Magazine - Year 1982 - Version 2
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Language: HINDI
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कुण्डलिनी योग−प्रारम्भिक स्वरूप एवं प्रयोग
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साधना विज्ञान के क्रमिक सोपानों पर चढ़ते−चढ़ते जब थोड़ा और ऊपर बढ़ते हैं तो कुण्डलिनी योग का उच्चस्तरीय साधना क्रम के अंतर्गत नाम लिया जाता है। इस साधना क्रम के अंतर्गत नाम लिया जाता है। इस साधना विशेष के विषय में जन−मानस में बड़े व्यापक स्तर पर भ्रांतियां प्रचलित हैं। यह अपरिमित ऊर्जा केन्द्र जो मानवी काय−कलेवर के अन्तराल में सूक्ष्म रूप में अवस्थित होता है, कितना शक्तिशाली है वे विभिन्न साधना−प्रक्रियाओं माध्यम से इस योग साधना को संपादित कर कितनी कुछ सिद्धियाँ−विभूतियाँ हस्तगत की जा सकती हैं, इस पक्ष पर विस्तृत विवेचन करने से पूर्व इस ध्यान योग की एक प्राथमिक जानकारी ले लेना समीचीन होगा।
योग के 84 प्रकार बताये गये हैं परन्तु महत्वपूर्ण व उच्चस्तरीय क्रम में गिने जाने योग्य तो मात्र बारह हैं। राजयोग, हठयोग, लययोग, प्राणयोग, ऋजुयोग, नादयोग, भक्ति योग, ज्ञानयोग, कर्मयोग, स्वरयोग, मन्त्रयोग तथा तन्त्रयोग। इन्हें प्रकारांतर से कुण्डलिनी जागरण साधना का ही माध्यम माना जाता है। इस प्रकार महत्वपूर्ण साधनाओं का निचोड़ एक ही पद्धति में समाविष्ट है और यही उसकी विशेषता है।
तन्त्र और योग–इन दो रूपों में साधना के वट वृक्ष की दो प्रधान शाखाएँ हैं। एक वाममार्ग, आगम या भौतिक सिद्धियों का क्षेत्र कहलाता है तो दूसरा दक्षिण मार्ग, निगम या आत्मिक ऋद्धियों की विद्या है। तन्त्र पक्ष को मानने वाले कहते हैं कि शरीर और मन में अजस्र शक्ति का भाण्डागार छिपा पड़ा है। हठयोग प्रधान तीव्र स्तर के साधना कर्मकाण्डों से इस शक्तिस्रोत को कुरेदा, उभारा और विकसित किया जाता है। इससे साधक की भौतिक सामर्थ्य तो बढ़ती ही है, आत्मिक उत्थान का पथ भी प्रशस्त होता चला जाता है। इस मार्ग का श्रेयार्थी कर्मकाण्डों के माध्यम से ही शरीर और मन को साधने की चर्चा करते हैं।
दूसरा पक्ष सौम्य है। दक्षिण मार्ग या निगम पथ को मानने वाले भौतिक प्रगति को कम तथा आत्मिक प्रगति को प्रमुख मानते हैं। हठयोग के स्थान पर वे ध्यानयोग को प्रमुखता देते हैं तथा इसी शक्ति केन्द्र को विकसित कर अनन्त आनन्द तथा विभूतियों की प्राप्ति इससे होती बताते हैं। इन दोनों ही मार्गों का समन्वय−सन्तुलन जिस एक साधना पद्धति में है उसका नाम है कुण्डलिनी योग। जहाँ ब्रह्मविद्या के पथ पर चलकर लक्ष्य की ओर बढ़ने वालों के प्रसुप्त के जागरण का लक्ष्य इससे सधता है, वही तन्त्र विज्ञानियों द्वारा इच्छित भौतिक प्रगति की सम्भावनाएँ भी इससे पूरी होती हैं। दोनों पक्षों के समन्वय से बनी यह उच्चस्तरीय योग साधना अपने आप में पूर्ण व समग्र है। सर्वप्रथम साधकों को इस योग साधना पर तन्त्र की मोहर लगने के कारण फैली भ्रान्तियों को मिटाकर इसकी प्राथमिक जानकारी ले लेना अभीष्ट होगा।
