Magazine - Year 1982 - Version 2
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Language: HINDI
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सूर्य वेधन प्राणायाम से सूक्ष्म शक्ति केन्द्रों का जागरण
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शक्ति आयामों में विभिन्न शक्तियों की चर्चा की जाती है। पदार्थ की शक्ति, विद्युतशक्ति, चुम्बकीय शक्ति गुरुत्वाकर्षण शक्ति शारीरिक शक्ति आदि। शक्ति का एक और भी आयाम है जो इनकी तुलना में कहीं अधिक सूक्ष्म, पर अधिक सामर्थ्यवान् है। वह है प्राण की शक्ति। जीव चेतना में प्राण की एक सीमित मात्रा भरी हुई है, जिसके द्वारा वह जीवन का दैनिक व्यापार चलाता है। ब्रह्मांड में प्राण शक्ति प्रचुर परिमाण में संव्याप्त है। ब्रह्मांड एक ऐसा विराट् सागर है जिसमें प्राण तत्व हिलोरे ले रहा है। पिण्ड सत्ता−जीव सत्ता में समाहित प्राण तत्व को आत्माग्नि कहा जा सकता है और ब्रह्मांड में संव्याप्त प्राण को ब्रह्माग्नि। आत्माग्नि लघु है– ब्रह्माग्नि विभु। एक बूँद है–दूसरा सागर। इस प्रकार मूलतः एक होते हुए भी विस्तार भेद के कारण उसके दो रूप बन गया। तालाब में जब वर्षा होती है वह विपुल जलराशि अपने गर्भ में भरकर परिपूर्ण हो जाती है। वर्षा का यह अनुदान मिलने पर तालाब सूखता और घटता जाता है। पानी में मलीनता भी बढ़ती है। इसलिए तालाब को स्वच्छ रखने के लिए नये वर्षा जल की आवश्यकता पड़ती है। ठीक इसी प्रकार आत्माग्नि में ब्रह्माग्नि का अनुदान सतत् पहुँचते रहना आवश्यक है। जिस साधना प्रक्रिया द्वारा इस प्रयोजन की आपूर्ति होती है उसे प्राणायाम कहते है। प्राणायाम अर्थात् प्राण का आयाम जोड़ने की–प्राण तत्व सम्वर्धन की− ब्रह्म चेतना के महाप्राण से जुड़कर उसी के तुल्य बन जाय।
योग शास्त्रों में व्यक्तिप्राण और ब्रह्मप्राण के एकरूपता के सम्बन्ध में इस प्रकार उल्लेख आता है–
प्राणावैद्विदेवत्याः एकमात्रागृह्यते। तस्मात् प्राणा एक नामान्ता द्विमात्र हूयन्ते तस्मात्प्राण द्वन्द्वम्!
–ऐतरेयोप.2127
अर्थात्– प्राण एक है, पर वह दो देवताओं में−दो पात्रों में भरा हुआ है।
शरीर शास्त्र की दृष्टि से यों तो ‘डीप ब्रिदिंग‘ गहरी साँस लेने को आरोग्यवर्धक बनाया गया है। इससे फेफड़ों को अधिक आक्सीजन की मात्रा मिलती है जो स्वास्थ्य सन्तुलन एवं संवर्धन में सहायक सिद्ध होती है पर अध्यात्म विज्ञान में जिस प्राणायाम की चर्चा की जाती है वह शरीर शास्त्रियों की प्रचलित डीप−ब्रिदिंग से भिन्न होती है। गहरी साँस से अतिरिक्त आक्सीजन मिलने और स्वास्थ संवर्धन का मात्र शारीरिक स्थूल प्रयोजन पूरा होता है, पर यौगिक प्राणायामों में चैतन्य प्राण तत्व का महत्वपूर्ण लाभ साधक को मिलता है। उल्लेखनीय है कि आक्सीजन और प्राण तत्व एक नहीं हैं। वायु में–निखिल ब्रह्मांड में दूध में घी की भाँति प्राण नहीं है–प्राण का संवाहक है। प्राणायाम प्रक्रिया, में ब्रह्मांडव्यापी महाप्राण के लहलहाते सागर में से अभीष्ट परिमाण में प्राणतत्व खींचकर आत्मप्राण तक पहुँचाया जाता है। इस प्रकार आन्तरिक प्राण सम्पदा की मात्रा क्रमशः बढ़ती जाती है जिससे भौतिक सफलताओं ओर आत्मिक विभूतियों का अवरुद्ध मार्ग खुलता है।
