Magazine - Year 1993 - Version 2
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Language: HINDI
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आदिदेव नमस्तुभ्यं, दिवाकर नमस्तुभ्यं
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श्रुति का अधिकार पूर्वक कथन है कि इस संसार , जिसमें हम सब रहते हैं, कि उत्पत्ति के पूर्व सर्वत्र अंधकार ही अंधकार व्याप्त था। “तमःआसीत्” इस वाक्य में भाव यही है कि सम्पूर्ण दिशाएं अवर्णात्मक तम से व्याप्त थी। किंतु पूर्व में उदित होकर अनन्त आकाश में अपनी सम्पूर्ण आभा के साथ विचरण करने वाले परम तेजस्वी भगवान सूर्य इस धरती व सृष्टि में जीवन प्रकाश व प्राण के कारण बने। छान्दोग्योपनिषद् में ऋषि कहता है-
“य एषोऽन्तरादित्ये हिरण्यमयः पुरुषौ दुश्यते हिरण्यश्म
श्रुर्हिरण्यकेश आप्रणरश्वार्त्सव एव सुवर्णः “ (1-6-6)
इस प्रकार इसी सर्वशक्तिमान परमात्मा हिरण्यगर्भ के परम उत्कर्ष के रूप में उसके दिव्य तेज के दिग्–दिगन्त व्यापी-अंधकारमयी निशा में आत्म प्रकाश के रूप में उदित होने की बात कही गयी है। तात्पर्य यह है कि इस दिव्य अध्यात्म प्रकाश के आविर्भाव के साथ ही सम्पूर्ण दिशाओं का अंधकार समाप्त हो गया व सारा संसार प्रकाशित आलोकित हो उठा। भारतीय संस्कृति आदि संस्कृति है-सबसे पुरातन संस्कृति है। अति प्राचीनकाल से लेकर अब तक किसी ने भी मानव जीवन के समस्त आयामों को इतना आकृष्ट-प्रभावित , चमत्कृत नहीं किया है जितना कि भगवान भानु भास्कर ने। इसी कारण “आदि देव मनस्तुभ्यं” कहकर सृष्टि के प्रारम्भ में मानव के विकास के कारण बने हमारे पूर्वज ऋषिगण इसी आदित्य की सूर्य के तेज की अभ्यर्थना-अभिवंदना करते दिखायी देते हैं। सूर्य वस्तुतः संस्कृति के विकास में एक महती भूमिका निभाते देखे जाते हैं। समय की कल्पना, दिन और रात का आना-जाना, मासों व ऋतुओं का क्रमिक विभाजन तथा चंद्रमा जो सूर्य का ही एक भाग है के क्षय व वृद्धि द्वारा कृष्ण व शुक्ल पक्षों में बँटी मास व्यवस्था जैसे व्यवहारिक पक्ष जो मानव जीवन को आदिकाल से निरंतर प्रभावित करते आये हैं, सूर्य की उपस्थिति के कारण ही संभव हो पाये हैं। मनुष्य की दैनन्दिन दिनचर्या का निमित्त कारण ही आदि काल से सूर्य बना। जिस जलते आग के गोले के पिण्ड के रूप में सर्वप्रथम मानव ने सूर्य भगवान को देखा उन्हें प्राण का, शक्ति का, पुँज व भगवत्सत्ता का स्वरूप माना। उनके उदित व अस्त होने के साथ ही उसकी सुव्यवस्थित जीवनचर्या बनी। इस प्रकार मानवी सभ्यता व संस्कृति के विकासक्रम में सूर्य भगवान को एक अति-महत्वपूर्ण भूमिका निभाते देखा जा सकता है।
