Magazine - Year 1985 - Version 2
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Language: HINDI
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यह संसार सह अस्तित्व सिद्धान्त पर टिका है।
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‘इकॉलाजी’ की मान्यता है कि सृष्टि सन्तुलन पर टिकी है। परावलम्बन (इन्टरडिपेन्डेन्स) मर्यादा निर्वाह (लिमिटेशन) और सम्मिश्रता (काम्प्लैक्सिटी) इन तीन आधारों पर प्रकृति व्यवस्था गतिशील है। “इलेक्ट्रिकल रिव्यू” नामक पत्रिका के एक अंक में चिकित्सा शोध समूह द्वारा दी गई इस खोज का विवरण प्रकाशित हुआ है कि मानव शरीर की विद्युत क्षमता का पर्यावरण के विद्युतीय दबाव से घनिष्ठ अन्तः सम्बन्ध है। हमारे अयन मण्डल में जब भी कोई गम्भीर उथल-पुथल होती है, उसका प्रत्यक्ष प्रभाव हमारे शरीर की सामान्य जैव−विद्युत चुम्बकीय शक्ति पर पड़ता है, उससे सामान्य क्रियाशीलता गड़बड़ा जाती है। उस उथल−पुथल को सन्तुलित करने के लिए शरीर में कई तरह की मानसिक व शारीरिक व्याधियाँ उठती दिखाई देती हैं, जिन्हें हम रोग व शोक की संज्ञा देते हैं। ऐसे ही कुछ प्रतिकूल अन्तर्ग्रही प्रभावों में ग्रहण, पुच्छल तारों आदि की गणना भी होती है। ग्रहण आदि का सर्वाधिक प्रभाव व इन हलचलों की पूर्वानुभूति जीवन जन्तुओं को पहले होती है। सूर्यग्रहण की जानकारी मनुष्य अपनी बुद्धि के बल पर वर्षों पूर्व भले जानने में समर्थ हो गया हो किन्तु उसके दुष्प्रभावों को समझने में अभी तक असमर्थ रहा है, जबकि जंगल के पशु−पक्षी सूर्य ग्रहण के दुष्प्रभाव से बचने के लिए उसके चौबीस घण्टे पूर्व से ही शोरगुल करना बन्द कर देते हैं। सबसे चंचल कहा जाने वाला बन्दर सूर्य ग्रहण के पूर्व ही खाना−पीना त्यागकर एकान्त प्रिय संन्यासी की भूमिका अदा करने लगता है।
जापान में पायी जाने वाली एक पक्षी जिसे चावी कहते हैं भूकम्प आने के चौबीस घण्टे पूर्व ही वह स्थान त्यागकर दूरस्थ उड़ जाती है। इसी प्रकार चीन में अनेकों भूकम्पों के पूर्व देखा गया कि वहाँ के पालतू गाय, बैल आदि अपनी−अपनी रस्सी तुड़ाकर घरों के बाहर हो जाते हैं। जबकि मानवीय बुद्धि भूकम्पीय झटकों को चौबीस घण्टे पूर्व भी जानने में असमर्थ है।
ऊँची पहाड़ियों पर बसने वाले पक्षियां बर्फ पड़ने के ठीक एक माह पूर्व पहाड़ियां त्याग कर सुरक्षित स्थानों में चली जाती हैं जबकि मनुष्य अभी तक शत−प्रतिशत रूप से बर्फ गिरने की भविष्यवाणी करने में असमर्थ रहा है। अनेकों प्रयोगों के बाद पाया गया कि आकस्मिक रूप से पड़ने वाली बर्फ के भी ठीक एक माह पूर्व पक्षियाँ स्थान खाली कर दूर−दराज देशों में चली जाती हैं।
तिब्बत और दार्जिलिंग में पायी जाने वाली पहाड़ी सारस वर्षा के 10-14 मिनट पूर्व ही पर्वतों की गुफाओं अथवा चट्टानों की आड़ में चली जाती हैं जिसे देखकर तिब्बती लोग अपना माल असबाव बाँधकर वर्षा से बचने का प्रबन्ध करने लगते हैं। कभी−कभी तो देखा गया कि आकाश में एक भी बादल नहीं हैं और पानी बरसने के कोई आसार न होते हुए भी जब यह पक्षी छिपने लगे तो उसके कुछ ही समय बाद बादल संघटित हुये और वर्षा होने लगती है।
