Magazine - Year 1985 - Version 2
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Language: HINDI
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मनुष्य की विलक्षण अतीन्द्रिय क्षमताएँ
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मनुष्यों में अतीन्द्रिय क्षमताओं का होना पौराणिक कथाओं में भी प्रकट है। मध्य काल में उनके ऐतिहासिक प्रमाण मिलते हैं और आज भी वे विशेषताएँ कितनों में देखी जाती हैं। कभी इन बातों को कपोल कल्पना कहा जाता था, पर अब वैसी स्थिति नहीं रही। अगणित प्रत्यक्ष प्रमाणों की जाँच पड़ताल करने के उपरान्त प्रत्यक्षवादी जिस निष्कर्ष पर पहुँचे हैं−उसके अनुसार मनुष्य में ऐसी सामर्थ्यों का होना शक्य माना गया है जो इन्द्रिय शक्ति से परे की हैं।
ऐसी सामर्थ्यों में दूर दर्शन, दूर श्रवण, भविष्य कथन, विचार सम्प्रेषण, शाप, वरदान, स्वप्न संकेत प्राण प्रत्यावर्तन, दिव्यलोक के साथ आदान−प्रदान जैसी कितनी ही अब तक प्रमाणित हो चुकी हैं और कितनी ही ऐसी हैं जो कल्पना या जादूगरी की अवमानना चिरकाल तक सहन करने के उपरान्त अब यथार्थता की तरह प्रामाणिकता और प्रतिष्ठा के क्षेत्र में प्रवेश करने जा रही हैं।
इन क्षमताओं के संदर्भ में अनेकानेक पुरातन प्रमाण उपलब्ध हैं जिनसे प्रतीत होता है कि उन दिनों में मात्र इन्द्रिय शक्ति ही सब कुछ नहीं थी, वरन् इन्द्रियातीत क्षमताएँ महत्वपूर्ण अवसरों पर प्रयुक्त होते रहने का प्रचलन था उनके सहारे मनुष्य अब से कहीं अधिक सशक्त था और अधिक सुविधाएँ सम्पादित करता था।
संजय की दूर−दर्शन और दूर श्रवण की क्षमता का उल्लेख मिलता था। वे महाभारत मोर्चे पर चल रहे दृश्यों और संभावनाओं का यथावत् विवरण जन्मान्ध धृतराष्ट्र को घर बैठे सुनाते रहते थे। लोक−लोकान्तरों में परिभ्रमण करते रहने की शक्ति देवर्षि नारद में थी उनका विष्णु लोक के साथ आवागमन और आदान−प्रदान सदा बना रहता था। उन्हें पूर्वाभास भी होता था और जानकारियां सम्बन्धित व्यक्तियों तक सहज सेवा सहायता के भाव से पहुँचाते रहते थे। पार्वती को शिव विवाह की सम्भावना, सावित्री को एक वर्ष बाद पति वियोग, जैसी पूर्व सूचनाएँ उनके द्वारा सम्बन्धित व्यक्तियों तक पहुँचाये जाने के अनेकानेक वर्णनों का विभिन्न पुराणों में उल्लेख है।
गान्धारी की आँखों में दिव्य तेज था। वे आमतौर से पट्टी बाँध कर रहती थीं। आवश्यकता पड़ने पर उन्होंने एक बार पट्टी खोलकर दुर्योधन को देखा और उसका शरीर लोह जैसा सुदृढ़ बना दिया। वनवास में अकेली पाकर एक व्याध ने दमयन्ती पर कुदृष्टि डाली। दमयन्ती ने अग्नि दृष्टि से उसे देखा फलतः वह व्याध वहीं जलकर भस्म हो गया। दुर्वासा के शापों से अंबरीष जैसे कितनों को ही अपार कष्ट सहना पड़ा। श्रृंगी ऋषि के शाप से परीक्षित की सर्प दंश से मृत्यु हुई थी। उन्हीं के वरदान मंत्रोच्चारणों से सम्पन्न हुए यज्ञ द्वारा दशरथ को चार अवतारी पुत्रों का प्राप्त होना सर्वविदित है। कपिल मुनि के शाप से राजा सगर के साठ हजार पुत्रों का भस्म होना प्रख्यात है। कालिदास के मेघदूत का नायक यक्ष शाप पीड़ित होकर ही अपनी प्रेयसी से दूर पड़ा था और मेघों को सन्देश वाहन बनाकर अपनी व्यथा प्रेयसी तक पहुँचाने का उपक्रम कर रहा था। ऋषि से व्यंग उपहास करने वाले यादवों का पूरा समुदाय शाप का भाजन बना और परस्पर लड़-भिड़कर समाप्त हो गया। परशुराम से छल पूर्वक बाण विद्या सीखने वाले कर्ण गुरु शाप से उस विद्या का प्रयोग कर सकने की क्षमता गवां बैठा और मात्र सारथी रहकर निर्वाह करता रहा। देवयानी का विवाह प्रस्ताव स्वीकार न करने पर कच को भी सीखी हुई संजीवनी विद्या से हाथ धोना पड़ा।
