Magazine - Year 1995 - Version 2
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Language: HINDI
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कोरी कल्पना नहीं है अमैथुनी सृष्टि
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डार्विन और लैमार्क आदि ने विकासवाद का जो सिद्धान्त दिया है, वह यदि सत्य नहीं है, तो पृथ्वी में मानव की उत्पत्ति को आकस्मिक और ईश्वरीय इच्छा का प्रतिफल ही कहना होगा। ईश्वरीय सत्ता और उसकी सर्वशक्तिमत्ता को काल्पनिक कहने वाले तब यह तर्क प्रस्तुत करते हैं कि यदि मनुष्य का प्रादुर्भाव आकस्मिक संयोग है और सर्वप्रथम ब्रह्मा का पुरुष वेश में जन्म हुआ, तो उनके द्वारा सन्तानोत्पत्ति कैसे संभव हुई? सन्तान की उत्पत्ति के लिए पुरुष और स्त्री का समायोजन आवश्यक है, फिर अकेले ब्रह्मा जी अमैथुनी सृष्टि उत्पन्न करने में किस प्रकार समर्थ हुए?
यह प्रश्न आज से सौ वर्ष पूर्व विवाद के घेरे में आ सकता था और विज्ञानवेत्ता इस शास्त्र कथन को कपोल कल्पना भर मान कर अमान्य कर सकते किन्तु अब जबकि विज्ञान इतनी प्रगति कर चुका है और अनेक अमैथुनी निर्माण करने में सफल हुआ है, तो इस पृष्ठभूमि में उपरोक्त कथन के नकारना अनुचित ही होगा।
ब्रह्म जी पुरुष होकर एकाकी सृष्टि रचना में कैसे सफल हो सके? इस प्रश्न का जवाब अमैथुनी सृष्टि के मातृ पक्ष द्वारा मिल जाता है, जिसमें केवल स्त्रियों द्वारा संतान पैदा करने की बात आती है। यह प्रसंग केवल भारतीयों में ही प्रचलित नहीं है, वरन् अन्य अनेक धर्मों में ऐसे आख्यान मिलते हैं, जिनमें अमैथुनी प्रजा का यह दूसरा रूप, अर्थात् बिना पुरुष के संयोग के स्त्री द्वारा सन्तानोत्पत्ति का विवरण मिलता है। सामान्य श्रेणी के व्यक्तियों के लिए यह दोनों ही प्रसंग अप्रामाणिक है। इस संबंध में समुचित जानकारी न होने से ही आज तक अतिमानवता के रूप में उत्पन्न हुई विभूतियाँ कलंकित हुई है।
भगवान राम अपने भाइयों समेत पिता के संयोग के बिना जन्मे थे। इतिहास प्रसिद्ध घटना है कि जब दशरथ की आयु ढलने लगी और उन्हें कोई संतान नहीं हुई, तो उन्होंने गुरु वशिष्ठ के पास जाकर अपना दुःख प्रकट किया। वशिष्ठ ने तब शृंगी को बुलाकर पुत्रेष्टि यज्ञ कराया। इस यज्ञ में ‘चरु’ में देव शक्तियों का आह्वान कर उसे चारों रानियों को बाँट दिया गया। एक-एक भाग मिलने के कारण कौशल्या और कैकेयी को एक-एक और दो भाग मिलने के कारण सुमित्रा ने जुड़वा बच्चों को जन्म दिया।
इस घटना ने सिद्ध कर दिया था कि देव-शक्तियों को कृत्रिम गर्भाधान द्वारा मानव आकृतियों में लाया जा सकता है। ऐसे जो भी शरीर पैदा हुए हैं, शारीरिक गुणधर्म से वह भले ही मनुष्य जैसे रहे हों, पर उनकी अतीन्द्रिय क्षमताएँ बहुत बड़ी-चढ़ी रही हैं, इसलिए उन्हें देवदूत, पैगम्बर और साक्षात भगवान माना जाता रहा। देव-उपासना के द्वारा पुरुष और स्त्री शरीरों में ऐसी शक्तियों का आवाहन, धारण और प्रजनन आज भी संभव है।
