Magazine - Year 1988 - Version 2
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Language: HINDI
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सेन खलें तो ही ठीक है!
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भूतकाल के अनुभवों, वर्तमान की परिस्थितियों तथा प्रयासों के आधार पर आमतौर से भविष्य का अनुमान लगाया जाता है और निष्कर्ष निकाला जाता है। यह सुविधा अन्य प्राणियों को प्राप्त नहीं है। उनका बुद्धिबल मात्र शरीरचर्या के निमित्त अभी क्या करना चाहिए, इतना ही परामर्श दे पाता है, जबकि मनुष्य बहुत आगे की बात सोच लेता है और उस आधार पर भविष्य को अधिक सुनिश्चित एवं सुखद बनाने के लिए प्रयत्नशील रहता है।
गणित इस संबंध में बहुत सहायक होता है। उसने विज्ञान के आविष्कारों में असाधारण सहायता की है। व्यवसाय एवं प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में भी महत्वपूर्ण निर्णय-निर्धारण अंकगणित के सहारे किया जाता है। साँख्यिकी के आधार पर आवश्यकताओं का आँकलन किया जाता है और भविष्य में प्रस्तुत होने वाली परिस्थितियों का अनुमान लगाया जाता है। पुरुषार्थ की दिशा किस ओर मोड़ी जाए जिससे असंतुलन - संतुलन में बदले, यह निर्णय परिस्थितियों के आधार पर सोची गई संभावनाओं के आधार पर ही निकलता है।
ग्रहगणित का नाम ही ज्योतिर्विज्ञान है। खगोल विद्या के समस्त आकलन गणित के आधार पर ही संभव हो पाते हैं। ग्रहों की चाल, धुरी पर भ्रमण, कक्षा में परिक्रमा आदि की जानकारियों को देखते हुए कितने ही प्रकार के निष्कर्ष निकाले जाते हैं। कितने घण्टे का दिन व कितने घण्टे की रात होगी? सूर्य कब उदय और अस्त होगा? चन्द्रमा किस रात्रि को किस समय उदय और अस्त होगा और उसका आकार क्या रहेगा? यह निर्णय ग्रहगणित के आधार पर पंचाँग बनाने वाले आसानी से कर लेते हैं। इसी प्रकार सौरमण्डल का कौन ग्रह किस समय उदय-अस्त होगा? कब किस दिशा में उसे देखा जा सकेगा, यह बता देना खगोलविदों के लिए अत्यन्त सरल है। सभी इस पर एकमत हैं कि यदि यह विद्या हस्तगत न हुई होती तो अन्तरिक्षयानों को निर्धारित यानों में भेज पाना संभव न रहा होता। ग्रहगणित का फलित पक्ष पक्ष भले ही विज्ञान सम्मत न माना जाए, अंधविश्वास परक समझा जाय, परन्तु उसका गणित पक्ष तो ऐसा है जिसकी जानकारी के आधार पर हमारी दिनचर्या और कार्यविधि बहुत कुछ निर्भर करती है। ऋतु परिवर्तन से प्राणि समुदाय और वातावरण किस प्रकार प्रभावित होते हैं, यह किसी से छिपा नहीं है। उस जानकारी से हमारी दैनिक गतिविधियाँ पूरी तरह प्रभावित होती हैं। बदले हुए वातावरण के आधार पर हम अपने क्रिया कलापों को भी बहुत कुछ बदलते रहते हैं।
