Magazine - Year 1992 - Version 2
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Language: HINDI
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“माया महाठगिनी, हम जानी”
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प्रकृति और पुरुष का तात्त्विक निरीक्षण करने वाले ब्रह्मवेत्ताओं ने यह निष्कर्ष निकाला है कि यहाँ “सत्” अर्थात् स्थिर केवल आत्मा है और जो कुछ प्रकृति परिचय दृष्टिगोचर होता है वह सभी गतिशील, अस्थिर एवं भ्रामक है। इसीलिए जो इन्द्रियगम्य है, बोधगम्य है वह कौतुक कौतूहल के अतिरिक्त एक प्रकार से आकर्षणों से भरपूर भी है तथा इसमें हँसाने-रुलाने के अतिरिक्त और कोई सार नहीं है। निस्सार वस्तु के पीछे लग लेना और उसके विभिन्न जीवन जैसा सुयोग्य संयोग गँवा देना बुद्धिमत्तापूर्ण नहीं है। उसे अधिक महत्वपूर्ण कार्यों में नियोजित किया जाना चाहिए। भ्रम-भुलावे में पड़ने से अपने आपको यथासंभव बचाना चाहिए, यही संक्षेप में भारतीय तत्त्वज्ञान का सार है।
सद्ज्ञान की बहुत महिमा महत्ता बतायी गयी है। कहा गया है कि ज्ञान से बढ़कर श्रेष्ठ इस संसार में और कुछ पवित्र नहीं है। ज्ञान को प्राप्त कर लेने पर बन्धन मुक्ति निश्चित है। यहाँ ज्ञान का अर्थ स्कूली शिक्षा से नहीं लिया गया है, जो संबद्ध एवं दृश्यमान वस्तुओं के संबंध में विभिन्न प्रकार की जानकारी कराती है वह शिक्षा भी अपनी जगह उपयुक्त है। सभी धन सम्पदा की तरह ही शिक्षा अर्जित करने का प्रयत्न करते हैं और करना चाहिए ताकि जिस संसार में हमें रहना पड़ता है, उसके संबन्ध में व्यावहारिक कुशलता अर्जित कर सकें यह शिक्षा है। अध्यात्म क्षेत्र के तत्त्वज्ञान और व्यावहारिक अनुभव को विद्या कहते हैं। विद्या का महत्व ही है जिसकी उपलब्धि के संबंध में शास्त्रकार प्रशंसा करते-करते नहीं थकते और जिसे प्रकारान्तर से अमृत कहते हैं “विद्याया ऽमृतमश्नुते।”
“माया” को भारतीय तत्त्व चिन्तन निन्दापरक शब्दों में प्रयुक्त किया गया है। वह इसलिए कि जो वस्तु जैसी है उसे वैसी न दिखाकर वह कुछ को कुछ दर्शाती है और भ्रमित प्राणी उसके आकर्षण में उसी ओर खिंचता चला जाता है। इस मनोविनोद में समय और शक्तियों का अपव्यय तो बहुत होता है, इसमें रुचि भी रहती है पर जब निष्कर्ष और प्रतिफल पर दृष्टि डाली जाती है तो शून्य हाथ लगता दीख पड़ता है।
लगता है ईश्वर ने जहाँ अपनी अंशधारी जीव सत्ता को आत्मसत्ता के साथ जुड़ी हुई क्षमताएँ और विभूतियाँ मुक्तहस्त से प्रदान की है, वहाँ उसे बच्चा समझकर खिलौने भी इतने अधिक प्रकार के लाकर सामने पटक दिये हैं कि उन्हें छोड़ने का जी नहीं चाहता। बच्चों की रुचि कई दिनों तक खेलने पर पुराने खिलौनों से हट जाती और उन्हें एक कोने में पटक देते हैं, किन्तु मनुष्य है जो उनमें कुछ सातर न होने की बात देखते हुए भी समझ नहीं पाता।