मरियम तब कुँवारी ही थीं, जब उन्होंने महाप्रभु ईसा का जन्म दिया। मरियम की ईश्वर भक्ति और उनकी आत्म-पवित्रता सर्वविदित थी, इसलिए तब उन पर किसी ने दुराचरण का दोषारोपण नहीं किया। पीछे जिन लोगों ने सन्देह किया, वह उनकी अपनी भ्रान्त धारणाएँ थीं, महापुरुष ईसा में जो विशेषताएँ थीं, वह बताती थीं कि इस आत्मा का प्रादुर्भाव वंशगत नहीं, वरन् ब्रह्माण्ड की किन्हीं अदृश्य शक्तियों से है तभी तो वे हर किसी के मन की बात जान सकते थे, किसी भी रोगी को स्पर्श और आशीर्वाद से अच्छा कर सकते थे, कुछ ही रोगियों से अनेकों की भूख मिटा सकते थे।
कर्ण का जन्म कुन्ती के उदर से हुआ था। कुन्ती एक दिन गायत्री मंत्र का जप कर रही थी। महाभारत में कथा आती है कि वे उस दिन अत्यधिक ध्यानावस्थित थीं। उन्हें लगा जैसे भगवान सूर्यदेव उनके पास हैं, उन्हें स्वीकार कर रहे हैं, उनका भर्ग उनके गर्भ में प्रविष्ट हुआ और वे सचमुच गर्भवती हो गई। कर्ण सूर्य के समान तेजस्वी और अप्रतिम दानी थे। वह क्षमता महाभारत के और किसी योद्धा में नहीं थी।
पाण्डु ने एक बार एक ऐसे मृग के जोड़े का वध का दिया था जो उस समय काम-क्रीड़ा में निमग्न था। पाण्डु का मृगों ने शाप दिया- “तुम्हारी मृत्यु भी ऐसे ही होगी।” इसके बाद की घटना है। उनकी दोनों रानियों कुन्ती और माद्री ने देव-शक्तियों के आह्वान द्वारा मैथुन पुत्रों को जन्म दिया। यम के पुत्र युधिष्ठिर साक्षात् धर्मावतार थे। इन्द्र के पुत्र अर्जुन के शौर्य और पराक्रम का कोई और जोड़ीदार नहीं था। भीम मरुत् पुत्र थे। उनमें वायु से भी प्रचण्ड बल विद्यमान था। नकुल सोम के अंश से जन्म होने के कारण ज्योतिर्विद्या के अद्वितीय पण्डित थे। एकमात्र सहदेव ही ऐसे थे, जो सहवास से पैदा हुए थे और वही ऐसे थे, जिनमें अन्य भाइयों की अपेक्षा साँसारिकता का भाव और कामनायें अधिक थीं।
कौरव भ्रूण संतान थे। अंजनी पुत्र हनुमान पितृहीन संतान थे। महापुरुष रामकृष्ण परमहंस का जन्म पिता के संयोग के बिना ही हुआ और उससे यह सिद्ध हो गया कि संसार में ऐसे तथ्य विद्यमान हैं, जा गुण और स्वभाव से मानव प्रकृति के होकर भी ज्ञान, शक्ति और दिव्यता की दृष्टि से बहुत विकसित होते हैं। उनमें अतीन्द्रिय संपर्क स्थापित कर कोई भी स्त्री या पुरुष अपने आपमें उन दैवी प्रतिभाओं को विकसित कर सकता है।
