक्त होने वाला फिलासफी शब्द यूनानी भाषा के ‘फिलो’ और ‘सोफिया’ के मिलने से बना है जिसका अर्थ होता है- ज्ञान का प्रेम। यहाँ ज्ञान का तात्पर्य बुद्धिकृत मीमाँसा से है। तत्संबंधी रुचि ही ‘फिलासफी’ है। इसके विपरीत भारतीय शब्द दर्शन का तात्पर्य ‘देखने’ से है जिसका अर्थ है- तत्व का साक्षात्कार करना। ज्ञान के जिस विवेचन में सत्य या तत्व को स्वयं न देखा जाय उसे ‘दर्शन’ कहना युक्ति संगत नहीं प्रतीत होता है। अतः वही तत्व सत्य है, जिसके संबंध में हम यह कह सकें कि हमने उसका साक्षात्कार किया है, यह हमारे अनुभव का विषय है अर्थात् यह हमारा ‘दर्शन’ है।
बिना सच्ची जिज्ञासा के तत्त्वज्ञान की उधेड़-बुन बुद्धि का कौतूहल मात्र बनकर रह जाती है। आर्ष साहित्य में जिज्ञासा वृत्ति का सर्वोत्तम उदाहरण नचिकेता है। नचिकेता शब्द यथार्थ जिज्ञासु का सूचक है और यह जिज्ञासा वृत्ति मनुष्य में प्रायः मृत्यु (यम) के सन्निकट होने अर्थात् मृत्यु का भय उपस्थित होने पर जाग उठती है।
मृत्यु के नाटक को नजदीक से देखते हैं तब ‘कस्त्वम् कोऽहम्’ वे प्रश्न हमें सच्चे और आवश्यक जान पड़ते हैं। नचिकेता की जिज्ञासा का उदय भी यम के सान्निध्य में ही होता है। नचिकेता (न+चिकेतस्) शब्द का अर्थ ही यह है कि जिनके अंदर जानने की इच्छा हो, परन्तु जो जानता न हो।
भगवान् बुद्ध अपने उपदेशों में बहुत जोर देकर कहा करते थे कि- ‘‘मैं जिस मार्ग का पथिक हूँ, मैंने उसे स्वयं देख लिया है।” जब तक किसी उपदेष्टा या ज्ञानी की ऐसी विश्वस्त स्थिति ने हो तब तक वह मानव जीवन के लिए असंदिग्ध या महत्त्वपूर्ण तत्त्व का व्याख्यान नहीं कर सकता।
“यास्काचार्य ने लिखा-
ऋषिर्दर्शनात्- (निरुक्त-2।11)
अर्थात् ‘ऋषि’ शब्द का अर्थ है द्रष्टा या देखने वाला। शुष्क ऊहापोह करने वाला तार्किक भारतीय अर्थ में ‘दार्शनिक’ की पदवी का अधिकारी नहीं बनता। दार्शनिक बनने के लिए ‘दर्शन’ होना चाहिए दूसरे शब्दों में दार्शनिक में ऋषित्व का होना आवश्यक है। जो व्यक्ति अपने आपको ज्ञान का अधिकारी कहता है, उससे पूर्व उसमें यह कहने की सामर्थ्य होना जरूरी है कि ‘‘मैंने ऐसा देखा है।’’ यजुर्वेद की परिभाषा के अनुसार सच्चा ‘एवं मया श्रुत’ (ऐसा मैंने सुना) नहीं बल्कि आत्म-विश्वास के साथ कहता हूँ-
“वेदाहमेतं पुरुषं महान्तमादित्यवर्णं मसतः परस्तात्।”
अर्थात्- मैं उस परमसत्ता को जानता हूँ जो आदित्य के सदृश भास्वर और तुम से परे है।
दर्शन का अर्थ है- ‘आत्मानुभव।’ दूसरों के दर्शन के आधार पर सच्ची तृप्ति संभव नहीं है। तार्किक प्रश्नात्मक-जिज्ञासा का अर्थ श्रद्धा का अभाव नहीं है। इसके विपरीत जिज्ञासा का अभाव अश्रद्धा है। जिज्ञास्य विषय को अपने अध्यवसाय की क्षमता से अनुभव का विषय बना लेना श्रद्धा का लक्षण है।
दार्शनिक काण्ट ने कहा है- “नीतिमय जीवन का प्रारम्भ होने के लिए विचार क्रम में परिवर्तन तथा आचार का ग्रहण आवश्यक है।” जिज्ञासा उत्पन्न हो जाने पर यदि जीवन-क्रम में परिवर्तन नहीं होता है तो इसका अर्थ है कि व्यक्ति वास्तविकता के साथ अपना सीधा संबंध जोड़ना नहीं चाहता है।
