Magazine - Year 1988 - Version 2
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Language: HINDI
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व्याधियाँ तन में नहीं कहीं और उपजती हैं
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गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने मानव शरीर को रथ की उपमा देते हुए कहा है कि इन्द्रिय इसके घोड़े हैं, मन सारथी और आत्मा स्वामी। शरीर और मन का संबंध शासित और शासक जैसा है। शरीर वही कुछ करता है जिसका मन निर्देश देता है। मन जिधर लगाम खींचता है, शरीर रथ के घोड़े उधर ही दौड़ पड़ते हैं और उसके संकेतों पर विराम लगा देते हैं। ऐसा कोई शारीरिक क्रिया−कलाप नहीं जो मन की इच्छा के विपरीत सम्पन्न होता हो।
जिसकी इच्छा आज्ञा के बिना कोई क्रिया व्यापार सम्पन्न न होता हो, उसे अधिपति नहीं तो और क्या कहा जायगा? मन के कारण ही शरीर में गड़बड़ियाँ उत्पन्न होती हैं। शरीर में ऐसा कोई घटक नहीं है जो मन की उपेक्षा कर सके। मन से बलवान आत्मा है और उससे सशक्त कोई इकाई शरीर में है ही नहीं। निर्विवाद रूप से शरीर पर मन एवं आत्मा का ही एक छत्र राज्य है। इस तथ्य को जानने के बाद यह मानने से इंकार करने का कोई कारण नहीं है कि मन का असंतुलन शोक संताप तथा उद्वेगों के साथ रोग बीमारियों के रूप में भी अपना प्रभाव उत्पन्न करे। विज्ञान भी अब क्रमशः इस निष्कर्ष पर पहुँचता जा रहा है कि रोगों का कारण शरीर में नहीं मन में है। वहीं से सारे रोग जन्म लेते है और शरीर को विभिन्न तरह से खोखला बनाते हैं। अमेरिका के मन शास्त्री और मनोरोग चिकित्सक राबर्ट डी0 राँप ने व्यापक सर्वेक्षण के बाद यह प्रतिपादित किया है कि असाध्य समझे जाने वाले अधिकाँश रोगों का कारण मनुष्य के मन में रहने वाली दुश्चिन्ताएँ, कुँठाएँ, उलझनें, ग्रंथियाँ और चिंतन की विकृतियाँ हैं। उनका कथन है कि जटिल से जटिल रोग भी वहीं से उपजते हैं एवं चिकित्सा वहीं की की जानी चाहिए।
कनाडा के एक शरीर शास्त्री और मनोविज्ञानी डॉ. डैनियल कापोने के अनुसार तमाम उपचारों के बावजूद भी काबू में न आने वाला साधारण सा रोग जुकाम केवल मानसिक कारणों से ही उत्पन्न होता है। शरीर शास्त्रियों के अनुसार जुकाम का निमित्त कारण विषाणु का आक्रमण होता है पर उनकी प्रकृति अन्य विषाणु सजातियों से सर्वथा भिन्न होती है। चेचक, खसरा आदि रोगों का आक्रमण एक बार होने पर शरीर में उनके रोगाणुओं से लड़ने की शक्ति आ जाती है। फलतः इन रोगों के दुबारा उत्पन्न होने का खतरा नहीं रहता लेकिन रोजमर्रा के कष्ट सर्दी जुकाम पर यह बात लागू नहीं होती। वह कई बार होता और लगातार बना रहता है। जब तक मानसिक तनाव कम नहीं होता, वह नियंत्रण में आता भी नहीं, चाहे कितनी ही एण्टीबायोटिक्स, एण्टीएलर्जिक ड्रग्स ली जा रही हों। सामयिक रूप से यों तो जुकाम दवाओं से एक बार अच्छा हो जाता है किन्तु तुरंत बाद होने पर दुबारा उससे अच्छा नहीं होता। मन बहलाने के लिये चाहे जो दवायें ली जाती रहें, लेकिन सही बात यही है कि जुकाम की कोई दवा नहीं होती, क्योंकि कारण कहीं और है, चिकित्सा कहीं और की हो रही है।