हमारे ऋषि वैदिक काल के आरंभ से ही “भूमा वै सुखम्।” छान्दोग्य 0-7-23-1. 7/24/1) “भूमा तद अमृतम् “ की दृष्टि वाले रहे हैं। आर्ष ऋषियों की यह “भूमा “ वाली दृष्टि उन्हें ससीम से असीम की ओर बढ़ने तथा उससे तादात्म्य स्थापित करने की प्रेरणा देती रही है। इसी क्रम में एक तरफ जहाँ सृष्टि के नियामक रूप में उन्हें अनेक देवी-देवताओं के दर्शन होते हैं, वहीं तीनों लोकों में अपने को समाहित करने व त्रैलोक्य के नियंता के साथ तादात्म्य स्थापित करने की उत्कट अभिलाषा भी उनमें जाग्रत हुई। ऋषियों के इस दृष्टि से किये गये प्रयास ही हमारी उपासना पद्धति के मूल आधार बने। इस उपासना क्रम में सूर्योपासना का देव-संस्कृति में एक विशिष्ट व अति महत्वपूर्ण स्थान है। इसका एक प्रमुख कारण यह है कि सौर-मण्डल में सूर्य, चंद्रादि नवग्रह, मरुतगण, सप्तर्षि च तैंतीस कोटि देवताओं का निवास बताया गया है। इन सब देवशक्तियों का प्रतिनिधित्व हमारे ऋषि, मनीषियों के अनुसार भानु भास्कर सूर्यनारायण ही आदि काल से करते आये है। इसलिए “सूर्य आत्मा जगतस्तस्थुषश्च” कहकर ऋग्वेद का ऋषि शाकल संहिता 1-115-1 में यह कहता है कि “जंगम तथा स्थावर सभी प्राणियों की आत्मा भगवान सूर्य ही हैं। “
गीता में जहाँ भगवान श्रीकृष्ण विभूति वर्णन के प्रसंग में “ज्योतिषाँ रविरंशुमान्” (10-21) कह कर सूर्य देव की महत्ता प्रतिपादित करते हैं, वहाँ सुप्रसिद्ध गायत्री मंत्र सूर्य की तेजःशक्ति की उपासना से मानव मात्र के सन्मार्ग पर चलने की बात कहता है तथा इसे ब्रह्मविद्या बताता है। (शुक्लयुग 3-35-22-9 एवं ऋग्वेद संहिता 3-62-10) । “आकृष्णेन रजसा” के माध्यम से ऋग्वेद शाकल संहिता 1-35-2 में वेदों में सूर्योपासना का प्रथम संकेत मिलता है। कृष्ण यजुर्वेद में तद्भास्कराय विद्महे प्रभाकराय धीमहि। तन्नोः भानु प्रचोदयात् (2-9-9) में सूर्योपासना की महत्ता बतायी गयी है। सूर्य की हमारी संस्कृति में कितनी ऊँची स्थापना की गयी है यह आदित्यो ब्रह्म ( छांदोग्योपनिषद् 3-19-1)”ब्रह्म ही प्रतीक रूप में आदित्य हैं” तथा असौ यः स आदित्यः ( शत. ब्राह्मण 50-5-1-4)। इन उद्धरणों का अवलोकन करने पर ज्ञात होता है।
ऋग्वेद के एक मंत्र में ऋषि स्तुति करते हैं कि “हे सूर्यदेव हम सभी उसी प्रकार परस्पर मिलते रहें व कल्याण पथ अनुसरण करते रहें जैसे आप एवं चंद्रदेव हमें दिग्दर्शित करते हैं।” (स्वास्ति पंथामनु चरेम् सूर्याचंद्रमसाविव-ऋ.5-51-15) अर्थात् जैसे सूर्य व चंद्रमा लाखों वर्षों से नियमित रूप से बिना किसी आलस्य प्रमाद के काम करते आए हैं, हम सभी अपने विलास की भावना (चंद्रमा प्रतीक रूप में ) को विवेक भाव (सूर्य प्रतीक रूप में) के अधीन मर्यादित रखें। जब