
संपादकीय - अपनी से अपनी बात- - सशक्त शक्ति उद्गम से जुड़ने का ठीक यही समय
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शांतिकुंज की देवसंस्कृति दिग्विजय प्रक्रिया के अंतर्गत पिछले दिनों जो हो चुका है, इन दिनों जो हो रहा है, आगे जो होने ही जा रहा है, उसका विवेचन विश्लेषण करने पर किसी को भी यह असमंजस नहीं रहना चाहिए कि इस मिशन की समर्थता संदिग्ध है। तिनके-तिनके मिलने से मजबूत रस्सा बनता है। धागे मिलकर कपड़े के रूप में विनिर्मित होते हैं। यदि यह तिनके और धागे निजी महत्वाकाँक्षा और निजी अहंकारिता के परिपोषण का उन्माद संजोये अपना अस्तित्व अलग-अलग ही बनायें रहे तो उन्हें अपना अस्तित्व तक बनाये रहना कठिन पड़ जाय। रीछ-वानरों की सेतु बनाने और सीता खोज निकालने की सफलता इसलिए मिल सकी कि उनकी पीठ पर समर्थ सत्ता का हाथ था। एकाकी पुरुषार्थ पर निर्भर रहकर तो वे केवल पेड़ों पर उछलकूद ही करते रह सकते थे। पेट भर लेना ओर जीवित बने रहना ही उनकी सफलता का चरम स्वरूप बनकर रह सकता था। सामूहिकता अपनाने और किसी समर्थ तंत्र के साथ जुड़ने पर ही उन्हें वह श्रेय मिल सका जिसके कारण उनकी तब से लेकर अब तक समान रूप से प्रशंसा होती चली आती है।
शांतिकुंज की अपनी सत्ता और महत्ता किसी दिव्य शक्ति के साथ जुड़ी होने पर ही इस स्थिति में रह रही है कि उसके द्वारा पिछले दिनों कुछ करते धरते बन पड़ा। इन दिनोँ जो हो रहा है उसका एक धूलिकण भी परखने पर पता चलता है कि इतना कुछ व्यक्ति विशेष के बल पर बन पड़ सकना संभव नहीं हो सकता। वर्तमान निर्धारणों को देखते हुए यही कहा जा सकता है कि यदि वह किसी व्यक्ति विशेष या संगठन विशेष का प्रयास है तो उसे दुस्साहस से अधिक और कुछ नहीं माना जा सकता। पानी में बबूले कितनी महत्वाकाँक्षाएं लेकर उभरते मचलते और इतराते हैं, पर कोई समर्थ पृष्ठभूमि पीछे न रहने के कारण उनकी उछल-कूद कुछ ही समय में समाप्त हो जाती है। इंद्रधनुष जैसे विशालकाय दृश्य आधार रहित होने के कारण अपनी असाधारण दीखने वाली छाप को कुछ ही मिनटों में गंवा बैठते देखे जाते हैं।
विभिन्न मौसमों में विभिन्न प्रकार की फसलें बोई और काटी जाती रहती हैं, पर इन दिनों तो उन कल्पवृक्षों का आरोपण किया जा रहा है जो युग युगान्तरों तक जीवित रहेंगे और उन प्रयोजनों को पूरा कर दिखायेंगे जिनसे निराशा के स्थान पर आशा का - खिन्नता के स्थान पर प्रसन्नता का वातावरण बन सके, इन कल्पवृक्षों को ब्रह्म कमलों को बढ़ना और फलती-फूलती स्थिति तक पहुँचाया जा सकना नंदनवन जैसी असाधारण उर्वरता से सम्पन्न भूमि पर ही हो सकता है। अगले दिनों जिन महामानवों का समुदाय अवाँछनीयता को निरस्त करने और सुखद संभावनाओं से भरी पूरी योजनाओं के संपन्न होने के लिए कटिबद्ध हो रहा है, उनके पोषण और प्रशिक्षण के तद्नुरूप आधार अवलंबन भी चाहिए। जिन्हें ऐसी खोज करनी हो उन्हें अपने लिए उपयुक्त आधार खोजते समय शांतिकुंज के साथ जुड़ने की बात ध्यान रखनी चाहिए।
सामान्य जीवधारी पंच तत्वों के संयोग से जन्मते और जिस तिस प्रकार दिन गुजारते हुए फिर उसी प्रपंच में विलीन हो जाते हैं पर मनुष्य तो उनकी तुलना में कहीं अधिक बढ़ा-चढ़ा है। इसलिए उसकी विचारणा आकाँक्षा और क्रिया पद्धति भी नर-पशुओं की अपेक्षा कुछ अधिक ही उत्कृष्ट होनी चाहिए। विशेषतया इन दिनों महाकाल द्वारा प्रामाणिकों और प्रतिभावानों के चयन हेतु परीक्षा प्रतिस्पर्धा संजोई गई है। इस तैयारी के लिए साधारण नहीं असाधारण रीति नीति अपनाने की आवश्यकता पड़ेगी।
ऐसी ही कुछ तैयारी करने के लिए इस वर्ष नैष्ठिक प्राणवान परिजनों के विशिष्ट पाँच दिवसीय सत्र इस वर्ष 15 नवम्बर से 28 फरवरी 1995 की साढ़े तीन माह की अवधि में रखे गए हैं। ये लोकनायक स्तर के सृजेताओं को प्रेरणा देने वाले तथा आने वाले समय की माँग के अनुरूप युग नेतृत्व संभालने वालों के लिए होंगे। ऐसे सौभाग्य भरे प्रसंग कभी-कभी ही किसी के जीवन में आते हैं।
महत्वपूर्ण घटना प्रसंगों व महामानवों से बिछुड़ने की नहीं, जुड़ने की सौभाग्य वर्षा को स्मरण रखा और इतिहास में लिख जाता है। कचरा चक्रवात के साथ जुड़कर आकाश चूमने लगता है। जिस महाशक्ति तंत्र को युग चेतना का उद्गम केन्द्र बनाया है वही अपनी विद्युत धारा उन तक भी पहुँचा कर रहेगी जो उस ट्रान्सफार्मर के साथ जुड़ने में भाव भरा उत्साह प्रदर्शित कर सकेंगे। आगामी शीतकाल की अवधि ऐसा ही कुछ सुअवसर, प्राणवानों के लिए आ रहा है। कैसे अनुदान वितरण संपन्न होगा तथा कौन इनका अधिकारी बनने का पात्र है, इसका विस्तृत विवरण आगामी अंक में पाठक पढ़ सकेंगे।
*समाप्त*