Magazine - Year 1991 - Version 2
Media: TEXT
Language: HINDI
Language: HINDI
ब्राह्मण की शक्ति का स्त्रोत
Listen online
View page note
Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
“भद्रे! अतिथि पधारे हैं! अर्घ्य! महापण्डित अपनी लेखनी छोड़कर बड़ी आतुरता पूर्वक उठे थे। उन्होंने आज न जाने कितने वर्षों के बाद पत्नी को उच्च स्वर में पुकारा था। गौर-वर्ण, कृशकाय, उन्नत भाल जैसे कोई जनःलोक का ऋषि धरती पर उतर आया हो। शिला पर एक जीर्ण कुशासन पड़ा था और आस-पास भोज पत्र बिखरे थे।
अद्भुत थी, कश्मीर की इस एकान्त कुटिया में ग्रन्थ प्रणपन करने वाले, इस महापुरुष की शक्ति। उनके जीवन काल में ही उनके ग्रन्थों की प्रतिलिपियाँ प्रयाग और काशी तक आ पहुँची थीं। नवीं शताब्दी के इस उत्तरार्ध काल में पुस्तकें छपती नहीं थी। पत्रों में समालोचना निकलने का सवाल कहाँ उठता ? उनके प्रचार का साधन थी उनकी श्रेष्ठता। उन्हें इतना उत्कृष्ट होना चाहिए की जो एक बार पन्ना पलटे, वह इतना उत्सुक हो उठे कि कई मास उसकी प्रतिलिपि करने में होने वाला श्रम उसे सहज स्वीकृत हो जाय। इस प्रतिलिपि परम्परा से ही सम्भव था उनका प्रचार-प्रसार। संस्कृत विद्या के महान केन्द्रों में देश भर के विद्वान उनकी ग्रन्थ प्रतिलिपियों का आदर करते थे। अभिभूत थे उनकी उस विचार शक्ति के समक्ष जो विद्वानों से लेकर सामान्य जन तक सभी को एक साथ प्रभावित किये थी। तभी तो इस शक्ति का स्त्रोत ढूंढ़ने के लिए मनीषियों का समुदाय प्रयाग से कश्मीर तक की पद यात्रा करके आ पहुँचा था और कोई साधन भी तो नहीं था यात्रा का सिवा पाँवों के।
आगत-जन उन्हें निहारते हुए कुछ सोच रहे थे कि मिट्टी के बर्तन में अर्घ्य के लिए जल लेकर महापण्डित की सहधर्मिणी उटज के बाहर निकलीं।
“हम आपके दर्शनार्थ आए हैं। साक्षात न सही-आपके वाङ्मय शिष्य है हम सब!” आगतों ने श्रद्धासमन्वित प्रणिपात किया। पण्डितराज उन्हें अर्घ्य समर्पित करें-यह अत्यन्त संकोच की बात थी। उन्होंने देख लिया की अतिथियों को संकोच हो रहा है तब उन्होंने स्वयं चरण धोने का आग्रह नहीं किया। शिला पर चटाई बिछा दी। तपस्वी के आश्रम का आतिथ्य उसके उपयुक्त ही तो होगा।
“आपकी सत्कीर्ति का चुम्बकत्व हमें खींच लाया।” आगन्तुकों ने अपना परिचय दिया। “हम लोगों की तरफ विद्वत् समुदाय में कश्मीर मण्डल कल्लट के कश्मीर के रूप में प्रचलित है।” उनमें से एक ने अपनी लोकप्रियता उजागर करनी चाही।
“अरे नहीं! नहीं!!” बात को नया मोड़ देते हुए वह बोले “यह भूमि कल्लट के कारण नहीं महर्षि कश्यप के कारण विख्यात है। तभी तो इसका प्राचीन नाम कश्यपमीर है। अभी भी श्रीनगर से तीन मील की दूरी पर कश्यप मुनि का आश्रम है। शारिका दैवी का मन्दिर, भगवती सती के कष्ट-पात का स्थान यही है। अमरनाथ की गुफा, शिव के रुद्र तीर्थ ने इसे गौरवपूर्ण बनाया है। भगवान मत्स्य की अवतार भूमि यही है।” वे कश्मीर की ऐतिहासिकता बता रहे थे। केसर और कवित्व की जन्म भूमि का इस रूप में परिचय सभी को उत्साहवर्धक लगा।
“अतिसाँनिध्यादनाद्रम्।” तनिक एकान्त पाकर प्रयाग के एक पण्डित ने अपने सहचरों से धीरे से कहा-”यहाँ का नरेश ऐसे अमूल्य रत्न का भी आदर नहीं कर सका।”
“यह जीर्ण कुटीर! यह कंगाली-सरस्वती के ऐसे वरद पुत्र के पास!” व्यथा सबके चित्त को पीड़ित कर रही थी। “हम कल उसे धिक्कारेंगे, बड़ा आया विद्वान के सत्कार का इच्छुक?”