आवश्यकता पड़े तो अनीति से लड़ने हेतु सूर्य जैसे उग्र-प्रखर भी बनें तथा उत्तेजना की स्थिति में चंद्र जैसे शाँत भी बने। यही नहीं “हे सविता देव ! आप सब प्रकार के कष्टों पापों को दूर करें और जो कल्याण कारक हो, वही हमारे लिए करें, उत्पन्न करें व हमें दें-” ‘विश्वानि देव सवितार्दुरितानिपरासुव। यद् भद्रं तन्न आसुव ऋग. 5-82-5) इस मंत्र में श्रेष्ठ विचारों को सब ओर से सूर्य के माध्यम से आमंत्रित किया गया है ताकि मानव चिंतन सदैव सही विवेक युक्त बना रहे। उपरोक्त सभी उद्धरण यह बताते है कि सविता देवता की स्तुति को ऋषियों ने क्यों इतना महत्वपूर्ण माना तथा दैनन्दिन जीवन में श्रेष्ठतम स्थान दिया। “सविता सर्वस्य प्रसविता” सविता सबके उत्पादक जन्मदाता हैं कहकर यह प्रतिपादित किया है। सूर्य देवता ही समस्त प्राणी जगत को जीवन व प्राण देने वाले हैं।
देव संस्कृति के प्रणेता महामानवों ने अपनी दिव्य दृष्टि से अंतःस्फुरणाओं के रूप में जो भी कथन कहे वे श्रुति बन गये तथा जो भी प्रतिपादन अंतर्जगत में स्वानुभूति प्रयोग संपन्न करके किये वे जीवन व्यवहार के सूत्र बन गये। अग्नि प्रज्ज्वलन, जो मानव जाति का प्रथम अनुसंधान था, का प्रेरणा स्रोत भी सूर्य ही है। वहाँ से लेकर सूर्य रश्मियों से चलने वाले रथों के अनुसंधान तथा सूर्य द्वारा आरोग्य प्राप्ति के प्रयोगों से लेकर सूर्य किरणों के संवेग से चलने वाले कणों की खोज तक तथा मूलबलों के एकीकरण के प्रयोगों तक सभी में सूर्य की प्रधानतम भूमिका रही है। ऋषियों ने ही सर्वप्रथम जाना व कहा है कि सूर्य से ही साँसारिक सृष्टिचक्र प्रवर्तित व संचालित है। सूर्य से ही प्राणी मात्र की उत्पत्ति होती है। सूर्य के कारण ही कृषि कार्य संपन्न हो पाता है। सूर्य से ही वृक्ष, फूल, फल वनस्पति औषधि और अन्न की उत्पत्ति संभव हो पाती है। सूर्य न हों तो साँसारिक सृष्टिचक्र चल ही नहीं सकता, इस प्रकार इस संसार चक्र के मूल में सूर्य ही है, यह हमें ऋषियों ने बताया व इसी कारण हम सूर्य देव को आदि देव मानकर अपना साँस्कृतिक विकास उसी क्रम से करते आए हैं।
पृथ्वी के व्यास में लगभग 108 गुना बड़े प्रायः आठ लाख चौसठ हजार मील के व्यास वाले प्रकाश मंडल की आभा लिए सूर्य को स्वयं संभवतः यह अनुमान न होगा कि ऊष्मा के पुँज उस दिनमान ने चौदह करोड़ से भी अधिक किलोमीटर दूरी पर स्थित पृथ्वी पर सभ्यता के विकास की प्रक्रिया में कितनी महत्वपूर्ण भूमिका निभायी है। ऋतु विभाजन व दिन-रात की सीमा निर्माण से लेकर वर्षा, अति वर्षा, सूखा यहाँ तक कि जीवन के सभी उपक्रमों में सूर्य की ही प्रमुख भूमिका है। पृथ्वी पर जल भी सूर्य की ऊष्मा के कारण ही है तथा वृष्टि का