Magazine - Year 1989 - Version 2
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Language: HINDI
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कोरा बुद्धिवाद तो हमें ले डूबेगा!
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आधुनिक तकनीकी युग में मनुष्य के बौद्धिक मानसिक स्तर का विकास तो हुआ है पर अन्तः चेतना की गई गुजरी स्थिति में रहने के कारण वह अनेकानेक समस्याओं में उलझा असहाय-अपंगों की तरह बेचैन दिखाई देता हैं मानवी अन्तराल में विपुल शक्तियों का भण्डार भरा पड़ा है। बुद्धि से भी ऊँची दिव्य चेतना की परतें उसमें विद्यमान है परन्तु संकल्पों की दुर्बलता अथवा बौद्धिक अहंता उन तक पहुँचने नहीं देती। आत्मानुभव करना एवं अति मानवी क्षमताओं का विकास तो दूर रहा वह सुख-शाँति से भी वंचित रह जाता है।
यद्यपि बुद्धि मन का परिष्कृत पक्ष है और उसकी जीवन में उपयोगिता भी सर्वाधिक है। बुद्धि के द्वारा ही समस्याओं और योजनाओं पर विचार किया और उनका समाधान ढूँढ़ा जाता है। वैज्ञानिक आविष्कारों का उद्गम भी यह बुद्धि संस्थान है। सामाजिक, राजनैतिक एवं अंतर्राष्ट्रीय समस्याओं के समाधान भी बुद्धि विवेचन के द्वारा ही संभव होते है। परन्तु इससे आगे की प्रगति की आशा बुद्धिवाद से नहीं की जा सकती। इसके लिए हमें प्रज्ञा का-भाव संवेदना मिश्रित विवेक बुद्धि का आश्रय लेना होगा। मनुष्य के उज्ज्वल भविष्य की कल्पना इसी आधार पर की जा सकती है।
अब वैज्ञानिक भी मानने लगे है कि मात्र बुद्धि की बौद्धिक चेतना के बल पर इस विश्व ब्रह्मांड के रहस्य को जाना समझा नहीं जा सकता और न ही इससे व्यक्ति की गुत्थियों का समाधान निकाला जा सकता है। सद्बुद्धि के बिना विश्व में चिरकालिक शाँति की स्थापना भी संभव नहीं। लौकिक बुद्धि में सत्य के साथ असत्य, सद् के साथ असद्, धर्म के साथ अधर्म की मलीनताएं भी धुली रहती है। ऐसी दशा में सत्य तक पहुँच पाना संभव नहीं। भारतीय तत्वदर्शी ऋषियों ने इस तथ्य को बहुत पहले जान लिया था और बुद्धि से भी ऊँची परत सद्बुद्धि की “प्रज्ञा” की विशिष्ट क्षमता का ज्ञान प्राप्त कर लिया था। मन, बुद्धि, चित्त से भी उच्च स्तरीय चेतना की परत ऋतम्भरा प्रज्ञा अन्तःकरण की दिव्य चेतना के अधिक समीप है। तत्वदर्शियों का कहना है कि तीर से बंधी हुई नाव की तरह जहाँ बुद्धि आगे न बढ़कर कुंठित हो जाती है, विचार भी अपने पैर पीछे हटाता हुआ जहाँ से दूर हट जाता है और तर्क भी जहाँ जाने का उत्साह नहीं करता, वहाँ प्रज्ञा की पहुंच है। सत्य का आत्मानुसंधान का कार्य इसी के द्वारा सम्पन्न होता है। यदि मानवी बुद्धि दीपक के समान मानी जाय तो प्रज्ञा की तुलना सूर्य से की जा सकती है जिन्हें यह प्राप्त हो जाती है वे तत्ववेत्ता ऋषि मूर्धन्यों में गिने जाते है। प्रज्ञा को ही “चैतन्याग्नि” कहा गया है। शास्त्रकारों का कथन है कि जिन्हें इस नीर−क्षीर विवेक बुद्धि की उपलब्धि हो जाती है वे चैतन्याग्निरूढ़ होकर द्यौलक गमन की क्षमता वाले हो जाते हैं। उनके लिए स्व-लोक का मार्ग ज्योतिर्मय और प्रकाशित हो जाता है। यही देवयान है।
