Magazine - Year 1984 - Version 2
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Language: HINDI
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शरीर को देव मन्दिर बनायें
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शरीर क्या है? इसकी कितनी ही व्याख्याएँ हो सकती हैं। प्रत्यक्षतः यह मल-मूत्र की गठरी है। श्वास स्वेद आदि के द्वारा हर घड़ी दुर्गन्ध बाहर निकलती रहती है। इसे हर घड़ी स्वच्छ न रखा जाये तो थोड़े समय में ही इस गन्दगी के अम्बार लग जाते हैं। बीमार पड़ने की नौबत आ जाती है। दूसरों को समीप बिठाने या बैठने में घृणा लगने लगती है।
दूसरे अर्थों में इसे देखा जाय तो वह भगवान का सर्वोपरि उपहार है। इससे बहुमूल्य वस्तु जीवधारी को देने के लिए उनके पास और कोई है ही नहीं। यह स्वर्ग नसैनी है और वैतरणी की मझधार में डुबोने वाली नाव भी। सदुपयोग करने पर मनुष्य महामानव, देवता या ऋषि बन सकता है। दुरुपयोग करने पर प्रेत, पिशाच, दैत्य, दानव बन सकता है। नासमझों के लिए यह इतना भारी शकट है जिसे घसीटना दुष्कर पड़ता है। सुयोग्यों के लिए यह पुष्पक विमान है जिस पर बैठकर लोक-लोकान्तरों की सैर करते हुए ब्रह्मलोक तक जाया जा सकता है।
मनुष्य शरीर की प्रशंसा में कहा जाय तो बहुत कुछ कहा जा सकता है। इसका दृश्य कलेवर उन पाँच तत्वों से मिल कर बना है जिन्हें पाँच देवता कहते हैं। अग्नि, वायु, जल, पृथ्वी तथा आकाश। इन देवताओं की देवपूजन के पुण्य प्रयोजन में सर्वप्रथम पूजा होती है। इन्हीं से सारा संसार बना है। इन्हीं से प्राणियों, वनस्पतियों और पदार्थों की संरचना हुई है। इसी से इन्हें सृष्टि का कर्त्ता कहा गया है। यह पांचों मानव शरीर में प्रत्यक्ष उपस्थित हैं। इसलिए इसकी जितनी भी प्रशंसा की जाय उतनी ही कम है।
मानवी चेतना की संरचना पाँच प्राणों से हुई है। इन्हें तत्व देवताओं में उच्च श्रेणी का कहा गया है। इन देवताओं के नाम इस प्रकार गिनाये गये हैं।
सदा भवानी दाहिनी, सम्मुख रहे गणेश।
पाँच देव रक्षा करें, ब्रह्मा, विष्णु, महेश ॥
ब्रह्मा, विष्णु, महेश, भवानी और गणेश यह पाँच प्राण हैं। जीव चेतना का निर्माण संचालन इन्हीं के द्वारा होता है। पाँच तत्व और पाँच प्राण मिलकर दस देवता हुए। इन सभी को मिलाकर दश दिग्पाल भी कहा जाता है। यह मानव काया की श्रेष्ठता हुई। सूक्ष्म शरीर में कुण्डलिनी, सहस्रार, ब्रह्मरन्ध्र, षट्चक्र, ज्ञानेन्द्रियाँ, उपत्यिकाएँ बताई गई हैं। यह शक्तियों की, सम्पदाओं विभूतियों की भाण्डागार हैं। जब तक यह प्रसुप्त स्थिति में है तब मृतक मूर्च्छित मानी गई हैं। किन्तु जब यह जागृत हो जाती हैं तब इनके चमत्कार वरदान देखते ही बनते हैं। इनमें से जो जिन्हें सिद्ध कर लेता है वह उतना ही बड़ा सिद्ध पुरुष बन जाता है। साथ ही यह भी कि जो दुर्व्यवहार द्वारा जिसे जितना क्रुद्ध कर देता है उसके देवता भी उतने ही अधिक क्रुद्ध हो जाते हैं और इस क्रोध के कारण मनुष्य स्वयं दुःख पाता है, बदनाम होता है तथा दूसरों को दुःख देने, गिराने की दृष्टि से पशु पिशाच एवं दैत्य दानवों की गणना में गिना जाता है। हर हालत में मानवी सत्ता असाधारण है यह मनुष्य के अपने हाथ की बात है कि इन्हें जिस भी प्रयोजन में चाहें व्यवहार करे। उत्थान या पतन में से जो जिसे भी चुनना चाहे, चुन सकता है। इस रूप में भगवान का वरदान इतना बड़ा मिला है कि अपने सौभाग्य और भगवान के अनुग्रह को जितना भी सराहा जाय उतना ही कम है।
काय कलेवर में सन्निहित देवताओं में से इन पंक्तियों में एक की चर्चा विशेष रूप से की जा रही है। इसका नाम है ‘वाक्’ देवता। बोलचाल की भाषा में इसे जिव्हा कहते हैं। ज्ञानेन्द्रियों की गणना करते समय इसे रसना और वाणी दो की संख्या में गिना जाता है। यह इसका दुहरा उपभोग है जबकि अन्य इन्द्रियों का एक-एक प्रयोजन ही गिना जाता है। जिव्हा अर्थात् भोजन का प्रयोजन पूरा करने वाले- स्वादेन्द्रिय- रसना। दूसरा बोलचाल में काम आने वाली वाक्- वाणी।
