Magazine - Year 1993 - Version 2
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Language: HINDI
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सूर्यवेधन प्राणायाम से अंतः की प्राणाग्नि का जागरण
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प्राणायाम का मतलब है-प्राणशक्ति का परिशोधन व अभिवर्धन। यों इसके अनेकानेक रहस्यों के अनुसार इसके प्रकार अनेकों हैं। पर सूर्यवेधन प्राणायाम में इस वैज्ञानिक प्रक्रिया का उत्कर्ष समाया हुआ है। इसके द्वारा प्राणशक्ति का जागरण सर्वाधिक सहज और सुगम है। सवाल यह भी उठ सकता है यह प्राणशक्ति है क्या? जिसका जागरण या संवर्धन इतना अनिवार्य है। आमतौर पर आज के जमाने में परमाणु शक्ति, विद्युतशक्ति की चर्चा सुनने को मिलती है। लेकिन शक्ति का स्वरूप इस छोटे से भौतिक दायरे तक ही सिमटा सिकुड़ा नहीं है। इन सब भौतिक दायरे तक ही सिमट-सिकुड़ा नहीं है। इन सब भौतिक शक्तियों की अपेक्षा कही अधिक सूक्ष्म व सामर्थ्यवान शक्ति और भी है, जिसे प्राण कहते हैं। तत्व की दृष्टि से प्राण एक है। वही प्राणशक्ति ब्रह्मांड में व्यापक रूप से संव्याप्त है और ब्रह्माग्नि कही जाती है। वही प्राण पिण्ड सत्ता में समाया हुआ है और आत्माग्नि कहलाता है। आत्माग्नि लघु ब्रह्माग्नि विभु है। एक बूँद है-दूसरा सागर।
इस तरह मूलतः एक होते हुए भी विस्तार भेद के कारण उसके दो रूप बन गये। तालाब में जब वर्षा का विपुल जल भरता है तो वह परिपूर्ण हो जाता है। वर्षा का यह अनुदान न मिलने से तालाब सूखता और घटता जाता है। पानी में मलीनता भी आ जाती है। इसलिए तालाब को भरा पूरा और साफ सुथरा रखने के लिए वर्षा के जल की आवश्यकता पड़ती है। ठीक इसी प्रकार आत्माग्नि में ब्रह्माग्नि का अनुदान सतत् पहुँचते रहना आवश्यक है। प्राणायाम के द्वारा यही प्रक्रिया संपन्न होती है।
यों गहरी साँस लेकर फेफड़े के व्यायाम को भी
आरोग्यवर्धक प्राणायाम कहते है। शरीर शास्त्र की दृष्टि से उसकी उपयोगिता और विधि व्यवस्था सुझाई गयी है। साथ ही महिमा का गुणगान भी किया जाता है। इससे अधिक आक्सीजन मिलती है और श्वास यंत्रों का व्यायाम होता है। पर सूर्यवेधन प्राणायाम मात्र डीप ब्रीदिंग वाली प्रक्रिया से भिन्न है। इसमें ब्रह्मांडव्यापी प्राण की अभीष्ट मात्रा आत्म प्राण तक पहुँचाई जाती है। इस प्रकार उसकी स्थिति और संपदा बढ़ती है। फलतः भौतिक सफलताओं और आत्मिक विभूतियों के समस्त अवरुद्ध मार्ग खुल जाते हैं।
ब्रह्म प्राण को आत्म प्राण के साथ संयुक्त करने के लिए जहाँ जीवन क्रम में शालीनता और उदारता की सत्प्रवृत्तियों का अधिकाधिक उपक्रमों को अपनाना कम महत्वपूर्ण नहीं है। आहार विहार से स्वास्थ्य की वृद्धि होती है, साथ ही दुर्बलता एवं रुग्णता को निरस्त करने के लिए विशेष चिकित्सा उपचार एवं व्यायाम आदि अपनाने की जरूरत पड़ती है। प्राण शक्ति के अभिवर्धन सूर्यवेधन प्राणायाम की जरूरत कुछ इसी प्रकार है-योगशास्त्रों में इससे होने वाले व्यष्टि प्राण और समष्टि प्राण के संबंध और समन्वय की चर्चा इस प्रकार की गयी है।
