Magazine - Year 1995 - Version 2
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Language: HINDI
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देवात्मा हिमालय एवं ऋषि परम्परा -परमपूज्य गुरुदेव की अमृतवाणी
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गायत्री मंत्र हमारे हमारे साथ-साथ ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो प्रचोदयात्।
देवियो-भाइयो, मुनासिब जगह पर मुनासिब चीज पैदा होती है। नागपुर के संतरे अगर आप अपने यहाँ बोना चाहें तो मीठे नहीं होंगे। बम्बई का केला जो कि वहाँ की जमीन में पैदा होता है, दूसरों जगह नहीं हो सकता। लखनऊ का आम सारी दुनिया में मशहूर है। अगर वही आम आप अपने गाँव में बोये तो उतना मीठा नहीं होगा जैसा कि वहाँ का होता है। नीलगिरी का चन्दन कितना खुशबूदार होता है। यदि उसी चन्दन का पेड़ आप ले आवें और अपने गाँव के बगीचे में लगा दें तो इतना खुशबूदार नहीं होगा। देवगण जहाँ हिमालय पर रहते हैं वहाँ एक लम्बी वाली शकरकन्द जैसा कन्द पैदा होता है और वह कई दिन तक खाने के काम आ जाता है। उसी शकरकन्द का बीज .......... दे दें तो आप वे लेंगे? नहीं होंगी। जिसके लिये द्रौपदी से आग्रह किया था कि ब्रह्मकमल ला करके दो। यह कहाँ पैदा होता है? यह उत्तराखण्ड में उसके आगे तपोवन के नजदीक पैदा होता है। वह ब्रह्मकमल का फूल जमीन पर खिलता है, पानी में नहीं। यह अपनी जगह पर होता है। आप कहीं से बीज ले आयें ब्रह्मकमल के, अपने घर में बोना चाहें, तो हो सकता है? ..........वहाँ नहीं हो सकता। जगह की आपसी सहन होती है। हिमालय की अपनी महत्ता है। सार ऋषियों ने वही निवास किया था। स्वर्ग भी पहले वहीं था। ऋषियों की भूमि भी वहीं है। बड़ी सामर्थ्यवान, बड़ी संस्कारवान भूमि है। हमको भी तप करने के लिये वहाँ भेज दिया गया था और अब हम यहाँ सप्तर्षियों की भूमि शान्तिकुञ्ज में है देवात्मा हिमालय का अपना महत्व है। गंगा अपने में आध्यात्मिक शक्तियों को समेटे हुए है। यह न केवल उसके पीने के पानी में है, बल्कि वह जहाँ होकर बहती है, वहाँ का वातावरण भी कुछ विशेष होता है। सप्तऋषियों की भूमि, जहाँ सातों ऋषियों ने तपश्चर्या की थी और जो अभी भी ऊपर आसमान में दिखाई पड़ते है। उनकी जो भूमि है सप्तऋषि भूमि वह भी यहीं है। जहाँ आपका यह शान्तिकुञ्ज बना हुआ है और भी गंगा के किनारे बहुत से ऐसे स्थान है जहाँ सिंह ओर गाय कभी एक घाट पर पानी पीने लगते थे। ऐसे प्राणवान स्थान भी होते हैं और सिद्ध पुरुष भी होते है। हम यहाँ ऐसे स्थान पर ही आये है। यहाँ आकर हमने आपकी भावनाओं को दिव्यता का स्मरण कराने के लिये देवात्मा हिमालय का एक मन्दिर बना दिया है। हिमालय का मन्दिर और कहीं नहीं मिलेगा आपको लोगों ने देवताओं के मन्दिर बनाये है, अमुक के मन्दिर बनाये है, द्रमुक के मन्दिर बनाये है, पर हिमालय का मन्दिर सिर्फ आपको यहीं देखने को मिलेगा। हमने वह भी बनाया है। यह सप्तऋषियों की भूमि है। सप्तऋषियों की भूमि और कहाँ है, बताइये आप? कहीं नहीं है, मात्र यहीं पर, जहाँ आज शान्तिकुञ्ज वाली जमीन में जो पानी हजारों वर्षों से बहता था वह बन्द नहीं हुआ है। वह धारा अभी भी बह रही है, उसके लिये सामने रास्ते बना दिये गये है।