दूसरे दिन प्रयाग और काशी के ये विद्वान राजसभा में पधारे। महाराज ने उनका श्रद्धा-समन्वित स्वागत किया। उन्हें वस्त्राभूषण एवं विपुल दान-दक्षिणा देनी चाही। किन्तु उनमें से एक ने नरेश के सम्मान के प्रति आस्था नहीं व्यक्त की। उल्टे स्पष्ट सुना दिया “नरेश! तू हमें कंचन से ठगना चाहता है? तेरी मंशा है कि इसे लेकर हम तेरा स्तवन करें, तेरी कीर्ति का प्रसार करें? कृपण! तेरे यहाँ अमूल्य रत्न और दो मुट्ठी अन्न की भी व्यवस्था नहीं। भारतवर्ष का सर्वश्रेष्ठ विद्वान यहाँ जीर्ण कुटीर में कच्चे फलों पर जीवन यापन करने पर विवश है। यह उसकी विवशता नहीं, तेरी उपेक्षा का परिणाम है कि इतना यशस्वी महापण्डित नितान्त दीन अवस्था में रह रहा है।” “आप सब सत्य कहते हैं” कश्मीर नरेश सिर झुकाये कह रहे थे। “किन्तु महापण्डित कुछ स्वीकार करेंगे, इसकी संभावना कहाँ ...?”
“प्रयत्न किया कभी?” विद्वानों का रोष शान्त नहीं हुआ था। अन्ततः उनका आदेश महाराज ने डरते-डरते स्वीकार कर लिया। एक उत्तम जागीर का दानपत्र लिखवाया उन्होंने और राजमुद्रा से अंकित करके उनको अर्पित कर दिया।
“क्या प्रश्न है? वैसे ही सुना दे आप सब? वह दानपत्र लेकर जब विद्वानों का समुदाय महापण्डित के आश्रम में पहुँचो और उनके चरणों के समीप वह दानपत्र धर दिया, तब उन्होंने समझा कि कोई लिखित शंका इन विद्वानों ने उनके सम्मुख रखी है।
“कोई प्रश्न नहीं।” नम्रतापूर्वक उन सबने कहा। “नरेश ने निर्वाह योज्य भूमि आपको अर्पित की है, उसका दानपत्र है यह।”
“राज्य को आश्रय देने वाला ब्राह्मण राजाश्रय में रहे!” वह झटके से उठ खड़े हुए। दानपत्र शिला से नीचे गिर पड़ा। उन्होंने चटाई गोल करके दबाई और कमण्डलु उठाया पत्नी को आवाज दी “भद्रे! यहाँ के शासक में धन पद आ गया। चलो, चले यहाँ से।”
सहधर्मिणी को क्या लेना था, कुटिया में जीर्ण उत्तरीय मस्तक पर डाला और द्वार से बाहर आ खड़ी हुई। “मुझे क्षमा कर दें। यह अपराध मैंने स्वतः नहीं किया है।” कश्मीर नरेश वृक्षों के पीछे से निकले और सिर झुका कर खड़े हो गए। उन्हें पता था जनता जिसे अपना आराध्य मानती है, उसके जाने से जन द्रोह हुए बिना न रहेगा। स्वयं उनके मन में भी पण्डितराज के प्रति कम सम्मान न था।
“यह अपराध हमारा है। हमने महाराज से अनुरोध किया था।” विद्वानों ने करबद्ध प्रार्थना की।
“ब्राह्मण धन की माँग करे? “एक क्षण के लिए उनके मुख पर रोष की रेखाएँ उभरी। लेकिन दूसरे ही क्षण संयत स्वर में बोले “आप सब तो अतिथि हैं।” उन्होंने संकेत दिया पत्नी को कुटिया में जाने का। चटाई शिला पर बिछाते हुए उन सबसे बोले “खेद है आप सबने अपरिग्रह को दरिद्रता समझ लिया, जबकि यह है मनुष्य में मनुष्य के विश्वास की चरमावस्था और ब्राह्मण का जीवन है इसका चरमादर्श। संग्रह का तात्पर्य है, इस विश्वास का अभाव। इस विश्वास के अभाव का मतलब अलगाव। आदमी के दिल और दिमाग पर खिंची अलगाव की रेखाएँ -मनुष्यता पर आरियाँ चलाए बिना न रहेंगी। परिणाम होगा-आतंक की दहशत में सिसकता जीवन।” उन्हें अभी तब इसका दुःख था कि इन सबने ब्राह्मण होकर व्यक्तिगत सुख के लिए धन चाहा। भले ही यह कार्य अनजाने में हुआ हो पर स्वयं ब्राह्मण होकर वे अतिथिगण ब्राह्मणत्व के मर्म को नहीं समझ पाए थे, यह सोच-सोच कर वे क्षुब्ध थे।