विज्ञान ने इन सम्भावनाओं पर बीसवीं सदी के आरंभ से ही विचार करना शुरू कर दिया था। जब विज्ञानवेत्ताओं ने केंचुए के खण्ड को रिजेनेरेषन प्रक्रिया द्वारा एक नवीन और स्वतन्त्र केंचुए में विकसित होते देखा, तभी से उनके मस्तिष्क में यह विचार बार बार उभरने लगा था कि इस अमैथुनी प्रक्रिया द्वारा मानव रचना संभव है क्या? कल्पना को साकार रूप देने के लिए विभिन्न देशों में कार्य आरंभ हो गया। इस दिशा में पहली सफलता ‘कोलम्बिया प्रेसबा इटेरियन मेडिकल सेण्टर न्यूयार्क’ के प्रो. लैण्ड्र बी. शीटल्स को मिली। उन्होंने फ्लोरिडा निवासी डोरिस डेल जियो के गर्भाशय से कुछ अण्डे निकालकर उसे परखनली में उसके पति के शुक्राणुओं द्वारा निषेचित करने में सफलता हासिल की। भ्रूण-कलल प्रयोगशाला में गर्भाशय के बाहर संतोषजनक ढंग से विकास कर रहा था। कुछ ही दिनों में उसे गर्भाशय में प्रत्यारोपित किया जाना था, किन्तु इससे पूर्व भ्रूण को विनष्ट कर दिया गया और इस प्रकार वह प्रयोग अधूरा रह गया। यदि उक्त प्रयोग पूरा हो भी जाता और उससे शिशु जन्म करा लिया जाता, तो भी वास्तविक अर्थों में उसे मैथुनी सृष्टि नहीं कहा जा सकता था, कारण कि शरीर के अन्दर भले ही डिम्ब और शुक्राणु न मिले हों, किन्तु उनके मिलन की आवश्यकता तो हर वक्त बनी ही रही, वह परखनली में मिल रहे हों तो क्या और गर्भाशय में मिल रहे हों तो क्या? पुरुष की आवश्यकता तो सदा बनी ही रहती है। इसलिए इस प्रकार कि निर्माण को मैथुनी रचना ही कहना उचित होगा, जबकि वैज्ञानिक सर्वथा अमैथुनी सृजन करना चाहते थे। इस प्रक्रिया में वे स्त्रियों के डिम्ब की जरूरत तो अनुभव करते थे, पर शुक्राणु की मदद के बिना ही किसी प्रकार उसे भ्रूण में विकसित कर मानव-निर्माण की आकांक्षा रखते थे। उनके अनुसार इस विधि द्वारा नर-नारी में से किसी भी हू-ब-हू अनुकृति बनाया जा सकना संभव है। फ्राँसीसी जीवविज्ञानी जीन रोस्टेण्ड का इस संबंध में विचार था कि ऐसा यदि संभव हुआ, तो किसी की भी नकल को अनन्त काल तक बनाये रख पाना शक्य होगा। डॉ. जेम्स डेनियेली का मत है कि यदि एक ही व्यक्ति की कई-कई अनुकृतियाँ बनाकर उन्हें भिन्न-भिन्न वातावरण में रखा जा सके, तो परिस्थिति और पोषण का मानवी स्वभाव पर पड़ने वाले प्रभावों का आसानी से अध्ययन किया जा सकता है। डॉ. इलाँफ एक्सेल कार्ल्सन का विश्वास है कि वर्षों एवे मृत ऐतिहासिक पुरुषों की प्रतिकृति इस विधि द्वारा बनायी जा सकेगी। उन्होंने आशा प्रकट की है कि गीजा के पिरामिड में सुरक्षित रखे प्राचीन मिश्री राजा तूतनखामन के मृत शरीर में अब भी इतने पर्याप्त डी.एन.ए. हो सकते हैं किस उससे राजा की कार्बन कॉपी ‘तैयार की जा सके। ज्ञातव्य है कि बहुचर्चित अंग्रेजी फिल्म ‘जुरासिक पार्क’ इसी कथानक पर आधारित चलचित्र है। उसमें किसी वैज्ञानिक ने जुरासिक युग में प्रचुर संख्या में विद्यमान महाकाव्य डायनासोर के कुछ डी.एन.ए. कहीं से एकत्र करने में सफलता प्राप्त कर ली थी फिर उसी अवशेष से उसने उसका -ब्लूप्रिण्ट’ तैयार कर लिया।
