Magazine - Year 1984 - Version 2
Media: TEXT
Language: HINDI
Language: HINDI
वर्णाश्रम, धर्म और उसकी दुर्गति
Listen online
View page note
Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
हिन्दू धर्म का पुरातन नाम वर्णाश्रम धर्म है। चार वर्ण और चार आश्रमों का क्रम जब तक अपने सही रूप में चलता रहा तब तक यह देश समाज निरन्तर उत्थान के मार्ग पर अग्रसर होता रहा। पर आज तो सब कुछ उल्टा ही दीख रहा है। फलतः हम संसार की जनसंख्या का पांचवां भाग होते हुए भी पिछड़े लोगों में गिने जाते हैं। आश्रम धर्म में ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास की चार परम्परा आती हैं। पच्चीस वर्ष तक की आयु का ब्रह्मचर्य कहाँ पलता है? छोटी उम्र से ही निचुड़ना प्रारम्भ हो जाता है और बालक कच्ची उम्र में ही खोखले हो जाते हैं। गृहस्थ धर्म में उपार्जन की योग्यता बढ़ाकर परिवार का तथा समाज का आर्थिक पोषण सम्पन्न किया जाता था। आज अन्धाधुन्ध संतानोत्पत्ति और कुरीतियों दुर्व्यसनों में बढ़ते हुए खर्च के कारण लोग अनीति उपार्जन के लिए विवश होते हैं और ऋणी बनते हैं। चारों आश्रमों में अति महत्वपूर्ण था वानप्रस्थ। ढलती आयु से पहले ही सन्तान की जिम्मेदारियों से निश्छल होकर लोग लोक मंगल के कामों में लगते थे। समाज को सुयोग्य लोक सेवा अवैतनिक रूप से मिलते थे। वे समूचे समाज को प्रगतिशील बनाने के कार्य में निरन्तर लगे रहते थे। फलतः देश-विदेश में ज्ञान, विज्ञान, नीति, धर्म सदाचार का वातावरण बनाते थे। यही कारण था कि यहाँ के तेतीस कोटि नागरिक तेतीस कोटि देवी देवताओं के नाम से प्रख्यात हुए और यह भारत भूमि स्वर्गादपि गरीयसी कहलाई। संन्यासी शरीर से थक जाने पर परिभ्रमण तो नहीं करते थे, पर अपने उपयुक्त स्थानों पर निवास करते हुए विद्यालय, चिकित्सालय, धर्म शिक्षण मार्ग दर्शन कार्य करते थे। जिस समाज में ऐसी सुव्यवस्था हो उसका उन्नतिशील होना सुनिश्चित है। आज ब्रह्मचर्य, गृहस्थ आश्रमों की ही दुर्गति नहीं हुई है। वानप्रस्थ का तो कहीं नाम निशान ही नहीं दीखता। भजन पूजा के बहाने 60 लाख भिक्षुक मात्र वेष के बहाने सन्त कहलाते हैं और समाज के लिए कोई उपयोगी कार्य न करके भारभूत जीवनयापन करते हैं। यह आश्रम धर्म की दुर्गति हुई। अब वर्णधर्म की बात आरम्भ होती है। निरन्तर लोक सेवा में लगे हुए, अपरिग्रही, ब्रह्मपरायण विद्वान ब्राह्मण कहीं दृष्टिगोचर नहीं होते। उद्दण्ड अनाचारियों से निपटने के लिए जान हथेली पर रखे फिरने वाले क्षत्रिय भी दृष्टिगोचर नहीं होते। उचित लाभाँश से अपना निर्वाह चलाने वाले समाज के अभावों को दूर करने वाले वैश्य भी कहाँ हैं? अधिक लाभ कमाने वाले, कर चुराने वाले और तमाखू जैसे हानिकारक पदार्थ उगाने बेचने वाले वैश्य ही आज तो सर्वत्र दिखाई पड़ते हैं। शूद्र अर्थात् श्रमिका जिस प्रकार श्रम कराने वाले श्रमिकों का शोषण करते हैं उसी प्रकार श्रमिक भी काम चोरों में किसी से पीछे नहीं रहते। उत्पादन बढ़ाने की दृष्टि रखकर पूरा श्रम करने वाले- अधिकार की तरह कर्त्तव्य को भी प्रधानता देने वाले श्रमिक वर्ग को भी अब अभाव होता चला जाता है। वर्ण धर्म जब तक ठीक प्रकार चल रहा था तब तक कार्य विभाजन रहने से हर वर्ग की उपयुक्त सन्तुलित संख्या बनी रहती थी। वंश परम्परा से उस शिक्षा में प्रवीणता आती जाती थी। न बेकारी की समस्या उत्पन्न होती थी। न किसी कार्य के लिए आवश्यकता से अधिक या कम लोगों की भरमार रहती थी। श्रम की दृष्टि से समाज में असन्तुलन उत्पन्न नहीं होने पाता था और न वंश परम्परा से उपलब्ध होने वाली प्रवीणता के अभाव में अकुशल लोगों की ही भरमार होती थी, पर आज तो वेष के आधार पर आश्रम और वंश के आधार पर वर्ण रह गया है। चारों वर्णों में