योग साधना के तत्ववेत्ता बताते हैं कि शरीर अपने आप में अद्भुत−अपरिमित शक्ति का भण्डार है। नित्य ही यह ब्राह्मी अनुदान के माध्यम से शक्ति अवशोषित करता तथा उपार्जन योग्य प्राण शक्ति को पचा व संग्रहित कर शेष वातावरण में छोड़ देता है। उसकी शक्ति जिन प्रयोजनों में अनावश्यक अपव्यय होती रहती है उसे यदि बचा लिया जाय और उसे सही दिशा में नियोजित कर दिया जाय तो साधना का प्रयोजन पूरा हो जाता है व प्रसुप्त शक्तियों को उभारना सम्भव बन पड़ता है। शक्ति ग्रहण का माध्यम तो प्राणाकर्षण प्रक्रिया है जो स्थूल रूप से श्वास प्रक्रिया के माध्यम से, पाचन प्रक्रिया के माध्यम से तथा सूक्ष्म रूप से विचार तरंगों व सूक्ष्म प्राण प्रवाह के रूप में सतत् सम्पादित होती रहती हैं। शक्ति अपव्यय की जानकारी होना बहुत अनिवार्य है। मनीषी तीन मार्ग बताते हैं जहाँ से सर्वाधिक शक्ति −क्षरण होता है। प्रथम तो जीविका उपार्जन के अनेकानेक प्रयोजन जिनमें परिवार का संचालन, सुव्यवस्था, श्रम, नित्य कर्म, जन संपर्क आता है। दूसरा मार्ग जहाँ से शक्ति का सर्वाधिक अपव्यय होता है– मानवी मन है जतो पढ़ता है, सोचता है, अनेकानेक आवेगों को जन्म देता है। इन्द्रिय भोग से जो शक्ति क्षरण होता है उसका प्रेरणा स्रोत भी मन है। शोक-भय-तनाव-अहंता-तृष्णा-संशय-आवेश जैसे आवेग मस्तिष्क की ही देन हैं जो बहुसंख्यक व्यक्तियों के शक्ति भण्डार को खाली कर देते हैं। तीसरा अन्तिम अपव्यय छिद्र है–शरीर का स्वचालित (आटोनॉमिक) स्नायु संस्थान। अनचाहे–बिना हमारे नियन्त्रण के जो गतिविधियाँ शरीर में चलती हैं, रक्त संचार से लेकर रस स्रावों तथा आहार पाचन से लेकर विसर्जन प्रक्रिया तक के मूल में अचेतन मस्तिष्क की गतिविधियों का ही प्राधान्य होता है। ये प्रेरणाएँ इतनी तीव्र होती हैं कि इन पर नियन्त्रण अनसधे मन व साधारण काया वाले मनुष्य से सम्भव नहीं। चाहते हुए भी शरीर व मन पर नियन्त्रण बन नहीं पाता व संग्रहित शक्ति समाप्त होती चली जाती है।
शरीर, मस्तिष्क व नाड़ी संस्थान ये तीन जीवन शक्ति उत्सर्जन के केन्द्र हैं। अलग-अलग जीवधारियों में विशिष्ट अनुपात में इन तीनों से सतत् अधोगामी प्रवाह रहता है। मात्र मनुष्य को ही यह विशेषता प्राप्त है कि वह इन तीनों पर आँशिक–नियन्त्रण स्थापित कर इस संग्रहित ऊर्जा को विशिष्ट प्रयोजनों में लगा सकता है। पानी रोककर बाँध बना लेना ही काफी नहीं है। उसे