कथाकार की यह कल्पना मात्र थी, पर पिछली दिनों इस दिशा में इतनी द्रुत वैज्ञानिक प्रगति हुई है कि ऐसा लगता है नहीं कि इसे मूर्तिमान् होने में कोई बहुत कम समय लगेगा। पहली बार इस क्षेत्र में क्राँतिकारी उपलब्धि तब हुई जब सन् 1960 में काँरनेल यूनिवर्सिटी के अनुसंधानकर्ता प्रो. एफ.सी. स्टीवर्ड और साथियों ने गाजर पर प्रयोग किया। शोधकर्मियों ने जब गाजर की कुछ कोशाओं (सोमैटिक सेल्स) को एक विशेष प्रकार के रासायनिक घोल में रखा, तो एक अद्भुत घटना घटी। उन्होंने देखा कि कुछ कोशाएँ विभाजित होने लगी हैं, ठीक वैसे ही जैसे निषेचन के बाद आरम्भ होता है। कुछ समय पश्चात् उससे कलियाँ, पत्ते और जड़ निकल आये। जब इन्हें भूमि में रोपण किया गया, तो उनसे हर प्रकार से सामान्य और विकसित गाजर पैदा हुए। इस प्रयोग से यह सिद्ध हो गया कि प्रत्येक कोशिका में जीव-निर्माण की क्षमता को किसी विशिष्ट प्रक्रिया द्वारा उत्तेजित कर सक्रिय किया जा सके, तो कोई कारण नहीं कि उसकी प्रतिमूर्ति का निर्माण न हो।
इसी तथ्य को आक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी के अन्वेषणकर्ता डॉ. जे.बी.गर्डन ने अपने प्रयोगों द्वारा सिद्ध किया। उनने मेढ़क के अनिषेचित डिम्बों में से कुछ के नाभिक (न्यूक्लियस) को अल्ट्रावायलेट विकिरण द्वारा नष्ट कर दिया। तदुपरान्त उन अण्डों में मेढ़क की शरीर कोशाओं से निकाले नाभिकों को प्रत्यारोपित किया शरीर-कोषा में विद्यमान गुणसूत्रों के सम्पूर्ण सेट को देखकर डिम्ब भ्रम में पड़ गये। उन्होंने उसे एक निषेचित अण्डा मानकर विभाजन आरम्भ कर दिया। इस प्रकार कुछ ही दिनों में उससे एक पूर्ण विकसित मेढ़क पैदा हो गया। इसी तकनीक का प्रयोग करते हुए वैज्ञानिकों ने मानवी-रचना का प्रयास किया। डेविड एम.रोरविक ने अपनी बेस्टसेलर पुस्तक इन हिज इमेज-दि क्लोनिंग ऑफ एक मैन में इस प्रक्रिया द्वारा एक उद्योगपति की अनुकृति बनाने में सफलता अर्जित करने का दावा किया है और कहा है कि शिशु सामान्य तरीके से पल-बढ़ रहा है।
यदि सचमुच ऐसा हुआ है, तो डिम्ब के संदर्भ में निषेचन का तात्पर्य मात्र इतना ही हो सकता है कि उसमें गुणसूत्रों के दो सेट विद्यमान हों। इतना होने मात्र से ही अण्डे उसे निषेचित अवस्था मानकर विभाजन प्रारम्भ कर देते है। बात ऐसी ही है, तो शरीर कोशाओं में गुणसूत्र के दोनों सेट मौजूद होने के कारण उसे कोषा विभाजन के लिए प्रेरित किया जा सकता है। यह यदि संभव हुआ तो हर एक शरीर कोषा से एक पूर्ण मानव विकसित करना शक्य हो जायेगा। विज्ञानवेत्ताओं का कहना है कि इस दिशा में एक ही अड़चन सामने आयेगी कि सेल-विभाजन को प्रारम्भ और नियंत्रित करने वाला तंत्र कैसे विकसित किया जाय? अनुसंधान कर्ताओं ने इसके भी कई विकल्प सुझाये हैं। एक के अनुसार यदि डिम्ब के कोषा-द्रव्य (साइटोप्लाज्म) को शरीर कोषा में किसी प्रकार पहुँचाया जा सके, तो इस उलझन से छुटकारा पाया जा सकता है। कुछ शोधकर्ताओं का विचार है कि यदि कोई ऐसा कृत्रिम द्रव्य बनाया जा सके, जो स्वभाव में अण्ड-द्रव्य की तरह व्यवहार करे, तो समस्या का समाधान सरल हो जायेगा।
