Magazine - Year 1982 - Version 2
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Language: HINDI
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अपनों से अपनी बात - क्या काफिला बिछड़ ही जायगा?
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चलते समय काफिला इतना लम्बा, किन्तु मंजिल तक पहुँचने का समय आने तक साथ में उँगलियों पर गिनने जितने। इसे असफलता कहा जाय? दुर्भाग्य? विधि की विडम्बना? अथवा उस मिट्टी को दोष दिया जाय जिससे यात्रियों की कतार तो गढ़ी थी, पर इतनी अनपढ़ की उसकी संरचना दो कदम चलते−चलते यातावरों की तरह भटकी और मृग तृष्णा की आकुलता में दिग्भ्रान्त होकर कहीं से कहीं चली गयी।
आत्म−सत्ता का वजन भारी, जिम्मेदारी बड़ी, सृष्टा की अपेक्षा ऊँची−समय की गरिमा अनुपम, इतना सब होते हुए भी यह क्षुद्रता कैसी जो अग्रदूतों की भूमिका निभाने में अवरोध बनकर अड़ गई है। समर्थ को असहाय बनाने वाला यह व्यामोह आखिर भव−बन्धन है? कुसंस्कार है? दुर्विपाक है? या मकड़ी का जाला? कुछ ठीक से समझ में नहीं आता। यह समय पराक्रम और पौरुष का है, शौर्य और साहस का है, इस विषम बेला में युग के अर्जुनों के हाथों से गाण्डीव क्यों छूटे जा रहे हैं? उनके मुख क्यों सूख रहे हैं? पसीने क्यों छूट रहे हैं? सिद्धान्तवाद क्या कथा गाथा जैसा कोई विनोद मनोरंजन है, जिसकी यथार्थता परखी जाने का कभी कोई अवसर ही न आये? कृष्ण झुँझला पड़े थे। कथनी और करनी के मध्य इतना असाधारण व्यतिरेक उन्हें सहन नहीं हुआ और भौंहें तरेरते हुये बोले–”कुतस्त्वा कश्मलमिंद विषमे समुपस्थितम्” अभागे! इस विषम बेला में यह कृपणता तेरे मन−मस्तक पर किस प्रकार चढ़ बैठी? अन्तरिक्ष से आज का महाकाल युग के गाण्डीवधारियों से लगभग उसी भाषा में प्रश्न पूछता और उत्तर माँगता है।
मनुष्यों में एक श्रेणी नर पशुओं की है। उन्हें इन्द्रिय विलास, शरीर सज्जा और अहंता का परिपोषण करने वाली सुविधा सम्पदा चाहिए। दिखने में तो उनकी संरचना मनुष्य जैसी लगती है, पर वस्तुतः होते हैं वे जड़ कलेवर। “चलते−फिरते पेड़−पौधे इन्हीं को कहा जाता है। इन्हें सड़न, शीलन और घुटन चाहिए। जान−बूझकर या अनजाने वे इसी को चाहते और इसी को खरीदते हैं। विलास, संचय और अहंकार की खाई पाटने में जीवन भर अथक श्रम करते हैं, किन्तु हाथ में छाले, कमर में दर्द और मन में असन्तोष के अतिरिक्त इन्हें मिले भी क्या? कोल्हू के बैलों के भाग्य में जो लिखा है वही तो सामने रहेगा। मनुष्यों में से अधिकाँश को इसी बिरादरी का समझा जाना चाहिए। अन्धी भेड़ों का अनुकरण करते हुये वे एक के पीछे एक चलते हुये गहरे गर्त में गिरते और जिस−तिस पर दोषारोपण करते हुये खीजते−कलपते दिन बिताते हैं।