अध्यात्म शास्त्रों में जिव्हा को सरस्वती कहा गया है। विशुद्ध होने पर जब यह बोलती है तो अपने लिए वशीकरण मन्त्र का काम देती है। जो भी इसके परिष्कृत वचन सुनता है- वशीभूत हो जाता है। इसके स्वर सरस्वती की वीणा के समान हैं, जो अपने को भी और दूसरों को भी मन्त्र मुग्ध कर देते हैं। साथ ही ज्ञान की वर्षा भी करते हैं। सरस्वती ज्ञान के वरदान देती है। यह परिष्कृत जिव्हा का काम है कि जो भी संपर्क में आवे। जो भी अमृत वचनों को सुनें वह श्रेय पथ पर चले, उत्कर्ष की प्रेरणा प्राप्त करे।
धन्वन्तरि का अमृत कलश जिव्हा में सन्निहित है। यह सौम्य, सात्विक, सीमित आहार करती है तो स्वास्थ्य के सुरक्षित रखने का उत्तरदायित्व निभाती है। जिसकी जिव्हा वश में है, उसका स्वास्थ्य बिगड़ने जैसा कोई भय नहीं है। प्रत्येक प्राणी अपना आहार ताजे हरे रूप में उदरस्थ करता है। पकाने की पाक विधा विषवत् मानकर उससे दूर रहता है। ऐसा तो कोई भी जीवधारी इस पृथ्वी पर नहीं जो अपने आहार में मिर्च, मसाले, खटाई, मिठाई चीजें बाहर से मिलाता हो। तलता, पकाता, भूनता हो। जिव्हा को चटोरी बना देने पर ही वह नशेबाजों की तरह अभक्ष्य माँगने लगती है। उसकी टेव न बिगाड़ी जाय तो फल, शाक या अंकुरित धान्य उसके लिए समुचित पुष्टाई प्रदान करते हैं। न पेट को खराब होने देते हैं और न अपच के कारण सड़न उत्पन्न होने- पाचन तन्त्र खराब होने और बीमारियों का सिलसिला चल पड़ने जैसा अनर्थ नियोजित करते हैं।
यदि पाश्चात्य विकासवाद को ही सही मान लिया जाय तो मनुष्य बन्दर की जाति का है। बन्दर न कभी मसालों की माँग करता है और न तलने भूनने का अनर्थ करता है। फलस्वरूप जो भी रूखा सूखा प्राकृतिक आहार मिल जाता है, उसी के बलबूते कुदकता-फुदकता फिरता है। मनुष्य की सबसे बड़ी शत्रु पाक विधा है। यदि वह उसे भुला दे तो स्वास्थ्य की दृष्टि से नव जीवन प्राप्त करे। जिस प्रकार नशेबाज की आदत बिगाड़ देने, तरह-तरह के स्वाद माँगने का चटोरापन अपनाने के कारण ही मनुष्य दुर्बलता, बीमारी तथा अकाल मृत्यु का ग्रास बनता है। जिव्हा की आदत-बिगाड़ देना उसके साथ अत्याचार करना है।
इसी प्रकार वाणी की बात है। उससे नम्रता, विनय शीलता, सज्जनता और मिठास भरे वचन बोले जाय तो कलह का प्रश्न ही न उठे। आये दिन के झगड़े झंझट खड़े न हों। लड़ाई-झगड़े के पीछे वास्तविक कारण तो बहुत कम होते हैं। जो होते हैं, वे समझदारी भरे विचार विनिमय से आसानी से सुलझाए जा सकते हैं। कलह का प्रधान कारण कटु भाषण ही है। अपना अहंकार जताना और दूसरे का सम्मान गिराना, यही वह कारण है जिसके कारण मनुष्य दूसरों की दृष्टि में गिरता है और कोप का भाजन बनता है।
कटु वचन विष वृक्ष की तरह है जिस पर बिच्छू के डंक जैसे काँटे लगते हैं। छाया में बैठने से खुजली मचती है और फल-फूल प्राण घातक ही होते हैं। निर्दोष होते हुए भी कटुवचन बोलने वाले को ही सब लोग दोषी ठहराते हैं। उसके साथ कोई सहानुभूति नहीं बरतता।
वाणी का गुण एकमात्र मिठास ही नहीं यह भी है कि जो कहा जाय सच्चाई और भलाई से जुड़ा हो। झूठे, छलयुक्त, दूसरों को गलत सलाह देने वाले और पतन के मार्ग पर धकेलने वाले वचन मीठे होते हुए भी त्याज्य हैं। वाणी को सरस्वती कहा गया है। उसकी झंकार सितार जैसी, कला मोर जैसी होनी चाहिए। साथ ही जो कहा जाय सार्थक, ऊँचा उठाने वाला और यथार्थता युक्त होना चाहिए। गपबाजी, दिल्लगीबाजी, मखौल जैसे दुर्गुण वाणी में नहीं मिलने चाहिए।
जिस प्रकार अन्य देवताओं की साधना करके उनसे वरदान प्राप्त किए जाते हैं उसी प्रकार सरस्वती की प्रतिनिधि जिव्हा से भी सात्विक अस्वाद भोजन की और मधुर हितकारी वचन बोलने की साधना करनी चाहिए। जो ऐसी साधना कर लेते हैं वे उसका प्रत्यक्ष वरदान प्राप्त कर लेते हैं। यही बात शरीर में अवस्थित अन्य देवताओं की साधना के सम्बन्ध में भी है।