इसके उपरान्त एक ही प्रश्न शेष रह जाता है, वह है स्त्री के प्रजनन कोषों में ‘वाई’ किस्म के गुणसूत्र की विद्यमानता। अब तक नारी के शरीर में इस गुणसूत्र की उपस्थिति का समर्थन नहीं हो पाया हैं यदि इतना और हो जाय, तो किसी को भी यह मानने में आपत्ति शेष न रहेगी कि अमैथुनी सृष्टि का सिद्धान्त गलत है।
अब तक विज्ञान ‘वाई’ क्रोमोज़ोम को पुरुष प्रधान मानता रहा है और नर शिशु के लिए भ्रूण में उसकी उपस्थिति अनिवार्य बताता रहा है। यह उसकी स्थूल और उथली गवेषणा है। अध्यात्म विज्ञान सूक्ष्म की गहराई में उतर कर इस बात की घोषणा करता है कि नर और नारी गुण दोनों में ही समान रूप से मौजूद है। अन्तर इतना ही है कि नारी में नारी गुण पूर्णरूप से अभिव्यक्त स्थिति में आ जाते हैं, जबकि पुरुष प्रधान लक्षण अप्रकट बने रहते हैं। उसी प्रकार पुरुषों में पुरुष स्वभाव व्यक्त स्तर का बना रहता है, पर यह कहना गलत होगा कि स्त्रियोचित प्रकृति उनमें है ही नहीं। है, पर वह प्रच्छन्न स्थिति में पड़ी रहती है। यदि ऐसी बात नहीं होती, तो सर्वथा क्रूर और कठोर कहलाने वाले रत्नाकर, दस्यु जीवन के उत्तरार्ध में दया और करुणा का प्रतिमूर्ति ऋषि वाल्मीकि नहीं बन पाता और क्रौंच पक्षी के वध पर इतना विकल नहीं होता कि ग्रन्थ लिख डाले। अंगुलिमाल का जब हृदय परिवर्तन हुआ, तो उसने अपने कलुषित जीवन को धिक्कारते हुए बुद्ध का शिष्यत्व ग्रहण कर लिया। सदन, अजामिल, विल्वमंगल सभी के साथ लगभग ऐसा ही हुआ और जब उनमें परिवर्तन घटित हुआ तो जीवन में नारी सुलभ गुण स्पष्ट हो गये। यों इन्हें स्त्रियोचित गुण कहने की तुलना में आध्यात्मिक स्वभाव कहना ज्यादा उचित होगा, कारण कि जब व्यक्ति का उदात्तीकरण होता है, तो उसका शील नम्र और कोमल और करुणाजनित बन जाता है। यह आमतौर से महिलाओं की नैसर्गिक प्रकृति है, इसलिए इसे स्त्री सुलभ स्वभाव कह दिया जाता है, पर ऐसी बात नहीं कि नारियों में पुरुषोचित लक्षण नहीं पाये जाते। लक्ष्मी बाई, दुर्गा बाई, पुतली बाई, चाँद बीबी और फ्राँस की स्वतंत्रता सेनानी जो ऑफ आर्क इसके ज्वलन्त उदाहरण है। बहादुरी के क्षेत्र में उनने कितनी अद्वितीय भूमिकाएँ निभायी, यह सर्वविदित है।
गुह्यविद्या के आचार्यों का कहना है कि जब कोई योगी हवा से मिठाई उत्पन्न करता है, तो इसका यह मतलब नहीं कि वह शून्य ही उत्पन्न हो सकता है। कहा भी गया है-नथिंग कम्स आउट ऑफ नथिंग’ अर्थात् शून्य से शून्य की ही उत्पत्ति होती हैं ऐसे प्रसंगों में जब कोई पदार्थ प्रादुर्भूत होता है, तो इसके पीछे एक सूक्ष्म एवं सुनिश्चित विज्ञान कार्य करता है। अध्यात्मवेत्ताओं का मत है कि इस संसार में जितने स्थूल पदार्थ हैं, उनके कुछ अंश सूक्ष्म रूप में भी विद्यमान होते हैं। इनमें से जब जिन्हें प्रकट करना होता है, उनके सूक्ष्म उपादानों को इकट्ठा कर सक्रिय कर देने भर से अभीष्ट वस्तु उद्भूत हो जाती है। इस प्रकार किसी वस्तु के स्थूल अभाव मात्र से ही उसकी सत्ता से पूर्णतः इनकार कर देना उचित नहीं।