पीड़ा और पतन के गर्त में गिरी हुई या गिरने के लिए आतुर यह नर पामरों की मंडली निश्चय ही दया की पात्र है। इन्हें सान्त्वना मिलनी चाहिए और जहाँ तक सम्भव हो राहत के साधन भी जुटने चाहिए। मानवी करुणा का यह तकाजा है कि दुखिहारा भले ही अपने पतनोन्मुख दृष्टिकोण और गर्हित क्रिया−कलाप को अपनाने से विपत्ति के जाल में जा घुसा हो। फिर भी भ्रमित तो भ्रमित ही है। उसे दुष्ट या भ्रष्ट कहना व्यर्थ है। ‘भटके हुये बालक’ शब्द का प्रयोग करना ही पर्याप्त है। इसी में चिन्तन की शालीनता है और पीड़ित के प्रति ममता। वह सेवा और सहायता का पात्र है उसे वह मिलनी भी चाहिए। मिलती भी है। जब तक वरिष्ठों में अन्तरात्मा जीवित रहेगी तब तक यह क्रम चलता भी रहेगा।
दुर्घटना और विपत्ति की घड़ियों में सेवा सहायता का पुकार होती है और वह जुटाई भी जाती है। पर यह तो आपत्तिकालीन समाधान हुआ। स्थायी की समस्या का समाधान कहाँ हुआ? दुर्घटना और विपत्ति की रोकथाम तो एक आवश्यकता है। माना कि आज की कराहें बड़ी मर्मभेदी है, माना कि उनका तात्कालिक उपचार होना चाहिए, पर यह भला नहीं जाना चाहिए कि कराहों की परिस्थिति उत्पन्न करने वाली विडम्बनाएँ भी जहाँ की तहाँ नहीं पड़ी रहने देनी चाहिए। परिवर्तन और सुधार उनका भी सोचा जाना चाहिए।
मनुष्यों का दूसरा वर्ग वरिष्ठों का है। वरिष्ठ वे जो अपनी समस्या का आप समाधान कर सके साथ ही बचे हुए पराक्रम का उपयोग दूसरों को उबारने में कर सके! महत्ता इन्हीं की है। नदी की प्रचण्ड धारा को चुनौती देने वाले मांझी न हों तो भयानक आपत्तिकाल सामने रहने पर भी लोग नदी किनारे खड़े असहाय अपंगों की तरह रोते−कलपते रहेंगे। पुरुषार्थ उस मांझी का है जिसकी माँस−पेशियाँ चप्पू को दोनों हाथों से पकड़ती हैं और नाव पर लदे हुओं को पार उतारने का विश्वास भरा अभयदान देती है। पार उतरने के लिए व्याकुल भीड़ की तुलना में एक माँझी वरिष्ठ हैं। भगवान किसी को सम्पन्नता भले ही न दे, पर यदि सच्ची अनुकम्पा बरसा सके तो उसे माँझी जैसी बलिष्ठता अवश्य प्रदान कर दे।
रोगियों की कहीं कमी नहीं। आवश्यकता कुशल चिकित्सक की हैं। ज्योति गँवाकर दिन में रात्रि जैसा अँधेरा अनुभव करने वालों की कमी नहीं। सराहनीय वे हैं जिन्हें निष्णात चिकित्सक कहा जाता है। वे अस्पताल में प्रातःकाल घुसते हैं और संध्याकाल तक आपरेशन की मेज पर योगी की तरह समाधिस्थ होकर शल्यक्रम चलाते रहते हैं। शल्यगृह से वापिस निकलने पर खोई ज्योति फिर पा लेने वाले सराहना करें या उपेक्षा, इससे कुछ बनता बिगड़ता नहीं। तथ्य वरिष्ठता के सौभाग्य का है, जिसे वह मिला वह सन्तोष के साथ जियेगा और शान्तिपूर्वक मरेगा। भगवान किसी को धन कुबेर भले ही न बनायें, पर उनकी करुणा बरसनी ही हो तो उस चिकित्सक की पदवी मिले जिसने असंख्यों को अन्धतमिस्रा से उबारा और आलोक की दुनिया में हाथ पकड़कर ला बिठाया।