प्रकृति का स्वरूप और उपयोग यों मोटी बुद्धि तथा इन्द्रियों से समझ में आता है किन्तु गंभीर विचार करने पर उसकी वास्तविकता उजागर हो जाती है और प्रतीत होता है कि व्यर्थ की भटक न में इतना बहुमूल्य समय ऐसे ही गँवा दिया गया। यदि इसी समय और श्रम का उपयोग सारगर्भित कार्यों में किया गया होता तो कितना बड़ा लाभ मिल सकता था और कितना बड़ा उद्देश्य पूरा हो सकता था।
ज्ञान अर्जित करने के मोटे साधन हमारे पास हैं। मस्तिष्क ही ज्ञानेन्द्रियों के माध्यम से जानकारियाँ एकत्रित करता है, पर कभी यह नहीं सोचा जाता कि
यह माध्यम उपयुक्त भी है या नहीं।
कुछ उदाहरणों के द्वारा यह समझा जाय। वर्षा ऋतु में आकाश में इन्द्रधनुष दिखाई देते हैं, वह सच मालूम पड़ते हैं पर किसी वायुयान पर चढ़कर वहाँ पहुँचा जाय तो प्रतीत होगा कि वैसी कोई वस्तु कहीं नहीं है। छोटे-छोटे वर्षा बिन्दुओं पर जो सूर्य के प्रकाशकण चमकते हैं, वही भ्रमवश आँखों को इन्द्रधनुष की आभा के रूप में दिखायी पड़ते हैं। जो देखा जा रहा है उसे झुठलाने की भी इच्छा नहीं होती और जब तथ्यों का अन्वेषण करते हैं तो प्रतीत होता है कि आँखों के माध्यम से मस्तिष्क ही देख रहा है।
जमीन पर खड़े होकर जब पृथ्वी और अन्तरिक्ष का मिलन स्थल देखते हैं तो वह प्रायः तीन मील का होता है पर जब वायुयान पर चढ़कर ऊँचे से देखते हैं तो क्षितिज का वह क्षेत्र चौड़ा हो जाता है और सौ मील की दूरी तक वह मिलन स्थल चला जाता है। सिनेमा में चलती फिरती तस्वीरें दीखती हैं पर वस्तुतः बात वैसी नहीं होती। होता इतना भर है कि आँखों की दृश्यावलोकन शक्ति एक सेकेण्ड में सोलह चित्र देख सकने तक ही सीमित है किन्तु फिल्म घुमाने की मशीन अपेक्षाकृत अधिक तेजी से चलती है। इसलिए चित्रों में काम करने वाले पात्र चलते बोलते दीखते हैं। लाखों व्यक्ति नित्य सिनेमा देखते हैं पर अपनी आँखों पर अविश्वास नहीं करते और चित्रों को ही चलता फिरता अपनी सहज बुद्धि से मान लेते हैं।
यह संसार क्या है? वैज्ञानिकों की दृष्टि में यह परमाणुओं की बिखरती सिकुड़ती धूलि भर है। पर इस आधार पर जो दृश्य आँखों को दीखते हैं उन्हीं को सच्चा माना जाता है। विभिन्न वस्तुएँ संसार में बनी और बिखरी दीखती हैं। यह सब अणुओं का संगठन और विघटन मात्र है। आँखों में उन्हें सही रूप में देख सकने की क्षमता नहीं है, इसलिए संसार को इसी रूप में दीखती हैं जैसा कि वह दिखाई पड़ता है। घास और पेड़-पौधों को हम हरा देखते हैं। पर वे वस्तुतः वैसे होते नहीं। पत्तियाँ सूर्य किरणों के अन्य रंगों को अपने में जब्त कर लेती हैं मात्र हरे रंग को हजम नहीं कर पातीं इसलिए वह बाहर रह जाता है। यह किरणों का चमत्कार नहीं है, पर हम पत्तियों की विशेषता ही हरेपन में भरी हुई अनुभव करते हैं।
स्वाद के संबंध में भी इन्द्रियाँ अधूरी जानकारी देती हैं। खाद्य पदार्थ और मुँह से निकलने वाले स्राव दोनों के मिलने में मस्तिष्क तक जो जानकारी पहुँचती है वही स्वाद है। नीम की पत्तियाँ कड़वी लगती है। पर ऊँट को नहीं। वह उन्हें बहुत रुचि पूर्वक खाता है। एक ही चीज की अनुभूति दोनों प्राणियों को दो तरह की होती हैं इसका कारण वस्तुतः स्वाद नहीं हमारे मुँह की संरचना भर है। यही बात गंध के सम्बन्ध में है। जिसे हम दुर्गन्ध कहते