सौरमण्डल की सूक्ष्म प्रभाव क्षमता भी कम आश्चर्यजनक नहीं होती। ऋतुराज बसन्त गतिशील सौरमण्डल के कारण वातावरण की बदली हुई परिस्थिति ही है। प्राणियों में प्रजनन का उत्साह और प्रयास बहुत कुछ ऋतुओं पर आधारित चेतनात्मक हलचलों पर निर्भर रहता है। अन्तरिक्षीय परिवर्तनों के अनेकानेक उतार चढ़ाव मानव एवं जीव जगत पर, वातावरण परक परिस्थितियों पर बहुत कुछ प्रभाव डालते हैं। उनके पीछे ज्ञात और अविज्ञात कारणों की एक बड़ी श्रृंखला जुड़ी होती है। साधारणतया मोटी बुद्धि से उसका आकलन नहीं किया जा सकता, किन्तु विशेषज्ञ भविष्य विज्ञान के आधार पर संभावनाओं को बहुत कुछ जान लेते हैं और प्रतिकूलताओं को अनुकूलताओं में बदलने के लिए समय रहते प्रयास करते हैं। जो इस संबंध में अनजान और निष्क्रिय बने रहते हैं, वे बदलते हुए समय के दबाव में अपना अस्तित्व तक गँवा बैठते हैं।
भूतकाल में पृथ्वी पर प्राणियों की जितनी प्रजातियाँ थी, उनमें से अधिकाँश इसी कालचक्र में पिसकर लुप्त हो गयीं। कभी इस धरातल पर महागजों, महासरीसृपों, महाव्याघ्रों और महागरुड़ों का बाहुल्य था। वे बड़े सशक्त भी थे और बहुसंख्या में पृथ्वी के अधिकाँश भागों पर छाये हुए भी थे। उनकी शारीरिक स्थिति, मजबूती और विशालता ऐसी थी कि वे सामान्य प्रतिकूलताओं में भी अपना अस्तित्व बनाये रख सकते थे। उन दिनों उनके लिए प्रत्यक्षतः कोई खतरा नहीं था। कोई चुनौती भी उनके आगे अड़ी हुई न थी। आहार निवास आदि की कोई कमी भी न थी न कोई समर नीति बाधित कर रही थी। फिर भी बदलते वातावरण ने उन सब पर ऐसा दबाव डाला जिससे प्रतिकार के बारे में सोच न सके और अपनी सत्ता पूरी तरह गँवा बैठे। अब उनका एक भी वंशज कहीं दृष्टिगोचर नहीं होता।
यह विशालकाय महाप्राणियों की बात हुई। साधारण आकार और स्तर के प्राणी तो प्रकृति के छोटे-छोटे दबावों और परिवर्तनों को भी सहन कर सकने में समर्थ न रहे और अपना समुदाय पूरी तरह समाप्त कर बैठे। ऐसे प्राणियों की संख्या करोड़ों में है जिनका कभी पृथ्वी पर बाहुल्य था। पर अब उनके भूमि उत्खनन में जहाँ तहाँ अनुमान लगा सकने के लिए साक्षी रूप में फाँसिल्स-अवशेष ही जहाँ तहाँ मिलते हैं। प्राकृतिक परिवर्तनों में मनुष्य का आदि वंशज नर वानर भी अब कहीं दृष्टिगोचर नहीं होता। उसके समकक्ष सजातीय ही किन्हीं सघन वन प्रदेशों में गोरिल्ला, चिंपेंजी, वन मानुष आदि के रूप में पाये जाते हैं।
प्रकृतिगत परिवर्तनों का अपना दबाव होता है। वह कई बार इतना कठिन और असह्य होता है कि असाधारण प्रतिरोध करने पर भी इनका सामना करते नहीं बन पड़ता। भूकम्पों, ज्वालामुखी विस्फोटों, बाढ़ों, दावानलों, दुर्भिक्षों तूफानों में अनेक बार जानमाल की असीम क्षति हुई है और उसकी पूर्ति में शताब्दियों के कठिन प्रयास किसी सीमा तक सफल हो पाये हैं। जल प्रलयों, हिम प्रलयों के कुचक्र इतिहास में अनेक बार आये हैं और उनने दुर्बल नगण्य प्रजातियों का तो सदा सर्वदा के