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Magazine - Year 1994 - Version 2

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Language: HINDI
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सही ढंग से साँस लें- नीरोग बनें

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शरीर में प्राण का एक छोटा सा अंश कार्यरत है, प्रचुर परिणाम में यह अंतरिक्ष की वायु में घुला मिला है। मनुष्य के चारों ओर सूक्ष्म वातावरण में प्राण का सागर लहलहा रहा है जिसे मनचाही मात्रा में विशेष पद्धति द्वारा खींचा और अपने भीतर भरा- अवधारित किया जा सकता है। सामान्य श्वसन-प्रक्रिया द्वारा जो आक्सीजन भीतर आती है उसमें प्राण का उतना अंश हो विद्यमान चल सके। अधिक परिणाम में करतलगत करने के लिए वह वैज्ञानिक विधि अपनानी पड़ती है जिसे योग साधनाओं में प्राणायाम कहा गया है। उसका एक छोटा प्रयोजन डीप ब्रीदिंग अर्थात् गहरी साँस लेने से भी पूरा होता है।

शरीर के अवयवों पर नियंत्रण करने वाले अचेतन मन की दक्षता और व्यावहारिक जीवन की समस्याएं सुलझाने वाले चेतन मस्तिष्क का समुचित परिपोषण प्रधानतया साँस पर निर्भर रहता है। उसकी उपेक्षा करके मानसिक विकास की समग्रता संभव नहीं हो सकती। अतः जितना प्रयास अध्ययन, अनुभव, संपर्क द्वारा ज्ञान अर्जन के लिए किया जाता है, उतना ही इस बात के लिए भी किया जाना चाहिए कि शरीर और मन की समर्थता-स्वच्छता बनाये रखने की पृष्ठ भूमि के प्रति आवश्यक सतर्कता बरती जाती रहे। यह कार्य स्वच्छ वातावरण में रहने और गहरी साँस लेने का अभ्यास डालने पर ही हो सकता है।

वस्तुतः कायकलेवर का समूचा क्रिया संचार उनके निमित्त बने हुए अंग-अवयवों द्वारा होता है पर यह अंग भी मस्तिष्क तंत्र के अधीन काम करते हैं। अचेतन मन के नियंत्रण में हमारा पाचन−तंत्र, रक्त संचालन, श्वास, प्रश्वास निमेष-उन्मेष, आकुँचन-प्रकुँचन आदि की वे क्रियाएं होती रहती है जिन्हें स्वसंचालित कहते हैं। चेतन मस्तिष्क कल्पना, बुद्धि, लोकव्यवहार का अर्जन-अभिवर्धन करके अपनी बौद्धिक प्रतिभा अर्जित करता है।

मस्तिष्क द्वारा विद्युतीय संचालन शरीर का होता है। रक्त सप्लाई हृदय से होती है, किन्तु मस्तिष्कीय क्षेत्र में जो कल्पना तरंगें उठती रहती है, उसकी क्षमता ब्रह्मरंध्र से उठती है। इसी के इर्द-गिर्द बुद्धि, विवेचना, सूझ-बूझ आदि के भी केन्द्र है। समग्र मस्तिष्क एक ऐसी मजबूत पिटारी-खोपड़ी के भीतर कैद है कि वहाँ किसी प्रकार का दबाव नहीं पहुँचता। जिस प्रकार शरीर के अंग-प्रत्यंगों का व्यायाम द्वारा सक्रिय बनाया जाता है, उस प्रकार का उठा पटक वाला व्यायाम मस्तिष्क का नहीं हो सकता। फिर उस क्षेत्र की गंदगी साफ करने निष्क्रियता को सक्रियता में बदलने और चेतनात्मक आहार उपलब्ध कराने का प्रयोजन किस प्रकार पूरा हो?