ऊंचाई से नीचे गिराकर शक्तिशाली टर्बाइन्स उस प्रवाह से चलाये जाते हैं तो अक्षय विद्युत भण्डार उसी साधारण से जल से उफन पड़ता है। शक्तियों के प्रवाह को रोक लेने भर से काम नहीं चलता–उन्हें सुनियोजित करना होता है ताकि अभीष्ट उद्देश्य पूरा हो सके। कुण्डलिनी योग साधना द्वारा यही प्रक्रिया सम्पादित की जाती है। जहाँ तन्त्र मार्ग कहता है कि अचेतन मन–नाड़ी संस्थान पर नियन्त्रण कर महासर्पिणी कुण्डलिनी को जगाया जाय, वहीं दक्षिण मार्ग की मान्यता है कि अचेतन मन पर नियन्त्रण तो स्थूल शक्तियों का नियमन पंच भौतिक क्रिया−कलापों का सम्पादन भर है। इससे तो मात्र साँसारिक प्रयोजन पूरे होते हैं। इससे जन्म लेने वाले चमत्कार कौतूहल भर दिखाते हैं, आत्मिक प्रगति की दिशा में सहायक नहीं होते।
दक्षिणमार्ग व वाममार्ग का सन्तुलन बिठाते हुए कुण्डलिनी योग प्रतिपादन करता है कि मौन, ब्रह्मचर्य, उपवास, विश्राम आदि से जहाँ शरीर शक्ति के व्यय को बचा सकते हैं, प्रत्याहार−धारणा−ध्यान, समाधि आदि के द्वारा मन के कारण होने वाले शक्ति क्षरण को रोका जा सकता है। उसी प्रकार अचेतन नाड़ी संस्थान को सुनियोजित कर इड़ा−पिंगला−सुषुम्ना के प्रवाह का नियमन कर कुण्डलिनी जागरण का प्रबल पुरुषार्थ सम्पादित किया जा सकता है। यही शक्ति का वास्तविक सुनियोजन है। जहाँ वाम मार्ग शरीर, मन की गतिविधियों को महत्व नहीं देता वहाँ कुण्डलिनी योग संयमजन्य सामर्थ्य को प्रसुप्त की जागृति में अचेतन को मोड़ देकर अधोगामी प्रवाह को ऊर्ध्वगामी बनाने की सम्भावनाओं का उद्घाटन करता है।
इन सभी तथ्यों, प्रतिपादनों से स्पष्ट होता है कि जहाँ स्थूल शरीर की सामर्थ्य को हठयोग, तन्त्रयोग व क्रियायोग जैसे माध्यमों से प्रसुप्त भौतिक सामर्थ्यों को जगाया जाता है वहाँ दूसरी ओर कुण्डलिनी योग की साधना द्वारा आत्मिक प्रगति का साधन पूरा किया जाता है। बात भी सत्य है। आत्मिक प्रगति की उपेक्षा करके अर्जित की गयी भौतिक सामर्थ्य किस काम की? आत्मा ही वह स्रोत है जहाँ से आकांक्षाएं एवं उच्चस्तरीय प्रेरणाएँ जन्म लेती हैं। जब तक इस अन्तःक्षेत्र में अन्धकार छाया रहेगा आत्मोन्नति की बात बनेगी नहीं। मनीषी इसी कारण समन्वित साधना पद्धति से रूप में कुण्डलिनी योग की साधना बताते हैं जिससे दोनों ही प्रयोजन भौतिक व आत्मिक सधते हैं और मुक्ति का पथ प्रशस्त होता है।
यह तो कुण्डलिनी योग का भूमिका पक्ष हुआ तथा वह विवेचन जिससे यह जाना जा सके कि साधनाओं की भूल−भुलैया में कौन−सा पथ क्या है? जब कुण्डलिनी विज्ञान की विशद विवेचना की बात आती है तो का पहलू सामने आते हैं जिन पर प्रकाश पड़ना अनिवार्य है। सूक्ष्म रूप में अवस्थित इस शक्ति संस्थान का निवास, इसे जगाने की प्रक्रिया, परिणतियों–प्रतिक्रियाओं को समझ सकने योग्य विवेक−बुद्धि का विकास तथा जागरण के बाद अन्तिक लक्ष्य–कुछ ऐसे अध्याय हैं जिन पर क्रमशः विस्तृत विवेचन किया जाना है। साधकगण इसे पहले भी इस पत्रिका में पढ़ते रहे हैं, परन्तु इसके समग्र स्वरूप को बोधगम्य बनाया जा सके, यह प्रयास अब किया जा रहा है।
