Magazine - Year 1995 - Version 2
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Language: HINDI
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युग शिल्पी अहमन्यता के विषपान से बचे रहें
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परमपूज्य गुरुदेव ने लोक सेवा के क्षेत्र प्रवेश करने वाले हर कार्यकर्ता के लिये मार्गदर्शक आचार संहिता बनाई थीं 1979 से 1985 तक यह अलग-अलग अंकों में अपने से अपनी बात स्तम्भ में प्रकाशित होती रही व प्रत्येक नये-पुराने कार्यकर्ता के लिये नित्य पढ़ने के निर्देश के रूप में विज्ञप्ति के रूप में प्रकाशित होती रहीं। यहाँ प्रकाशित है उन्हीं में से एक जो हर युग व काल में प्रासंगिक है व हम सबके लिये विशेष रूप से इस गुरुपर्व पर और भी अनिवार्य गुरुसत्ता के एक महत्वपूर्ण संदेश के रूप में।
समुद्र मंथन में चौदह रत्न निकले पर उनमें सर्वप्रथम दो निकले-एक हलाहल विष, तदुपरान्त मद्य हलाहल देखने में अत्यन्त आकर्षक, नील वर्ण था मद्य होठों तक पहुँचते-पहुँचते उन्मुक्त, विक्षिप्त कर देने वाला। फिर भी उसकी ललक ऐसी थी कि जिसको एक बार स्वाद लग जाता है फिर छूटने का नाम ही नहीं लेता। इस प्रथम उपलब्धि को पाने के लिये देव दानव दोनों ही आतुर थे। पर प्रजापति ने दोनों को ही यह समझाने का प्रयत्न किया कि यह देखने और चखने में आकर्षक लगते हुये भी अन्ततः विनाश उत्पन्न करने वाला है। शिवाजी ने हलाहल तो अपने कंठ में धारण कर लिया, पर मद्य के लिये आतुर दैत्यों ने हठ पूर्वक उसे गटक लिया फलतः उनकी सामर्थ्य उद्धत प्रयोजनों में लगी और पतन पराभव का कारण बनी।
लोक सेवा के क्षेत्र में प्रवेश करने वाले सम्बन्ध में जन साधारण की श्रद्धा उमड़ती है। परमार्थ की साहसिकता अपनाने वाले पर सम्मान बरसता है। उसकी प्रशंसा होती है। प्रशंसा भी एक सम्पदा है। सम्पदाओं की उपयोगिता तो है पर उनके पीछे एक ऐसा आवेश भी रहता है जो हजम न हो सके तो लाभ के स्थान पर विनाश ही उत्पन्न करता है। धन हजम न हो तो दुर्व्यसन उत्पन्न करेगा। बुद्धि हजम न हो तो कुचक्र षड्यंत्र रचेगी। बल हजम न हो तो उद्दंडता के रूप में प्रकट होगा। हजम ने होने पर अमृत भी विष बन जाता है यश हजम न हो तो ऐसा अहंकार बनता है जिसकी तुष्टि के लिये लोक सेवी को अपना चिन्तन, चरित्र, व्यक्तित्व एवं भविष्य को हेय स्तर का बनाकर उतना पतित बनना पड़ता है जितना कि सेवा से सर्वथा दूर रहने वाले सामान्य दूर रहने वाले सामान्य श्रमिक भी नहीं गिरते। लोक सेवियों में से अधिकाँश को अपने व्यक्तित्व और सेवा क्षेत्र में ऐसे विग्रह उत्पन्न करते देखा जाता है जिसे दुर्भाग्य ही कहा जा सकता है और सोचना पड़ता है कि यदि यश हजम कर सकने में असमर्थ लोग लोक सेवा के क्षेत्र में न आया करें तो वे अपनी और समाज की अधिक सेवा कर सकते है।
मनुष्य को पतन पराभव के गर्त में गिरा देने वाली तीन दुष्प्रवृत्तियाँ है वासना, तृष्णा और अहंता। शिश्नोदर परायण नर पशु वासना, तृष्णा के लोभ में जकड़े रहकर किसी प्रकार कोल्हू के बेल की तरह नियति चक्र में परिभ्रमण करते हुये दिन गुजार लेते है। पर अहंता, सारा बड़प्पन, सारे अधिकार अपने ही हाथ में रखना चाहती है। दूसरे की साझेदारी उसे सहन नहीं। इसी विडम्बना ने सर्वाधिक विग्रह उत्पन्न किये है लगता तो यह है कि लालच के कारण अपराध होते है, पर वास्तविकता यह है कि अहंता ही जहाँ-तहाँ टकराती और प्रतिशोध से लेकर आक्रमण, अपहरण, उत्पीड़न