यह कार्य श्वास-प्रश्वास द्वारा होता है। नाक से भीतर घुसते ही साँस सर्वप्रथम मस्तिष्क में प्रवेश करती है। इसलिए उसका सबसे अधिक दबाव वहीं होता है। इसके उपराँत ही वह फेफड़ों में प्रवेश करती और वहाँ से समस्त शरीर को वितरित होती है। जीवकोषों को रक्त, वायु और विद्युत इन तीनों की ही आवश्यकता पड़ती है। इसकी पूर्ति जितनी अच्छी तरह होती है, उसी अनुपात में घटक निर्धारित क्रियाकलाप ठीक प्रकार कर पाते हैं। इन तीनों में से एक की भी कमी पड़ जाय तो दुर्बल, निस्तेज एवं रुग्ण रहने लगते हैं। इसलिए आवश्यक है कि घटकों की आवश्यक सप्लाई रुके नहीं और उनकी स्थिति समर्थता संपन्न बनी रहे।

इस हेतु रक्त को शुद्ध और पर्याप्त मात्रा में शरीर के अंदर बनाये रखने के लिए भोजन का सही और उसके पचाने के लिए परिश्रम की समुचित व्यवस्था होनी चाहिए। दूसरी आवश्यकता पूर्ति के लिए साँस को उथला नहीं, गहरा लिया जाना चाहिए, ताकि उसका वेग और अनुपात फेफड़ों एवं जीव कोषों को समुचित मात्रा में उपलब्ध होता रहे। पूरी साँस लेना जितना फेफड़ों के समस्त परिकर को सुसंचालित रखने के लिए आवश्यक है, उतना ही घटकों के पोषण के लिए भी। साथ ही मस्तिष्क स्वच्छता और सक्षमता की बात भी गहरी साँस से ही बनती है। यदि उससे उथली लिया जाय तो समूचे शरीर को निर्बल होना पड़ेगा। इसलिए शरीर विद्या के विशेषज्ञों ने गहरी साँस देने पर जोर दिया है। गहरी साँस से मतलब है-फेफड़ों से लेकर पेट तक के समूचे धड़ भाग का अधिक से अधिक फैलना और सिकुड़ना। पूरी साँस इसी को कहते हैं।

यह क्रम नियमित रूप से चलता रहे तो काम चले, अन्यथा दौड़ने में हाँफने लगने और आलस में पड़े रहने के व्यतिक्रम से काम नहीं बनता। वह तो ज्वार-भाटे जैसी स्थिति हो जाती है। काम तो नदी जैसे सामान्य से प्रवाह से चलता है। तैरना और नाव चलाना सुव्यवस्थित प्रवाह से ही बन पड़ता है। इसलिए संयोगवश गहरी उथली साँस चलने की अव्यवस्था को दूर करके नियमित रूप से गहरी साँस लेने का अभ्यास करना चाहिए। इसे ही शरीर शास्त्री प्राणायाम कहते हैं, जबकि यह प्राणायाम का प्रथम अभ्यास है जिसका अब तक वे इतना ही महत्व समझ पाये है और देते रहे है कि हर व्यक्ति को गहरी साँस लेने और छोड़ने की आदत डालनी चाहिए। साथ ही यह भी ध्यान रखना चाहिए कि वह वायु स्वच्छ हो। हरीतिमा और सूर्य-प्रकाश को छूकर आ रही हो। बंद कमरों की सीलन और सड़न भरी हवा जिस-तिस प्रकार शरीर यात्रा का काम तो चलाती रहती है, पर उससे शक्ति और ताजगी उपलब्ध नहीं होती। अतः अन्न के संतुलित और बल के स्वच्छ होने की तरह शरीर में प्रवेश करने वाली वायु की स्वच्छता और पूर्णता पर भी समुचित ध्यान दिये जाने की आवश्यकता है। आमतौर से इस ओर ध्यान नहीं दिया जाता। साँस अपनी मर्जी से भीतर आती जाती रहती है। वह कैसी है? कितनी है? इसका ध्यान दिये जाने पर भी शरीर को ऐसी क्षति पहुँचाती है जिसकी क्षतिपूर्ति मात्र दवा-दारु से नहीं हो सकती। जीवन में यों तो शरीर के सभी अंग-अवयवों का अपना-अपना महत्व है, पर उन सब में मस्तिष्क की अपनी महत्ता है। विचार तंत्र ही जीवन की दिशाधारा विनिर्मित करता है। गुण, कर्म, स्वभाव के केन्द्र उसी क्षेत्र में है। इसलिए मानसिक क्रियाकलापों को सही और समुचित रखने के लिए मस्तिष्क पर साँस की सप्लाई समुचित मात्रा में होनी चाहिए। उसमें आक्सीजन की उतनी मात्रा घुली रहती है। जितनी शरीर में सामर्थ्य और ताजगी बनाये रखने की आवश्यकता है। साँस उथली लेने पर आक्सीजन की मात्रा पड़ जाती है और एक महत्वपूर्ण पोषक तत्व से वंचित रहना पड़ता है।

