Magazine - Year 1982 - Version 2
Media: TEXT
Language: HINDI
Language: HINDI
खिलाकर खाना ब्रह्म रहस्य
Listen online
View page note
Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
कक्षसेन पुत्र अभिप्रतारी और शोनिक का पेय प्रीतिभोज का रसास्वादन ले ही रहे थे कि एक ब्रह्मचारी द्वार पर आ पहुँचा, बड़े अधिकारपूर्वक उसने द्वार खटखटाया और कहा–”अन्न तो मुझे भी चाहिए।”
अभिप्रतारी ने कहलवा दिया–”अपने पकवानों का उपयोग हम स्वयं करेंगे, उसमें से भाग किसी को नहीं बांटेंगे।” भिक्षुक द्वार पर ही बैठा रहा। आचमन करके वे लोग जब बाहर आये तो ब्रह्मचारी ने उनसे पूछा–”एक देवता है जो चार ऋषियों को खा जाता है। अन्न उसी की तृप्ति के लिये पकाया गया था। फिर तुम लोगों ने अकेले ही क्यों खा लिया? उसे क्यों नहीं दिया?”
शोनिक, कापेय और काक्षिसेन सन्न रह गए। उनने विस्मित होकर पूछा–”भला चार ऋषियों को खाने वाला देव कौन है? और कैसे, कौन उसके लिए अन्न पकाता है। हमने तो पेट भरने के लिए ही पकवान बनाए थे। आप जो भी कुछ कह रहे हैं, इसकी जानकारी हमें नहीं है। हे ब्रह्मचारी! कृपया हमारी धृष्टता को क्षमा करते हुए हमारा समाधान करें।”
ब्रह्मचारी ने कहा–”सब में समाया हुआ सूत्रात्मा प्राण ही वह देव है। जल, पवन, अग्नि और यह पदार्थ उसी के ऋषि अन्न हैं। जो कुछ इस संसार में दृश्यमान है, वह समष्टिगत सूत्रात्मा के लिए बनाया गया है।” ब्रह्मचारी ने अपनी बात को और भी स्पष्ट करते हुए कहा–”शरीर में वाणी, चक्षु−श्रोत्र और मन ये चार ऋषि हैं। यह चारों और व्यापक ब्रह्म सत्ता की समष्टि आत्मा के लिए ही बनाए गये हैं।
अभिप्रतारी युगल सार्श्चय यह सब सुन रहे थे। उनके कौतूहल का समाधान करने की दृष्टि से ब्रह्मचारी से पूछा–”क्या आप लोगों ने रैक्य ऋषि की रहस्य विद्या के सम्बन्ध में कभी कुछ पढ़ा सुना नहीं। वे कहते रहे हैं समस्त प्राणधारी–एक ही महाप्राण के अविच्छिन्न घटक हैं। एक−एक ही सूत्र में पिरोये हुए हैं। यह जो कुछ उपार्जन होता है, महाप्राण के लिये वही सर्व सम्पदाओं का उत्पादक है और वही उपभोक्ता से पहला अधिकार उसी का है। पीछे घटक उत्पादक का।”
“मैं भी उसी महाप्राण का एक घटक हूँ, जिसके आप लोग हैं। मेरी भूख की अनुभूति तुम्हें भी होनी चाहिए थी? महाप्राण की संवेदनाओं का ध्यान रखे बिना तुम क्यों खाते रहे? क्या यह उचित था। महाप्राण की तृप्ति के लिए–यह अन्न पकाया गया था–प्राण ने माँगा–फिर प्राणों को क्यों नहीं दिया गया?”
छान्दोग्योपनिषद् के रचियता ने इस कथानक के मर्म को और भी अधिक स्पष्ट करते हुए कहा है–”वही महान महिमा वाला महाप्राण समस्त अन्नों का उपभोक्ता है। वही सबको खाता है। उसे कोई नहीं खाता।”
उपार्जन और उपभोग का मूल अधिकारी समष्टिगत सूत्रात्मा है। उस विश्व मानव का
भाग उसे प्रदान करते हुए ही अपनी तृप्ति करनी चाहिए। इस प्रकार जो खाना जानता है, वही सच्चे अर्थों में मानव है। “अन्ना दो भवति य एवं वेद” जो खिलाकर खाता है, वही खाने का रहस्य जानता है।
कपि गोत्रज शोनिक और कक्षसेन पुत्र अभिप्रतारी की आँखें खुल गयीं। उसने ब्रह्मवेत्ता ब्रह्मचारी को नमन किया, ज्ञान चक्षु खोल देने के लिये अपनी कृतज्ञता प्रकट की और सेवकों से ब्रह्मचारी को तृप्त करने को कहा वे बोल उठे–”आपने हमारी विस्मृति हटा दी। भविष्य में हम खिलाकर ही खाया करेंगे।