स्वामी विवेकानन्द ने अपने संस्मरणों में एक ऐसे महात्मा का वर्णन किया है जो बिना अन्न जल ग्रहण किये मात्र वायु भक्षण करके लम्बे समय तक जिये। वे पोहारी बाबा के नाम से प्रख्यात थे। इसकी यथार्थता जाँचने के लिए विदेशों से भी पर्यवेक्षकों के कई जत्थे आये और वे सभी सन्तुष्ट होकर लौटे। पंजाब के राजा रणजीत सिंह ने अंग्रेज गवर्नर को हरिदास नामक साधु के छः महीने लम्बी भूमिगत समाधि का प्रमाण परिचय दिया था। वे साधु पूरे छः महीने गड्ढे में बन्द रहे। गड्ढे को बन्द करके ऊपर से फसल बो दी गई थी ताकि उसमें किसी चालाकी हेरा-फेरी की गुंजाइश न रहे। छः महीने बाद समाधि खोदी गई तो वे साधु जीवित निकले और कुछ ही समय में पूर्ववत् सामान्य हो गये।
इस सम्बन्ध में- ‘‘हिस्ट्री ऑफ दि सिख्स” नामक पुस्तक में (लेखक डॉ. मैकग्रेगर) महाराजा रणजीत सिंह के गुरु स्वामी हरिदास द्वारा सन् 1837-38 में किए गये भूमिगत समाधि के प्रदर्शन का विस्तृत विवरण मिलता है। इसका निरीक्षण पंजाब में नियुक्त ब्रिटिश राज्य के तत्कालीन अन्य उच्चाधिकारियों ने भी किया था। स्वामी हरिदास को एक मजबूत सन्दूक में सीलबन्द करके जमीन में खोदे गये गहरे गड्ढे में उतार दिया गया फिर ऊपर से मिट्टी डालकर प्लास्टर से बन्द कर दिया गया। 40 दिन पश्चात् गड्ढा खोदकर सन्दूक बाहर निकालने पर स्वामीजी का समूचा शरीर निश्चेष्ट पाया। हृदय और नाड़ी में भी स्पन्दन नहीं था। लेकिन सिर में शिखा वाला स्थान इतना तप्त था कि छूते ही हाथ जल जाता था। कान−नाक से मोम निकाल कर पूर्व निर्दिष्ट विधि के अनुसार शरीर पर शीतल जल का छिड़काव करते ही उनका शरीर चैतन्य हो उठा तथा सभी उपस्थित लोगों व विशिष्ट अतिथियों से उसी तरह बातचीत करने लगे जैसे समाधि में जाने से पूर्व कर रहे थे।
सन्त हरिदास की दूसरी समाधि की अवधि दस महीने थी। यह प्रदर्शन उन्होंने अदीना नगर में किया था। उस प्रसंग का संस्मरण कैप्टेन ओसबर्न ने अपनी पुस्तक ‘रणजीत सिंह’ में दिया है। इस बार सुरक्षा, निगरानी और पहरेदारी सम्बन्धी काफी एहतियात बरते गये। जिस जमीन के भीतर स्वामीजी समाधिस्थ थे उस भूमि पर जौ की फसल बो दी गई ताकि भीतर से निकल भागने की धोखाधड़ी पकड़ी जा सके। लेकिन पूरी सतर्कता और कड़ाई के बावजूद ऐसी कोई घटना घटी नहीं।
अतीन्द्रिय क्षमताओं के अंतर्गत ही पुराणों में ऐसी अनेकानेक घटनाओं का उल्लेख मिलता है, जिसमें शाप के फलीभूत होने और उससे अप्रत्याशित कष्ट−कठिनाइयों के उत्पन्न होने का उल्लेख है−कपिल मुनि के शाप से सगर पुत्रों का भस्मीभूत होना, श्रृंगी ऋषि के शाप से राजा परीक्षित को साँप द्वारा काटा जाना, गान्धारी के शाप से छप्पन कोटि यदुवंशियों का लड़ मरना, नहुष का सर्प बनना, दमयन्ती के शाप से व्याध का विनष्ट होना आदि कुछेक उदाहरण हैं।
गुरु गोरखनाथ से एक कापालिक बहुत चिढ़ा हुआ था। एक दिन आमना-सामना हो गया। कापालिक के हाथ में कुल्हाड़ी थी, उसे ही लेकर वह तेजी से गोरखनाथ को मारने दौड़ा। पर अभी कुल दस कदम ही चला था कि वह जैसे−का−तैसा खड़ा रह गया। कुल्हाड़ी वाला हाथ ऊपर और दूसरा हाथ पेट में लगाकर हाय−हाय चिल्लाने लगा। वह इस स्थिति में भी नहीं था कि इधर−उधर हिल-डुल भी सके।
केप कालावी के गवर्नर पीटर जिज्वर्ट नार्टन की मृत्यु भी एक सैनिक के शाप के परिणाम स्वरूप हुई मानी जाती है। कहा जाता है कि एक बार जिज्वर्ट नार्टन ने नौ निर्दोष सैनिकों को फाँसी की सजा भागने के अभियोग में दी थी, जिसके फलस्वरूप आठ तो बिना कुछ बोले फाँसी पर झूल गये किन्तु अन्तिम व्यक्ति ने बड़े रोष के साथ यह कहते हुए कि “नार्टन तुझे कुछ ही समय में ईश्वर के पास जवाब देने के लिए घसीट कर ले चलूँगा।” फाँसी पर झूल गया। देखा गया कि कुछ ही क्षणों के उपरान्त वह गवर्नर दफ्तर में कुर्सी पर बैठे−बैठे मर गया।
वस्तुतः मनुष्य जितना विलक्षण है, क्षमता सम्पन्न है, उतना उसे अपने आपके विषय में आभास नहीं है। यदि इस सामर्थ्य को उभारा जा सके तो हर व्यक्ति अपनी अद्भुत अतीन्द्रिय सामर्थ्य का प्रयोग सत्प्रयोजनों के निमित्त कर सकता है। विडम्बना तो यही है कि बहुसंख्य व्यक्ति अपनी इस अविज्ञात विभूति से अनजान बने रह जीवन व्यर्थ गवाँ देते हैं।