हिमालय-मन्दिर क्या है? ये प्रतीक क्यों बना दिये है? प्रतीकों का अपना अलग महत्व है। एकलव्य ने द्रोणाचार्य का प्रतीक बना लिया था। रामचन्द्र जी ने शंकर जी का प्रतीक बनाया था। जब वे वनवास गये थे और सीता हरण के कारण दुखी मन से वन-वन भटक रहे थे, उस समय उन्हें जब प्रतीक की आवश्यकता हुई तो उन्होंने शंकर जी के मन्दिर की स्थापना की थी, रामेश्वर में। ये सब प्रतीक हैं जैसे तिरंगा झंडा अपना राष्ट्रीय प्रतीक है। कम्युनिस्टों का भी झंडा होता है। लोग कहते है कि वे प्रतीकों को नहीं मानते। कैसे नहीं मानते? लाओ हम उनके झंडे को उखाड़ फेंके फिर देखो क्या होगा? मुसलमान भी प्रतीकों को नहीं मानती है क्या? मक्का मदीना में प्रतीक ही तो रखा हुआ है जिसका वे चुम्बन लेते है। समस्त देवात्मा हिमालय का मन्दिर कहीं था नहीं। भारतवर्ष का यह एक बड़ा अभाव था। वह हमने दूर किया है, ताकि साधना की दृष्टि से कोई आदमी आना चाहे तो इस स्थान पर आकर वह महत्वपूर्ण लाभ उठा सके। इसलिये यह बनाया गया है। मुनासिब जगह पर मुनासिब काम होते है। हिमालय में बहुत सारे ऋषि रहते है और जो भी आये है। उन्हीं ऋषियों का स्मरण दिलाने के लिये हमने यह कोशिश की है कि जो उन्होंने काम किये थे, उनकी समेट करके पूरा न सही-थोड़ा-थोड़ा काम करें तो अच्छा होगा। हमने वही किया है।
व्यास जी ने अठारह पुराण लिखे थे। दर्शन भी लिखे थे। पुराणों और दर्शनों को हम लिख तो नहीं सके, पर हमने उनका अनुवाद किया है। वेदों का अनुवाद किया है। व्यासजी ने जो काम किये थे, उस रास्ते पर हम भी चले हैं और यहाँ जब शान्तिकुञ्ज में आयेंगे तो देखेंगे कि उसकी निशानी यहाँ भी विद्यमान है। महर्षि पतंजलि ने गुप्त काशी में रहकर योगाभ्यास किया था। आप जब आयेंगे तो देखेंगे यहाँ जो कल्प साधना शिविर कराये जाते है, अन्य दूसरे शिविर कराये जाते है, और यहाँ योगाभ्यासों का, प्राणायामों का विधि-सिखाया जाता है, वह हमने भी किया है और आपको सिखाते है। पुराने जमाने के ऋषियों में याज्ञवल्क्य का महत्वपूर्ण स्थान है? उन्होंने यज्ञ के सम्बन्ध में की थी। यज्ञ से किस तरीके से मनुष्य के शारीरिक और मानसिक रोगों का निराकरण होना सम्भव है और यज्ञ से किस प्रकार पृथ्वी के वातावरण को ठीक किया जाना सम्भव है? ऐसी बहुत-सी बातों महत्ता थी तब, लेकिन लोग उस महत्वपूर्ण यज्ञ को भूल-भाल गये थे। ऐसे ही हवन कर लेते थे सुगन्ध फैलाने के लिये हमने उसको फिर से जीवित किया है शोध करके जैसे कि याज्ञवल्क्य ऋषि ने किया था। लगभग उसी तरीके से यहाँ शान्तिकुञ्ज में भी हमने कोशिश की है कि वह परम्परा चलती रहे।
विश्वामित्र ऋषि थे वे गायत्री के मंत्र द्रष्टा है। गायत्री मंत्र जो हम बोलते है, उसका विनियोग है, सविता देवता है और विश्वामित्र का भी यहाँ स्थान बना हुआ है। गायत्री का मन्दिर भी बना हुआ है शान्तिकुञ्ज में हमने भी गायत्री के पुरश्चरण ये है। विश्वामित्र को भी हम गुरु मानते है। जो हमारे हिमालय वाले गुरु है, ये अगर विश्वामित्र को भी गुरु मानते हैं जो हमारे हिमालय वाले गुरु हैं। वे अगर विश्वमित्र हो तो आप अचंभा मत मानना। भगीरथ का नाम आपने सुना होगा। उनने हिमालय पर तप किया था और तप करके ज्ञानगंगा को लाये थे गंगा जब धरती पर आने लगी तो उनके प्रचण्ड वेग को देखकर भगीरथ ने सोचा कि यह तो हमारे बूते का नहीं है। गंगा जी ने भी कहा कि जब में नीचे जमीन पर गिरेगी तो सुराख हो जायेगा। सो तुम मुझे स्वर्ग से बुलाकर कैसे धारण करोगे। तब भगीरथ ने