Magazine - Year 1989 - Version 2
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Language: HINDI
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प्राणायाम से जुड़ी वर्ण-चिकित्सा
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रंग चिकित्सा का आधार सूर्य की किरणें, उनका प्रकाश और रंग है। सम्पूर्ण वनस्पति जगत एवं जीव जगत इन्हीं से प्रकाशित, संचालित और प्रेरित होता है। प्रकृति के संतुलन का आधार भी यही है। तत्वों के निर्माण की अद्भुत क्षमता से युक्त रंगीन रश्मियों में जीवाणु, पोशाक बल वर्धक-पुष्टिदायक गुण विद्यमान हैं। इनमें चुम्बकत्व, विद्युत, उष्णता, प्राण और ऑक्सीजन जैसे जीवनदायी तत्वों के प्रचुर परिमाण में उपस्थित होने की पुष्टि वैज्ञानिक खोजों से भी हो चुकी है। अतः स्वास्थ्य संतुलन का उपक्रम इनसे सहज ही बैठ जाता है। अपनी प्रकृति के अनुरूप उपयुक्त वर्णों का चुनाव किया और उनसे लाभ उठाया जा सकना सबके लिए संभव है। ध्यान मिश्रित प्राणायाम प्रक्रिया द्वारा रंग-रश्मियों का आकर्षण अवधारण न केवल शारीरिक मानसिक व्याधियों से छुटकारा दिलाता है वरन् अभ्यासकर्ता को ओजस्वी-तेजस्वी-मनस्वी भी बनाता है। गहराई में प्रवेश करने पर ब्रह्मवर्चस् का-आत्मोत्कर्ष का लाभ भी हस्तगत होगा।
योग साधनाओं-अध्यात्म उपचारों में मन को वशवर्ती बनाने के लिए ध्यान-धारणा की विधा अपनाई जाती है। इससे पूर्व शारीरिक मानसिक परिशोधन की प्राणायाम प्रक्रिया का आश्रय लिया जाता है जो जटिल, समय -साध्य एवं जोखिम भरी होती है। किन्तु जब इसे रंगों का ध्यान करते हुए प्राणाकर्षण प्राणायाम की तरह संयुक्त रूप से सम्पन्न किया जाता है तो वह सरल भी पड़ती है और प्रतिफल भी जल्दी सामने आते है। “कलरब्रीदिग” की विधा ऐसी ही है जो उक्त दोनों ही प्रयोजनों की पूर्ति करती है। यह हानि रहित भी है।
इस संबंध में वैज्ञानिकों ने गहन अनुसंधान किया है और पाया है कि वातावरण में अथवा सूर्य किरणों में घुले रंगीन परमाणु श्वास द्वारा प्राणवायु के साथ अंदर प्रविष्ट होते और स्वास्थ्य संतुलन बिठाते है। उथली एवं हल्की श्वास-प्रश्वास के कारण शरीर को न तो आवश्यक मात्रा में आक्सीजन की प्राणवायु की आपूर्ति हो पाती है और न ही रंगों की आवश्यक मात्रा शरीर को मिल पाती है। फलतः शरीर और मन दोनों बीमार रहने लगते हैं। विख्यात सूर्य चिकित्सा विज्ञानी डा0 एडविन बेबिट एवं डा0 इवान बी. हाइटेन के अनुसार इस असंतुलन को गहरे श्वास-प्रश्वास के साथ रंगों के भाव भरे आकर्षण के द्वारा आसानी से दूर किया जा सकता है। इनका कहना है कि मस्तिष्कीय चेतना जहाँ श्वसन प्रक्रिया से जुड़ी हुई है वहीं रंगों का भी मन से घनिष्ट संबंध है। उचित मात्रा में उपयुक्त रंग उद्दीपन मिलने पर मस्तिष्क सक्रिय और सशक्त बनता है जबकि प्रतिकूल वर्ण उत्तेजना उत्पन्न करते और मन को विकार ग्रस्त बनाते हैं।