हैं, उसे उत्पन्न करने वाले सड़े पदार्थ कितने ही कृमि कीटकों के लिए जीवन निर्वाह के माध्यम होते हैं। फिर कैसे कहा जाय कि सुगन्ध या दुर्गन्ध की अनुभूति वास्तविक है। काम वासना शरीरगत हारमोन रासायनिक पदार्थों की न्यूनाधिकता पर निर्भर है। उनमें कमी बेसी होने पर स्थिति सर्वथा बदल जाती है। कोई अतृप्त कामुकता का शिकार होता है और किसी की मनःस्थिति नपुंसक जैसी होती है। किसी को वह प्रसंग बड़ा रुचिकर लगता है किसी को उन बातों की चर्चा से घृणा और अप्रसन्नता होती है। इसी प्रकार विभिन्न प्राणियों की गतिविधियाँ, रुचियाँ एवं आदतें भिन्न-भिन्न होती हैं। चह शरीर संरचना तथा मानसिक ढाँचे की भिन्नता पर निर्भर है, इस कारण जो मतभेद बनते पनपते हैं उनमें से किन्हें सच और किन्हें झूठ कहा जाय, यह बड़ा टेढ़ा प्रश्न हैं। इन्द्रियों के अपने-अपने स्वाद हैं। मन में वासना, तृष्णा, अहंता की ललक लिप्साएँ उठती रहती है। पर उन्हें प्राप्त कर लेने पर भी तृप्ति नहीं होती ।
उससे भी अच्छी, उससे भी अधिक वस्तु प्राप्त करने की नई ललक उठ खड़ी होती है और जो पाया था वह अपर्याप्त प्रतीत होने लगता है। कई बार तो नशेबाजी जैसी हर दृष्टि से अहितकर वस्तुओं को अपनी आदत में सम्मिलित कर लिया जाता है और उनके साथ इस प्रकार गुँथा जाता है कि छोड़ते नहीं बनता। इसी प्रकार अन्य अनेकों दुष्प्रवृत्तियाँ हैं जो तात्कालिक लाभ का प्रलोभन दिखाकर कुछ ही समय में अपने दुष्परिणामों से त्रास देने लगती हैं।
मनुष्य वस्तुओं को हस्तगत करता है और उन्हें अपनी निजी सम्पत्ति मानकर मनमाना उपयोग करने लगता है। जबकि वास्तविकता यह है कि हर वस्तु एक स्थान पर, एक स्वरूप में रहने की अपेक्षा निरन्तर आगे बढ़ती और स्वरूप बदलती रहती है। अभी जो रंग रूप सुहावना लगता है वह कुछ ही समय में जराजीर्ण हो जाता है और कुरूप ही नहीं लगता, मरण की स्थिति में भी जा पहुँचता है। धन उपलब्ध होने के साथ-साथ खर्च के माध्यम से अन्यत्र चले जाने की तैयारी करने लगता है। यह कुछ उदाहरण हैं, जिन्हें देखकर हम वस्तुस्थिति जानने के लिए इंद्रियों पर और मस्तिष्क पर निर्भर नहीं रह सकते यहाँ जादूगरी जैसा तमाशा हर घड़ी होता रहता है और हम सभी अपना काम हर्ज करके भी मनोविनोद करते और समय गँवाते रहते हैं। इसी स्थिति को “माया” कहा गया है, जिसमें कुछ का कुछ सूझ पड़ता है। कस्तूरी हिरन अपनी नाभि से उठने वाली सुगन्धि को कहीं अन्यत्र से आती हुई समझता है और उसे पाने के लिए भारी दौड़ धूप के उपरान्त थक कर निराश हो बैठता है। रात की चाँदनी में सफेद बालू को जलाशय समझकर प्यासे हिरन उस ओर दौड़ते हैं और अन्ततः अपने प्रयास की निरर्थकता अनुभव करते हैं। संक्षेप में यही “माया” है जिसे पस्त होकर मनुष्य क्षण-क्षण में दुख, सुख, अनुभव करता और हँसते, रोते जिन्दगी का बोझ ढोता है। प्राणि समुदाय अपनी इच्छाओं और क्रियाओं से बाधित होकर बार-बार जन्म लेता है। किन्हीं को स्वजन सम्बन्धी और किन्हीं को अपने पराये मिलते हैं। वे जब विलग होते हैं तो बिछोहजन्य पीड़ा से सिर धुनते देखा जाता है। जब कि मरना उनका स्वयं का भी निश्चित है।