लिए अस्तित्व ही समाप्त कर दिया। मनुष्य ही एक ऐसा है जो अपना स्थान और स्वभाव का आधार बदल जाने पर भी किसी प्रकार अपनी सत्ता आँशिक रूप में बचाये रह सका है। कुछ बीज बचे रहने पर ही उनकी वंश वृद्धि का क्रम चल सका और कभी का जन संकुल क्षेत्र ज्यों-त्यों करके अपना समुदाय बढ़ा सका। इन महा परिवर्तनों में उसे प्रस्तुत परिस्थितियों के अनुरूप अपने स्वभाव, रहन सहन और क्रिया कलाप में कायाकल्प स्तर के परिवर्तन करने पड़े हैं। धरती पर रहने वाले प्राणि जगत में समय-समय पर हुए असाधारण परिवर्तनों का इतिहास खोजने पर इस निष्कर्ष पर पहुँचना पड़ता है कि मनुष्य कितना ही बुद्धिमान या साधन सम्पन्न रहा हो, उसे भी प्रकृतिगत परिवर्तन समय-समय पर असाधारण चुनौतियाँ देते रहे हैं। जितने अंश में बचाव करते उससे बन पड़ता उसी अनुपात में उसकी अस्तित्व रक्षा कर सकना संभव होते रहा।
सामने उपस्थित पर्वत को उठा कर नहीं फेंका जा सकता। उसे पार करने या शिखर तक चढ़ने के लिए मार्ग ढूँढ़ना या साधनों का आश्रय लेना ही एकमेव उपाय रह जाता है। समुद्रों को तैर कर पार नहीं किया जा सकता उस हेतु जलयानों का ही आश्रय लेना पड़ता है। भार रहित और वायु रहित अन्तरिक्ष में उड़ान भरने के लिए आवश्यक साधनों का प्रबंध साथ लेकर योजना बनानी पड़ती है। हवा में तैरना कठिन है उसके लिए वायुयानों की व्यवस्था बनानी ही पड़ती है। प्रकृति का एक सीमा तक दोहन तो क्षमा किया जा सकता है पर उसे उस सीमा तक नहीं दबाया जा सकता कि कुपित होकर प्रतिशोध पर उतारू हो चले। ऐसी छेड़छाड़ को सिंहनी की माँद में प्रवेश करने और उसे छेड़ने के समान ही भयंकर समझा जायगा।
प्राकृतिक परिवर्तन अपने ढंग से अपने नियमानुसार भी होते रहे हैं। उनका काम ब्रह्माण्ड में सौरमंडल का संतुलन बनाये रहना होता है। वे परिवर्तन इस बात की परीक्षा भी करते हैं कि जीवनी शक्ति में कौन कितना जुझारू, सुदृढ़, सिद्ध और समय के अनुरूप अपने को बदलने में समर्थ होता है। यह प्रकृति की अपनी विधा और नियति है। उसमें प्रत्यक्ष हस्तक्षेप कर सकना नियन्ता एवं उसकी नियति के लिए ही संभव है।
इतने पर भी अनुमान इतना तो कर ही सकता है कि अपने कौशल से प्रकृति की अनुकूलता का लाभ उठाता रहे अथवा उसके साथ अनुचित छेड़छाड़ करके अपने लिए संकट खड़े करे। बर्र के छत्ते में हाथ डालने, साँप की बांबी को कुरेदना, बाघिन की माँद में प्रवेश करना इसी को कहते हैं। सीमा में रहना ही उपयोगी होता है। सीमाओं को तोड़ने से खतरे ही खतरे हैं। अनाड़ी बच्चे फुलझड़ी जलाने और पटाखे चलाने के खेल में कई बार इतने अधिक उत्साही हो जाते हैं कि उन्हें अपने कपड़े, शरीर तक घर, सामान तक जला लेने का ध्यान नहीं रहता। कौतुक अनर्थ में बदल जाता है तब पता चलता है कि समय रहते उच्छृंखलता न बरतने का ध्यान क्यों नहीं आया?