कुण्डलिनी योग की एनोटॉमी का जब जिक्र करते हैं तो यह तथ्य हृदयंगम किया जाना जरूरी है कि अध्यात्म शास्त्र में जहाँ भी शरीर विज्ञान का वर्णन आया हैं, वह विशुद्ध रूप से सूक्ष्म संरचना की विवेचना है। स्थूल काया में तो उसकी प्रतीक छाया ही देखी जा सकती है–उन्हें एक प्रकार का ‘सिम्बल’भर माना जा सकता है। शरीर विच्छेद कर यदि षट्चक्रों को ढूँढ़ने लगें तो यह प्रयास निराशाप्रद तथा हास्यास्पद होगा। सूक्ष्म विद्युत्प्रवाहों को – भंवर−चक्रवातों को इन चर्म चक्षुओं से नहीं देखा जा सकता।स्थूल अंगों से तो मात्र उन सूक्ष्म शक्तियों की निकटता का आभास मात्र मिलता है।
मानवी काय सत्ता में दो ध्रुव प्रदेश हैं जैसे पृथ्वी पर उत्तरी तथा दक्षिणी ध्रुव हैं। उत्तरी शक्ति केन्द्र मस्तिष्क के बीचों−बीच स्थित ब्रह्मरंध्र है तो दक्षिणी शक्ति केन्द्र जननेन्द्रिय मूल में स्थित मूलाधार। आध्यात्मिक संरचना की दृष्टि से इन दो ऊर्जा केन्द्रों का ही सर्वाधिक महत्व है। त्वचा, आंखें, वाणी, उँगलियाँ व जननेन्द्रियों का बाह्य स्वरूप वे अवयव विशेष हैं, जहाँ से शक्ति धाराएँ बाहर की ओर विस्सृत होती हैं व आसपास के वातावरण को प्रभावित करती है। पृथ्वी पर जो प्राण रूपी जीवन है उसका मूल स्रोत है–ब्रह्मांड में संव्याप्त चेतन प्रवाह। पृथ्वी भी साँस लेती –अवशोषित करती व छोड़ती है। उत्तरी ध्रुव से जो भी आवश्यक है, ग्रहण कर लिया जाता है तथा अवशिष्ट दक्षिणी ध्रुव से होकर अन्तरिक्ष में वापस फेंक दिया जाता है। इसी कारण हिमाच्छादित इन ध्रुव प्रदेशों को अत्यन्त महत्वपूर्ण माना गया है। वैज्ञानिक शोध की दृष्टि से तो इनकी महत्ता सर्वविदित है ही। यदि यहाँ थोड़ा−सा भी हेर−फेर होने लगे तो उसका प्रभाव मौसम की प्रतिकूलता के रूप में सारे पृथ्वी के वायुमण्डल पर होता है। ठीक इसी प्रकार मानवी काया के दोनों ध्रुव चेतना क्षेत्र में अपनी भूमिका सम्पादित करते हैं। इन दोनों ध्रुवों को मिलाने पर सुषुम्ना रूपी जो प्रवाह मेरुदण्ड क्षेत्र में बनता है–वह सारा स्वरूप मिलकर कुण्डलिनी शक्ति का सूक्ष्म ढाँचा बनाता है। कहा जाता है कि यह शक्ति प्रवाह सर्पिणी की तरह है जिसकी पूछे नीचे है व फन ऊपर। मल−मूत्र छिद्रों के मध्य अवस्थित क्षेत्र जिसे कूर्म या मूलाधार कहते हैं– एक विलक्षण प्रकार की आत्म तड़ित का निवास स्थान है। यह महासर्पिणी की पूँछ वाला क्षेत्र हुआ। दूसरा सिरा