तत्त्वज्ञान का निष्कर्ष ये है कि माया के प्रपंचों का क्रीड़ा-कौतुक तो देखो, पर उसमें इतने लिप्त न हो कि अपना लक्ष्य ही भुला दिया जाय और उसके बदले अज्ञान और अनाचार का बोझ सिर पर लाद लिया जाय।
मनुष्य ईश्वर का राजकुमार है और पिता की सम्पदा का अधिकारी। मनुष्य जन्म का एक अवसर ही ऐसा है, जिसमें अपनी विभूतियों का संवर्धन करके ईश्वर का मिलन, उसके समतुल्य स्वयं ही बनाने का सुयोग व्यर्थ किया जा सकता है। इसलिए दूरदर्शिता इसी में है कि बाल विनोद में समय न गँवाकर उन कर्तव्यों के परिपालन में लगा जाये जो आत्म विकास के लिए जीवन सुयोग को सार्थक बनाने के लिए आवश्यक हैं।
चाकू की धार भोंथर हो जाती है तो उसे पत्थर पर रगड़कर तेज करना पड़ता है। कर्तव्य पालन इसी प्रयोजन की पूर्ति करता है जीवन को सार्थक बनाने और भटकावों अनाचारों से बचने का एक ही तरीका है कि अपना निजी स्वरूप, जीवन का उद्देश्य एवं समय के साधनों का सदुपयोग समझा जाय, उन्हीं में निरत रहा जाय। कारण कि जो वस्तुएँ हमें प्रयोग करने के लिए दी गयी हैं, उन्हें अच्छी स्थिति में बढ़ाकर देने में ही प्रतिभा की परीक्षा है। जो किसान बीज को कई गुनी फसल में बदल देता है वह बुद्धिमान समझा जाता है। हमें जिस संसार में काम करने के लिए, जीवनयापन का उत्तरदायित्व संभालने के लिए भेजा गया है उसे अधिक सुन्दर समुन्नत एवं श्रेष्ठ बनाकर विदाई लेना ही बुद्धिमत्ता है। इसी को कर्मयोग या कर्तव्य पालन कहते हैं। यह एक ऐसी विद्या है, जिसे अपनाने पर हर समय संतोष और उत्साह रहता है। सफलता असफलता की बात परिस्थितियों पर छोड़ दें पर कर्मयोगी आजीवन स्वस्थ और प्रसन्न रहते हैं। श्रेय-सम्मान एवं सहयोग बदले में प्राप्त करते हैं।
कर्मयोग के अतिरिक्त तत्त्वज्ञान की दूसरी धारा है-आत्म विकास। यह अपना स्वरूप समझने पर ही बन पड़ता है। अपने को ईश्वर का परम पवित्र अंश प्रतिनिधि मानकर चलने पर हर समय इसी बात का ध्यान बना रहता है कि अपनी गरिमा को गिराने वाला कोई कदम तो नहीं उठ रहा है। हेय या हीन कर्म करने में आत्मा जैसी महान सत्ता का गौरव गिरता है। अपना अन्तःकरण जिन कामों के लिए धिक्कारे, वे सभी नर पशु या नर पिशाच स्तर के हैं। उन्हें किसी भी प्रलोभन या दबाव से अपनाने के लिए सहमत नहीं होना चाहिए।
सदाशयता से सम्पन्न अनुकरणीय और अभिनन्दनीय जीवन जिया जाय तो समझना चाहिए कि सूक्ष्म शरीर ने तत्त्वज्ञान हृदयंगम और कार्यान्वित किया। तीसरा स्थूल शरीर है। इसके द्वारा व्यवहार किया जाता है। हम दूसरों के साथ वह व्यवहार करें जो दूसरों से अपने लिए अपेक्षा करते हैं। इसी को बोल-चाल की भाषा में सज्जनता और सेवा परायणता, ईमानदारी, जिम्मेदारी, समझदारी कहते हैं। तत्त्वज्ञान का सौभाग्य ही है जो मनुष्य को माया से उबारता है। मनुष्य जन्म भगवान ने दिया। अब मनुष्य की बारी है कि अपने तीनों शरीरों का श्रेष्ठतम उपयोग करे। यह तभी संभव हो सकता है जब मायावी प्रपंचों से अपने को बचाए रखने के लिए निरन्तर सतर्क रहा जाय।