वैयक्तिक मोक्ष से लेकर विश्व की उलझी हुई समस्त उलझनों को सुलझाने में तत्वदर्शी प्रज्ञा की शक्ति का प्रयोग आवश्यक मानते है। उनका कहना है कि बुद्धिमान मनुष्य भी जब दुर्बुद्धि ग्रस्तों जैसी विनाशलीला रचने का उद्यत हो जाता है तो स्पष्ट है कि बुद्धिवाद से स्थायी सुख शाँति की उपलब्धि नहीं हो सकती। पास्कल, किर्केगार्ड, हेनरी वर्सो, मार्टिन हेडेगर एवं हेनरी काल्डरवुड जैसे प्रख्यात दार्शनिक को ने एक स्वर से बुद्धिवाद की कटु आलोचना की है और कहा है कि अब यदि आगे भी बुद्धिवाद पर ही आश्रित रहा गया तो दुनिया का सर्वनाश सुनिश्चित है। इससे बचने का एक मात्र विकल्प सुझाते हुए इन्होंने कहा है कि मनुष्य सद्बुद्धि का आश्रय ग्रहण करके चेतना के उच्च धरातल पर पहुँच सकता है, भ्रांतियों पर विजय पर सकता है। धरती पर स्वर्ग का अवतरण एवं मनुष्य में देवत्व का उदय भी इसी आधार पर संभव है कि मानवी चेतना को मन, बुद्धि तक सीमित न रहने देकर प्रज्ञा के साथ जोड़ा जाय। व्यक्तित्व को उच्च स्तरीय, प्रखर एवं प्रचंड बनाया जाय।
यों तो मनुष्य ने अपनी बुद्धिमत्ता का पूर्ण उपयोग भौतिक उन्नति में किया है और उसके परिणाम भी सभ्य जीवन के रूप में प्राप्त किये है। प्रगति एवं समृद्धि के लिए यह आवश्यक भी था और भविष्य में भी रहेगा। परन्तु यह उन्नति आधी-अधूरी ही कही जायगी क्योंकि बौद्धिक चेतना का अधिकाँश उपयोग ऐसे कृत्यों एवं निर्माणों में किया है जिससे समस्त मानव सभ्यता के विनष्ट हो जाने की संभावना प्रत्यक्ष सामने खड़ी दीखती है। ऐसी स्थिति में बुद्धि की आलोचना करना स्वाभाविक ही है।
पाश्चात्य जगत के प्रख्यात मनीषी एवं चिकित्सा विशेषज्ञ अलेक्सिस कैरल का कहना है कि बुद्धिवाद के नाम पर आत्मोत्कर्ष के शाश्वत सिद्धान्तों की खिल्ली उड़ाकर मनुष्य ने अपने लिए विपत्ति ही अर्जित कर ली है। उनके मतानुसार विनाश के कगार पर खड़ी आधुनिक मानव सभ्यता को तभी बचाया जा सकता है जब उसकी विवेक बुद्धि का विकास हो। तकनीकी बुद्धि का विकास तो मनुष्य ने खूब कर लिया है पर अब उसमें वे नैतिकता चाहिए, आध्यात्मिक सामर्थ्य चाहिये जो विज्ञान से उत्पन्न शक्तियों को नियंत्रण में रख सके। उनका कहना है कि मैटर के साथ स्प्रिट को भी जानना होगा अर्थात् भौतिक उन्नति के साथ आत्मोन्नति की ओर भी ध्यान देना होगा और उन सद्गुणों को वापस लाना होगा जो धर्म के साथ विकसित हुए थे।
महर्षि अरविंद कोरी बुद्धि की भर्त्सना करते हुए कहते है कि मात्र बुद्धिमता ही सब कुछ नहीं है। अपनी प्रख्यात कृति “सावित्री महाकाव्य” में उन्होंने कहा है कि अगर बुद्धि ही सब कुछ होती तो फिर दिव्य आनन्द की आशा छोड़ देनी चाहिए, क्योंकि बुद्धि सत्य के शरीर का स्पर्श कभी भी नहीं कर सकती, न वह ईश्वर को-आत्मा को ही देख सकती है। बुद्धि की पहुँच केवल ईश्वर की छाया तक है, वह ईश्वर की हँसी नहीं सुन सकती” उनकी दृष्टि में यह मनुष्य की बौद्धिकता का ही कमाल है कि उसने भौतिक