Magazine - Year 1989 - Version 2
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Language: HINDI
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शब्द शक्ति की प्रभावोत्पादकता संदेह से परे!
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भौतिक जगत में अनेकानेक शक्तियाँ हैं, जिनमें मान्यता प्राप्त पाँच हैं। ये हैं-विद्युत, ताप, प्रकाश, चुम्बकत्व एवं ध्वनि। कहा गया है व दैनन्दिन जीवन में देखा भी जाता है कि ये परस्पर एक दूसरे में बदल भी जाती हैं। सृष्टि का एक शाश्वत नियम है कि शक्ति कभी नष्ट नहीं होती, एक ऊर्जा मात्र दूसरी ऊर्जा में बदल जाती है।
जब हम चेतन जगत की चर्चा करते है, तो पाते हैं कि ब्राह्मी चेतना के मूल में भी एक ही शक्ति सक्रिय है, जो भिन्न- भिन्न रूपों में चेतन घटकों में गतिशील देखी जाती है। यह मूलभूत शक्ति है-शब्द की। यह चेतना क्षेत्र का ईंधन है, जो परोक्ष जगत में सक्रिय हो प्रगति हेतु मूलभूत भूमिका निभाती देखी जा सकती है। शब्दशक्ति-ध्वनिऊर्जा-अनहत नाद-शब्द एवं नाद ब्रह्म-इन सब नामों से इसे जाना जाता है। इसके कई रूप हैं, किन्तु जो प्रत्यक्ष है, वह वैखरी वाणी-प्रत्यक्ष वार्तालाप के रूप में दैनिक जीवन में नित्य गतिशील देखी जा सकती है। इसी की भली व बुरी प्रतिक्रियाएँ भी देखी जा सकती है। वाणी सत्परामर्श के रूप में भी प्रयुक्त हो सकती हैं, शिष्ट हास्य के रूप में भी व्यंग्यात्मक अभिव्यक्ति तथा कुमार्ग पर चलने की प्रेरणा के रूप में भी। शब्द एक से होते हुए भी उनकी प्रतिक्रिया इस आधार पर भिन्न हो सकती है कि उन्हें किस स्तर के व्यक्ति ने किस भाव से कहा?
उत्साह और प्रेरणा के दो शब्दरण क्षेत्र में जा रहे सैनिकों में नये प्राण फूँक देते हैं। द्रौपदी द्वारा कौरवों के प्रति व्यंग्य में कही गयी एक पंक्ति महाभारत की विभीषिका रच सकती है। अच्छे खासे साहसी व हट्टे-कट्टे व्यक्ति का मनोबल मात्र दो शब्द गिरा सकते हैं। शब्दों में वस्तुतः चमत्कारी शक्ति भरी पड़ी है। यह मात्र इस बात पर निर्भर है कि किसने इस सामर्थ्य का कितना, किस रूप में, किस उद्देश्य के लिए सुनियोजित किया। शाप और वरदान इस शब्द शक्ति के ही दो चमत्कारी रूप भर है।
वैज्ञानिकों के अनुसार वाणी और ध्वनि के लिए मनुष्य के मस्तिष्क में 50 से 60 प्रतिशत स्थान सुरक्षित हैं। लेखन व हाथ की अन्य क्रियाओं को दूसरा महत्व पूर्ण स्थान प्राप्त है। ये क्रमशः बा्रेकाज क्षेत्र तथा हाथ का कर्म क्षेत्र कहलाते हैं। यह प्रतिनिधित्व एनाटॉमी की दृष्टि से हैं, किन्तु क्रिया की दृष्टि से यह अनुपात रूप में अच्छा खासा महत्वपूर्ण स्थान घेरे बैठा हैं।