विज्ञान भी ‘वाई’ गुणसूत्र की स्थूल उपस्थिति पर ही शुरू से ध्यान केन्द्रित किये रहा, इसलिए यह निष्कर्ष निकाल लिया कि स्त्रियों में इस तत्व का अभाव है। यदि उसने तनिक सूक्ष्म भूमिका में उतर कर विचार किया होता, तो उसे स्पष्ट प्रतीत होता कि अनुपस्थिति जैसी कोई बात है नहीं, क्योंकि भ्रूण-कलल में पितृपक्ष का भी एक अंश होता है, इसे विज्ञान भी अब स्वीकारता है। वह यदि किसी कारणवश अदृश्य स्तर का बना रहे, तो इतने मात्र से उसके अस्तित्व से इनकार करने का कोई कारण नहीं। अगले दिनों यदि इस दिशा में शोध कार्य जारी रहा, तो सींव है कोई ऐसा तत्व ढूँढ़ लिया जाय, जो नारी-कोशिका में कार्य और स्वभाव की दृष्टि से ‘वाई’ गुणसूत्र से एकदम मिलता-जुलता हो। ऐसा यदि हुआ तो ‘वाई’ गुणसूत्र संबंधी वर्तमान उलझन समाप्त हो जायेगी तब नारी और नर की पृथक्-पृथक् शरीर कोशाओं से अमैथुनी सृष्टि के अंतर्गत मनचाहा लिंग उत्पन्न कर लेना असंभव नहीं होना चाहिए।
प्रस्तुत उदाहरण भी इस बात की पुष्टि करता है कि यदि अकेले ब्रह्म जी ने इस संसार की रचना अमैथुनी ढंग से की, तो इसमें गप जैसी कोई बात नहीं, यह बिलकुल संभव है।
घटना नाथ संप्रदाय के पुरोधा मत्स्येन्द्र नाथ से सम्बन्धित हैं कहते हैं कि एक बार वे भिक्षाटन करते हुए अवध क्षेत्र के जायस नगर पहुँचे। वहाँ एक विधवा निःसंतान ब्राह्मणी रहती थी। उसकी व्यथा देख कर उन्हें बड़ी पीड़ा हुई। उन्होंने अपनी झोली से थोड़ी भभूति निकाल कर दी और कहा इसे खा लेने पर तुम्हें पुत्र रत्न की प्राप्ति होगी। लोक-लाज के भय से ब्राह्मणी ऐसा नहीं कर सकी और उसको घर से बाहर गोबर के ढेर में फेंक दिया। बारह वर्ष पश्चात् मत्स्येन्द्र नाथ पुनः जायस आये, तो एक बार फिर ब्राह्मणी ने सच बात बता दी। वे गोबर के ढेर के निकट पहुँचे और तनिक तीव्र स्वर में ‘अलख निरंजन’ का घोष किया। चूँकि आशीर्वाद देने और पुनः लौट कर आने के मध्य बारह वर्ष की अवधि बीत चुकी थी, इसीलिए ‘अलख’ शब्द के उच्चारण के साथ ही एक बारह वर्षीय तेजपूर्ण बालक कचरे के ढेर के मध्य से प्रकट हुआ। मत्स्येन्द्र नाथ उसे अपने साथ ले गये। बाद में वही बालक गोरखनाथ के नाम से प्रसिद्ध हुआ।
इस प्रकार ब्रह्मा जी के द्वारा अमैथुनी सृष्टि रचने संबंधी शास्त्रीय आख्यान सत्य सिद्ध होता है। विज्ञान अपने ढंग से इसकी पुष्टि करने की स्थिति में अब पहुँचता जा रहा है और अध्यात्म की यह सुनिश्चित मान्यता ही है कि ऐसा शक्य है। यदि कोई अन्तःकरण को पवित्र बना कर अपने अन्दर देवशक्तियों को ग्रहण-धारण कर सके तो इसकी पुनरावृत्ति आज भी हो सकती है, ऐसा निगूढ़ विद्या के आचार्यों का मत है।