Magazine - Year 1994 - Version 2
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Language: HINDI
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जब सूक्ष्म देह करने लगती है लोक लोकांतरों की यात्रा
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संत सत्पुरुष की तलाश में फिरते रहते हैं। उपयुक्त पात्र मिल जाने पर वे उनकी सहायता करते हैं और मार्गदर्शन भी। जनसामान्य उनके अनुग्रह से इसलिए वंचित रहते है कि कृपा प्राप्त करने के लिए व्यक्ति में जो योग्यता होनी चाहिए, उसे वह संपादित नहीं कर पाते जितना संपन्न करते हैं, वह उनकी कृपा के लिए पर्याप्त नहीं होता इसलिए अक्सर यह देखा जाता है। कि समर्थों का अनुदान विपन्नों को उपलब्ध नहीं होता जबकि आँतरिक संपन्नतायुक्त साधक उसे अनायास ही प्राप्त करते रहते हैं।
घटना 1937 की है। काशी में केदार मालाकर नामक एक सोलह वर्षीय बालक बंगाली टोला के अपने मकान में माँ बहन के साथ रहता था। जिन दिनों की यह बात है, उन दिनों उसके पिता का देहाँत हो चुका था। परिवार में माँ बहन और भानजा रह गये थे। केदार पास के ही एक स्कूल में पढ़ता था। इन्हीं दिनों बालक के साथ अकस्मात् एक अद्भुत घटनाक्रम जुड़ गया था। वह अपना स्थूल शरीर छोड़कर घंटों बाहर रहता और फिर स्वतः उसमें प्रवेश कर जाता। जब यह बार बार का क्रम हो गया तो एक दिन उसके परिवार वालों ने उससे प्रश्न किया कि आखिर अचानक यह विद्या उसमें कहाँ से आ गयी। उसका कहना था कि वह ऐसी कोई विद्या नहीं जानता जिसे असाधारण कहा जा सके। जो कुछ घटित हो रहा है उसमें न तो उसकी स्वयं की कोई शक्ति है न इच्छा ही। यह सब एक देव पुरुष की सहायता से संपन्न होता है। जब वह आकर सामने प्रकट होते हैं, तो सूक्ष्म शरीर देह से स्वतः पृथक हो जाता है फिर उनका अनुसरण करते हुए वह उसी दिव्यात्मा वासी होते हैं वहाँ उसे अलग अलग स्थलों पर ले जाया जाता है और अगणित प्रकार के ज्ञान विज्ञान के रहस्यों की जानकारी दी जाती हे। कार्य पूरा होने के उपराँत वह पुनः पृथ्वी पर अपनी स्थूल काया में लौट आता है।
केदार प्रायः कहा करता था कि ले जाने वाला देवदूत एक ही है सो बात नहीं। भिन्न भिन्न भुवनों के भिन्न देवदूत है जिस भुवन में ले जाया जाना अभीष्ट होता उसके दूत आते ओर अपने साथ ले जाते। इसमें उसकी अपनी आकांक्षा कार्य करती ऐसी बात नहीं थी या तो दूत अपनी इच्छा से अथवा उक्त लोक के अधिष्ठाता की मर्जी से आते और उसे साथ ले जाते। कहाँ जाना है? क्या करना है? इन सब मामलों में केदार परतंत्र था। इनके लिए उसे दूत पर निर्भर रहना पड़ता था। वह जहाँ जाता केदार को साथ साथ चलना पड़ता मानों उसकी सूक्ष्म सत्ता दूत के आकर्षण से स्वयमेव खिंची चली जाती हो।
शरीर से बाहर निकलने (आउट ऑफ बॉडी एक्पीरियेन्स ) और लोक लोकान्तरों का भ्रमण करने संबंधी इस अद्भुत क्रिया का आरंभ कब और कैसे हुआ? इस बारे में कहता कि एक बार वह दशाश्वमेध बाजार में खरीददारी करने गया था। रास्ते के एक पेड़ पर उसे एक ज्योतिर्मय सत्ता दिखाई पड़ी। उसे देखकर वह विस्मय विमूढ़ हो गया। सोचा उसे दूसरे को भी दिखाऊँ। आस पास देखा कोई था नहीं इसलिए किसी राहगीर के आने का इंतजार करने लगा। यह विचार मन में जैसे ही आया वह दिव्य शरीरधारी आँखों से ओझल हो गया। इसी क्षण उसके अंदर कुछ अजीबोगरीब परिवर्तन महसूस हुआ। ऐसा क्योँ हो रहा है? वह समझ नहीं पाया। इसके बाद आवश्यक सामग्री क्रय करने के उपरांत वह घर आ गया। घर आने पर उसकी स्थिति और बिगड़ती सी प्रतीत होने लगी। शरीर अस्वाभाविक रूप से तपने लगा। असह्य पीड़ा भी शुरू हो गई। परिवार वाले चिंतित हो उठे पर दो दिन तक यह दशा रहने के पश्चात् उसकी अवस्था में सुधार आने लगा और फिर जल्द ही तकलीफ ठीक हो गई और वह भी ठीक हो गया। उस देवात्मा से संपर्क का प्रथम अनुभव था। इसके बाद वह सत्ता अक्सर आने लगी। जब आती , तो अब पहले जैसी वेदना का अनुभव तो नहीं होता, किंतु उसकी उपस्थिति से केदार की सूक्ष्म देह निकल कर उसके साथ चल पड़ने के लिए विवश हो जाती। यह क्रम अंत तक जारी रहा।