शंकर जी मदद माँगी शंकर जी ने अपनी जटायें फैलाये इस तरह स्वर्ग से जब गंगा आयी थी तो पहले शंकरजी की जटाओं आयी, पीछे जमीन पर गिरी। भगीरथ आगे-आगे चले, जमीन पर गिरी। भगीरथ आगे-आगे चले, इसलिये गंगा भागीरथी कहलायी यह आपको मालूम है न? भगीरथ तो अब नहीं, मगर उनके तप का स्थान अभी भी हैं, मगर उनके तप का स्थान अभी भी हैं। गंगोत्री के पास गौरीकुण्ड है उसके पास एक शिला है जिसका नाम भगीरथ शिला है, जहाँ भगीरथ ने बैठकर तप किया था। उस स्थान पर बैठकर हमने भी ठीक उसी तरीके से एक साल का अनुष्ठान किया था हम ज्ञान गंगा को लाये हैं। यह ऋषियों की परम्परा है हमने कोशिश की है कि ऋषिगण जिस रास्ते पर चले। हम भी उस रास्ते पर चले हैं, हम भी उस रास्ते पर चले। ऋषियों की वजह से हिमालय धन्य हुआ, नहीं तो हिमालय में क्या बात है? इससे ऊँचे ऊँचे ऊँचे और भी पहाड़ है। सारी दुनिया में पहाड़ों की कोई कमी है क्या? उत्तराखण्ड इसी वजह से प्रख्यात हुआ है कि इसमें चारों धाम भी बने हैं। पाँच प्रयाग भी उसमें है। पाँच गुप्त कोशियाँ भी हैं। पाँच सरोवर भी है। समूचे भारतवर्ष के जो कुछ भी महत्वपूर्ण स्थान है, जो कुछ भी तीर्थ है, सब इकट्ठे होकर इसी एक जगह पर एकत्रित हो गये हैं। हमारा भी प्रयत्न इसी तरीके से रहा है।
परशुराम जी का नाम आपने सुना होगा। उन्हें शंकर भगवान ने एक कुल्हाड़ा दिया था। उसे कुल्हाड़े से उनने लोगों के सिर काट डाले थे। जो खराब दिमाग वाले थे, बददिमाग वाले थे, उन बददिमाग वालों के सिर काटकर परशुराम जी ने फेंक दिये थे और वह भी इक्कीस बार। सिर काटने से मतलब? सिर काटना तो मेरे ख्याल से ऋषि के लिये क्या समीप रहा होगा? यह कथन तो अलंकारिक मालूम पड़ता है। दिमाग बदल जरूर दिये होंगे दिमाग बदलने के लिये विचार क्राँति की दृष्टि से हम लगभग वही काम कर रहे हैं जो कि परशुराम जो ने फरसा लेकर किया था। फरसा तो हमारे हाथ में नहीं है, मगर कलम जिन्दा है। दोनों चीजें हमारे हाथ में है। और उन्हीं के सहारे हम लोगों के दिमागों की बदलने के लिये निरन्तर प्रयत्नशील है। परशुराम जी यमुना जी की भी लाये थे और फरसा भी लाये थे। परशुराम जैसा लगभग वही काम हमने किया है।
प्रायः सभी ऋषि उत्तराखण्ड में ही हुए हैं। ऋषियों ने इसी पुनीत भूमि में रहकर तपस्या की, ताकि अध्यात्म शक्तियों को ठीक ढंग से संभाल सकें। इससे उन्होंने इसी स्थान को चुना था। हमने भी इसे ही चुना है। हमारा और आपका मिलन हो सके,। इसलिये हिमालय की जहाँ से शुरुआत होती है-हरिद्वार से उस स्थान पर हम बैठे हैं ताकि आपके लिये भी यहां आने में में मुश्किल न हो। जहाँ बर्फ पड़ती है ओर अत्यधिक ठंडक रहती है, जहाँ खाने पीने का कोई सामान नहीं है, यदि वहाँ आप जायेंगे तो मुश्किल पड़ेगी आपके लिये। इसलिये हमने हरिद्वार में रहना मुनासिब समझा। यहाँ से हिमालय शुरू होता है। गंगा में यहाँ से पहले कोई गन्दी चीज नहीं डाली जाती और न कोई नाले पड़ते हैं बाद में पड़ते हैं। इसलिये हरिद्वार को हमने मुनासिब समझा।
