Magazine - Year 1991 - Version 2
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Language: HINDI
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प्रगति का आधार होगा चेतनात्मक सामंजस्य
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वर्तमान सभ्यता के समक्ष धर्म एवं विज्ञान के रूप में ऐसी उपलब्धियाँ हैं जिन्हें शताब्दियों सहस्राब्दियों के सतत अन्वेषण के पश्चात् अर्जित किया गया है। दोनों का ही लक्ष्य मानवीय कल्याण एवं सत्य का शोध है। किसे स्वीकारा जाय? किसे अस्वीकारा जाय? यदि दोनों को तो किस तरह?, आदि जिज्ञासाओं का होना उस समय स्वाभाविक बन पड़ता है, जब दोनों के परस्पर विरोधी होने की मान्यता जड़ पकड़ती जा रही है।
इस किंकर्तव्यविमूढ़ता की स्थिति से उबरने के लिए आवश्यक है कि दोनों के स्वरूप एवं विरोधाभास के मुख्य बिन्दुओं को समझा जाय। विज्ञान की व्याख्या करते हुए आर. कार्नाप का “लॉजिकल फाउण्डेशन आफ द यूनिटी आफ साइंस” में कहना है कि यह व्यवस्थापूर्ण ज्ञान है। यहाँ व्यवस्थापूर्ण होने के तात्पर्य है- परीक्षण प्रयोग द्वारा उपलब्ध ज्ञान। यही नहीं इन प्रयोगों को किसी भी स्थान पर किसी के द्वारा दुहराकर उसे सत्यापित किया जा सकता है।
धर्म को परिभाषित करते हुए महर्षि कणाद का अपने वैशेषिक सूत्र में कहना है “य तोऽभ्युदयानिः श्रेयससिद्धि स धर्मः।” इस परिभाषा में अभ्युदय व निःश्रेयस दो तत्व हैं। जिनमें प्रथम का तात्पर्य एहलौकिक प्रगति एवं द्वितीय का भाव है चेतनात्मक उत्कर्ष। यहाँ ध्यान देने योग्य तथ्य यह है कि धर्म की अध्यात्मिक समग्रता क्या विज्ञान को अपने आँचल में नहीं समेट लेती? इस समग्रता का ही परिणाम है कि धर्म ग्रन्थ कहे जाने वाले वैदिक साहित्य में आयुर्वेद, धनुर्वेद, रसायनशास्त्र, भवन निर्माण कला आदि विधाओं के साथ ही नीति दर्शन, तत्त्वमीमांसा आदि के तत्व समान रूप से देखने को मिलते हैं।
दोनों के परस्पर विरोधी ठहराने वालों का मत है कि प्रश्न पारिभाषिक विरोध का नहीं अपितु उनकी व्यवस्थित एवं अव्यवस्थित स्थिति का है। यदि वेदों में ये सभी चीजें पायी जाती हैं तो उसे खिचड़ी कहा जाना ही ठीक होगा। स्वामी विवेकानन्द इसका औचित्यपूर्ण समाधान देते हुए कहते हैं “वेद का तात्पर्य है ज्ञान। वैदिक साहित्य कुछ पुस्तकों का संग्रह नहीं अपितु एक समग्र विश्वकोष (एनसाइक्लोपीडिया) है जिसमें अभ्युदय एवं निःश्रेयस दोनों के ही तत्व सूत्र रूप में संग्रहीत हैं। प्राचीनकाल में जब मुद्रण आदि का अभाव था, तब ज्ञान के संग्रह की इस पद्धति को आश्चर्यजनक ही कहा जाएगा।”
विज्ञान जिसे पाश्चात्य विज्ञान कहना कहीं अधिक उपयुक्त है, का उद्गम स्त्रोत बताते हुए जे. डी. बरनाल का “साइन्स इन हिस्ट्री” में मानना है कि इसका उदय ग्रीक दर्शन से हुआ है। इसी को मान्यता देते हुए एनसाइक्लोपीडिया ब्रिटेनिका में वर्णित विषय “साइन्स इन हिस्ट्री” में यह स्पष्ट किया गया है कि वर्तमान विज्ञान का मूल थेल्स, प्लेटो, अरस्तू आदि के दर्शन में है। इसे वर्तमान स्वरूप देने का श्रेय सत्रहवीं शती के वह प्रयास हैं जो गैलीलियो, देकार्त, फ्रांसिस बेकन आदि ने सम्पन्न किये। इसके विपरीत भारतीय ज्ञानकोष के तत्सम्बन्धी, सूत्र सूत्र रूप में ही पड़े रहे।