अभागों की दुनिया अलग है और सौभाग्यवानों की अलग। अभागे जिस−तिस प्रकार लालच को पोषते, अविवेकी प्रजनन में निरत रहकर कमर तोड़ने वाला बोझ लादते, व्यामोह में तथाकथित अपनों को कुसंस्कारी बनाते, अपव्ययी असंयमी रहकर दुर्व्यसनों के शिकार बनते, अहंता के परिपोषण में आक्रमण करते और प्रत्याक्रमण सहते हुए समय बिताते हैं। यही है उनकी जीवन गाथा का सार संक्षेप। यह घिनौनी परिचर्या अपनाते तो असंख्यों हैं, पर उनमें से ऐसे कदाचित ही कोई हों जो पथ भ्रष्टता की कष्टदायक प्रतिक्रिया से बच सके। रोते−कलपते, खीजते खिजाते, डरते−डराते छेड़ते पिटते लोगों के ठट्ठ के ठट्ठ रह गली चौराहे पर खड़े देखे जा सकते हैं। इन्हीं दुर्दशाग्रस्तों की भीड़ में जा घुसना समझदारी कहाँ है? भगवान किसी को उच्चशिक्षा से वंचित भले ही रखे पर इतनी समझ तो दें कि हित−अनहित में अन्तर करना आये। भले ही शूर−वीर योद्धा बनने का श्रेय किसी को न मिले पर इतनी सूझ−बूझ तो रहे कि मनुष्य जीवन बहुमूल्य है और उसे सार्थक बनाने के लिए भीड़ के साथ न चलने और अपना रास्ता आप चुनने जितना विवेक तो चाहिए ही। भगवान उससे वंचित किसी को भी न करे।
प्रगति का सही स्वाभाविक क्रम एक ही है नीचे से ऊपर उठना–पीछे से आगे बढ़ना। मनुष्य की प्रगति का यही एक ही क्रम है–कि वह कनिष्ठ न रहकर वरिष्ठ बनने के लिए प्रबल पुरुषार्थ करे। यह स्मरण रखने योग्य है कि साधनों की दृष्टि से किसी की सफलता−असफलता का मूल्याँकन नहीं हो सकता। खजाने के घड़े पर सर्प बैठे रहते हैं। यक्ष−पिशाचों का भूमिगत सम्पदा पर अधिकार माना जाता है। दस्यु, दैत्य और अधिक बलिष्ठ होते हैं। धूर्तता में प्रवीण पारंगत जादूई करामात दिखाते हैं और मिट्टी से रुपया बना−बनाकर ढेर लगाते रहते है। वह भी कोई सफलताएँ हैं? यदि है तो उन्हें सराहा नहीं, धिक्कारा ही जायगा। आत्मप्रताड़ना और लोक भर्त्सना जिस सम्पदा−सफलता के साथ जुड़ी हुई हो उसे दरिद्रता, दुर्बलता, असफलता से भी गई−गुजरी समझा जाना चाहिए। जो इस रास्ते चल रहे हैं वे ऊँचे से नीचे गिरने वालों में समझ जायेंगे। यों हुई तो यह भी एक प्रकार की प्रगति ही। नीचे से ऊपर न उठे तो ऊपर से नीचे तो गिरे।
प्रगति का सही लेखा−जोखा लेना यदि किसी को आता हो तो उसका मापदण्ड एक ही है–दृष्टिकोण में उत्कृष्टता का समावेश। चिन्तन और रुझान में आदर्शों के प्रति रसानुभूति। जहाँ इतना शुभारम्भ हुआ वहाँ जीवनचर्या का स्वरूप भी अनायास ही तद्नुरूप बनने ढलने लगेगा। चिन्तन और चरित्र के सम्मिश्रण से ही स्वभाव और संस्कार बनते हैं और वे ही जीवनक्रम में परिवर्तित होते है। यदि यह प्रवाह उत्कृष्टता की दिशा में व रहा होगा तो समझना चाहिए कि महामानव बनने−बनाने वाली परिस्थितियां अनायास हो बनती चली जायेंगी। इसके विपरीत यदि रुझान पर निकृष्टता चढ़ रही होगी, रुझान और चिन्तन पशु−प्रवृत्तियों में रम रहा होगा। तो स्वभावतः गतिविधियाँ उसी स्तर की बनेंगी। गतिविधियाँ हेय और परिणाम में श्रेय−लोग चाहते तो कुछ ऐसा ही है, पर विधि के विधान को उल्टा कैसे किया जाय। नीचे गिरने में निरत को ऊँचा उठा देने की असम्भव प्रक्रिया सम्भव कैसे बने?