जीव विज्ञानी मछलियों के इस भविष्य ज्ञान से हैरत में पड़ गये हैं कि मछलियाँ समुद्र तट पर ठीक तभी अण्डे देती हैं जब समुद्री लहरें उतर जाती हैं और दुबारा उठने की सम्भावना नहीं रहती। यदि मछलियों के इस भविष्य ज्ञान में एक मिनट का भी अन्तर पड़ जाय तो उनके सारे अण्डे गहरे समुद्र में जाकर नष्ट हो जाय। मछलियों के इस भविष्य ज्ञान सम्बन्धी शोध निष्कर्ष वैज्ञानिकों ने मछलियों को झील, तालाब और प्रयोगशालाओं में रखकर बनावटी प्रकाश, अन्धकार और बनावटी चन्द्रमा तक आकर्षण देकर प्राप्त किए। किन्तु इन प्रकृति प्रेमी मछलियों को रंचमात्र भी भ्रम में न डाला जा सका। इन सभी स्थानों पर रखी गयी मछलियों ने ठीक उसी समय अण्डे दिये जब सागर में रहने वाली मछलियों ने दिये अर्थात् लहरों के उतरते ही इन मछलियों ने अपने भविष्य ज्ञान के आधार पर उक्त क्रिया की। इनकी इस विधा की जानकारी में लाखों करोड़ों वर्षों से आज तक इंच मात्र का अन्तर नहीं आया अन्यथा इनका कभी का नाश हो गया होता।
विश्व की रचना निष्प्रयोजन नहीं, प्रयोजन युक्त है। इसका प्रमाण है जीव जगत के लिए पृथ्वी पर अनुकूल वातावरण का होना। न्यूयार्क विज्ञान अकादमी के भूतपूर्व अध्यक्ष डॉ. ए. क्रेसी मोरिसन का कहना है कि “गणित शास्त्र के नियमों से यह प्रमाणित होता है कि इस संसार का नक्शा किसी कुशल तथा बुद्धिमान इंजीनियर द्वारा खींचा गया हैं।” इस प्रतिपादन की पुष्टि हेतु उन्होंने गहन अध्ययन अन्वेषण किया है। उससे जो तथ्य सामने आये हैं उनका अवलोकन करने पर ज्ञात होता है कि हमारी पृथ्वी जो अपनी धुरी पर एक हजार मील प्रति घण्टे की रफ्तार से घूमती है, यदि उसकी गति सौ मील प्रति घण्टा हो जाय तो दिन और रात अब की तुलना में दस गुने लम्बे हो जायेंगे। दिन के समय सूर्य की गर्मी इतनी अधिक होगी कि पृथ्वी की समस्त वनस्पतियाँ जल जायेंगी। रात्रि को भयंकर ठण्ड पड़ेगी जिसके कारण अधिकाँश जीव मर जायेंगे।
चन्द्रमा की दूरी पृथ्वी से दो लाख बत्तीस हजार मील है। यदि उसकी दूरी मात्र 50 हजार मील होती तो सागरों में भयंकर ज्वार उठते। फलस्वरूप समस्त महाद्वीप जलमग्न हो जाते। सूर्य जीवन का स्रोत है। सूर्य से पृथ्वी की दूरी एवं प्राप्त होने वाला ताप का सामंजस्य जीवन के अनुकूल है। यदि सूर्य का ताप घटकर आधा अवशेष रह जाय तो पृथ्वी के सभी प्राणी जम जायेंगे। तापक्रम आधा और बढ़ जाय तो सब जल−भुनकर समाप्त हो जायेंगे। पृथ्वी 23 डिग्री के कोण पर झुकी है। इस कारण अनुकूल ऋतुएँ मिलती हैं। यह झुकाव न होता तो समुद्री भाप उत्तर से दक्षिण तक फैल जाती और सर्वत्र बर्फ के महाद्वीप बन जाते। वायु में आक्सीजन एवं कार्बन डाई आक्साइड गैस के सन्तुलन में सागरों की गहराई का हाथ है। यदि सागर अधिक गहरे होते तो इन गैसों के अभाव में वनस्पतियों का अस्तित्व नहीं बचता। अन्तरिक्ष वायु सुरक्षा कवच पतला अथवा हलका होता तो अगणित उल्काएँ नित्य ही जलती हुई पृथ्वी से टकराती और समस्त भू−सम्पदा को भस्मीभूत कर देतीं। हर दृष्टि से पृथ्वी पर अनुकूल, सुरक्षित एवं सुव्यवस्थित वातावरण का होना इस बात का प्रमाण है कि कुशल हाथों से किसी समर्थ हाथों ने इस सृष्टि की रचना की है। संचालन एवं नियन्त्रण की बागडोर भी उसी के हाथों में है।
सोवियत रूप के वैज्ञानिक डॉ जी. ए. उशाकोव ने अपने ध्रुव शोध के विवरणों में एक और नया तथ्य प्रतिपादित किया है। वे कहते हैं कि जीवन का आधार मानी जाने वाली आक्सीजन वायु पृथ्वी की उपज अथवा सम्पत्ति नहीं है। वह सूर्य से प्राण रूप में प्रवाहित होती हुई चली आती है और धरती के वातावरण में यहाँ की तात्विक प्रक्रिया के साथ सम्मिश्रित होकर प्रस्तुत ‘आक्सीजन’ बन जाती है। यदि सूर्य अपने उस प्राण−प्रवाह में कटौती कर दे अथवा पृथ्वी ही किसी कारण उसे ठीक तरह ग्रहण न कर सके तो आक्सीजन की न्यूनता के कारण धरती का जीवन संकट में पड़ जायेगा। पृथ्वी से 32 मील ऊँचाई पर इस प्राण का आक्सीजन रूप परिवर्तन आरम्भ होता है। यह आक्सीजन बादलों की तरह चाहे जहाँ नहीं बरसता रहता वरन् वह भी सीधा उत्तरी ध्रुव पर आता और फिर दक्षिणी ध्रुव के माध्यम से समस्त विश्व में वितरित होता हैं। ध्रुव प्रभा में रंग−बिरंगी झिलमिल का दिखना विद्युत मण्डल के साथ आक्सीजन की उपस्थिति का प्रमाण है।