पुरुषार्थ और साहस जब व्यक्ति की वाणी से अभिव्यक्ति लेते हैं तो गजब कर दिखाते हैं। सुभाषचन्द्र ने जब कहा-”तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आजादी दूँगा,” तो एक बड़ा जन समुदाय उनके पीछे हो लिया। “नेपोलियन बोनापार्ट ने कहा था- आल्प्स पर्वत यदि तू मेरा रास्ता रोकेगा, तो तुझे चीर कर यह नेपोलियन आगे बढ़ जायगा। “इन शब्दों के पीछे पुरुषार्थ की शक्ति थी।
लोकमान्य तिलक ने कहा -आजादी हमारा जन्म सिद्ध अधिकार है और हम इसे लेकर ही रहेंगे। इन क्रान्तिकारी शब्दों के पीछे मात्र नारा नहीं व्यक्ति का परम पुरुषार्थ ही बोलता है और उसी का प्रभाव जनता पर पड़ता है। यही शक्ति अन्तः के प्रस्तुत सामर्थ्य को उभारती, मनस्विता को जगाती एवं उसे चमत्कारी महामानव बनाती है। इंग्लैंड के सम्राट् पंचम का भारतीय ब्रिटिश सरकार को निर्देश था कि उनका कोई वायसराय या उच्च अधिकारी महात्मा गाँधी से आमने-सामने न मिले। उनकी आँखों के तेज से फिरंगी डरते थे। उन्हें भय था कि कुल 16 पौण्ड का दुबला-पतला किन्तु मनस्वी महापुरुष कहीं हिप्नोटाइज कर किसी उच्चाधिकारी को अपने पक्ष में न कर ले। कार्यालय से केवल पत्र ही उनके नाम भेजे जाते थे, क्योंकि उनकी आत्मशक्ति का तेज उनके बिना बोले भी सामने वाले व्यक्ति को प्रभावित करता था।
द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान जब इंग्लैण्ड की पराजय हुई, तो वहाँ के तत्कालीन प्रधान मंत्री चर्चिल ने टूटे मनोबल को बढ़ाने के लिए एक नया नारा दिया “वी फार विक्ट्री” इस नारे को उन्होंने बड़े पैमाने पर दिवारों, पाठ्य- पुस्तकों, पोस्टरों पर लिखवाया और प्रचारित किया था। फलतः इसका प्रभाव भी अनुकूल साबित हुआ।
नेपोलियन के जीवन की एक घटना है। उनकी लगातार पराजय हो रही थी। सैनिकों के मनोबल बुरी तरह टूट चुके थे। इस पर नेपोलियन ने एक युक्ति निकाली। उन्होंने अपने सैनिकों को इकट्ठा किया और कहा-जाओ, अपने आराध्य देव से पूछें कि इस बार हमारी जीत होगी या नहीं। पूछने का तरीका सिक्का उछालने का रखा गया। उन्होंने सैनिकों से बताया कि यदि हैड निकला, तो इसमें देव की सहमति जीत की होगी और टेल निकली तो इसका अर्थ पराजय होगा। सिक्का उछाला गया। हैड को देखकर सैनिक प्रसन्न हो उठे। दूसरी बार पुनः सिक्का उछाला गया। इस बार फिर हैड निकला। इससे सैनिक खुशी से उछल पड़े। उन्हें यह दृढ़ विश्वास हो चुका था कि देव वाणी मिथ्या नहीं हो सकती। सब युद्ध के लिए निकल पड़े और सचमुच इस बार उनकी विजय हुई। युद्ध के बाद इस विजय का रहस्योद्घाटन करते हुए नेपोलियन ने सैनिकों से कहा- इसमें न तो देवता का कोई आशीर्वाद था न भविष्यवाणी जैसी कोई बात। वस्तुतः यह उस देव-वाणी का परोक्ष प्रभाव है, जिसने जीत की बात कर सैनिकों को उत्साहित किया और उनका मनोबल बढ़ाया। “इसके बाद नेपोलियन ने सिक्का दिखाते हुए कहा -यह ऐसा सिक्का है, जिसमें दोनों ओर ही हैड बने हुए हैं। टेल इसमें है ही नहीं। यह देख सैनिक आश्चर्य में पड़ गये। उन्हें सही अर्थों में वाणी की सामर्थ्य कस असर इसके बाद मालूम पड़ा।