सभी मौन थे। व्याप्त होती जा रही नीरव स्तब्धता को तोड़ते हुए बोले “ब्राह्मण व्यक्ति नहीं संस्थान है। यह किसी जाति विशेष में उपजे कुछ मानवो का समुच्चय नहीं, महत्तर कर्म का आदर्श है। समाज रूपी शरीर के इस स्नायु संस्थान में गड़बड़ी हुई तो सब कुछ ठीक रहते हुए भी हर अंग अपाहिज हो जाएगा। हो क्यों न हर कहीं संवेदना के प्राण पहुँचने वाले स्नायु जो मरने लगे।”
सब सिर नवाये खड़े थे -उन्हें क्या पता था जिसे वे इस महा तापस की दरिद्रता समझ बैठे थे, उसमें इतने गहरे रहस्य छुपे हैं। उनकी वाणी अभी भी अबाध गति से प्रवाहमान थी, “ब्राह्मणों! अपने को पहचानो तुम्हारा धन जमीन और धातु के टुकड़े नहीं, तप और विद्या है। तप अर्थात् विद्या का अर्जन और विद्या यानी कि लोक जीवन का सृजन-पोथियों का भार वहन नहीं।” वार्तालाप के इस दौर में उनके हाथ दानपत्र को फाड़ रहे थे। उनके आसन की शिला के आस-पास दानपत्र के टुकड़े वायु में उड़ने लगे थे।
...”मैंने सारे जीवन इसी ब्राह्मणत्व की साधना की है। यही मेरी ऊर्जास्विता और शक्ति का स्त्रोत बना है।” इन शब्दों ने प्रयाग के पण्डितों को चौंका दिया-यही तो वे ढूँढ़ने आए थे क्या है महापण्डित कल्लट का शक्ति स्त्रोत? उन्हें स्वयं पर शर्म लगने लगी थी। इधर वह कह रहे थे-”मेरा कर्तृत्व भूर्जपत्रों पर कुछ अक्षरों को जोड़ने तक सीमित नहीं रहा। मैंने लोगों के दिलों को जोड़ा है।”
“हम सभी क्षमा चाहते हैं महापण्डित” उनमें से एक वयोवृद्ध सज्जन जैसे-तैसे करके बोल सके। “अब से हम सभी आपके आदर्श पर चलने की चेष्टा करेंगे। हमें अब कहीं जाकर आपके कर्तृत्व का मूल-उसका मर्म ज्ञात हुआ है।” “यह मेरा आदर्श नहीं, मेरा निजी कर्तृत्व नहीं है। ऋषियों का सनातन आदर्श आर्य भूमि की गौरवमयी परम्परा है ब्राह्मण बनने और ब्राह्मण बनाने की तुममें से प्रत्येक समाज के स्नायु संस्थान का जीवन्त स्नायु बने। ध्यान रखें! पहले दिल अलग होते हैं तब घर बँटते हैं। घर का यह बँटवारा एक माँ के लाड़लों के बीच अलगाव आतंक दुश्मनी की आड़ी तिरछी रेखाएँ खींचता है। इसे वही मिटा पाएगा जिसने ब्राह्मणत्व का अर्जन किया है जो विद्या और तप का धनी है। स्वयं की संवेदना के प्रवाह से औरों को संवेदनशील बनाने की क्षमता रखता है।”
नवीं शताब्दी में कहे गए ये वाक्य आज भी उतने ही प्रखर और सार्थक हैं। ‘सपन्दकारिका’ के यशस्वी लेखक कल्लट के आदर्श को आज की परिस्थितियों में वैसे ही शाश्वत,चिरन्तन, स्थायी नियम माना जा सकता है। संवेदना उसी में विकसित हो सकती है जो स्वयं तपा हो। औरों का दुःख जिसे अपना लगता हो। अपने ऊपर कठोरता ब्राह्मण इसीलिए करता है ताकि जीवन जीने की सही विधा का औरों को शिक्षण मिल सके तथा साधनों का दुरुपयोग न होकर मानव मात्र के लिए सदुपयोग हो।