Magazine - Year 1990 - Version 2
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Language: HINDI
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आड़े समय की विषमता और वरिष्ठों की जिम्मेदारी
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विनाशकारी दुर्बुद्धि जब तब उभरती तो है, पर वह देर तक टिकती नहीं। प्रस्तुत किए गए अनर्थ के साथ-साथ वह स्वयं भी समाप्त हो जाती है। माचिस की एक तीली जला तो चपेट में आने वाले घर-मुहल्ले कोभी जला देती है, पर साथ ही यह भी निश्चित है कि तीली बच स्वयं भी नहीं पाती। दूसरों को जलाने के लिए उत्पन्न हुई दुर्बुद्धि उस उद्गम को भी समाप्त करके रहती है, जहाँ से कि वह उपजी थी।
नियति उद्दंडता को देर तक सहन नहीं कर सकती। उसने पिछले दिनों खोदी खाई पाटने और बेतुके टीलों को समतल करने की अपनी संतुलन व्यवस्था को अगले ही दिनों इस धरती पर उतारने का निश्चय किया है। हानि का वर्तमान स्वरूप और संसार का प्रस्तुत वातावरण उसे रास नहीं आता है, फलतः अवांछनीयता को निरस्त करने और उसके स्थान पर ऐसा कुछ अभिनव विनिर्मित करने का सरंजाम जुटाया है, जिसे सौम्य-सुंदर एवं सभ्यता-सुसंस्कारिता का प्रतीक कहा जा सके। यही है इक्कीसवीं सदी के रूपरेखा, जिसके साथ उज्ज्वल भविष्य की सुखद संभावना का समन्वय किया जा रहा है। यह गंगावतरण की पुरातन घटना के समतुल्य है, जिसने सूखे-वीरानों को शस्यश्यामला बना दिया था। इस संभावना को सतयुग की वापसी के नाम से भी प्रतिपादित किया गया है।
अगले दिनों बड़े काम संपन्न होने जा रहे है। बड़े प्रचलन आरंभ होने हैं और सबसे बड़ी बात है कि समय की प्रवाहधारा को उलटकर सीधा किया जाना है। यह नियोजन किसी सीमित क्षेत्र या वर्ग का नहीं, वरन इतना विस्तृत है कि उसके आँचल में समाए विश्वसमुदाय के करोड़ों मानवों और उनकी दिशाधाराओं में प्रायः आमूलचूल स्तर का परिवर्तन प्रस्तुत किया जाए। ‘यह सब दिव्य प्रतिभाओं के पराक्रम से ही संभव हो सकता है। उसका उपार्जन अभिवर्ध्दन हर उदारचेता और संयमशील के लिए संभव है। समय की आवश्यकता को देखते हुए प्राणवान सत्ताएँ अपने को इसी दिशा में विकसित करेंगी और उन कार्यों को संपन्न करके रहेंगी, जिन्हें आज की महती आवश्यकता के नाम से जाना और पुकारा जा रहा है।
महाकाल का अनुग्रह किन पर उतरा? युगदेवता का वरदान किन पर बरसा? प्रसुप्त अंतःकरण किनका समय की पुकार सुनते ही तनकर खड़ा हो गया? ऐसे सौभाग्यशालियों को ढूँढ़ना-खोजना हो तो उनकी जाँच-परख का एक ही मापदंड हो सकता है कि किनने युगधर्म पहचाना और उसे अपनाने के लिए किस स्तर का त्याग-बलिदान, शौर्य-पराक्रम चरितार्थ करके दिखाया? अर्धमृतकों से भरे जनसमुदाय में भी कभी-कभी कुछ ऐसे नररत्न निकल पड़ते हैं, जो सिर कट जाने पर भी मात्र रुंड के हाथों लगी तलवार का जौहर दिखाने से बाज नहीं आते। राणा सांगा के अस्सी गहरे घाव लगे थे, फिर भी वह शरीर में रक्त की एक बूँद रहने तक संग्राम की कर्म भूमि में जूझते रहे थे। ऐसे लोग भी होते तो कम ही हैं, पर कोयले की खदानें हीरों से सर्वथा रिक्त नहीं होती। कीचड़ में कमल खिलता है। वीर प्रसविनी धरित्री सर्वथा बाँझ नहीं होती।उसका प्रजननक्रम भी किसी-न-किसी रूप में कहीं-न-कहीं चलता ही रहता है। ऐसे लोग आत्मबोध होते ही इस स्थिति में पहुँच जाते हैं कि महाकाल का आमंत्रण सुन सकें और उस हुँकार की दिशा में शब्दवेधी बाण की तरह सनसनाते हुए बढ़ चलें। ऐसा भूतकाल में भी होता रहा है और आज की आवश्यकता भी उन्हें कहीं-न-कहीं से पकड़कर निर्णायक मोर्चे पर खड़ा होने के लिए बाधित करके रहेगी।
युगसंधि का वर्तमान समय ऐसा है, जैसा सृष्टि के अनादिकाल से लेकर अब तक कदाचित् ही आया हो और भविष्य में कदाचित् ही कभी आने की संभावना हो। कारण यह है कि भूतकाल में समस्याएँ आती रही है और उनके समाधान भी निकलते रहे हैं, पर वे सभी सामयिक एवं क्षेत्रीय थे। उनमें सीमित लोग ही प्रभावित होते थे। पर अबकी बार ऐसी विपन्नताएँ सामने आई हैं, जो समूचे संसार का समस्त मानव समुदाय के भाग्य-परिवर्तन का प्रयोजन सामने लेकर आई हैं। यह विकास या विनाश की चिरस्थायी समस्याएँ बन पड़ने या सुलझने का अभूतपूर्व समय है। इन दिनों किसे कैसे कहाँ क्या करना चाहिए? इन प्रश्नों का उत्तर एक उदाहरण से इस प्रकार समझा, समझाया जा सकता है कि सैनिकों के स्थान, कार्य, आयुध और मोर्चे परिस्थितियों की माँग के अनुसार बदलते रहते हैं, पर उनके लक्ष्य, दृष्टिकोण, एवं कर्त्तव्य की स्थिति सदा एक-सी बनी रहती है। उनके लिए राष्ट्र की सुरक्षा सब कुछ रहती है और सुविधा, शरीर, परिवार, भविष्य आदि सभी गौण हो जाते हैं। वे लक्ष्य पर अविचल रहते हैं और आवश्यकतानुसार प्राण से लेकर परिवार तक को दाँव पर लगा देते हैं। ठीक इसी प्रकार जिन्हें युग नेतृत्त्व के अनुरूप उच्चस्तरीय प्रतिभा से संपन्न होना है, उन्हें अन्य सब आकांक्षाओं और सुविधाओं की तुलना में नवसृजन के अनुरूप योग्यता-संवर्ध्दन एवं कर्त्तव्यनिष्ठा को निरंतर विकसित करते रहना चाहिए और व्यक्तित्व को इस स्तर का विनिर्मित करना चाहिए ताकि कथनी और करनी में एकता रहने के कारण हर किसी पर अनुकरण की छाप पड़ सके।