शब्द शक्ति महात्म्य के कई प्रसंग आर्ष वांगमय में भी देखने को मिलते हैं। एक घटना राजा दशरथ से संबंधित है। महाराज दशरथ पुत्रेष्टि यज्ञ कराना चाहते थे। यज्ञ संचालन कार्य पारंगत कुलगुरु वशिष्ठ जी ने स्वयं न लेकर श्रृंगी ऋषि को अनुरोध पूर्वक दिया। उनकी परिमार्जित वाक्शक्ति का प्रभाव था, कि दशरथ का यज्ञ सफल हुआ और राम लक्ष्मण जैसे चार पुत्रों की प्राप्ति हुई। सुपात्र द्वारा प्रयुक्तवाणी की शक्ति में ही वह बल होता हैं, जो किसी भी महान प्रयोजन को पूरा कर दिखाता है। इन्हीं श्रृंगी ऋषि की वाणी में शाप देने की भी शक्ति थी। राजा परीक्षित आखेट करते हुए एक बार जंगल में घूम रहे थे, ध्यानस्थ लोपश ऋषि से रास्ता पूछने लगे। कोई उत्तर न पाकर खीज उठे तथा एक मरा हुआ सांप उनके गले में डालकर आगे बढ़ गये। जब उनके पुत्र श्रृंगी ऋषि ने अपने पिता का यह अपमान देखा तो शाप दिया-जिस किसी ने भी यह अपमान मेरे पिता का किया हैं, हे सर्प! तू जाकर उसे डंसले इतना कहते ही तक्षक जी उठा और चल दिया अपने निर्देशित लक्ष्य को पूरा करने। सातवें दिन उसने राजा को काट खाया। यहाँ मरे साँप के जीवित होने की या अनजान को पहचानने की कहानी नहीं कही जा रही, वरन् प्रयुक्त किये इन वाक्यों के पीछे उस ऋषि की प्रचण्ड शब्द शक्ति का प्रभाव बतलाया जा रहा है जिसकी वाणी से वरदान और अभिशाप दोनों निकले और फलीभूत हुए थे।
शब्दों का स्थूल उपयोग भाषा में है। ज्ञान और अनुभव के आदान-प्रदान में वार्तालाप में सत्यता, नम्रता और शिष्टता का अपना प्रभाव है और कटुता या स्वार्थपूर्ण वार्ता का अपना। वस्तुतः वाक् ऊर्जा एक प्रकार का ऐसा शक्तिशाली ईधन है जो शरीर के सूक्ष्म शक्ति केन्द्रों को प्रभावित करता है। जप जैसे कृत्यों में शब्दों का प्रभाव षट्चक्रों तथा ग्रन्थियों के सूक्ष्म संस्थानों पर भी पड़ता है एवं मन और आत्मा की शक्तियों का विकास करता हैं, दूसरी और बनावटी, स्वार्थी और कपट पूर्ण शब्दों का अभ्यास अन्तः करण पर मलीनता की पर्त चढ़ाता है।
यह भली−भांति समझा जाना चाहिए कि वाणी एक महत्वपूर्ण सामर्थ्य है, जो परिशोधित होने पर अमृत बन सकती है और विकृत होने पर विष का भी काम कर लेती है। शोधित वाणी ही वस्तुतः वाक् शक्ति है-जो इस तथ्य को हृदयंगम करते और तद्नुरूप प्रयास अभ्यास करते हैं, वही हर क्षेत्र में सहयोग-सहकार अर्जित कर पाते हैं। इसके लिए स्थूल परिमार्जन और वाह्य अनुशासन ही आवश्यक नहीं है, आन्तरिक और सूक्ष्म परिष्कृत भी अनिवार्य है, तभी वाणी में वह बल पैदा हो सकता है, जो महामानवों और महापुरुषों में दिखाई पड़ता है।