आक्सीजन का अधिकतर भाग हृदय से भी अधिक मात्रा में मस्तिष्क में खर्च होता है क्योंकि काम भी सबसे अधिक अनुपात में और स्तर की दृष्टि से अधिक महत्वपूर्ण करना पड़ता है। उसे रक्त से भी अधिक आक्सीजन या प्राणवायु की आवश्यकता पड़ती है। हृदय की धड़कन घट जाय तो रक्तचाप घट जाता है जो दुर्बलता का अशक्ति का चिह्न है। इसी प्रकार आक्सीजन युक्त साँस में जितनी कमी पड़ें, उतना ही घाटा जीवन तंत्र को उठाना पड़ेगा। विशेषतया तय जब वह मस्तिष्क को कम मात्रा में मिले और अस्वच्छ स्तर की हो। इससे मस्तिष्कीय क्षमता घटती है, चिंतन भोंड़ा और भोंथरा हो जाता है। दिनचर्या के ढर्रे वाले कार्यों से ही समझ काम देती है। सूक्ष्म चिंतन, समझदारी, दूरदर्शिता, सूझबूझ जैसी विशेषतायें कम पड़ जाती है।

इस संदर्भ में चिकित्सा विज्ञानियों ने सूक्ष्म अनुसंधान किये है। उनके नवीनतम शोध निष्कर्षों के अनुसार श्वास प्रश्वास शरीर की एक ऐसी जटिल, किंतु महत्वपूर्ण प्रक्रिया है जो विभिन्न तंत्रों एवं उनकी गतिविधियों पर सीधा प्रभाव डालती है। साँस लेने की शैली पर भी बहुत कुछ स्वास्थ्य एवं आरोग्य निर्भर करता है। श्वसन मस्तिष्क के ऐच्छिक तथा अनैच्छिक क्रियाओं के बीच संपर्क सूत्र भी स्थापित करता है। अन्य शारीरिक क्रियाओं की तरह उसका नियमन नियंत्रण तो तंत्रिका तंत्र द्वारा होता है पर तंत्रिका तंत्र द्वारा नियंत्रित उन समस्त क्रियाओं में से एक श्वसन की क्रिया ही ऐसी है जिसमें व्यक्ति स्वयं भी उपासना चेतनात्मक नियंत्रण रख सकता तथा उसमें समय-समय पर परिवर्तन ला सकता है। प्राणायाम प्रक्रिया द्वारा इस एक तंत्र का नियंत्रण सीखकर शरीर के अन्य तंत्रों पर भी नियंत्रण प्राप्त किया जा सकता है जिसमें मस्तिष्कीय तरंग तंत्र, हारमोन्स स्राव, चयापचय क्रियायें आदि मुख्य है।

श्वसन की सामान्य प्रक्रिया में नासा के स्वर बारी-बारी से बदलते रहते हैं, जिसे नाम चक्र कहा जाता है। भारतीय अध्यात्म योग की यह चिर पुरातन मान्यता है कि दांये-बांये स्वरों की गति मनुष्य के स्वभाव एवं प्रकृति को प्रभावित करती है। शारीरिक स्वास्थ्य ही नहीं, मानसिक संतुलन के लिए भी दोनों स्वरों का ताल-मेल आवश्यक है और यह प्रक्रिया प्राणायाम द्वारा ही नियंत्रित हो पाती है। प्राणायामों के इस दांये-बांये स्वर सिद्धाँत की वैज्ञानिक मान्यता को आज के विज्ञानी भी उपयोगी ठहराने लगे है। इस संबंध में बुखरेस्ट-रोमनिया के मूर्धन्य चिकित्सा वैनिक डॉ. आई.एन. रिंग एवं डलहौजी यूनिवर्सिटी-नोवास्कोटिया के प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक रेमण्ड क्लेन तथा रोजीन आरमिटेज ने महत्वपूर्ण खोजें की है। उनका निष्कर्ष है कि श्वास लेने की प्रक्रिया का मस्तिष्कीय क्रिया प्रणाली से सीधा संबंध है।