“प्राणा वै द्विदेवत्याः एक मात्रा गुह्यते। तस्मात् प्राणा एक नामात्ता द्विमात्र हयंते तस्मात्प्राण द्वन्द्वम।”
-ऐत. उ. 2-27
अर्थात्-”प्राण एक है, पर वह दो देवताओं में-दो पात्रों में भरा हुआ है।”
मानवी सत्ता में प्राण का भाँडागार बीज रूप में विद्यमान है। ब्रह्मांड में इसकी व्यापक संव्याप्ति है। परमाणु के नाभिक में प्रचण्ड शक्ति भरी पड़ी है। पर वह दिखायी तभी पड़ती-उपयोग में भी तभी आती है जब एक निश्चित वैज्ञानिक प्रक्रिया अपनाकर नाभिकीय विखण्डन कराया जाता है। प्रक्रिया अत्यंत जटिल और खर्चीली होते हुए भी परिणाम की दृष्टि से प्रभावोत्पादक एवं आश्चर्यजनक तो है ही। सूर्यवेधन प्राणायाम के प्रयोग से कुछ ऐसी ही वैज्ञानिक प्रक्रिया सम्पन्न होती है।
इसके द्वारा ब्रह्मांडीय चेतना को जीव चेतना में सम्मिश्रित करके जीव सत्ता का अंतःतेजस जाग्रत किया जाता है। कुण्डलिनी साधना में इसी प्राण योग की आवश्यकता पड़ती है। सूर्यवेधन प्राणायाम करते हुए ध्यान−धारणा अधिकाधिक गहरी होनी चाहिए और प्रचण्ड संकल्प शक्ति का पूरा समावेश होना चाहिए। श्वाँस खीचते हुए महाप्राण को विश्व प्राण को पकड़ने और घसीटकर आत्मसत्ता के समीप लाने का प्रयत्न किया जाता है। श्वाँस के साथ प्राण तत्व की अधिकाधिक मात्रा रहने की भाव भरी मान्यता रहनी चाहिए। साँस में आक्सीजन की जितनी अधिक मात्रा होती है, उतना ही उसे आरोग्यवर्धक माना जाता है। आक्सीजन की न्यूनाधिक मात्रा का होना क्षेत्रीय प्रकृति, परिस्थितियों, एल्टीटय़ूड आदि पर निर्भर है। किंतु प्राण तो समान रूप से संव्याप्त है। उसमें से अभीष्ट मात्रा संकल्प शक्ति के आधार पर उपलब्ध की जा सकती है।
सूक्ष्म जगत में अध्यात्म क्षेत्र में श्रद्धा को ही सबसे प्रबल और फलदायक माना गया है। साधनात्मक कर्मकाण्डों का फल परिपूर्ण मिलना न मिलना अथवा स्वल्प मिलना कर्मकाण्डों के विधि विधानों पर नहीं साधक की श्रद्धा पर निर्भर रहता है। श्रद्धा की न्यूनता ही साधनाओं के निष्फल जाने का प्रधान कारण होता है। जो इस सुनिश्चित तथ्य को जानते हैं वे सभी साधना उपचारों में गहनतम श्रद्धा का समावेश करने के लिए प्रचंड संकल्प शक्ति का प्रयोग करते हैं।
प्राण के प्रहार से जीवाग्नि के उद्दीपन, प्रज्ज्वलन का उल्लेख साधना ग्रंथों में अनेकों स्थान पर हुआ हैं। यह वही अग्नि है जिसे योगाग्नि प्राणऊर्जा, जीवनी शक्ति अथवा कुण्डलिनी कहते हैं। अग्नि में ऐसा ही ईंधन डाला जाता है जिसमें अग्नि तत्व की प्रधानता वाले रासायनिक पदार्थ अधिक मात्रा में होते है। कुण्डलिनी प्राणाग्नि है। उसमें सजातीय तत्वों का ईंधन डालने से ही उद्दीपन होता है। सूर्य-वेधन प्राणायाम द्वारा इड़ा-पिंगला के माध्यम से अंतरिक्ष से खींचकर लाया गया प्राणतत्व मूलाधार में अवस्थित-चिनगारी जैसी प्रसुप्त अग्नि तक पहुँचाया जाता है, तो वह भभकती हैं और जाज्वल्यमान लपटों के रूप में सारी सत्ता को अग्निमय बनाती है। अग्नि का उल्लेख शस्त्रों में मूलाधार स्थित प्राण ऊर्जा के लिए ही हुआ है-