मस्तिष्क के मध्य स्थित ब्रह्मरंध्र है जहाँ की बनावट इस प्रकार की है मानो एक विद्युत का फव्वारा छूट रहा हो अथवा एक केन्द्र के चारों ओर आरी के छोटे−छोटे दाँते हों। इसे सहस्रार कमल कहते हैं। इसे महासर्पिणी का फन वाला क्षेत्र कह सकते हैं। इन दोनों के बीच में जो सर्प की काया विद्यमान है वह सुषुम्ना प्रवाह है जो ‘स्पायनल कार्ड ‘ के अन्दर सूक्ष्म रूप में विद्यमान है तथा जिसके दोनों ओर इड़ा व पिंगला रूपी सतत् प्रवाह गतिमान हैं।
जब किसी फुलझड़ी को जलाया जाता है तो चिनगारियाँ उड़ने लगती हैं। इसी प्रकार दोनों ध्रुव केन्द्रों के मिलन से मूलाधार–सहस्रार के मिलन संयोग से एक दिव्यधारा प्रवाहित होती है जिसे कुण्डलिनी शक्ति कहते हैं। समस्त सिद्धियों की बीज स्थली यह प्रवाह स्फुरित जागृत व गतिमान होने पर साधक को अतिसमर्थ बनाता चला जाता है। इस विद्युत की तुलना में सारे संसार के बिजली घर जो जड़ विद्युत उत्पन्न करते हैं, कहीं सानी नहीं रखते। शरीर का यह कुंडलिनी विद्युत्भण्डार जड़ और चेतन, भौतिक और आत्मिक दोनों प्रकार की शक्तियों का अलौकिक समन्वित स्वरूप है।
मूलाधार केन्द्र–शरीर के दक्षिणी ध्रुव प्रदेश को अग्नि स्वरूप माना गया है।कुण्डलिनी महाशक्ति का परिचय देते हुए कहा गया है कि वह अग्नि कुण्ड में सुप्त सर्पिणी की तरह पड़ी हुई है। दूसरी ओर उत्तरी ध्रुव सहस्रार चक्र को अमृत कलश कहते हैं। वहाँ से सतत् कलश कहते हैं। वहाँ से सतत् सोमरस प्रवाहित होने का उल्लेख मिलता है। इस अमृत स्राव का प्रवाह अधोमुखी है। यह कुण्डलिनी मूल तक जाता है। कुण्डलिनी जागरण का उद्देश्य है–प्रसुप्त घड़ी विष उगल रही– वासना की जलन में तड़प रही सर्पिणी को अमृत रस का पान कराना–उसके प्रवाह को ऊर्ध्वगामी बनाना। इस अलंकारिक चित्रण के पीछे दर्शन यही है कि निरन्तर शक्ति अपव्यय के माध्यम से हम जिस प्रवाह को पतनोन्मुख बनाये रखते हैं–उसे योग साधना रूपी पुरुषार्थ से हम ऊपर भी उठा सकते हैं। अमृत रस अर्थात्–अक्षय आनन्द। आत्मिक रसानुभूति से बढ़कर कोई और आनन्द नहीं। जीव का प्रतीक स्वरूप है प्रसुप्त पड़ी मूलाधार अवस्थित कुण्डलिनी और इसका मिलन जब परमेश्वर रूपी सहस्रार से होता है तो अद्वैत मुक्ति की स्थिति आती है। जीव वासना की तपन में जलता रहता और शरीर−मन की दिव्य सम्पदा को विनष्ट करता रहता है। इस जलन का समाधान सोमरस पान से–आत्मिक रसास्वादन से–बौद्धिक एवं भावनात्मक उत्कृष्टता की दिव्यानुभूति से ही सम्भव है।