चरक ऋषि को आप जानते है क्या? चरक ऋषि प्राचीन काल में हुए हैं। उन्होंने दवाओं, प्राकृतिक औषधियों के सम्बन्ध में शोध की थी खोजें की थी। उनका स्थान केदारनाथ के पास था जहाँ सिक्खों का गुरुद्वारा है। केदारनाथ के पास फूलों की घाटी है जो उन्हें बहुत प्रिय थी। अब तो वहाँ तोड़-फोड़ के कारण सब जड़ी-बूटियाँ नष्ट हो गयी हैं। वहाँ तो अब फूलों की घाटी भी नहीं है लेकिन अगर कभी आपको फूलों की घाटी देखने का मन हो तो आप गोमुख से आगे ऊपर तपोवन और नन्दनवन ऐसे स्थान हैं जहाँ विचित्र दुर्लभ फूलों की छटा देखते ही बनती है। इनमें ब्रह्मकमल भी शामिल है। वह आपको वहीं मिलेगा। चरक के रास्ते पर हम भी चले हैं औषधियों के प्राचीन श्लोकों को ठीक तरीके से खोजबीन करने के लिये और उनके सही और गलत होने को बात जानकारी प्राप्त करने के लिये यहाँ ब्रह्मवर्चस शोध संस्थान की स्थापना की है। जो कुछ भी सम्भव है पुराना और नया अर्थात् पुराने ढंग से कैसे शोध की जाती थी और नये ढंग से कैसे शोध की जाती थी और नये ढंग से कैसे की जाती है? यह हमने यहाँ बनाने की कोशिश की है।
उत्तरकाशी में आरण्यक हैं आरण्यक किसे कहते है? आरण्यक उसे कहते हैं जहाँ लोग वानप्रस्थ लेकर समाज सेवा के लिये समर्पित हो जाते हैं, उनके निवास स्थान को आरण्यक दोनों चलाने की कोशिश की है खास विद्यालय जिसके बारे में कहना चाहिए कि हिन्दुस्तान भर में शायद ही कहीं ऐसा विद्यालय आपको देखने को मिले। प्रचारक और लोकसेवी तैयार करने के लिये हमने यहाँ आरण्यक बनाया है। भगवान बुद्ध ने भी बनाये थे नालन्दा और तक्षशिला में। उनमें प्रचारक और कार्यकर्ता तैयार किये जाते थे हमारे यहाँ भी कार्यकर्ताओं को संगीत की शिक्षा, व्याख्यानों की शिक्षा, समाजसेवा की शिक्षा, चिकित्सा की शिक्षा आदि सारी शिक्षायें यहाँ दी जाती है। यहीं जमदग्नि का आश्रम है। नारदजी का नाम तो सुना है न आपने? वे संगीत के द्वारा ही सारी की सारी भक्ति का प्रचार करते थे और हिन्दुस्तान से लेकर सारे विश्वभर में घूमते थे। चाहे जब भगवान के पास जा पहुँचते थे। उनका स्थान कहाँ था? विष्णुप्रयाग में उन्होंने तप किया था। वहाँ तो हम आपको नहीं ले जा सकते, लेकिन यहाँ पर नारद जी का जो काम संगीत शिक्षा का, वह हमने किया है। क्योंकि इस जमाने में लोक शिक्षा के लिये संगीत बेहद आवश्यक हैं संगीत के बिना देहाती मुल्कों में जहाँ बिना पढ़े लिखे लोग अधिक रहते है, उनको प्रशिक्षित करना बड़ा मुश्किल हैं। हमने उसकी भी यहाँ व्यवस्था बना ली है।
वशिष्ठ जी का तो नाम आपने सुना हैं उन्होंने राजनीति और धर्म दोनों को मिलाया था। राजा दशरथ के यहाँ भी काम करते थे और राजनीति की भी देख-भाल करते थे। ओर राजनीति की देख-भाल करते थे। हमारी भी जिन्दगी कुछ इसी तरह की हो गयी है। पौने चार वर्ष तो जेलखाने में रहना पड़ा। सन् 1920 से लेकर 1942 तक बाईस साल तक हम दिन-रात राजनीति में लगे रहे समाज को ऊँचा उठाने के लिये और अंग्रेजों को भगाने के लिये। देश की आजादी के लिये हमने जो काम किया है, वशिष्ठ भगवान भी यही काम करते थे। पीछे वे राम, लक्ष्मण, भरत और शत्रुघ्न को अपने पास ले गये थे। हम भी आपको लेकर आये हैं। हमारे बच्चे ते क्या आयेंगे पर आप आ सकते हैं। आप भी हमारे बच्चे हैं शंकराचार्य के बच्चे थोड़े ही थे। रामचन्द्र जी के पिता का नाम वशिष्ठ थोड़े थोड़े ही था? दशरथ जी था। आप भी जो हमारे बालक है? जिस तरीके से राम, लक्ष्मण, भरत और शत्रुघ्न-चारों भाइयों को लेकर वशिष्ठ जी आ गये थे, और उनको यह बतलाया था कि धर्म और राजनीति-दोनों का समन्वय कैसे हो सकता है, हम भी आपको यही सिखाने का प्रयत्न कर रहें कि धर्म और राजनीति का विज्ञान और अध्यात्म का सम्मिश्रण समन्वय कैसे हो सकता हैं?