कभी−कभी सूर्य मण्डल में विशेष उत्क्रान्ति उत्पन्न होने से उस प्रवाह की एक लहर पृथ्वी पर भी चली जाती है और ध्रुव प्रदेश में चुम्बकीय आँधी−तूफानों का सिलसिला चल पड़ता है। इनकी प्रतिक्रिया उसे ध्रुव क्षेत्रों तक ही सीमित नहीं रखती वरन् समस्त विश्व को प्रभावित करती है। कई बार यह चुम्बकीय तूफान बड़े उपयोगी और सुखद परिणाम उत्पन्न करते हैं और कई बार इनमें कुछ ऐसे तत्व घुले हुए चले आते हैं जिनका प्रभाव समस्त विश्व को कई प्रकार के संकटों में धकेल दे। एक बार सन् 1938 में एक चुम्बकीय तूफान ध्रुव प्रदेश पर आया था, उसकी भयानक चमक अफ्रीका तथा क्रीमिया तक देखी गई। उसका प्रभाव न केवल वस्तुओं पर पड़ा वरन् जीवधारी भी बुरी तरह प्रभावित हुए। ऐसी ही विद्युत आँधियों ने धरती पर ‘हिमयुग’ की परिस्थितियाँ उपस्थित कर दी हैं। मुद्दतों तक एक बड़े भू−भाग को बर्फ ने ढके रखा, समुद्र में बाढ़ आई और जमीन समुद्र में, समुद्र मरुस्थल में बदल गया। कहते हैं कहीं ऐसे ही वायु प्रलय, जल प्रलय, अग्नि प्रलय भी उपस्थित हो सकती हैं और यह चुम्बकीय आँधियाँ धरती के वर्तमान स्वरूप को कुछ से कुछ करके रख सकती हैं।
वस्तुतः यह संसार परस्पर विश्वास आत्मीयता और सहयोग के सिद्धान्त का पालन कर ही जीवित है। जब जीव, जन्तुओं को भी इन गुणों का अनुगमन करते पाया जाता है तो मनुष्य के आपसी बैर−भाव, वैमनस्य को देखकर शर्मिन्दा ही होना पड़ता है।
चीतल न केवल अपने सजातीय बन्धुओं से मित्रता करता है वरन् वह अन्य प्राणियों से भी दोस्ती कर लेता है। चीतल और बन्दर की दोस्ती लोक प्रसिद्ध है, जब बन्दर पेड़ पर चढ़कर फल तोड़ता और एक−एक करके अपने साथी चीतलों को खिलाता रहता है।
गिद्ध का अपने सजातियों के प्रति स्नेह देखते ही बनता है, जब वह किसी आहार को आपस में मिल बाँट कर खाता है।
शेरों में बड़ी प्रबल पारिवारिक भावना पाई जाती है। वह अपने शिशु को बड़े लाड़−प्यार से पालता−पोषता है। जब शिशु कभी उद्दण्डता का काम कर डालता है तो शेर उसे डांटता−फटकारता और आज्ञा का फिर भी उल्लंघन करने पर मार भी लगाता है।
जिराफ और जेबरे की मित्रता और साहचर्य, जीव जगत की एक अनोखी घटना है। जिराफ जेबरे को खाना खिलाता है और जेबरा न केवल संकट के समय अपने मित्र को उसकी पूर्व सूचना देता है, अपितु अपने प्राण देकर भी उसकी रक्षा करता है। पानी में तैरते हुए दरियाई घोड़े की पीठ पर बैठकर चिड़ियाएँ बड़े मजे से दोस्ती गाँठ लेती हैं। वह घोड़े की पीठ पर बैठकर न केवल जल विहार न आनन्द लेती हैं, वरन् वहाँ से भोजन प्राप्त कर पिकनिक भी मनाती हैं।
ऐसे अनेकों उदाहरण दैनन्दिन जीवन में देखे जा सकते हैं जो जीव जगत, मानव समुदाय एवं पर्यावरण के परस्पर अन्योन्याश्रित सम्बन्ध को, प्रकारान्तर से सृष्टा की व्यवस्था को ही प्रमाणित करते हैं। वस्तुतः यह सारी जगती सह अस्तित्व की एक सुनिश्चित विधि व्यवस्था पर टिकी हुई है। इस पर विश्वास रखने से आस्तिकता के तत्त्वदर्शन को पोषण मिलता है।