प्रकृति की दयालुता, उदारता और अनुकम्पा में कोई संदेह नहीं। पर उसकी एक सीमा है। माता का दूध पिया जा सकता है, पर यदि बच्चे उसको काटने लगेंगे तो फिर प्रताड़ना भी भुगतनी पड़ेगी। इन दिनों यही हो रहा है। पिछली कुछ ही शताब्दियों से प्रकृति के दोहन और रहस्योद्घाटन का क्रम असाधारण उत्साह के साथ चला है। इसी को वैज्ञानिक आविष्कारों का युग कहा जाता है। इसमें असीम साधनों की उपलब्धियाँ हस्तगत हुई हैं। इस सफलता से मनुष्य गौरवान्वित भी हुआ है और सुगम साधनों का अधिष्ठाता भी बना है। इन उपलब्धियों का यदि नीति मर्यादाओं के दायरे में उपयोग हुआ होता, मिल जुलकर रहने और मिल बाँट कर खाने की रीति अपनाई गई होती तो निश्चय ही इन दिनों स्थिति ऐसी रही होती जिसे सतयुग की वापसी या धरती पर स्वर्ग एवं मानव में देवत्व का अवतरण कहा जा सका होता।
सभ्यता, सुसंस्कारिता और प्रगति दूरदर्शी विवेकशीलता पर आधारित है। उसके अभाव में गुरुत्वाकर्षण के दबाव से नीचे गिरना और ढलान की ओर लुढ़कना ही संभव होता है, हुआ यही है। प्रकृति दोहन से उपलब्ध साधनों का बुरी तरह दुरुपयोग होता रहा है। इससे सामयिक कौतुक-कौतूहल मात्र बढ़ा है। सुविधाओं की भी एक सीमा है, व एक सीमा तक ही पेट में खाया जा सकता है, एक सीमा तक ही चला जा सकता है। इन्द्रिय भोग भी एक सीमा तक ही हो सकते हैं। अतिवाद अपनाते ही अनर्थ प्रस्तुत होता है। अनाचार के दुष्परिणामों से कोई शासन या समाज के दण्ड से तो किसी कदर बच भी सकता है पर प्रकृति व्यवस्था में कठोर न्यायाधीश की तरह क्षमा करते का कोई विधान नहीं है। यदि दरगुजर होते रहने की ढीलपोल चलती तो जड़ चेतन जगत का सारा क्रम, अनुशासन एवं विधान ही लड़खड़ा जाता। पिछली शताब्दियों में आरंभ हुई और इन दिनों हुई शोध में चल रही प्रकृति के विरुद्ध उच्छृंखलता, उद्दण्डता और अनुशासनहीनता की प्रवृत्ति चरम सीमा तक जा पहुँची है। उसके परिणाम क्रमशः आना आरंभ हो गए हैं और वह दिन दूर नहीं, जब आज की भड़काई जा रही चिनगारी कल जलकर ज्वालमाल बन कर दावानल के रूप में प्रगट होगी।
यह सुनिश्चित है कि आग में हाथ डालने पर वह जलेगा। जहर खाने वाले मौत के मुँह में ही चले जाते हैं। प्रकृति के साथ उद्दंडता पूर्ण खिलवाड़ करना भी ऐसा ही दंडनीय अपराध है, जिसमें न केवल कर्ता को, वरन् किसी भी रूप में संबद्ध सहयोगी परिकर को भी उसके लिए प्रताड़ित होना पड़ता है। आग से खेल खेलने वाला अकेला ही क्षतिग्रस्त नहीं होता वरन् उसके समीपवर्ती परिकर में उस हानि के भागीदार बनते हैं। यह सब प्रत्यक्ष होते हुए भी व्यवहार में अप्रत्यक्ष जैसा बनकर रह गया है। अपराधियों को दण्ड मिलने की, पुलिस, कानून, कचहरी, जेल जैसी व्यवस्था मौजूद है, पर प्रकृति के साथ अनुचित खिलवाड़ करना तो बारूद के ढेर में चिनगारी फेंकने के समान है। उसके दुष्परिणाम समूचे क्षेत्र को भुगतने पड़ते हैं।
सभी प्राणी शान्तिपूर्वक रहते और चैन के साथ समय गुजारते हैं। सीधी राह चलने वालों का न काँटों से पाला पड़ता है और न ठोकरें खानी पड़ती हैं। कठिनाइयों और विपत्तियों में से आकस्मिक तो कभी-कभी कुछ ही होता है। आमतौर से उद्दंडता और अव्यवस्था का व्यतिरेक ही ऐसी प्रतिक्रिया उत्पन्न करता है जिन्हें विपत्ति, कठिनाई उलझन एवं विपन्नता-विभीषिका का नाम दिया जा सके। सर्प, सिंह आदि को छेड़ने तथा बर्रों के छत्ते में हाथ डालने की प्रतिक्रिया विपत्ति उत्पन्न किए बिना नहीं रहती। प्रकृति की विधि-व्यवस्था का उल्लंघन करने की उद्दण्डता भी ऐसी ही दुर्बुद्धि है, जिसने किसी को भी मजा चखाने बिना नहीं छोड़ा। इस तथ्य को हर किसी को गाँठ बाँध कर रखना चाहिए।