आद्य शंकराचार्य का नाम सुना है न आपने। जिन्होंने चारों धाम बनाये थे। चारों धाम कौन-कौन से है? रामेश्वर,द्वारिका,बद्रीनाथ और जगन्नाथ पुरी चारों धामों में चार मठ उन्होंने स्थापित किये थे। उनका अपना निवास स्थान था ज्योतिर्मठ। ज्योतिर्मठ के पास शहतूत का एक पेड़ था। उसी के नीचे उनकी गुफा थी। वे वहीं रहते थे। वहीं उनने अपने ग्रन्थ लिखे थे और वहीं तप किया था और वही जो कुछ भी काम कर सकते थे, चारों धाम बनाने का, वे भी योजनाएँ उन्होंने वही बनायी थीं। मान्धाता को कहकर वह काम उन्होंने वहीं से कराया था। हमने भी यहीं से बैठकर गायत्री के चौबीस सौ धाम बनाये है। इसके अलावा भी चौबीस सौ छोटे-छोटे धाम है शंकर जी का एक ही धाम है- रामेश्वर में और जगन्नाथ जी का एक ही धाम है, बद्रीनाथ का एक ही धाम है, लेकिन गायत्री के हमने चौबीस सौ धाम बनाये हैं आपने पिप्पलाद ऋषि का नाम सुना है। वह भी यहीं रहते थे हिमालय पर लक्ष्मण झूला के पास पीपल के फल खाकर के ही उनने जिन्दगी काट दी थी, क्योंकि वे जानते थे-जैसा खाये अन्न, वैसा बने मन। यदि हम अपने मन को अच्छा बनाने की फिक्र में है तो सबसे पहले शुरुआत अच्छे अन्न से करनी अच्छे अन्न का मतलब होता है कि बेईमानी से कमाया हुआ अन्न नहीं हों बिना हराम का जो अपने खून-पसीने से कमाया हो, उसी को खा करे रहना चाहिए। पीपल के पेड़ उन दिनों ज्यादा थे उनके फल भी ज्यादा होंगे तोड़-ताड़ कर उन्हें साल भर के लिये रख लेते रहे होंगे और उसे ही खाते रहे होंगे हमारा भी आहार ऐसा ही रहा है आपको मालूम है न, जौ के ऊपर हम कितने दिन तक रहे हैं। अभी भी ठीक तरह से अन्न नहीं खाते हैं।
सूत और शौनक ऋषि की कहानियाँ प्रसिद्ध है। वे कहाँ रहते थे? हिमालय पर। कौन-सी जगह? ऋषिकेश में वह पुराणों की कथायें कहते थे। पुराने जमाने के तो अठारह समय लिखे गये थे। हमने नया प्रज्ञा पुराण ही बना दिया हैं। एक-एक खण्ड तो अभी छप गया है, जो तीन खण्ड और अभी तैयार हो गये हैं, वे भी इसी वर्ष छप कर तैयार हो जायेंगे। आपको अठारह खण्डों का प्रकाशन के रूप में मिलेगा। ये सब ऋषियों के काम है। एक-एक ऋषि ने एक-एक काम किया था लेकिन हमने सारे ऋषियों के कामों समन्वय किया है। ऋषियों के तरीके से यह सब बनाने की कोशिश की हैं। राज हर्षवर्धन थे जिन्होंने हर की पौड़ी पर बैठकर जपना सर्वस्व दान किया था तो उसी से तक्षशिला का विश्वविद्यालय बनाया गया था। हम हर्षवर्धन तो नहीं है पर जो कुछ भी हमारे पास था, वह सब का सब हमने दिया है। हर्षवर्धन की जलो परम्परा सर्वसेध की थी हर की पौड़ी के नज़दीक थी,वह हमने शान्तिकुञ्ज से ही लाकर के स्थापित कर दी। कणाद ऋषि विज्ञान और अध्यात्म को मिलाने के लिये प्रयत्नशील रहा करते थे। उन्होंने एअस के सम्बन्ध से अणु के सम्बन्ध में बहुत सारी खोजे की है। अपना ब्रह्मवर्चस भी विज्ञान और अध्यात्म को मिलाने की कोशिश कर रहा है आप यहाँ जो कुछ भी देख रहे हैं वह ऋषि परम्परा है जिसे हमने जिन्दा रखा है।