आदेहम ध्यकटय़ंतमग्नि स्थान मुदाहट।
तत्र सिंदूर वणोऽग्निर्ज्वलनं दशपंच च॥ -त्रिशिखोपनिषद्
अर्थात्-”कटि के निम्न भाग में अग्नि स्थान सिंदूर के रंग का है। उसमें पंद्रह घड़ी प्राण को रोककर अग्नि की साधना करनी चाहिए। “
तडिल्ल्लेख तन्डीतपन शशि वैश्वानरमयी।
तड़िल्लता समरुचिर्बिधुल्लेखेन भास्वती ॥
अर्थात्-बिजली की बेल के समान, तपते हुए चंद्रमा के समान अग्निमयी वह शक्ति दिखायी देती है।
नाभेस्तिर्यग धोर्ध्वं कुण्डलिनी स्थानम्। अष्ट प्रकृति रुपाऽष्टधा कुण्डलीकृता कुण्डलिनी शक्तिर्भवति।
यथा वद्वाय संचार जलान्नदीनि पंरितः स्कन्धपाश्व व निरुध्यैनं समावेष्ट्य ब्रह्यरन्ध्र योग कालेऽपानेनाग्निना च स्फुरति॥ - शाण्डिल्योपनिषद्
अर्थात्-”नाभि के नीचे कुण्डलिनी का निवास है। यह आठ प्रकृति वाली है। इसके आठ कुण्डल है। यह प्राणवायु को यथावत करती है। अन्न और जल को व्यवस्थित करती है। मुख तथा ब्रह्मरंध्र की अग्नि को प्रकाशित करती है।”
मूलाधारादा ब्रह्मरंध्र पर्यन्तं सुषुम्ना सूर्यभा।
तन्मध्ये ताडित्कोटि सभा मृणाल तन्तु सूक्ष्मा कुण्डलिनी तत्र तमोनिवृत्ति। तर्द्दशनार्त्सव पाप निवृतिः॥ -ब्राह्मणोपनिषद्
मूलाधार से लेकर ब्रह्मरन्ध्र तक सूर्य के प्रकाश जैसी सुषुम्ना नाड़ी फैली हुई है। उसी के साथ कमल के तंतु में सूक्ष्म कुण्डलिनी शक्ति बँधी हुई है। उसी के प्रकाश से अंधकार दूर होता है और पापों की निवृत्ति होती है।
देहमध्ये ब्रह्मनाड़ी सुषुम्ना सूर्य रुपिणी पूर्ण चंद्रमा वर्तते षा तू मूलाधारादाम्य ब्रह्मरंध्र गामिनी भवति। तन्मध्ये तटकोटि समान कान्त्या मृणाल सून्नवत् सूक्ष्मां्गी कुण्डलिनीति प्रसिद्धाऽस्ति ताँ द्रष्ट मनसैव नरः सर्वपाप विनाश द्वारा मुक्तो भवति। -अद्वयतारकोपनिषद्
देह में ब्रह्मनाड़ी सुषुम्ना परम प्रकाशवान है। वह मूलाधार से ब्रह्मरंध्र तक जाती है। उसके साथ सूक्ष्म तंतु में जुड़ी अति ज्वलंत कुण्डलिनी शक्ति है। उसका भावनात्मक दर्शन करने से मनुष्य सब पापों से और बंधनों से छुटकारा पा जाता है।
प्राण का मूलाधार स्थित जीवाग्नि पर प्रहार तथा उद्दीपन। यही है- सूर्यवेधन प्राणायाम का लक्ष्य। इसकी प्रक्रिया इस प्रकार है-
किसी शाँत-एकाँत स्थान में प्रातःकाल अथवा सायंकाल की संधिवेला में स्थिर चित्त होकर बैठना चाहिए। आसन सहज हो, मेरुदंड सीधा, नेत्र अधखुले घुटने पर दोनों हाथ, यह प्राण मुद्रा कहलाती है? सूर्यवेधन प्राणायाम के लिए इसी मुद्रा में बैठना चाहिए।
दांए नासिका का छिद्र बंद करके बांए से धीरे-धीरे श्वास खीचना चाहिए। भावना यह हो कि वायु के साथ प्राण ऊर्जा की प्रचुर मात्रा मिली हुई है। इस प्राण ऊर्जा को सुषुम्ना मार्ग से वाम मार्ग के ऋण विद्युत प्रवाह इड़ा द्वारा मूलाधार तक पहुँचाना, वहाँ अवस्थित प्रसुप्त चिनगारी को झकझोरना, थपथपाना, जाग्रत करना यह सूर्य वेधन प्राणायाम का पूर्वार्ध है। उत्तरार्ध में प्राण को पिंगला (मेरुदंड के दक्षिण मार्ग के धन विद्युत प्रवाह) में से होकर वापस लाया जाता है। जाते समय अंतरिक्ष स्थित शीतल प्राण होता है। ऋणधारा भी