विकास की चरम अवस्था को छू लिया है और प्रकृति पर पूर्ण नियंत्रण की तैयारी में है, फिर भी आज वही बुद्धि उसके मार्ग की सबसे बड़ी बाधा बन गई है। आज वह अपने ही विनाश की तैयारी कर मरण के किनारे पहुँच गया है। आज जो भी अनैतिक आचरण बरता जा रहा है, वह बुद्धि से प्रेरित होकर ही किया जा रहा है। इन्हें न तो भाषणों-प्रवचनों के बल पर समाप्त किया जा सकता है और न प्रशासनिक तरीके से सुधारना संभव है। यदि बौद्धिक स्तर पर ही इनका निराकरण किया जाना संभव होता तो अब तक समस्त पाप अत्याचार दमन, युद्ध आदि इस विश्व से मिट गये होते, पर ऐसा संभव नहीं हुआ। श्री अरविन्द के अनुसार इसके उपचार का मात्र एक ही उपाय है कि मनुष्य बुद्धि के धरातल से ऊपर उठे और मन उच्चतर धरातल अतिमन को प्राप्त करे, जिस पर पहुँच कर मनुष्य सर्वज्ञ बन जाता है। मनुष्य के विकास की अगली मंजिल वही है। ज्ञान तभी जन्म लेता है जब बुद्धि की मृत्यु होती है। मनुष्य अपनी भौतिकवादी दृष्टिकोण का अतिक्रमण करके ही अध्यात्मिक विकास की ओर अग्रसर हो सकेगा। जब तक वह अपनी चेतना का परिष्कार करके अतिमानस के-प्रज्ञा के क्षेत्र में प्रवेश नहीं करता, उसका कल्याण संभव नहीं।
बुद्धि आखिरी शब्द नहीं है और न ही बुद्धिजीवी प्रकृति का सर्वश्रेष्ठ निर्माण है। मनुष्य के अंदर दिव्य क्षमताओं की संभावनाओं का एक सम्पूर्ण महासागर लहलहा रहा है। उसमें से प्रज्ञा को, बद्बुद्धि को जाग्रत करके मनुष्य समस्त समस्याओं का समाधान प्राप्त कर सकता है और अपने उज्ज्वल भविष्य की संरचना कर सकता है क्योंकि प्रज्ञा द्वारा सत्य ही देखा जाता है, सत्य ही प्रकट किया जाता है। सत्य ही ग्रहण किया जाता है। पतंजलि योग दर्शन के समाधिपाद के 41 वें श्लोक में ऋतम्भरा प्रज्ञा अर्थात् सत्य को धारण करने वाली बुद्धि की विशेषता का वर्णन करते हुए कहा गया है कि- ऋति और अनुमान से प्राप्त बुद्धि की अपेक्षा ये ऋतम्भरा प्रज्ञा विशेष रूप से अर्थ का साक्षात्कार करा देती है। अर्थात् सत्य पर आधारित होने से उसके द्वारा छिपे हुए रहस्यों का उद्घाटन हो जाता है जो साधारण बुद्धि से नहीं जाना जा सकता वह भी साक्षात्कार हो जाता है। अतः आत्मा तथा संसार के प्रत्येक पदार्थ के वास्तविक स्वरूप को समझने एवं संकटों और कुसंस्कारों से छुटकारा पाने के लिए प्रज्ञा का आश्रय लेना आवश्यक है भव-बन्धनों से मुक्ति दिलाने में प्रज्ञा ही समर्थ है।
वस्तुतः अन्तःकरण का विकास-चेतना का उदात्तीकरण” ही वह एक मात्र राजमार्ग है। जो मनुष्य को वर्तमान संकटों से छुटकारा दिला सकता है और उसे महानता के पथ पर आगे बढ़ा सकता है। महानता का सीधा सम्बन्ध अन्तर्ज्ञान से है। ऋतम्भरा का प्रज्ञा से है। नैतिकता, सदाचरण एवं आत्मसंयम का अवलंबन लिए बिना इसकी उपलब्धि नहीं हो सकती और विवेक बुद्धि के बिना आत्म साक्षात्कार, बन्धन मुक्ति संभव नहीं। अतः हर परिस्थिति में मनुष्य को सद्बुद्धि का आश्रय लेना ही पड़ेगा, इसी में उसका कल्याण सन्निहित है। गायत्री तत्व दर्शन इसी प्रयोजन की पूर्ति करता है।