मूर्धन्य चिकित्सा शास्त्री डा0 स्टीवेन्सन के अनुसार सूर्य के प्रकाश में दो हजार रंग हैं जिनमें से सात प्रमुख हैं। इनकी अलग-अलग प्रकृति और भिन्न-भिन्न प्रभाव हैं। सातों वर्ण सात प्रकार की औषधियों का काम करते है, परन्तु इनमें से प्रायः नारंगी, हरे और नीले रंग को ही उपचार प्रक्रिया में प्रयोग करते हैं। रक्तसंचार में वृद्धि करने तथा माँस-पेशियों को शक्ति प्रदान करने के साथ ही मानसिक विकास, इच्छा शक्ति संवर्धन, एवं इच्छाओं मनोभावों के विकास परिष्कार में नारंगी रंग का प्रयोग लाभदायक होता हैं। हरा रंग माध्यम प्रकृति का होता है। इसे संतुलन बिठाने वाला एवं शोधक बताया है। पीले और नीले रंगों के सम्मिश्रण से बना हरा रंग प्राकृतिक रंग है। अतः शरीर को स्वस्थ एवं मन को प्रसन्न रखने में इसकी महत्वपूर्ण भूमिका होती है। रक्तशोधक होने से यह रंग शरीर में से विजातीय विषैले पदार्थों को निकाल बाहर करता है मस्तिष्क सहित सम्पूर्ण तंत्रिकातंत्र को पोषण प्रदान करने में यह किरणें अग्रणी मानी गयी हैं। मनोभावों के परिशोधन एवं त्वचा रोगों को दूर करने में काफी सहायता मिलती है।
नीला रंग शीतल, सुखद एवं संकोचक प्रकृति को होता है। इसका प्रभाव मुख्य रूप से मन मस्तिष्क पर पड़ता है। अतः मानसिक उत्तेजनाओं को शाँत करने, शमन करने, मन को शीतलता प्रदान करने से लेकर मानसिक, आत्मिक विकास में इस रंग का प्रमुख रूप से उपयोग होता है। ध्यान प्रयोजनों में एवं प्राण ऊर्जा के उन्नयन में नीला रंग अधिक प्रभावकारी माना गया हैं। मनोवैज्ञानिक एवं अध्यात्मविद् भी इसकी पुष्टि करते हैं।
जीवनीशक्ति के अभिवर्धन में जो महत्वपूर्ण स्थान प्राणाकर्षण प्राणायाम का है लगभग उसी स्तर का प्रतिफल “कलर ब्रीदिंग” प्रस्तुत करता है। इस संदर्भ में रंग चिकित्सा शास्त्री इवान बी0 हाइटेन ने गहन खोजे की हैं और पाया हैं कि ऊर्जा के संवर्धन में तथा शरीर की प्रतिरक्षा प्रणाली को सशक्त बनाने में “कलर ब्रीद्रिग” महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। उनके अनुसार शारीरिक रुग्णता, मानसिक असंतुलन और अदक्षता को साँस द्वारा रंगों का प्रयोग करके आसानी से दूर किया जा सकता है। शरीर में अथवा अंग अवयव- विशेष में जिस रंग की कमी हो, उसी रंग का ध्यान करते हुए गहरी श्वास लेने एवं पीड़ित अंग पर प्रगाढ़ भावना द्वारा आरोपित करने से धीरे-धीरे वह भाग स्वस्थ हो जाता है। इस प्रक्रिया में प्राणायाम क साथ रंग विशेष के धुले हुए की भावना की जाती है। मानसिक चेतना के विकास परिष्कार में इससे अभूतपूर्व सहायता मिलती है।