कुण्डलिनी के दो छोरों में मूलाधार के साथ ‘कन्द ‘ शब्द की चर्चा शास्त्रों में होती रहती है। स्थूल शरीर में इसका प्रतिनिधि है–सुषुम्ना का निचला सिरा ‘काँडा इक्वाइना’। ‘काँडा’ अर्थात् पुँछ, ‘इक्वाइना’ अर्थात् घोड़ा। मेरुदण्ड मस्तिष्क से प्रारम्भ होकर अन्तिम कशक्का तक जाता है व वहाँ समाप्त होकर धागों−फ इबर−फि लामेण्ट्स का स्वरूप ले लेता है। इन नाड़ी तन्तुओं से ही वह विद्युत्प्रवाह निकलता है जो मूलाधार स्थित चक्र−संस्थान बनाता है। यही घोड़े की पूँछ के आकार का अवयव सूक्ष्म शरीर के ‘कन्द’ का प्रतिनिधिक कहा जाता है। एनोटॉमी विज्ञान की दृष्टि से यह मल−मूत्र छिद्रों का मध्य भाग है। मूलाधार का अर्थ जड़ सहायक−मूलभूत शक्ति आधार। चूँकि यह सूक्ष्म है इस कारण अदृश्य है। यही प्राण का उद्गम केन्द्र है। इसके शरीर रचना विज्ञान के विस्तार में जाने का तो अभी अवसर है भी नहीं। फिर भी इतना कहा जा सकता है कि प्रोस्टेट,ग्लैण्ड, लम्बर−सेक्रल फ्लेक्सस (नाड़ी गुच्छक), जननेन्द्रिय अंग, सुषुम्ना का निचला हिस्सा (काँडा इक्वाइना) तथा वहाँ स्थित आटोनॉमिक गेन्गलियान मिलकर जो जटिल रचना बनाते हैं वह अपने आप में एक जेनरेटर हैं। यहीं से खुला छोड़ने पर जीवनी शक्ति का अपव्यय तथा निरोध करने पर शक्ति संचय, स्फुरण तथा जागरण की प्रक्रिया होती है जो विभिन्न ध्यान योग की साधनाओं के सम्पुट से ऊर्ध्वगमन में परिणति होती है।
जीवनी शक्ति, उमंगें, क्रिया शक्ति,उत्साह आदि का केन्द्रस्थल यही मूलाधार का कन्द कुण्ड है। यहाँ से जाज्वल्यमान ज्योति ऊपर उठती हुई स्वाधिष्ठान, मणिपरित, नाभिचक्र, हृदय कमल के अनाहत चक्र, विशुद्धि चक्र, भ्रूचक्र, आज्ञा चक्र में विभिन्न रूपों में प्रस्फुटित होती– सहस्रार चक्र में पहुँचती है। यहाँ पर रेटिकुलर एक्टीवेटिंग सिस्टम (चेतना के लिये उत्तरदायी संस्थान) को उत्तेजित कर वह प्रसुप्त पड़े केन्द्रों को जगाती है तथा सिद्धियों व ऋद्धियों का द्वार खोलती है। योग कुण्डल्धुपनिषद्, शारदा तिलक, ज्ञानार्णत तन्त्र, कुनार्णव तन्त्र, घटचक्र निरूपण, तन्त्रसार, शिव संहिता जैसे कुण्डलिनी शक्ति के माहात्म्य व जागरणजन्य परिणतियों के वर्णन से भरे पड़े हैं।
कुण्डलिनी जागरण की साधना काम−बीज के प्रतीक मूलाधार और ज्ञान−बीज के प्रतीक सहस्रार के मिलन संयोग की दिव्य प्रक्रिया है। इस साधना में भौतिक व आत्मिक शक्तियों के स्वाभाविक पारस्परिक शिथिल सम्बन्धों को सघन बनाया जाता है। दानों के मध्य आदान−प्रदान की गति तीव्र बनायी जाती है। मेरुदण्ड रूपी महामार्ग के माध्यम से मही प्रयाण की ऊर्ध्वगमन की देवयान प्रक्रिया इसी साधना द्वारा सम्पादित की जाती है।
आत्मोत्कर्ष की साधना के अनेकानेक प्रसंगों में विज्ञान सम्मत प्रक्रिया कुण्डलिनी जागरण की है। शरीर विज्ञान, मनोविज्ञान तथा सूक्ष्म अध्यात्म विद्या के महत्वपूर्ण सिद्धान्तों का इसमें अद्भुत समावेश है। उच्चस्तरीय साधना−पथ पर चलने वाले हर साधक को इसकी समुचित जानकारी होना चाहिये।