शरीर से बाहर निकले पर उसे कैसा अनुभव होता है? इस बारे में उसका कहना था कि देह के बंधन से मुक्त होने पर अचानक उसकी काया और यह दुनिया एक प्रकार से अदृश्य हो जाती है एवं एक शून्य का सा आभास होने लगता है मार्गदर्शक सत्ता के आकर्षण से वह उसी शून्य को भेदते हुए अग्रसर होता है। इस क्रम में आगे बढ़ते हुए दोनों एक ऐसे स्थल पर पहुँचते हैं जो भयंकर तरंग युक्त होता है। यहाँ काया को ऐसा महसूस होता है जैसे उसे तीव्र विद्युतीय झटके लग रहे हो। उसके इसी प्रकृति के कारण केदार ने उस स्थान का नाम झटिका रख दिया। इसके आगे इन्द्रियाँ निष्प्रभावी हो जाती है फलतः बाद का ज्ञान अग्राह्य बन जाता है।
लोकान्तर यात्रा का प्रायः यही क्रम रहता जिसके उपराँत केदार हमेशा एक नये भुवन में पहुँचता और वहाँ की नई जानकारी अर्जित करता किंतु इस क्रम में कई बार उसे गंभीर वेदना सहनी पड़ती और यात्रा अधूरी छोड़ कर शरीर में वापस लौटना पड़ता। ऐसा प्रायः तब होता जब पृथ्वी पर उसकी चेतनाहीन काया को कोई अशुद्ध शरीर मन से स्पर्श कर देता।
इस प्रकार समय बीतने के साथ साथ बालक का यह अद्भुत विकास भी उत्तरोत्तर बढ़ता गया। उसकी इस प्रगति को देखकर सूक्ष्म जगत में गति रखने वाले महापुरुष प्रायः यही मंतव्य प्रकट करते कि उस पर ऊर्ध्वलोक के किसी देवपुरुष की कृपा हुई है अन्यथा साधारण बालक के लिए ऐसा कौशल दिखा पाना संभव नहीं था। शरीर से बाहर निकलने की प्रक्रिया में क्रमिक विकास होता गया और अंत में तो उसके निज के पुरुषार्थ की बिलकुल भी आवश्यकता नहीं रही। विकास की मध्यावस्था में प्रत्यक्ष दूत की मदद तो जरूरी नहीं होती किंतु फिर भी परोक्ष प्रेरणा अपरिहार्य थी। अपने बूते ही शरीर से बहिर्गमन कर किसी भी लोक में अप्रतिहत आने जाने की अवस्था जब प्राप्त हो गई तब लोग इतर लोक संबंधी उससे तरह तरह के प्रश्न करने लगे। वह हर एक की जिज्ञासा का समुचित समाधान करता। ऐसे ही एक अवसर पर जब उससे यह कहा गया कि इस विश्व से बाहर जाकर इसकी ओर दृष्टिपात करो और यह बताओ कि यह कैसा लग रहा है? प्रश्नकर्ता इस सवाल के द्वारा बालक की परीक्षा लेना चाहते थे कि क्या सचमुच उसकी बति लोक लोकाँतरों तक है क्या? क्षणमात्र में वह देह से बाहर निकल कर पलक झपकते ही लौट आया और सवाल का सटीक उत्तर यह कहते हुए दिया कि यह जगत बाहर से ऐसा दिखाई पड़ता है मानो कोई मनुष्य अपने दोनों हाथों को दांये-बांये फैलाये हुए निश्चल खड़ा हो ठीक वैसे ही जैसे ईसा मसीह का क्रास। उपनिषदों में वर्णित वैश्वानर विद्या यही है। जैन आचार्य भी ऐसा ही गत प्रकट करते हैं। एक अन्य अवसर पर जब महाशून्य से वैकुँठ के स्वरूप के बारे में पूछा गया और उसका सही सही वर्णन करने को कहा तो पुनः केदार अपनी काया से बाहर निकला और पल भर में तथ्य का पता लगा आया।उसका कहना था कि महाशून्य से वैकुँठ दक्षिणावर्त शंख जैसा बाहर से दिखाई पड़ता है। शास्त्रों के पुरुषोत्तम क्षेत्र में इसका ऐसा ही उल्लेख मिलता है। इस प्रकार देखा गया कि वह न सिर्फ कलेवर से बाहर निकल सकता है, वरन् तथ्यों का सही सही पता लगाने में भी समर्थ है।