वानप्रस्थ संन्यास को श्रेष्ठ माना गया है। उनके कर्त्तव्य उत्तरदायित्व लोगों ने भुला दिये हैं। मात्र लाल, पीले, कपड़े पहनने भर से उसकी लकीर पिट जाती है। इसी प्रकार वर्णों में ब्राह्मण श्रेष्ठ माना गया है किन्तु उसके साथ ही ज्ञान का संचय और वितरण, तपश्चर्या और अपरिग्रह की मर्यादा भी है। वह सब भुला दी गई है। मात्र वंश का अहंकार बच रहा है। कौन किस वंश में जन्मा इस आधार पर जाति-पाँति का प्रचलन शेष है। वर्ण और जाति अब समानार्थ बोधक रह गये हैं। वर्णों के साथ कर्त्तव्य जुड़े हुए हैं किन्तु जातियों के साथ ऐसा कुछ नहीं है। जो जिस वंश में जन्मा उसी हिसाब से उसकी जाति गिनी जानी लगी और जाति को ही वंश मान लिया गया। जबकि यह बातें सर्वथा भिन्न है। गीतकार ने इस सम्बन्ध में स्पष्ट किया है- चातुर्वण्यं मया सृष्टं गुण कर्म विभागशःतस्यकर्तारमपि यां विध्य कर्मारमव्ययम्। भगवान कहते हैं चारों वर्णों की रचना मैंने गुण को विभाजन के अनुसार विनिर्मित की। यही मेरी कार्यपद्धति है। यहाँ गुण कर्म का विभाजन स्पष्ट किया है। यह कुल वंश का कोई उल्लेख नहीं है। कुल वंश की बात वहाँ तो एक सीमा तक भी लागू भी होती है जहाँ गुण कर्म की परम्परा का निर्वाह होता है। बढ़ई, लुहार, धोबी, अध्यापक, व्यवसायी आदि बचपन से ही अपने परिवार में चल रहे कार्यों को आरम्भ से ही देखते और सीखते रहने के कारण प्रवीण हो जाते हैं। इसमें गुण, कर्म प्रधान है। वंश के हिसाब से वह गणना नहीं हो सकती। किसी का पिता कलक्टर, डॉक्टर, इंजीनियर था किन्तु उसके बेटे बिना पढ़े मूर्ख हैं। उन्हें अपने पिता की पदवी धारण करने का अधिकार कैसे मिल सकता है। कलक्टर का लड़का चपरासी बन सका। तो वह अपने को कलक्टर की पदवी लगाने लगे तो यह बात उपहासास्पद होगी। स्तर बदल जाने के कारण उसे अपने को चपरासी ही कहना चाहिए, कलक्टर कोई वंश नहीं है। इसी प्रकार डॉक्टर इंजीनियर वंश नहीं हो सकता। उस कुल में जो भी जन्मे वह डॉक्टर इंजीनियर कहलाये यह कैसे हो सकता है। वर्ण को जाति कहना और जाति को वंश मानना सर्वथा गलत है। वंश स्थिर नहीं रह सकता उसके गुण, कर्म जैसे-जैसे बदलते जायेंगे वैसे-वैसे जाति भी बदलती जायेगी। वैसे सामान्यतः सभी मनुष्य जाति के हैं। घोड़ा, गधा, बैल आदि की तरह मनुष्य भी एक जाति के हैं। सबकी शरीर संरचना सबका रक्त माँस एक जैसा है। इस कारण वंश के हिसाब से उनकी बीच भिन्नता नहीं हो सकती। इस सम्बन्ध में भी आज पूरा भ्रष्टाचार फैल रहा है। जातियों के भीतर उपजातियों का सिलसिला चल रहा है। फिर आपस में रोटी-बेटी का सम्बन्ध नहीं। ब्राह्मणों के बीच बीसियों उपजातियाँ हैं और आश्चर्य इस बात का है कि वे आपस में रोटी बेटी तक का व्यवहार नहीं रखते। क्षत्रिय-क्षत्रिय के बीच, कायस्थ-कायस्थ के बीच उपजातियों में रोटी बेटी का व्यवहार नहीं। और तो और जिन्हें अछूत कहा जाता है वे भी आपस में वैसा ही विलगाव का बरताव करते हैं जैसा कि सवर्णों और अछूतों के बीच होता है। जाति-पाँति के इस भेदभाव ने सारे हिन्दू समाज को विश्रृंखलित करके रख दिया है। इसका परिणाम संगठन की दृष्टि से बहुत ही बुरा हुआ है। बाहर से हिन्दू कहलाते हुए भी जातियों और उपजातियों के विभाजन के कारण वर्गभेद इतना व्यापक और गहरा हो गया है कि उनके कारण दहेज जैसी अनेकों कुरीतियाँ उपज पड़ी हैं और बहुमत होते हुए भी वस्तुतः हम सब आत्म मत में विभाजित होते चले जा रहे हैं। इसका प्रभाव सामाजिक और राष्ट्रीय दृष्टि से बहुत ही हानिकारक और चिन्ताजनक पड़ रहा है। यदि प्राचीन वर्णाश्रम धर्म अब नहीं रहा तो उसका गुण कर्म स्वभाव के आधार पर नया गठन हो सकता है। यदि वह भी सम्भव नहीं रहा तो मात्र हिन्दू या मनुष्य के रूप में अपना परिचय देना पर्याप्त मानना चाहिए।