भी जल सूर्य के कारण ही है। सूर्य की ऊष्मा ही पृथ्वी पर प्राप्त अग्नि तथा विद्युत का मूल कारण है। इस प्रकार सूर्य मानव के उद्भव से लेकर प्राणी मात्र के अस्तित्व का मूल कारण है, यह तथ्य सुनिश्चित है। इसी कारण सूर्योपासना अनादिकाल से न केवल भारत वर्ष में, जहाँ वैदिक संस्कृति का विकास सर्वप्रथम हुआ, बल्कि समस्त विश्व के विभिन्न भागों में भक्ति व श्रद्धापूर्वक की जाती रही है। विश्व संस्कृति ही कभी भारतीय संस्कृति ही थी, यह तथ्य सूर्य मंदिर विश्वभर में स्थान-स्थान पर पाये जाने पर सुनिश्चित लगने लगता है। अमेरिका के रैड इंडियनों द्वारा आबाद क्षेत्रों में सूर्य मंदिर प्रचुर संख्या में पाये गये है। कालाक्रम में ऋषि चेतना से संपर्क टूट जाने पर सभ्यता के विकास क्रम में वे संभवतः आगे बढ़ नहीं पाए किंतु उपासना उनके दैनंदिन जीवन का अंग बन गयी। कई प्रकार की सूर्य गाथाएँ हवाई द्वीप, जापान, दक्षिण अमेरिका तथा कैरेबियन द्वीपों में प्रचलित हैं जो बताती है कि सूर्य सबका उपास्य रहा है। चीन के विद्वानों ने तो सूर्य को आधार मानकर अपना समग्र खगोलशास्त्र तथा ज्योतिर्विज्ञान स्थापित किया है। वहाँ सूर्य को “याँग“ तथा चंद्रमा को “यिन” मानते हैं तथा इनकी प्रतिनिधि धाराएँ इड़ा-पिंगला के रूप में शरीर में संव्याप्त मानते हैं। जापान सूर्यपूजक राष्ट्र है तथा दिनमान का आगमन सूर्य प्रथम उसी देश से हुआ माना जाता है। बौद्ध जातकों में सूर्य का प्रसंग वाहन के रूप में स्थान-स्थान पर आया है तथा अजवीथि, नागवीथि और गोवीथि नाम के मार्गों के आधार पर तीन गतियाँ उसकी मानी गयी है।
फारसी अरबी में सूर्य के आफताब कहा गया है। इस्लाम में “सूर्य” को “इल्म अहकाम अननजूम” का केन्द्र माना गया है अर्थात् सूर्य इच्छाशक्ति को बढ़ाने वाली चैतन्य सत्ता के प्रतीक है। ईसाई धर्म में न्यूटेस्टामेंट में सूर्य के धार्मिक महत्व का विशद वर्णन है। सेण्ट पाल ने इसीलिए रविवार का दिन पवित्र घोषित कर इस दिन प्रभु की आराधना, दान दिये जाने आदि का अत्यंत फलदायी पुण्य माना है। इसी कारण सारे विश्व के ईसाई रविवार को नियमित रूप से पूजाघरों में जाकर सामूहिक प्रार्थना करते है। ग्रीक और रोमन विद्वानों ने भी इसी दिन को पूजा का दिन स्वीकार किया है।
उपरोक्त संदर्भ तो विश्वभर के धर्म-मत-संप्रदायों व अन्यान्य सभ्यताओं के सूर्य के संबंध में दिये गये है। किंतु भारतीय संस्कृत तो विशुद्धतः वैदिक संस्कृति को सूर्य संस्कृति के रूप में मानती व अपना आदि देव सूर्यदेव को बताती चली आयी है। हमारी संस्कृति के अनुसार सूर्य ही ब्रह्म है(उत्पत्तिकर्त्ता), सूर्य ही विष्णु है (पालनकर्ता) तथा सूर्य ही महाकाल है