शीतल मानी जाती है। इसलिए इड़ा पूरक को चंद्रवत् कहा जाता है। इड़ा को चंद्रनाड़ी कहने का प्रयोजन है। लौटते समय अग्नि उद्दीपन-प्राण प्रहार की संघर्ष क्रिया से ऊष्मा बढ़ती और प्राण में सम्मिलित होती है। लौटने का पिंगला मार्ग-धन विद्युत का क्षेत्र होने से उष्ण माना गया है। दोनों ही कारण से लौटता हुआ प्राणवायु उष्ण रहता है, इसलिए उसे सूर्य की उपमा दी गयी है। इड़ा चंद्र और पिंगला सूर्य है। पूरक चंद्र और रेचक सूर्य है। ऐसा ही प्रतिपादन साधना विज्ञान के आचार्य करते है।
साधना में क्रिया -कृत्यों की तुलना में भावना एवं संकल्प का महत्व अधिक है। साधक को इसके अनुरूप ही लाभ मिलता है। श्वास द्वारा खींचे हुए को मेरुदंड मार्ग से मूलाधार चक्र तक पहुँचाने का संकल्प दृढ़तापूर्वक करना पड़ता है। यह मान्यता परिपक्व करनी पड़ती है कि निश्चित रूप से अंतरिक्ष से खींचा गया और श्वास द्वारा मेरुदण्ड मार्ग से प्रेरित किया गया प्राण मूलाधार तक पहुँचता है और प्रसुप्त प्राणाग्नि कुण्डलिनी ज्वाला को अपने प्रचंड आघातों से जगा रहा है। प्रहार के उपराँत प्राण को सूर्यनाड़ी पिंगला द्वारा वापस लाने के उपराँत प्राण को सूर्यनाड़ी पिंगला द्वारा वापस लाने तथा समूची सूक्ष्म सत्ता द्वारा प्रकाशित, आलोकित करने की भावना परिपक्व करनी पड़ती है।
दूसरी बार इससे उलटे क्रम में अभ्यास करना पड़ता है। अर्थात् दायीं नासिका से प्राण को खींचना और बायीं ओर से लौटाना पड़ता है। इस बार पिंगला से प्राण को प्रवेश कराना तथा इड़ा से लौटाना पड़ता है। मूलाधार पर प्राण प्रहार तथा प्राणोद्दीपन की भावना करनी पड़ती है। एक बार इड़ा से जाना पिंगला से लौटना दूसरा बार पिंगला से जाना इड़ा से लौटना। यही है सूर्यवेधन प्राणायाम का संक्षिप्त विधि-विधान। कहीं-कहीं योग ग्रंथों में सूर्यवेधन प्राणायाम को अनुलोम विलोम प्राणायाम भी कहा गया है। लोम कहते है सीधे को विलोम कहते हैं उलटे को। एक बार सीधा-दूसरी बार उलटा, फिर सीधा उलटा चक्र ही लोम विलोम कहलाता है। कहीं-कहीं इसके एक हिस्से अर्थात् लोम को ही सूर्यवेधन की मान्यता प्राप्त है। पर प्रयोग की कसौटी पर कसने से लोभ विलोम दोनों चरण मिलकर ही ब्रह्मांडव्यापी सौर चेतना में समाहित प्राण तत्व को ग्रहण और अंतःस्थित प्राणाग्नि के जागरण की बात सत्य साबित होती है।
सूर्यवेधन प्राणायाम का शास्त्रों में असाधारण महत्व बताया गया है।
कपाल शोधनं वातदोष हनं कृमि दोषंत्हृतम।
पुनः पुनरिदं कार्य सूर्यवेधन मुन्तमम्॥ -हठयोग प्रदीपिका
यह कपाल शोधन, वात रोग निवारण, कृमिदोष विनाशक है। इस सूर्यवेधन प्राणायाम को बार-बार करना चाहिए। शरीर दोषों के निवारण के लिए ही नहीं -बल्कि व्यक्तित्व के सूक्ष्म विकारों को दूर करने, स्वयं में आध्यात्म चेतना का जागरण करने के लिए इसका महत्व अवर्णनीय है। इसके निरंतर अभ्यास से प्राण ऊर्जा का अभिवर्धन साधक की भौतिक एवं आध्यात्मिक सफलताओं का मार्ग प्रशस्त करता है। सूर्यवेधन की प्रक्रिया सामान्य दीखते हुए भी असामान्य परिणाम प्रस्तुत करने वाली है।