संदेह या प्रश्नों को परास्त करने की शक्ति ही जिज्ञासु की श्रद्धा है। सत्य को जानने के लिए मात्र प्रश्नों या तर्कों का उदय ही पर्याप्त नहीं है। गीता के अनुसार इसके लिए योगयुक्त एकनिष्ठ अभ्यास की भी आवश्यकता है- ‘‘अभ्यास योग युक्तेन चेतसा नान्यगामिना।”
‘ज्ञान’ का सामान्य अर्थ जानकारी है। भौतिक पदार्थों एवं परिस्थितियों की एवं प्रयोग विधियों की जानकारी में ही लोक-व्यवहार में ज्ञान कहा जाता है किन्तु आत्म-विज्ञान में उसे आत्मसत्ता की स्थिति एवं परिणिति के संबंध में आवश्यक अनुभव कराने वाली अनुभूति को ‘ज्ञान’ कहा गया है। इसी की उपलब्धि मानव जीवन की सबसे बड़ी सफलता है। अपने संबंध में भ्रान्तियां बनी रहने पर लोक-व्यवहार एवं पदार्थों का उपार्जन उपयोग सभी गलत हो जाता है और सुख संवर्धन के लिए किया गया पुरुषार्थ उलटा संकट भरे जाल-जंजालों में फंसाता जाता है। शांति एवं प्रगति का सही मार्ग उसी को मिल सकता है जो आत्म चेतना और लोक-व्यवस्था के मध्यवर्ती अंतर को, जोड़ने वाली सूत्र श्रृंखला को भली प्रकार समझ लेता है। उसी जानकारी को शास्त्र में ‘आत्म-ज्ञान’ कहा गया है। यह आत्म-ज्ञान ही वह अमृत है जिसे पाने के उपरान्त और कुछ पाना शेष नहीं रह जाता।
‘छान्दोग्य उपनिषद् में एक कथा आती है प्राचीन काल में दो पुरुष थे एक का नाम विरोचन था। दूसरे का इन्द्र। दोनों के मन में यह प्रश्न उठा कि मैं कौन हूँ? शिष्य भाव से जिज्ञासु की भाँति दोनों हाथ में समिधाएं लिए प्रजापति के पास पहुंचे। वहाँ पहुँच कर उन्होंने प्रश्न किया आचार्य श्रेष्ठ हमें बताइये कि हम कौन हैं?’
प्रजापति ने उत्तर देने के पूर्व उनकी योग्यता की परीक्षा लेना उचित समझा। उन्होंने कहा थाली में पानी भर लो और उसमें अपना मुख देखो अपने आपका साक्षात्कार कर लोगे उत्तम वस्त्र धारण करके दोनों ने जल में अपनी आकृति देखी। विरोचन अपना सौंदर्य देखकर प्रसन्न हो उठा और कहने लगा। मैं कितना सुंदर हूँ। वह अपने सभी साथियों से कहने लगा, हमने ‘मैं’ का पता लगा लिया है। अपने शरीर को ही ‘मैं’ समझ कर वह उसे ही पुष्ट करने एवं संवारने में लग गया।
किन्तु इन्द्र दूरदर्शी थे। उसने सोचा यदि वस्त्र, आभूषण एवं शरीर ही मेरा स्वरूप है तो इसका अर्थ यह है कि उनके मैले होने, जरा-जीर्ण पड़ने पर मेरी भी वैसी ही स्थिति हो जायेगी। निश्चित ही यह मेरा स्वरूप नहीं हो सकता। वह कहने लगा, ‘नाहमाम भोग्य पश्यामि’ अर्थात् मैं तो उसमें कुछ भी कल्याण नहीं देखता।
इन्द्र की आशंका उचित थी। जिन आकर्षक वस्त्रों द्वारा हम शरीर को सजाते-संवारते हैं वह मैला होता है और फटता भी है। किन्तु ‘मैं’ का भाव तो सदा एक जैसा बना रहता है। संबोधन किये जाने वाले स्थूल अवयव का स्वरूप बदल जाता है।
बचपन में भी मैं का संबोधन किया जाता था, युवावस्था एवं वृद्धावस्था में भी। शरीर तो परिवर्तित होता जाता था किन्तु ‘मैं’ सदा एक जैसा बना रहता है। स्पष्ट है नित्य परिवर्तनशील यह शरीर ‘मैं’ नहीं हो सकता है। ‘मैं’ का भाव शाश्वत, अपरिवर्तनशील होना इस बात का प्रमाण है कि उसे कोई शाश्वत अविनाशी एवं परिवर्तन रहित सत्ता होनी चाहिए।