पश्चिमी विज्ञान की किसी भी शाखा को मूल ग्रीक या रोम के दर्शन में खोजा जा सकता है। अभी कुछ ही समय पूर्व विकसित विज्ञान की नवीन शाखा “मनोविज्ञान” भी इसी तथ्य को प्रमाणित करती है। श्री अरविन्द भारतीय जनमानस में अपनी ज्ञान सम्पदा के प्रति उपेक्षा का कारण बताते हुए स्पष्ट करते हैं कि इसका कारण वैराग्य के तत्व की वास्तविकता न समझ आलस्य को दिया गया पोषण तथा गुलामी का परिणाम है एवं इसी कारण संभवतः एक लम्बी मानसिक पराधीनता से भारतवासी गुजरते रहे।
इसी कारण धर्म के विश्वकोष में संग्रहीत कुछ शाखाएँ विस्मृत तथा कुछ अलग हो गयी हैं। इनमें से आयुर्विज्ञान प्रमुख है। आज धर्म के तत्वों के रूप में हम नीति शास्त्र, तत्त्वमीमांसा एवं आध्यात्म शास्त्र को ही जानते हैं। इन तीनों को वैज्ञानिक भाषा में व्यवहार विज्ञान (मनोविज्ञान), अचेतन मनोविज्ञान (परामनोविज्ञान) एवं सचेतन मनोविज्ञान के रूप में निरूपित कर सकते हैं।
विज्ञान व अध्यात्म के समन्वय के नाम पर जो प्रयास किए जा रहे हैं उन्हें बाल प्रयास ही कहना होगा। क्योंकि ऐसे अधिकाँश प्रयासों में भौतिक शास्त्र रसायन शास्त्र की किसी शोध अथवा किसी सूत्र का सामंजस्य अध्यात्म के किसी तत्व से बिठाने का प्रयास किया जाता है इस तीर-तुक्का भिड़ाने की प्रक्रिया को ही अध्यात्म एवं विज्ञान का समन्वय कहकर सन्तोष कर लिया जाता है। इस प्रकार का प्रयत्न करने वालों को हतोत्साहित तो नहीं किया जाता है किन्तु उनके यह प्रयत्न कौतुहल पैदा करने के अतिरिक्त कुछ भी ठोस और सार्थक नहीं कर सकेंगे।
वस्तुतः अध्यात्म एवं विज्ञान में कोई मौलिक विभेद है ही नहीं। विरोधाभास की प्रतीत का कारण यह है कि धर्म में लगातार लोकाचार की जंग चढ़ती गई तथा उसी को वास्तविकता मान लिया गया। सम्भव है यह लोकमान्यताएँ कभी उपयोग में रही हों, किन्तु वर्तमान में उनकी अनुपयोगिता के कारण उन्हें परे हटा दिया जाना चाहिए। विज्ञान की प्रखरता का कारण यही है कि उसने हमेशा प्रयोग परीक्षण के द्वारा जंग को कभी पनपने नहीं दिया।
अध्यात्म-आत्मिकी के ऊपर चढ़ी जंग को उतार कर यदि अध्ययन किया जाय तो स्पष्ट हो जाएगा पारस्परिक विरोध एक प्रतीत मात्र है। डॉ. ए. कम्फर्ट का क्रिश्चियन-न्यूज लेटर में इन विरोधों की गणना करते हुए मानना है प्रथम विरोध यह है कि विज्ञान की प्रविधि व्यवहारिक व प्रायोगिक है जबकि धर्म मात्र मताग्रही व सैद्धान्तिक है। स्वामी विवेकानन्द इसका समाधान प्रस्तुत करते हुए कहते हैं यथार्थ धार्मिक होने का तात्पर्य किन्हीं शास्त्रों का पाँडित्य अथवा किसी मतवाद का समर्थन नहीं अपितु परम तत्व की प्राप्ति है। ईसा, मुहम्मद, कृष्ण का नाम पर्याप्त नहीं है अपितु उनके द्वारा अन्वेषित सत्यों को पुनः सत्यापित करना ही उनका अनुकरण करना है अतएव मात्र सैद्धान्तिक होने का कथन यथार्थ नहीं है।