वह जिन जिन भुवनों में जाता वहाँ की भाषाएँ भी सीख आता और यदा कदा इसका प्रयोग स्थूल देह में लौटने के पश्चात् पृथ्वी पर भी करता देखा जाता। लोकव्यवहार में वह कई बार उन उन लोकों की सर्वथा अनजान ओर अपरिचित शब्दावलियों का प्रयोग भूल वश कर देता। सामने वाला जब उनके प्रति अपनी अनभिज्ञता प्रकट करता और आशय न समझ पाने की स्थिति में मौन बना रहता तभी केदार को अपनी त्रुटि का भान हो पाता।
संध्या समय वेदपाठ करना, उसका नियमित क्रम किंतु उसका वेद प्रचलित वेद से भिन्न था। उसके पाठ में उदात्त अनुदात्त एवं त्वरित स्वरों का स्पष्ट समावेश होता पर शब्द उसके बिलकुल भिन्न थे, न तो वे संस्कृत के शब्द होते न हिंदी के अपितु इनसे पृथक और ही प्रकार के उनके उच्चारण थे। सुनने वालो ने समझा कि देवलोक सीख ली हो और उसी वाणी में वहाँ का वेदपाठ कर रहा हो। जिज्ञासा समाधान के लिए जब इस आशय का प्रश्न किया गया तो आश्चर्य व्यक्त करते हुए उसने कहा लौकिक भाषा की तरह वहाँ की देववाणी पढ़ या सुन कर नहीं सीखनी पड़ती सीखने समझने की वह प्रक्रिया पृथ्वी से बिलकुल भिन्न है। जिस भी लोक में धरती का कोई सूक्ष्म शरीर धारी मनुष्य जाता है और वहाँ के जिस भी देवपुरुष से वार्त्तालाप करना अभीष्ट होता है उसके भ्रूमध्य से एक ज्योति किरण निकल कर सामने वाले के भ्रूमध्य को स्पर्श करती है। इतने से ही वह मनुष्य वहाँ के भाव और भाषा का जानकार हो जाता है। इसके वाद वह न सिर्फ वहाँ की बोली समझने लग जाता अपितु स्वतंत्र रूप से विचार विनिमय भी कर सकता है। जो कुछ उसे कहना होता वह सब वहाँ की भाषा शब्द और ध्वनि के हिसाब से प्रकट होने लगता है। पृथ्वी की तरह वहाँ शब्दों और वाक्यों के स्मरण करके रखने की जरूरत नहीं पड़ती।
विभिन्न लोकों का भ्रमण करना अब केदार का एक प्रकार से नियमित क्रम बन गया था। वह दिन रात जब भी इच्छा होती दिव्य लोकों की यात्रा पर निकल जाता और इच्छानुसार देवपुरुषों के दर्शन स्पर्शन कर लौट आता। केदार की यह अलौकिक क्षमता केवल कौतुक कौतूहल मात्र बन कर रह गई हो सो बात नहीं। इसके माध्यम से उसने अनेक प्रकार के अलौकिक ज्ञान विज्ञान के रहस्य प्राप्त किये थे। जिनका समय समय पर वह प्रयोग और प्रदर्शन भी करता था। एक ऐसे ही अवसर पर काशी की सिद्धि माँ नामक एक सिद्ध स्त्री भी उपस्थित थी। केदार का चमत्कार देख कर उनने कहा कि यह सब ठीक है। ब्रह्माँड घूमना लोक लोकान्तरों की सैर करना और वहाँ उपलब्ध हुए विज्ञान के आधार पर चमत्कार करना इन्हें अद्भुत तो कहा जा सकता है, पर पर्याप्त नहीं जीवन का चरम लक्ष्य ईश्वर प्राप्ति है। सद्गति तभी संभव है। यह तब तक शक्य नहीं जब तक व्यक्तित्व को अंदर बाहर से सरल और समान न बना लिया जाय। जीवन का सबसे बड़ा चमत्कार यही है। इस एक को संपादित कर लेने पर शेष ऋद्धि सिद्धियाँ स्वयमेव हस्तगत होती चली जाती है अस्तु जीवन का प्रथम और प्रमुख लक्ष्य आत्म परिष्कार होना चाहिए तभी वह स्थिति उपलब्ध हो सकती है जिसे साधना का सर्वोपरि चमत्कार और संयम का दिव्य उपहार कहा गया है। तुम्हें उसी को लक्ष्य बनाना चाहिए।
यह सत्य है कि अंतस् के परिमार्जन के बिना बाह्य स्तर का दिव्य सहयोग भी अपर्याप्त साबित होता है। इसलिये महापुरुषगण वैसे सत्पात्रों की तलाश में रहते हैं। जिनकी आँतरिक भूमि उर्वर हो जिसमें अनुदान का बीजारोपण करने पर अंकुरित होकर पल्लवित पुष्पित हो सके। अतएव अनुदान पाने के लिए हम सिद्ध पुरुषों की खोज में अपना समय न गंवाये। अपने अंतस् को सुविकसित और सुसंपन्न करे हमें उनकी अयाचित अनुकंपा मिलती चलेगी। देने और पाने का आध्यात्मिक आधार यही है इसी पर ध्यान केन्द्रित किया जाना चाहिए।