अर्थात् काल के समय का निर्धारणकर्ता। महाकाल को मृत्यु का देवता माना जाता है। सूर्य की ऊर्जा अर्थात् प्राणाग्नि जब तक शरीर में रहती है , तब तक प्राणी जीवित है। इसके निकल जाने पर वह नष्ट हो जाती है। यही नहीं सूर्य को गणपति भी कहा गया है। ग्रहों में सबसे प्रमुख होने के कारण सूर्य गणपति है तथा सभी ग्रह इसकी परिक्रमा प्रमुख होने के कारण ही करते हैं। सूर्य को इंद्र अर्थात् देवताओं का राजा भी कहा गया है। हमारे कण्ठ अर्थात् स्वर इसमें ‘इ’ प्रत्यय लगाकर रवि स्वर उत्पन्न करने वाला या देने वाला यह सूर्य का नाम बनता है। उच्चारण प्रदाता होने के कारण सूर्य को उद्गीथ भी कहते हैं। महाभारतकार ने पाण्डव श्रेष्ठ युधिष्ठिर के मुख से सूर्य की स्तुति इस प्रकार करवायी है-
“त्वामिन्द्रमाहुस्त्वं रुद्रस्त्वं विष्णुस्त्वं प्रजापतिः।
त्वमग्निस्त्वं मनः सूक्ष्मं प्रभुस्त्वं ब्रह्म शाश्वतम्॥”
“हे सूर्य! आप इंद्र, रुद्र, विष्णु, प्रजापति, अग्नि, मन प्रभु और ब्रह्म है।” वस्तुतः देव संस्कृति सूर्योपासना के माध्यम से-माहात्म्य के प्रसंगों के माध्यम से भारतीय आध्यात्मिक जीवन का उच्चतम आदर्श प्रस्तुत करती है। “सत्यं तातान् सूर्यः”(ऋग्वेद 1-105-12) आध्यात्मिक जीवन शैली का प्रतीक वाक्य है। वैदिककाल से ही सूर्य को आचार्य रूप में प्रतिष्ठा प्राप्त है। वैदिक युग में ही उपनयन में अपनी और विद्यार्थी की अंजलि जल से भरकर आचार्य के मंत्र पढ़ने की विधि रही है। (श्रेष्ठ सर्वधातमं तुरं भगस्य धीमहि-ऋग्वेद 5-82-1) एवं आचार्य शिष्य को आश्वासन देते रहे हैं कि जिस प्रकार सूर्य प्रकाश देकर जगत् का अंधकार निरंतर दूर करते है, वैसे ही आचार्य शिष्य का अज्ञानांधकार दूर करते रहेंगे।
मानव व सूर्य के आदिकाल से अब तक गहन भावनात्मक संबंध रहे है। वह मात्र जलता आग का गोला नहीं है अपितु मानवमात्र के लिए प्राणदाता-जीवन संरक्षक व उसके साँस्कृतिक विकास का परिचायक भी है। सूर्य का प्रत्येक गुण मानव के क्रमिक आध्यात्मिक उत्थान का द्योतक है। यहाँ तक कि हमारी चिरपुरातन देव संस्कृति के जो भी महत्वपूर्ण प्रतिष्ठित तत्व हैं, उन सबके मूल में सूर्य देवता का ही प्रधान भूमिका मानी जाय तो कोई अत्युक्ति नहीं होगी।
संभवतः यही कारण रहा है कि यजुर्वेद में “सूर्यो ज्योतिज्योतिः सूर्यः स्वाहा” (3-9) से लेकर प्रश्नोपनिषद् (1-7) में “प्राणः प्रजानामुत्दयत्येष सूर्यः” के माध्यम से सूर्य की महिमा व स्तुति का गायन हुआ है। सूर्य मार्तण्ड भी कहलाते है क्योंकि ये मृत अण्ड (ब्रह्मांड) में से होकर सारे जगत को अपनी ऊष्मा तथा प्रकाश से जीवन दान देते है। ऐसे आदि देव की जितनी महिमा गायी जाय उतनी कम है।