बुद्ध का नाम सुना है न आपने? धर्म चक्र प्रवर्तन के लिये उनके कितने शिष्य थे जो आकर समय-समय पर साधनायें किया करते थे और उपासनायें करते थे। वे कहाँ रहते थे बुद्ध के पास? नहीं बुद्ध के पास नहीं रहते थे। कुछ कहीं तो कुछ कही। बुद्ध की परम्परा को भी हमने कायम रखा है। यहाँ शान्तिकुञ्ज में पहले दो विश्वविद्यालय थे, पर अब एक ही है अपनी अपनी तरह का निराला। धर्म-चक्र प्रदर्शन के लिये बुद्ध जैसा क्रिया−कलाप आप शान्तिकुञ्ज से ही पायेंगे। हिमालय की गतिविधियों का एक केन्द्र यह भी है। आर्यभट्ट ने भी इसी हिमालय में तप किया था। उन्होंने ज्योतिर्विज्ञान, ग्रह नक्षत्रों के विज्ञान की खोज की कि किस तरीके से ग्रह-नक्षत्र घूमते है तो पृथ्वी पर क्या असर पड़ता हैं? पृथ्वी के निवासियों पर क्या-क्या असर पड़ता है? ये सारी की सारी खोजें आर्यभट्ट ने अपने जमाने में इसी हिमालय में की थीं। आप कभी शान्तिकुञ्ज आये तो देख लीजिये कि उनके जो सारे क्रिया−कलाप थे, जहाँ से प्रकाशित है। इसमें नौ ग्रह पुराने और तीन जो अभी-अभी नये खोजे गये है, उन बारह ग्रहों का पंचांग भी केवल यहाँ से ही प्रकाशित होता है और कहीं से नहीं होता। नागार्जुन रसायन की खोज की थी। हमारे यहाँ दवाओं का और दूसरे का और दूसरे अन्य रसायनों की खोज का क्रम हैं हम जड़ी-बूटी से कायाकल्प का नूतन अनुसंधान कर रहे है।
शृंगी ऋषि मंत्र विद्या में पारंगत थे। वे लोमय ऋषि के बेटे थे उन्होंने परीक्षित को शाप दिया था कि तुझे सातवें दिन साँप काट खायेगा, तो सातवें दिन साँप ने उन्हें काट खाया था उन्होंने ही राजा दशरथ के यहाँ यज्ञ कराया था राजा दशरथ के बच्चे नहीं होते थे तो पुतिष्टि यज्ञ कराने के लिये शृंगी ऋषि को उपयुक्त समझा गया। वे ब्रह्मचारी थे और मंत्र विद्या के पारंगत भी उन्हीं की मंत्र विद्या की वजह से राजा दशरथ के चार बच्चे पैदा हुये थे यह सब शृंगी ऋषि की मंत्र विद्या थीं वह भी हिमालय में रहते थे। वह भी हिमालय में रहते थे। मंत्र विद्या के बारे में गायत्री के बारे में हम कोशिश करते है। दोनों नवरात्रियों में अनुष्ठान कराते हैं। जो भी आदमी इस महत्वपूर्ण समय पर आते है वे सब गायत्री के बारे में हम कोशिश करते है दोनों नवरात्रियों में अनुष्ठान कराते है। जो भी आदमी इस महत्वपूर्ण समय पर आते है वे सब गायत्री का अनुष्ठान कराते हैं। जो भी आदमी इस महत्वपूर्ण समय पर आते है। वे सब गायत्री का अनुष्ठान करते है। कैलाश पर्वत कहाँ है? यहीं हिमालय पर है। यह स्वर्ग है। हिमालय केवल ऋषियों की ही भूमि नहीं है देवताओं की भी भूमि हैं इसको स्वर्ग भी कहा गया है। सबसे पहले सृष्टि का उद्भव यहीं हुआ। मनुष्य यहीं जन्मे-इतिहास के हिसाब से। हमने भी कहा है कि स्वर्ग कहीं आसमान पर न होकर अगर जमीन पर होगा तो वह देवात्मा हिमालय वाले हिस्से में रहा होगा कैलाश पर्वत नन्दनवन जो स्वर्ग में थे, वह यहीं है। तपोवन भी मानसरोवर भी यहीं हैं गोमुख से जरा आगे चलेंगे जहाँ हमारे गुरुदेव का थोड़ी दूर पर निवास है, वह कैलाश तो अलग था जो तिब्बत में हैं अब वह चीन के हाथों में चला गया। उसकी तो हम कैसे कहें कि शंकरजी को चीन छीन ले गया लेकिन यह कैलाश पर्वत उसी पर है। इसीलिये