यही है सार−संक्षेप, उस मनःस्थिति के विवेचन का वो मनुष्य का स्तर–व्यक्तित्व, साथ ही भविष्य गिराती−उठाती है। वरिष्ठों का प्रवाह वरिष्ठता की दिशा में ही होना चाहिए। उन्हें समझना चाहिए कि पीड़ितों, दरिद्रों और दुखियारों की पंक्ति में आ खड़े होना, उनके लिए अशोभनीय है। ‘जो खड़े होने’ के तथ्य पर हर किसी का पूरा−पूरा ध्यान जाना चाहिए और अनुभव किया जाना चाहिए कि मनुष्य अपने भाग्य का निर्माता आप है। न किसी पर दोषारोपण की आवश्यकता है न परिस्थितियों का रोना−रोने की। व्यक्ति के उत्थान−पतन की धुरी एक ही ध्रुव केन्द्र पर टिकी हुई है कि उसने अपने को किस ढाँचे ढाला और किस दिशाधारा में बहाया। इस निर्धारण में किसी दूसरे की साझेदारी नहीं। कदम अपने उठते हैं जिस भी भले−बुरे रास्ते पर चला जाय उस पर साथी सहयोगी तो मिलते ही रहते हैं। इस दुनिया में न भलाई की कमी है–न बुराई की। पसन्दगी अपनी–हिम्मत अपनी–सहायता दुनिया की। इस तथ्य को जो समझते−स्वीकार करते हैं, वस्तुतः वे ही यथार्थवादी हैं। दूसरे तो ऐसे ही हवा के झोंकों के साथ सूखे पत्ते की तरह जिस−तिस दिशा में लुढ़कते−उड़ते कहीं से चलकर कहीं जा पहुँचते हैं। ऐसे बेपैंदी के लोटों की कोई विवेचनकर्त्ता क्यों कुछ चर्चा करेगा।
व्यक्तित्व के उत्थान−पतन से सम्बन्धित कुछ शाश्वत तथ्यों की चर्चा यहाँ इसलिए करनी पड़ी है कि किसी महान प्रयोजन के लिए लम्बी यात्रा पर निकले काफिले के सदस्यों में भटकाव आ गया है–उसके कारण और निवारण का समाधान वे स्वयं खोज सकें। भटकने वाले भटकते ही रहते हैं उन्हें कोई क्या कहे? बच्चे अनगढ़ उछल−कूद में निरत रहते हैं उनकी ओर कोई अधिक ध्यान कहाँ देता है? पर जब बड़ी आयु वाले छोटे बच्चों जैसी हरकतें करने लगें तो देखने वाले हतप्रभ होकर रह जाते हैं और उन्माद की आशंका करते हुए चिन्ता में डुबते–अस्पताल तक दौड़ने की तैयारी करते हैं। अपना काफिला वरिष्ठों का है–विशिष्टों का और विशेषज्ञों का। उन्हें बचकानी बातें सोचते और नासमझों जैसी हरकतें करते देखा जायेगा तो स्वभावतः गहरी चिन्ता होगी। चिन्ता का कारण उनकी निजी अवमानना तक सीमित नहीं है, वरन् उसके साथ जुड़े हुए उन उत्तरदायित्वों का भी प्रश्न है जो इस आपत्तिकाल में जीवन−मरण बनकर मानवी अस्तित्व और भविष्य की गरदन पर नंगी तलवार की तरह लटके हुए हैं। वरिष्ठ गिरेंगे तो फिर बचेगा क्या? सूरज डूबेगा तो सघन तमिस्रा के और कहीं कुछ रहेगा क्या?