श्वसन-शैली बदलने पर मस्तिष्कीय क्रिया-प्रणाली में किस प्रकार का परिवर्तन होता है और अंततः संपूर्ण फिजियोलॉजिकल एवं साइकोलॉजिकल क्रियाकलाप पर क्या प्रभाव पड़ता है। इसका उत्तर जानने के लिए पेन्सिलवेनिया के वैज्ञानिक अनुसंधान रत है। उनका मत है कि विभिन्न प्रकार की श्वसन शैलियों में सबसे उत्तम एवं लाभदायक प्रणाली डायफ्रामेटिक श्वसन की है। इसमें श्वसन के समय हृदय के नीचे स्थित डायफ्राम पर जोर डाला जाता है। नवजात अवस्था में शिशु इसी विधि द्वारा साँस लेते हैं, फलतः उनका शारीरिक मानसिक विकास भली प्रकार होता रहता है, पर ज्यों-ज्यों बालक बड़ा होता है, इस विधि से साँस लेने की प्रवृत्ति घटती जाती है, परिणाम स्वरूप रुग्णता भी बढ़ती है।

सुविख्यात मनोविज्ञानी डबे अलेकोण्डर लोवेन का कहना है कि श्वसन जितना गहरा होगा, भावनाओं को उतना ही अधिक प्रभावित करेगा। वे अपनी मानसिकता पद्धति में साम्स संबंधी व्यायामों का प्रयोग करते हैं। श्वसन प्रक्रिया का भावनाओं में संबंध जानने के लिए कैलीफोर्निया यूनिवर्सिटी के पीरटर न्यूलेवकियेटक इन्स्टीट्यूट में विभिन्न प्रकार के प्रयोग परीक्षण किये गये। इसमें शोधन वैज्ञानिक जे. वी. हार्ट तथा वी. टिम्सन्न ने अपने प्रयोग परीक्षणों कस यह सिद्ध कर दिखाया है कि श्वसन तथा मस्तिष्कीय तरंगें परस्पर संबद्ध है। उन्होंने निष्कर्ष निकाला है कि गहरे श्वसन की स्थिति में जब लोग शैथिल्यावस्था में रहते हैं तो उस समय अल्फा तरंगों की अधिकता रहती है, किंतु जब व्यक्ति उथली और तेज साँस ले रहा होता है तो इस तरंग की न्यूनता पायी जाती है। एबडोनिनल ब्रीदिंग में अल्फा तरंगें अधिक पायी जाती है, जबकि थौरेसिक से कम। इसी तरह डॉ. रुडोल्फ वैलेन्राइन ने अपने अनेकों प्रयोगों के उपराँत विश्वासपूर्वक घोषणा की है कि श्वसन प्रक्रिया मनुष्य के मानसिक एवं शारीरिक दशाओं-दक्षताओं से सीधे संबद्ध है। यदि यह सही है और श्वसन पर ऐच्छिक नियंत्रण संभव हो तो विभिन्न प्रकार के शारीरिक मानसिक रोगों एवं व्यतिरेकों को ठीक किया जा सकता है।

हारवर्डमोर्डकल स्कूल के सुप्रसिद्ध चिकित्सा विज्ञानी डॉ. हरवर्ट वेन्सन ने अपनी कृति “दि रिलैक्सेषन रिस्पोन्स” में कहा है कि मनुष्य की फिजियोलॉजिकल क्रियायें में जो भावनाओं से संबद्ध है, उचित श्वसन पद्धति द्वारा उन पर नियंत्रण पाना संभव है। डीप ब्रीदिंग-गहरी साँस द्वारा तो प्राण संपन्नता का मात्र एक छोटा सा प्रयोजन हो पूरा होता है, पर विशिष्ट प्राणायामों द्वारा उन क्रियाओं पर नियंत्रण करना भी संभव है जो कभी चेतनात्मक नियंत्रण करना भी संभव है जो कभी चेतनात्मक नियंत्रण के परे की बात समझी जाती है। गहरी साँसों एवं प्राणायामों का अभ्यास बहुत दिनों में हो पाता है इसलिए उस ओर समुचित ध्यान रखना और प्रयत्नशील रहना हमारी दिनचर्या का आवश्यक अंग होना चाहिए।

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