यह स्वर्ग भी है। हिमालय क्या है? स्वर्ग है। स्वर्गारोहण के लिये जब पाण्डव थे तो यहीं गये थे। स्वर्गारोहण बद्रीनाथ से आगे वसोधरा है और वसोधरा से आगे एक पहाड़ है वहीं स्वर्गारोहण है सुमेरु पर्वत भरी यहीं है सारे देवता उसी पर रहते थे यह सोने का पहाड़ था। हमारे पास उसका फोटोग्राफ भी है। जब हम वहाँ गये थे तो उसका फोटोग्राफ भी साथ में लाये थे वहाँ प्रातः काल एवं सायंकाल के समय सुनहरी छाया रहती है। ध्रुव ने यही तप किया था। श्री कृष्ण भगवान तप करने के लिये बद्रीनाथ गये थे। रुक्मिणी और कृष्ण दोनों ने यहीं तप किया था तप करने के बाद में उनके प्रद्युम्न जैसी सन्तान पैदा हुई।
वाल्मीकि की और सीता की घटना तो आपने सुनी है। रामचन्द्र जी ने जब सीता जी को वनवास दिया था तो वो वाल्मीकि के आश्रम में रहीं थी और वहाँ लव-कुश नाम के दो ऐसे बालक पैदा हुये थे जो रामचन्द्र जी से, लक्ष्मण जी से और हनुमान जी से लोहा लेने के लिये तैयार हो गये थे। आपने शकुन्तला का नाम सुना है? और चक्रवर्ती भरत जिसके नाम इस देश का नाम भारतवर्ष पड़ा। शकुन्तला कौन थी? वह ऋषि की बेटी थी, ओं बेटी कहिए और उसके बच्चे भरत का जन्म, पालन जो हुआ था यहाँ कोटद्वार नाम की एक जगह है हिमालय में वहीं हुआ था।
हिमालय की इन सारी की सारी विशेषताओं को सिकोड़ करके हमने उनका विशाल मन्दिर बना दिया है। ये सारी चीजें तो यहाँ आकर देख भी सकते हैं हमने एक छोटी-सी पुस्तक भी छापी है रंगीन। जिसमें उन सब स्थानों को बताने की कोशिश की है कि ये कहाँ है? हिमालय में पाँच प्रयाग है, पाँच काशी है, पाँच सरोवर है। हिमालय में चार धाम है। चार धाम कौन-कौन से है? बद्रीनाथ केदारनाथ, गंगोत्री और यमुनोत्री। चार धाम ये ही कहलाते हैं। ये सारे पवित्रतम स्थान इसमें बने हुए हैं। उसका हमने मन्दिर भी बनवाया है। जो उससे आपका सम्बन्ध जोड़ने की बीच कड़ी है। सीढ़ी पर पहला पाँव जहाँ रखा जाता है। ऊपर चढ़ने के लिये तो पहले पाँव को हम मुख्य मानते है। उसको देहरी कहते हैं। इसीलिये हरिद्वार इसका नाम रखा गया है यहाँ पहाड़ों पर जाने के लिये रास्ता है। पार्वती जी ने तप यहीं किया था। यहाँ एक विल्वकेष्वर मन्दिर हैं वहाँ पार्वती जी ने तप किया था और वहीं नजदीक में ही उनका विवाह हुआ था। यहीं पार्वती जी अपने पूर्व जन्म में जिनका नाम सती था जन्मी थी और सती हुई थी, वह दक्ष प्रजापति नामक स्थान है। दक्ष एक वैज्ञानिक थे, उनका सिर काटा गया था और महादेव जी उनसे नाराज हो गये थे, वह स्थान भी यहीं हैं यह देवात्मा हिमालय है बड़ा शानदार। इसको क्या कहे,
आपसे क्या अनुरोध है? यह कि हम तो सारी जिन्दगी के लिये चले आये। मरेंगे तो भी हम इधर ही कीं मरेंगे, लेकिन हमारी प्रार्थना है कि ऐसे पुनीत स्थान से आपको जीवन में कहीं न कहीं जुड़ी रहना चाहिये। हमको जिन्दगी भर में तीन बार हमारे गुरु ने एक-एक वर्ष के लिये बुलाया बैटरी चार्ज करने के लिये। बैटरी जब धीमी हो जाती है गाड़ियों की तो उसको फिर दोबारा चार्ज कर देते है। फिर वह बैटरी काम करने लगती है। इसलिये जब हमारी बैटरी धीमी पड़ी