विविध प्रयोजनों के लिए प्राण प्रक्रिया के अनेकों भेद−उपभेद किए गये हैं। सम्बद्ध अनेकों प्रकार के प्राणायामों का वर्णन योग ग्रंथों में आता है। विविध−प्रयोगों के लिए विभिन्न प्रकार के प्राणायामों का अवलम्बन लिया जाता है। मानवी सत्ता में शक्ति का भाण्डागार बीज रूप में विद्यमान है, जिसे कुण्डलिनी महाशक्ति के रूप में जाना जाता है। परमाणु के नाभिक में प्रचण्ड शक्ति भरी पड़ी है। पर वह दिखायी पड़ती और उपयोग में तभी आती है जब एक निश्चित वैज्ञानिक प्रक्रिया अपनाकर नाभिकीय विखण्डन कराया जाता है। यह प्रक्रिया अत्यन्त जटिल है और खर्चीली भी। कुण्डलिनी महाशक्ति जिसे–सरपेन्टाइन पॉवर–वाइटल फोर्स आदि के नाम से जाना जाता है, हर मनुष्य में सुषुप्तावस्था में पड़ी रहती है। दबे हुए खजाने की भाँति उस शक्ति का मनुष्य लाभ नहीं उठा पाता। उस महाशक्ति की एक नगण्य चिनगारी काम उभार के रूप में दिखायी पड़ती तथा विपरीत लिंगों के प्रति आकर्षण पैदा करती, प्रजनन के लिए प्रेरणा देती है। शक्ति के भाण्डागार का सामान्य मनुष्य कोई विशेष लाभ नहीं उठा पाता। प्राणायाम की विशिष्ट प्रक्रिया उस महाशक्ति के जागरण में विशेष सहयोग करती है। कुण्डलिनी जागरण के लिए प्राणशक्ति का प्रचण्ड आघात आवश्यक होता है। शरीर में विद्यमान प्राण की मात्रा इस प्रयोजन की पूर्ति नहीं कर पाती। निखिल ब्रह्मांड में संव्याप्त प्राण तत्व को आकर्षित करना तथा अपने भीतर भरता पड़ता है। सूर्यवेधन प्राणायाम इस प्रयोजन के लिए सर्वाधिक सहायक सिद्ध होता है। कुण्डलिनी जागरण की साधना में सूर्यवेधन स्तर के प्राणायाम की ही आवश्यकता पड़ती है।
प्राण के प्रहार से जीवाग्नि के–उद्दीपन, प्रज्ज्वलन का उल्लेख साधना ग्रन्थों में अनेकों स्थान पर हुआ है। यह वही अग्नि है जिसे योगाग्नि, प्राण ऊर्जा, जीवनी शक्ति अथवा कुण्डलिनी कहते हैं। अग्नि में ऐसा ही ईंधन डाला जाता है जिसमें अग्नि तत्व की प्रधानता वाले रासायनिक पदार्थ अधिक मात्रा में होते हैं। कुण्डलिनी प्राणाग्नि है उसमें सजातीय तत्वों को ईंधन डालने से ही उद्दीपन होता है। सूर्यवेधन प्राणायाम द्वारा इड़ा−पिंगला के माध्यम से अन्तरिक्ष से खींचकर लाया गया प्राण तत्व मूलाधार में अवस्थित चिनगारी जैसी प्रसुप्त अग्नि तक पहुँचाया जाता हैं तो वह भभकती है और जाज्वल्यमान लपटों के रूप में सारी सत्ता को अग्निमय बनाती हैं। अग्नि का उल्लेख शास्त्रों में मूलाधार स्थित प्राण ऊर्जा के लिए ही हुआ है–