युग बदल रहा हैं। यह कहा और माना जाय तो उसके साथ इतना और जोड़ना होगा कि यह कार्य ‘वरिष्ठों’ की अपनी निजी दिशाधारा बदलने के साथ आरम्भ होगा। प्रतिभाएँ आगे बढ़ती हैं, तो ही अनुयायियों की कतार पीछे चलती है। पतन और उत्थान का इतिहास इस एक ही पटरी पर आगे बढ़त रहा है। प्रतिभाओं को दूसरे शब्दों में अन्धड़ कहते हैं। उनका वेग जिस दिशा में जिस तेजी से बढ़ता है उसी अनुपात से तिनकों पत्तों से लेकर−छप्परों और वृक्षों तक को उड़ते लुढ़कते देखा गया है। आज की पतनोन्मुख परिस्थितियों और विभीषिकाओं का श्रेय या दोष समय के मूर्धन्यों को ही दिया जायगा। भूतकाल में भी यही होता रहा है और भविष्य में भी यही शाश्वतक्रम चलेगा। गिरता उठता तो जमाना है, पर उनके लिए वास्तविक पाप−पुण्य का बोझ उस समय की अग्रगामी प्रतिभाओं के सिर पर लदता है। उनका अग्रगमन असंख्यों में प्राण फूँकना है। वे गिरते हैं, तो ओलों की तरह समूची फसल को सफाचट करके रख देते हैं। जो चुप बैठे रहते हैं वे न शांति प्रिय कहलाते हैं न निरपेक्ष न आसक्त। आड़े वक्त में मुँह छिपाने के लिए शांति का–भजन का– ब्रह्मज्ञान का लबादा ओढ़ने वाले अपना मन भले समझालें, आपत्तिकाल की यातनायें उन्हें कभी क्षमा नहीं कर सकती। दुर्घटना, महामारी, अग्निकाण्ड आक्रमण, उत्पीड़न से संत्रस्त हाहाकारी वातावरण में जो एकान्त साधना की बात सोचे उसे ब्रह्मज्ञानी कौन कहेगा? निष्ठुर पाषाण से कम उन्हें दूसरी उपमा क्या दी जाय, यह सोचने के बाद ही कदाचित कोई दूसरा शब्द मिल सके।
यह आपत्तिकाल है। इसमें आपने धर्म का ही पालन करना चाहिए। आपत्ति धर्म का तात्पर्य है सामान्य सुख सुविधाओं की बात ताक पर रख देना और वह करने में जुट जाना जिसके लिए मनुष्य की गरिमा भरी अन्तरात्मा पुकारती है। आज किसी जागृत आत्मा को यह सोचने का अवकाश नहीं होना चाहिए कि उसके वैभव कैसे बढ़े, कुटुम्ब कैसे फैले? आज न पदवी धारी बनने की आवश्यकता है और न बढ़े आदमियों में गिने जाने के लिए चित्र−विचित्र उछल−कूद करने की। शान्ति का समय होता तो यह बाल–क्रीड़ाएँ भी किसी न किसी प्रकार दर−गुजर की जातीं। ओछे, बचकाने लोग यदि इन उथली हरकतों में उलझे रहते तो भी कोई बात नहीं थी, पर वरिष्ठों पर हेय स्तर का अवसाद चढ़ दौड़े तो इसे उनकी विशिष्टता पर लगा हुआ कलंक ग्रहण ही कहा जायगा।
प्रज्ञा परिवार को अन्य संगठनों, आन्दोलनों, सभा संस्थानों के समतुल्य नहीं मानना चाहिए। वह युग सृजन के निमित्त अग्रगामी मूर्धन्य लोगों को एक सुसंस्कारी परिकर−परिसर है। उसके सदस्यों को–प्रज्ञा परिजनों को–प्रस्तुत युग चुनौती स्वीकार करनी ही चाहिए। इस संदर्भ में किसी को भी परिस्थितियों की विषमता या अनुकूलता का बहाना नहीं गढ़ना चाहिए। व्यस्त से व्यस्त और दरिद्र से दरिद्र भी इस विषम बेला में इस प्रकार न सही तो उस प्रकार कोई न कोई ऐसी भूमिका निभा सकता है जिसे असंख्यों के लिए अनुकरणीय कहा जा सके। अमुक−अमुक उत्तरदायित्वों से निवृत्त होने के उपरान्त निश्चिन्त होने और संन्यास धारण करके लोकमंगल में लगने के स्वप्न संसार में किसी को भी नहीं विचरना चाहिए। अगले साल हम से अमुक जीवित रहेगा ही इसकी गारन्टी नहीं। जो आज की परिस्थितियों में सम्भव है बात उतनी ही सोचनी और करनी चाहिए। भविष्य में दस लाख की लाटरी खुलने पर आधा धन सदावर्त में लुटाया जायगा यह शेख चिल्ली का सपना कोई और देखे तो देखे पर प्रज्ञा परिवार के सदस्यों को ऐसे स्वप्न लोक में उड़ने की आवश्यकता नहीं। उन्हें केवल एक ही बात सोचनी चाहिए कि समय की जिस चुनौती न जागृत आत्माओं को कान पकड़कर झकझोरा है उसके उत्तर में दाँत निपोरते हैं या सीना तानना है।
काफिला लम्बा है। चलना दूर है। पर रास्ते में साथियों को भटकते देखकर दर्द होता है। मंजिल तक पहुँचते−पहुँचते क्या उंगलियों पर गिनने लायक ही कुछ साथी रह जायेंगे, इस आशंका से इन दिनों सीना धड़कता और सिर चकराता रहता है।