सुप्रसिद्ध रंग चिकित्सा विज्ञानी मेरी एंडरसन ने भी अपनी कृति “कलर हीलिंग” में कहाँ है कि “कलर ब्रीदिंग” अर्थात् रंगों के प्राणायाम की प्रक्रिया द्वारा शरीर में रंग प्रकम्पनों की पूर्ति की जा सकती है। इस उपचार पद्धति में गहरी श्वास, प्रश्वास के साथ रंग विशेष को प्राणवायु क साथ प्रवेश करने की सुदृढ़ भावना-कल्पना मन ही मन करनी पड़ती हैं। जिस तरह प्राणायाम प्रक्रिया में शरीर के समस्त अंग अवयवों प्रत्येक घटकों में प्राण संचार की ऊर्जा भण्डारण की गहन कल्पना करनी पड़ती है ठीक उसी पद्धति का अनुसरण “कलर ब्रीदिंग” में किया जाता है। पूरक, कुँभक एवं रेचक का समय भी वही रखना पड़ता है जो प्राणायाम में रखा जाता है। अर्थात् यदि श्वास खींचने को समय दस सेकेंड है तो उसे अन्दर दस सेकेंड तक रोकना होगा और उसी मध्य नथुनों द्वारा वायु प्रवेश के साथ इच्छित रंग के प्रविष्ट होने एवं अंग विशेष में प्रतिष्ठित होने और उसके स्वस्थ बनने की भावना की जाती है। इस प्रक्रिया में प्राणायाम और ध्यान दोनों साथ-साथ सम्पन्न होते है, फलतः परिणाम भी अपेक्षाकृत जल्दी मिलता है। इससे शरीर को स्नायु प्रणाली और अंतः भावी ग्रन्थि दोनों सक्रिय हो उठती है और शरीर में एकत्र विषाक्तता को निकाल बाहर करती हैं।
“कलर ब्रीदिंग” का सर्वोत्तम समय सुबह का अरुणोदय काल होता है, जिस समय सम्पूर्ण क्षितिज स्वर्णिम आभा से परिपूर्ण रहता है। सूर्यास्त के समय भी प्रायः यही स्थिति रहती है। उस समय भी इसे किया जा सकता है। खाली पेट या भोजन करने के कम से कम दो तीन घंटे बाद ही इस प्रकार का रंगाकर्षण प्राणायाम करना लाभ प्रद रहता है। इसके लिए खुले में अथवा कमरे के अंदर खुली खिड़की के पास का स्थान उपयुक्त रहता है जहाँ रोशनी का प्रवेश और शुद्ध वायु का आदान-प्रदान हो। प्रक्रिया इस प्रकार है-सर्व प्रथम सुखासन में बैठकर शरीर को शिथिल और मन को शान्त किया जाता है। तदुपरान्त फेफड़ों की पूरी वायु नासिका छिद्रों से बाहर निकाल दी जाती है और लगभग दस सेकेंड तक बाह्मकुँभक की स्थिति में रहा जाता है। इसके पश्चात् दोनों नथुनों से गहरी श्वास खींची जाती है और भावना की जाती है कि प्राण वायु के साथ घुलकर इच्छित रंग की प्रकाश रश्मियाँ शरीर के अन्दर प्रवेश कर रही हैं। कुंभक
के समय इन रंग प्रकम्पनों को प्रभावित अंग तक संकल्प बल द्वारा पहुँचाने और उसके स्वस्थ होने-परिपुष्ट बनने की दृढ़ भावना की जाती है। तत्पश्चात् विजातीय विषैले तत्वों सहित वायु को रेचक प्रक्रिया द्वारा बाहर निकाल दिया जाता हैं। यह एक प्राणायाम हुआ। आरंभ में 5 मिनट से लेकर 15 मिनट तक इसे दोहराना पर्याप्त होगा। पीछे अभ्यास के परिपक्व हो जाने पर इसे आधे घंटे तक बढ़ाया जा सकता है।
सम्पूर्ण काया की रंगों की आवश्यकता की पूर्ति के लिए प्रायः लाल, पीली एवं नारंगी प्रकाश किरणों को पृथ्वी की ओर से उठते हुए तथा नाभिचक्र में सकेन्द्रित होने की भावना करनी पड़ती है। साथ ही आसमानी, नीली एवं बैगनी रंग रश्मियों को अंतरिक्ष मंडल से अपने ऊपर बरसते हुए अंदर प्रविष्ट होने तथा हरे रंग की किरणों को समतल रूप से बहने और अपने अंदर प्रवेश करने की भावना- कल्पना करनी होती है। इससे पूरा वातावरण ही विभिन्न रंग रश्मियों से ओत-प्रोत दिखाई देने लगता है। अभ्यास कर्ता को इसका प्रतिफल न केवल स्वस्थ और दीर्घायुष्य के विकास का लाभ भी हस्तगत होता है।