आदेहम ध्याकट्यन्तमग्निस्थानमुदाहृदम।
तत्र सिन्दर वर्णोऽग्निर्ज्वलनंदशपं च च॥
–बिशिखोएनिषद्
अर्थात्– कटि के निम्न भाग में अग्नि स्थापना वह सिंदूर के रंग का है। उसमें पन्द्रह घड़ी प्राण को रोककर अग्नि की साधना करनी चाहिए।
तडिल्लेखा तन्ठीतपन शशि वैश्वानरमयी।
तडिल्लता समरुचिर्बिद्यु ल्लेखेन भास्वती॥
अर्थात्– बिजली की बेल के समान, तपते हुए चंद्रमा के समान अग्निमयी वह शक्ति दृष्टिगोचर होती है।
नाभेस्तिर्यग धोर्घ्व कुण्डलिनी स्थानम्।
अष्टप्रकृति रुपाऽष्टधा कुण्डलीकृता कुण्डलिनी शक्तिर्भवति। यथा वद्बाय संचारं जलान्नदीनि पंरितः स्कन्धपाश्वष निरुध्यैनं मुखेनैष समावेष्ट्य ब्रह्मरंध्र योगकालेऽपानेनाग्निना च स्फुरति॥
–शाण्डिल्योपनिषद्
अर्थात्–नाभि के नीचे कुण्डलिनी का निवास है। यह आठ प्रकृति वाली है। इसके आठ कुण्डल है। यह प्राण वायु को यथावत् करती है। अन्न ओर जल को व्यवस्थित करती है। मुख तथा ब्रह्मरंध्र की अग्नि को प्रकाशित करती है।
मूलाधारस्थ ब्रह्ययात्म तेजोमध्ये व्यस्थिता।
जीवशक्तिः कुण्डलाख्या प्राणाकाश तैजसी॥
–रुद्र तन्त्र
अर्थात्–मूलाधार में निवास करने वाली आत्मतेजरूपी अग्नि जीव शक्ति जीव शक्ति हैं। प्राणरूपी आकाश में प्रकाशवान कुण्डलिनी ही है।
देहमध्ये ब्रह्म नाड़ी सुषम्ना सूर्य रुपिणी पूर्णचन्द्राभावर्तते। सातुमूलाधारादारभ्य ब्रह्यरन्ध्रगामिनी भवति। तन्मध्ये तटकोटिसमानकान्त्यः मृणाल सववत् सूक्ष्माड् गी कुण्डलिनीति प्रसिद्धाऽस्तिताँ। दृष्टा मनसैव नरः सर्वपापबिनाशद्ध रा युक्तोभवति।
–अद्वैत तारकोपनिषद्
अर्थात्–देह में ब्रह्म नाड़ी सुषुम्ना परम प्रकाशवान है। वह मूलाधार से ब्रह्मरंध्र तक जाती है। उनके साथ सूक्ष्म तन्तु में जुड़ी अति ज्वलन्त कुंडलिनी शक्ति है। उसका भावनात्मक दर्शन करने से मनुष्य सब पापों से और बन्धनों से छुटकारा पा जाता है। प्राण का मूलाधार स्थित जीवाग्नि का प्रहार तथा उद्दीपन यही है–सूर्यवेधन प्राणायाम का लक्ष्य सूर्यवेधन प्राणायाम की प्रक्रिया इस प्रकार है–
किसी शान्त एकान्त स्थान में प्रातःकाल अथवा सायंकाल की बेला में स्थिर चित्त होकर बैठना चाहिए। आसन सहज हो, मेरुदण्ड सीधा, नेत्र अधखुले, घुटने पर दोनों हाथ, यह प्राण मुद्रा कहलाती है। सूर्यवेधन प्राणायाम के लिए इसी मुद्रा में बैठना चाहिए।
दांए नासिका का छिद्र बन्द करके बांए से धीरे−धीरे श्वास खींचना चाहिए। भावना यह हो कि वायु के साथ प्राण ऊर्जा की प्रचुर मात्रा मिली हुई है। वह प्राण् ऊर्जा को सुषुम्ना मार्ग से वाम के ऋण विद्युत प्रवाह इड़ा धारा द्वारा मूलाधार तक पहुँचाना–वहाँ अवस्थित प्रसुप्त चिनगारी को झकझोरना, थपथपाना, जागृत करना–यह सूर्यवेधन प्राणायाम का पूर्वार्ध है। उत्तरार्ध में प्राण को पिंगला (मेरुदण्ड के दक्षिण मार्ग के धन