‘मैं’ की सत्ता का शरीर से अलग होना अन्य प्रमाणों से भी स्पष्ट हो जाता है। उंगली कटने, बीमार पड़ जाने पर सामान्यतया यह कहा जाता है कि मेरी उंगली कट गई या मेरा शरीर रोगग्रस्त हो गया। कोई भी यह नहीं कहता कि मैं कट गया। यह इस बात का परिचायक है कि मैं की सत्ता शरीर नहीं है।
उपनिषद् के इस संवाद संदेह का निष्कर्ष यह है कि आत्मसत्ता को शरीर से पृथक और स्वतन्त्र मानकर चला जाय। अपना हित साधन आत्मकल्याण एवं आत्मोत्कर्ष की समस्याओं एवं उपलब्धियों के साथ जोड़ा जाय। इस स्तर का दृष्टिकोण न अपनाया जाय जैसा कि पेट और प्रजनन तक अपनी आकांक्षा तथा चेष्टा को सीमाबद्ध रखने वाले नर पशु अपनाते देखे जाते हैं। वासना और तृष्णा- लाभ और मोह के भव-बंधन उन्हीं को बाँधते हैं जो अपने को शरीर मानकर चलते हैं और उसी के साथ जुड़े हुए परिकर के साथ बाल-क्रीड़ा करते रहते हैं। इस स्तर से ऊंचे उठ कर जीवन सम्पदा का महत्त्व एवं सदुपयोग को समझते हुए परम लक्ष्य की दिशा में चल पड़ने की प्रेरणा आत्मज्ञान पर अवलम्बित है। इसी प्रेरणा को ऋतम्भरा प्रज्ञा एवं ब्रह्मविद्या गायत्री कहते हैं।
व्यक्ति के तीन चित्र हैं- 1. लोग उसे किस रूप में समझते हैं 2. दूसरे वह किस रूप में जीता है 3. तीसरे वह किस रूप में अपने आपको प्रस्तुत करता है। तीनों चित्रों में से पहला मान्यता का, दूसरा यथार्थ का और तीसरा अयथार्थ का है।
राजा भोज की राज्य सभा जुड़ी हुई थी। बड़े-बड़े विद्वान अपने-अपने आसनों पर विराजमान थे। उसी समय एक भद्र-सा पुरुष आभूषणों से विभूषित राज सभा में उपस्थित हुआ। राजा भोज सिंहासन से उठे। अभिवादन किया और सम्मान दे ऊंचे आसन पर बिठाया। उसी समय एक दूसरा व्यक्ति फटे, पुराने, कपड़े पहिने हुए सभी में आया। राजा ने उसकी और कोई ध्यान नहीं दिया और एक किनारे में बैठ गया।
विद्वानों के वक्तव्य हुए, चर्चा परिचर्चा चलने लगी। फटे कपड़े पहने हुआ व्यक्ति प्रभावशाली वक्ता एवं विद्वान था। सभा विसर्जन होने पर राजा स्वयं उसके साथ दरवाजे तक विदा करने के लिए गया और उसे विविध प्रकार के वस्त्राभूषणों से सम्मानित किया। जाते समय जो व्यक्ति वस्त्राभूषणों से सुसज्जित होकर आया था उसकी ओर राजा ने ध्यान तक नहीं दिया।
इतने में एक विदूषक घूँघट लगाये रूपसी जैसे आवरण पहन कर दरबार में दाखिल हुआ और फरियाद सुनने की प्रार्थना करने लगा। आरम्भ में सभी का ध्यान उसकी ओर आकर्षित हुआ, पर पीछे जब वास्तविकता का पता चला तो सभी दरबारी उस छद्म पर ठहाका भर कर हंस पड़े और बहुरूपिये को कुछ दे दिला कर भगा दिया।
उपस्थित विद्वानों ने तीन प्रकार के लोगों के प्रति तीन तरह का व्यवहार करने और आरम्भ में प्रदर्शित किये रुख को बदल देने का कारण पूछा तो उनने कहा- प्रथम व्यवहार में प्रारम्भिक परिचय, दूसरे में व्यथार्थ निरूपण और तीसरे में भ्रम निवारण के तथ्यों ने काम किया और प्रारम्भिक मान्यता को बदल दिया।