विरोध का दूसरा बिन्दु यह है कि विज्ञान किसी का प्रभुत्व नहीं स्वीकारता जबकि समूचा अध्यात्म इसी पर निर्भर है। इस उक्ति का विश्लेषण करने पर स्पष्ट होता है यहाँ प्रभुत्व की धारणा भ्रमात्मक है। यदि कोई ऐसी चीज है तो दोनों में है अन्यथा किसी में नहीं। उदाहरणार्थ विभिन्न वैज्ञानिक सिद्धान्तों के नाम के साथ उनके अन्वेषकों का नाम जुड़ा है जैसे आइन्स्टीन का सापेक्षिकता का सिद्धान्त, हाइजन वर्ग का अनिश्चितता का सिद्धान्त। विज्ञान जगत में यह बात सर्वमान्य है कि अन्वेषक को ही अन्वेषिक सिद्धान्त के नामकरण का अधिकार होता है साथ ही उसका नाम भी उसके साथ जुड़ा रहता है। ठीक उसी तरह वैदिक मन्त्रों या सिद्धान्तों के साथ उसके अन्वेषकों का नाम जुड़ा हुआ है। जैसे गायत्री मन्त्र के साथ विश्वामित्र। इसे ही यदि प्रमुख मान लिया जाय तो दोनों में वह समान ही है।
विज्ञान जगत में सारे निर्णय तब तक अस्थाई माने जाते हैं जबतक कि उन्हें बार-बार सत्यापित न किया जा सके। जबकि अध्यात्म संकीर्ण सैद्धांतिक है। उसका अपनी सदियों, पुरानी धाती लिखे गए शास्त्रों पर अधिक आग्रह है। विरोध का यह बिन्दु भी आभास मात्र है। आत्मिकी के क्षेत्र में भी सत्यापित करने की परम्परा चली आई है। उपनिषदों का अध्ययन करने से यह बात स्पष्ट हो जाती है वामदेव, उद्दालक आदि के विविध प्रयत्न इसी का प्रमाण हैं। आज भी उन सिद्धान्तों को प्रामाणिकता की कसौटी पर कसने में कोई व्यवधान नहीं है। समय समय पर इसमें संशोधन भी हुए हैं। विभिन्न स्मृतियाँ दर्शन वेदों से लेकर आज तक के प्रयत्नों का समूचा विवरण इसका प्रमाण है। इस बिन्दु में एक महत्वपूर्ण तथ्य प्रयोग शाला का भी है। किन्तु यह प्रयोगशाला कोई इमारत में ही हो, यह आवश्यक नहीं है। उदाहरणार्थ समाज विज्ञान के अध्ययन के लिए हमें सम्बन्धित परिपेक्ष में अध्ययन करना होगा। गणित विज्ञान के अध्ययन हेतु किन्हीं उपकरणों की आवश्यकता नहीं क्योंकि इसकी खोज का विषय तथ्य नहीं, सम्बन्ध है। किन्तु आधुनिकतम मान्यताओं के अनुरूप ये सभी विज्ञान की शाखाएं हैं। ठीक इसी तरह अध्यात्म की अपनी प्रयोगशाला रही है, मानवी कायसत्ता तथा मनुष्य द्वारा जिया गया जीवन।
विरोध का एक महत्वपूर्ण बिन्दु और है कि विज्ञान के सिद्धान्त में समष्टिगत तत्व प्रधान है इसमें किसी भी तरह देश, काल, परिस्थिति की सीमा का बन्धन नहीं है जबकि धर्म में वे तत्व नहीं है। विरोध की यह मान्यता भी प्रतीती भर है। धर्म का वैश्व सिद्धान्त है ईश्वर सम्बन्धी मान्यता। विश्व के सभी धर्म विविध नामों से इसे सत्यापित करते हैं। “एकं सदविप्रा बहुना बदन्ति “ ईश्वर चेतना की एक अवस्था है जिसे नास्तिक कहे जाने वाले बौद्धों ने निर्वाण और जैनियों ने कैवल्य के नाम से बताया है। अतएव इसकी सार्वभौमिकता के बारे में भी कोई सन्देह नहीं है।
जिस तरह वैज्ञानिक सिद्धान्तों में तार्किक संगति पायी जाती है ठीक उसी तरह धर्म दर्शन भी तार्किक दृष्टिकोण से व्यवस्थित होता है। लियोन ब्रुलिन की “साइन्टिफिक इनसर्टेनिटी एण्ड इन्कारनेशन” में मान्यता है कि वैज्ञानिक सिद्धान्त वैज्ञानिक प्रयोगों पर आधारित होते हैं। वैज्ञानिक इन प्रयोगों तथा तथ्यों के बीच तार्किक सम्बन्ध प्रकट करता है और उसके उपरान्त सिद्धान्त की रचना करता है। यह तथ्य धर्म अध्यात्म के क्षेत्र में भी उतना ही खरा है। एस. एम. दास गुप्ता ने अपनी कृति “योग ऐज ए फिलॉसफी एण्ड रिलीजन” में इस तत्व को अधिक स्पष्ट किया है। योग में प्रयोग की विधि तथा तथ्यों के मध्य सम्बन्ध स्थापित करते हुए सामान्यीकरण के आधार पर सिद्धान्त की रचना की गई है।