विद्युत प्रवाह) में से होकर वापिस लाया जाता है। जाते समय अन्तरिक्ष स्थित प्राण शीतल होता है−ऋण धारा भी शीतल मानी जाती है। इसीलिए इड़ा को−पूरक को– चंद्रवत् कहा जाता है। इड़ा को चन्द्र नाड़ी कहने से यही प्रयोजन है। लौटते समय अग्नि उद्दीपन–प्राण प्रहार की संघर्ष प्रक्रिया से ऊष्मा बढ़ती और प्राण में सम्मिलित होती है। लौटने का पिंगला मार्ग धन विद्युत का क्षेत्र होने से उष्ण माना गया है। दोनों ही कारणों से प्राण वायु उष्ण रहता है, इसलिये उसे सूर्य की उपमा दी गयी है। इड़ा चन्द्र और पिंगला सूर्य है। पूरक चन्द्र और रेचक सूर्य है योग ग्रन्थों में ऐसा ही वर्णन मिलता है।
साधना में क्रिया−कृत्यों की तुलना में भावना एवं संकल्प का महत्व अधिक है। साधक को इसके अनुरूप ही लाभ मिलता है। श्वास द्वारा खींचे हुए प्राण को मेरुदण्ड मार्ग से मूलाधार चक्र तक पहुंचाने का संकल्प दृढ़ता पूर्वक करना पड़ता है। यह मान्यता परिपक्व करनी पड़ती है कि निश्चित रूप से अन्तरिक्ष से खींचा गया और श्वास द्वारा मेरुदण्ड मार्ग से प्रेरित किया गया प्राण मूलाधार तक पहुँचता है और प्रसुप्त कुण्डलिनी शक्ति को–प्राणाग्नि को–अपने प्रचण्ड आघातों द्वारा जगा रहा है। प्रहार के उपरान्त प्राण को सूर्य नाड़ी पिंगला द्वारा वापिस लाने तथा समूची सूक्ष्म सत्ता को प्रकाशित, आलोकित करने की भावना परिपक्व करनी पड़ती है।
दूसरी बार इससे उलटे क्रम में अभ्यास करना पड़ता है अर्थात् दाहिने नथुने से प्राण को खींचना ओर बाँई ओर से लौटाना होता हैं। इस बार पिंगला से प्राण का प्रवेश कराना तथा इड़ा से लौटाना पड़ता है। मूलाधार पर प्राण प्रहार तथा प्राणोद्दीपन की भावना पूर्ववत् करनी पड़ती है। एक बार इड़ा से जाना−पिंगला से लौटना। दूसरी बार पिंगला से जाना इड़ा से लौटना यही है सूर्यवेधन प्राणायाम का संक्षिप्त विधि−विधान।
कहीं− कहीं यौगिक ग्रन्थों में सूर्यवेधन प्राणायाम को ही अनुलोम−विलोम उलटे को। एक बार सीधा, एक बार उलटा। फिर उलटा, फिर सीधा। यह सीध उलटा चक्र ही लोम विलोम कहलाता है। लोम−विलोम की पूरी प्रक्रिया से एक पूरा सूर्यवेधन प्राणायाम होता है।
सूर्यवेधन प्राणायाम का शास्त्रों में असाधारण महत्व बताया गया है। हठयोग प्रदीपिका में कहा गया है।–
कपाल शोधनं वात दोषहनं कृमि दोषंतहृतम्।
पुनः पुनरिदं कार्य, सूर्यवेधन मुन्ततम्॥
यह कपाल शोधन, वात रोग निवारण, कृमिदोष विनाशक है। इस सूर्यवेधन प्राणायाम को बार−बार करना चाहिए।
कुण्डलिनी महाशक्ति के जागरण के लिए प्राण ऊर्जा की प्रचुर परिमाण में आवश्यकता पड़ती है। यह प्रयोजन सूर्यवेधन द्वारा पूरा होता है। प्राण ऊर्जा का अभिवर्धन साधक की भौतिक और आध्यात्मिक सफलताओं का मार्ग प्रशस्त करता है। सूर्यवेधन की प्रक्रिया सामान्य दीखते हुए भी असामान्य परिणाम प्रस्तुत करने वाली है।