तब हमको हमारे गुरु ने बुलाया और अब हम यहाँ है। आपको हम निमन्त्रण भेजते है इस व्याख्यान के द्वारा। आपको जब कभी भी मौका मिले, आप यहाँ शान्तिकुञ्ज में आने की कोशिश कीजिये जहाँ सारे ऋषियों की परम्परा हैं। जहाँ हिमालय की सारी विशेषताओं को हमने एकत्रित करके रखा है। जब आपका जन्मदिन हो, विवाह दिन हो तो यहाँ आने की कोशिश कीजिये और बच्चों के संस्कार कराने हों तो आप यहाँ आने की कोशिश कीजिये बच्चों के संस्कार कराने के लिये पुनीत स्थान की लोग तलाश करते है। किसी देवी के यहाँ, किसी मन्दिर में लोग संस्कार कराते हैं आप भी यहाँ आ सकते है। श्राद्ध और तर्पण कराने के लिये भी ऐसा नियम है कि यहाँ बद्रीनाथ के पास में ब्रह्मकमल नाम का स्थान है, वहाँ लोग तर्पण कराते है। यहाँ भी तर्पण कराते है। श्राद्ध कराते है। आप चाहें तो हरिद्वार में करा सकते है। लेकिन वह स्थान कहाँ कैसे? इसके बारे में हमें कुछ कहना नहीं है। लेकिन हमारा जो स्थान है वह बहुत सुन्दर स्थान है यहाँ जो भी आते है, नवरात्र के दिनों में यहाँ अनुष्ठान कराते है। यह अनुष्ठान की भूमि है। शिक्षण की सारी व्यवस्था यहाँ है, शिक्षण के लिये आपका कभी मन हो, गुरुजी ने जो सीखा था उसको आगे चलकर हम भी सीखें तो यहाँ दस दिन शिविर भी होते है। एक महीने के शिविर भी होते है, ये दोनों ही शिविर होते है। यहाँ पर एक छोटा स्थान आप ऐसे मान लीजिये जैसे गणेशजी राम नाम लिखकर उसकी परिक्रमा लगा ली थी और परिक्रमा लगाने के बाद उनको वह सारा का सारा पुण्य मिल गया था जो कि जो विश्व को परिक्रमा से मिलना चाहिये था। गणेशजी को पहला नम्बर मिला। उनका चूहे की सवारी पर बैठकर सारे विश्व भर में घूमना तो सम्भव नहीं था अतः उन्होंने विवेक से काम लिया और परिक्रमा लगा ली। यह छोटा-सा गायत्री तीर्थ है छोटा-सा शान्तिकुञ्ज उन सारी विशेषताओं भरा पड़ा है। हम तो अब ज्यादा समय तक रहेंगे नहीं अभी सन् 2000 तक तो रहने वाले है नहीं किन्तु इस शरीर से नहीं तो सूक्ष्म शरीर से रहेंगे आपको बराबर वह लाभ मिलता रहेगा जो कि मिलना चाहिये। बहुत शानदार जगह है शान्तिकुञ्ज। इन सारे ऋषियों का, यहाँ के चौबीस गायत्री के चौबीस ऋषि है उन चौबीस ऋषियों का सार यहाँ है। वे ऋषि जो करते थे उनकी परम्परा का सार देखना हो तो यहाँ है। यह तीर्थों का ऐसा तीर्थ है कि यहाँ आ कर के आप कभी उपासना करें तो किस तरीके से नागपुर के संतरे, बम्बई के केले फलदायक होते है, ठीक उसी तरीके फलदायक आप अपने को पायेंगे यह शान्तिकुञ्ज तीर्थ हमने बनाया है तो समझना चाहिये कि यह आपके लिये बनाया है हिमालय बना होगा तो हमारे गुरु ने हमें यहाँ खींच कर के हिमालय बुलाया और हमको वहाँ पर रखा हम आपको खींच कर के यहाँ बुलाएँगे कि आप यहाँ शान्तिकुञ्ज में आया करे। यहाँ के आने जाने में जो आपका पैसा लगा है, जो कुछ भी चीजें लगी है वे सब सार्थक सिद्ध होंगे। निरर्थक सिद्ध नहीं होगी। आप शान्तिकुञ्ज आकर करके यह ख्याल नहीं करेंगे कि हम निरर्थक आये है और हमने बेकार में समय और पैसा गँवाया। बस और तो कुछ कहना नहीं आज की बात समाप्त। ॐ शान्ति!