वास्तविकता यही है कि धर्म एवं विज्ञान में कोई मौलिक भेद नहीं है। नामो में विभेद होते हुए भी उद्देश्यतः दोनों एक ही हैं। डॉ. दीवानचन्द अपनी कृति “तत्वज्ञान” में इसे स्पष्ट करते हुए बताते हैं। धर्म एक ऐसा महाराजा है, जिसे राजसिंहासन से उतार दिया गया है। सिद्धान्त के सम्बन्ध में एक समय तथा जब हर प्रकार के उच्च विचार दार्शनिक विचार समझे जाते थे, गणित का नक्षत्र विज्ञान, विज्ञान आदि स्वतंत्र विधाएँ न थीं। स्थिति बदली और अपदस्थ महाराजा की संतान ने बगावत कर दी। उन्होंने अपनी स्वतंत्रता की घोषणा कर दी। पारस्परिक समन्वय से विनिर्मित उस समग्रता से विलग हो जाने के कारण ही विज्ञान एकाँगी हो रहा है। इसी कारण इसकी व्यावहारिक परिणति बताते हुए स्वामी रंगनाथानन्द का “इटरनल वेल्यू चेन्जिंग सोसाइटी” में कहना है वर्तमान विश्व को विज्ञान की वास्तुकला से गढ़ा गया है। इस प्रकार की वास्तुकारी के कारण ही आज यान्त्रिक सभ्यता है। एक ऐसी सभ्यता जिसमें साधनों की भरमार होते हुए भी व्यक्ति प्रसन्न नहीं है।
प्रसन्नता के इस अभाव का मूल कारण यह है कि धर्म के दो तत्वों में अभ्युदय को तो याद रखा गया और निःश्रेयस को तिरस्कृत कर दिया। जबकि दोनों युग्मज है। श्री अरविन्द इसे स्पष्ट करते हुए बताते हैं कि विश्व मानवता तभी यथार्थ रूप से विकसित हो सकती है जबकि वह “सोशियो साइकिक “ अर्थात् सामाजिक और चेतनात्मक दोनों ही पक्षों में एक साथ प्रगति करे।
इस प्रकार की प्रगति का आधार सामंजस्य की उस अवस्था में है,जिसमें वर्तमान विज्ञान अध्यात्म के एक अभिन्न अंग के रूप में विकसित होगा। फिर इस सार्वभौमिक धर्म को विश्व धर्म कहा जाय या मानव धर्म। किन्तु धर्म का यह सच्चा व सार्वभौमिक रूप तभी प्रकट हो सकेगा, जब अवैज्ञानिक लोक मान्यताओं, प्रथा, प्रचलनों की परत को उससे अलग कर दिया जाय। इस प्रक्रिया के लिए आवश्यक है धर्म के तत्वों का, आध्यात्मिक अनुशासनों का एक बार पुनः जीवन विद्या के रूप में सुव्यवस्थित रूप से प्रायोगिक परीक्षणात्मक अध्ययन हो। इस तरह के क्रम से सत्यता की कसौटी पर कसे गए सूत्र सिद्धान्त अपनी गरिमा प्रकट कर मानव में देवत्त्व की अभिव्यक्ति करा अपनी सार्थकता व्यक्त कर सकेंगे। इस भाँति ही मनु के शब्दों में “धारणामि इत्याहु धर्मः” अर्थात् धर्म मानवता को सही माने में धारण कर सकने का अपना सामर्थ्य अभिव्यक्त कर सकेगा। तब आत्मिकी का अर्थ होगा ज्ञान और विज्ञान की दोनों धाराओं को साथ ले कर चलने वाली विधा। यह सर्वांगपूर्ण प्रगति का पथ प्रशस्त करेगी, मानव जाति को ऊंचा उठने संबंधी अभिनव मार्गदर्शन देगी, इसमें कोई सन्देह नहीं किया जाना चाहिए। ऐसे प्रयास अब विश्व मनीषा में व्यापक स्तर पर चल पड़े हैं। अतः भविष्य टकराव का नहीं, मान्यताओं के एकीकरण का, समन्वय का है, निश्चित ही उज्ज्वल है, ऐसा आभास होने लगा है।