रोगों का कारण शरीर में नहीं मन में है इस तथ्य को चिकित्सा-विज्ञान ने सिद्धान्ततः स्वीकार कर लिया है और इस आधार पर रोगों के उपचार की नई पद्धतियाँ भी खोजी तथा अपनायी जाने लगी हैं। बड़े शहरों में साइक्रियाट्रिस्ट तथा फिजीशियन उपचार करते समय रोग परीक्षण के साथ रोगी के मनोविश्लेषण पर भी ध्यान देने लगे हैं। उपचार की यह समन्वित पद्धति काफी सफल रही है। और काई आश्चर्य नहीं कि अगले दिनों प्रचलित चिकित्सा पद्धति की उपयोगिता को नकार दिया जाए तथा उसके स्थान पर मानसोपचार एवं औषधोपचार की मिश्रित चिकित्सा पद्धति अपनाई जाए। आज से लगभग 25 वर्ष पूर्व ब्रिटेन के डॉ. हैरी एडवर्डस् ने तो बिना दवा और बिना औजार के एक नई ही चिकित्सा पद्धति विकसित की थी जिसे उन्होंने “स्पिरीचुअलहीलिंग” अथवा “आध्यात्मिक चिकित्सा” का नाम दिया था।
डॉ. हैरी एडवर्डस् ने अपनी पुस्तक “ट्रुथ अबाउट स्प्रिचुअल हीलिंग” में इस चिकित्सा पद्धति के सिद्धान्तों और विधियों का उल्लेख करते हुए ऐसे कई रोगियों के विवरण दिये हैं जिन्हें डाक्टरों ने लाइलाज घोषित कर दिया था किन्तु डॉ. एडवर्डस् ने उन्हें अल्पावधि में ही आध्यात्मिक चिकित्सा से ठीक कर दिया। लंदन की एक महिला एलिजाबेथ विल्सन की रोग गाथा और उससे मुक्त होने की कथा बड़ी और विचित्र भी है। सन् 1929 में जब वह कुल साढ़े तीन वर्ष की थी, उसकी रीढ़ की हड्डी में दर्द हुआ। दर्द इतना भयंकर था कि उसे पूरे एक वर्ष तक बिस्तर पर सीधे लिटाये रखा गया और उसका इलाज भी कराया गया। लेकिन रोग ठीक होने के बजाय गंभीर ही होता चला गया। चौदह वर्ष तक पहुँचते-पहुँचते तो पीड़ा असहनीय हो चुकी थी और वह चलने फिरने में असमर्थ हो गई। एलिजाबेथ पूरे 35 वर्षों तक यह पीड़ा झेलती रही। चिकित्सकों ने हार मान ली और उसके मर्ज को लाइलाज बताया। सन् 1960 में एलिजाबेथ के अभिभावकों को किसी ने डॉ. एडवर्डस् के संबंध में बताया। वे उपचार के लिये डॉ. एडवर्डस के पास ले गए। आश्चर्य की बात है कि कुछ ही हफ्तों की मनःचिकित्सा तथा सहानुभूतिपरक वनौषधियों के इलाज से वह ठीक हो गई।
डॉ. हैरी एडवर्डस् ने अपनी इस चिकित्सा पद्धति के सम्बन्ध में अपनी पुस्तक “ट्रुथ अबाउट स्पिरिचुअल हीलिंग” में लिखा है कि आध्यात्मिक चिकित्सा पद्धति पूर्वार्त्त दर्शन द्वारा प्रतिपादित एक निश्चयात्मक विधि है और इसका परिणाम भी तर्कसंगत है। वे कहते हैं कि नारंगी अच्छी होती है। यदि ऐसा न होता तो उसके उगने और विकसित होने का कोई मतलब नहीं होता। यदि पेड़ पर से तोड़ने के बाद नारंगी खराब पाई जाती है तो इसका अर्थ यह नहीं है कि उसके उगने का उद्देश्य गलत था। खराब नारंगी एक बीमार नारंगी है और इसके लिये नारंगी दोषी नहीं है। दोष या तो किसी जन्मजात कमी के कारण होता है अथवा उसका कोई बाह्य कारण होता है। संभवतः नारंगी को टहनी से जोड़ने वाली डंडी कमजोर हो। इससे नारंगी गिर सकती है और गिर कर खराब हो सकती है या फिर उसकी बीमारी का कारण बाहरी हो सकता है। कहने का आशय यह है कि कारण चाहे जो भी हो, उसे दूर किया जा सकता है, उसका उपचार किया जा सकता है। नारंगी की तरह ही आदमी भी भीतरी कमजोरी या बाहरी आक्रमण का शिकार हो सकता है। अतः जिस प्रकार वृक्ष का पोषण करने के साथ नारंगी की टहनी से जोड़ने वाली कड़ी को मजबूत बनाना जरूरी है, उसी तरह उस कड़ी को भी मजबूत बनाना आवश्यक है जो मनुष्य को उसके उद्गम से जोड़ती है। स्वास्थ्य का अर्थ है सामान्य और प्राकृतिक स्थिति। बीमारी का अर्थ है स्थिति सामान्य-प्राकृतिक नहीं है और उसे सामान्य बनाने की आवश्यकता है। यह काम अध्यात्म चिकित्सा द्वारा हो सकता है तथा होना चाहिए। चिकित्सा का मूलभूत प्रयोजन इतना होना चाहिए कि मनुष्य का संबंध सूत्र उसके उद्गम से अन्तःकरण से जुड़ जाए। आध्यात्मिक चिकित्सा का काम मनुष्य और उसके सर्जक के बीच के संबंधों को पुनर्स्थापित करना है।
प्रचलित चिकित्सा पद्धति मनुष्य को कुछ रासायनिक तत्वों का योग भर मानकर चलती है और स्वास्थ्य में खराबी का कारण इन रासायनिक संतुलनों का गड़बड़ा जाना मात्र समझती है। दवाएँ परहेज, उपचार और शल्य चिकित्सा आदि सभी उपाय इस लड़खड़ाते संतुलन को साधने के लिये किये जाते हैं। यह रासायनिक संतुलन दवा और उपचार से कुछ समय के लिए स्थापित भी हो जाते हैं। किन्तु डॉ. एडवर्डस् के अनुसार स्वास्थ्य की सही सिद्धि अपने मूल स्त्रोत से जुड़ जाने पर पूरी होती है। वह मूल स्त्रोत आध्यात्मिक सत्ता या परम चेतना है। सही कारण है कि जिन कई रोगों को आधुनिक चिकित्सा असाध्य अथवा दुःसाध्य मानती है, “स्पिरिचुअल हीलिंग” द्वारा उन्हें बड़ी सरलता से थोड़े ही समय में ठीक कर दिया गया।
डॉ. एडवर्डस् इसे कोई चमत्कार नहीं मानते। उनका कहना है कि चमत्कार का अर्थ तो यह है कि जो असामान्य हो और साथ ही जिसका कोई कारण समझ में न आए। लेकिन अध्यात्म चिकित्सा सुनिश्चित नियमों और तर्क संगत कारणों के आधार पर अपना प्रभाव उत्पन्न करती है। अतः उसे सामंजस्य बिठाने वाली प्रक्रिया भर माना जाना चाहिए। बात सही भी है।
कहा जा चुका है कि मन शरीर का संचालक और नियामक है। मनः शास्त्री इसे शरीर का स्वामी मानते हैं। परन्तु भारतीय तत्वदर्शन मन को शरीर संचालन के लिये आत्मा द्वारा नियुक्त एक कर्मचारी मात्र मानता है अर्थात् स्वास्थ्य, सुव्यवस्था और शरीर के सुसंचालन में आत्मिक शक्ति की न्यूनता या प्रबलता ही लड़खड़ाने अथवा सम्हालने का आधार बनाती है। जो चेतना शक्ति अपने संकल्प मात्र से इतने बड़े विश्व ब्रह्माण्ड का सृजन कर सकती है, उसे बना और बिगाड़ सकती है, उससे संबद्ध न होने पर शरीर अस्वस्थ हो जाता है तो इसमें आश्चर्य किस बात का?