के विविध अनाचार उत्पन्न करती है अन्याय के अवरोध तो कहने भर की बात है, वह तो जहाँ-तहाँ जब-तब ही दृष्टिगोचर होते है। वास्तविकता यह है कि सामन्तवादी अनाचारों के कारण यही, अहंता ही उद्धत बनी और टकराई है। अनाचारों का विश्व इतिहास पढ़ने से प्रतीत होता है कि अभाव या अन्याय के विरुद्ध नहीं अधिकाँश विग्रह और युद्ध मूर्धन्य लोगों ने अहंता की परितृप्ति के लिये खड़े किये है। कंस, रावण हिरण्यकश्यप, वृत्तासुर, सहस्रबाहु, जरासन्ध जैसे पौराणिक और सिकन्दर नेपोलियन, चंगेजखाँ, आल्हा ऊदल जैसे बर्बर लोगों ने जो रक्तपात किए उनके पीछे उनकी दर्प तुष्टि के अतिरिक्त और कोई कारण था नहीं।
यह चर्चा इन पंक्तियों में इसलिये की जा रही है कि युग शिल्पियों के द्वारा आरम्भिक उत्साह में जो कार्य अपनाया जा रहा है उसमें लोक मंगल का परमार्थ प्रयोजन दृष्टव्य होने के कारण श्रेय, सम्मान एवं यश तो स्वभावतः मिलना ही है। यह पचे नहीं और उद्धत हो चले तो पागल हाथी की तरह अपना, साथियों का तथा उस संगठन का विनाश करेगा जिसके नीचे बैठकर अपनी स्थिति बनाई है। हाथी पागल होता है तो अपनों पर ही टूटता है। इसी प्रकार लोकैषणा जब पागल होती है तो सर्वप्रथम वह साथियों को मूर्ख, छोटा, अनुपयुक्त, दुष्ट सिद्ध कर सके। समान साथियों में मिल-जुल कर रहने में महत्त्वाकाँक्षी का अपना वर्चस्व कहाँ उभरता हैं इसलिये उसे साथी पेड़ पादपों का सफाया करना पड़ता है ताकि समूचे खेत में एक अखंड ही कल्प वृक्ष होने की शेखी बघार सकें।
दृष्टि पसार कर अपने चारों ओर लोकैषणा का नग्न नृत्य देखा जा सकता है। राजनैतिक पार्टियों में होते रहने वाले अंतर्कलह सिद्धान्तों की दुहाई भले ही देते रहें पर वस्तुतः वे व्यक्तियों की महत्त्वाकाँक्षा के निर्मित ही होते है। कल परसों जनता पार्टी का बिखराव हो चुका है। कितनी ही उपयोगी, संस्थाएँ पद लोलुपों ने परस्पर टकराकर अपने ही हाथों शिथिल या समाप्त हो जाने के पीछे लालच छोटा और दर्प को बड़ा कारण पाया जायेगा। धर्म सम्प्रदायों के जो बड़े खण्ड होते चले गये है उनके प्रचलन कर्ताओं में सुधारक कम और श्रेय लोलुप अधिक रहे है। चुनावों के समय या बाद में जो विग्रह दृष्टिगोचर होते है, प्रतिशोध के नाम पर जो अनर्थ होते है उसमें औचित्य कम और दर्प को नंगा नाच करते देखा जा सकता है। सास बहू की लड़ाई में यही विडम्बना उछलती दृष्टिगोचर होती है। पतियों का पत्नियों को आतंकित करने में यही तथ्य प्रमुख होता है।
बात इस संदर्भ में चल रही है कि युग शिल्पियों को सप्त महाव्रतों को अपनाने के लिये इसलिये निर्देशन किया गया है कि उनका व्यक्तित्व उभरे और उस आधार पर आत्मबल बढ़ाते हुये अधिक उच्चस्तरीय सेवा साधना कर सकने में समर्थ हो सकें। यदि उनका पालन किया गया तो वही दुर्गति होगी जो भोजन न करने तथा मल विसर्जन में उपेक्षा बरतने पर प्राण संकट के रूप में उत्पन्न होती है। लोकसेवी को जनता सम्मान देती है, वह वस्तुतः उस सेवा धर्म की पुण्य परम्परा का सूत्र संचालक तंत्र का सम्मान है। सत्प्रयोजनों के लिये लोक श्रद्धा बनी रहे मात्र इसी एक प्रयोजन के लिये सम्मान के प्रकटीकरण की प्रथा चली है। गलती यह होती है कि सेवाभावी उसे अपनी व्यक्तिगत योग्यता का प्रतिफल मानते हैं। अहंकार में डूब जाते है और फिर उसे अपना अधिकार समझने लगते है। जहाँ उसमें कमी होती है वहाँ अप्रसन्न होते है। अधिक पाने के लिये आतुर रहते है। बँटवारा होने के कारण साथियों को हटाने या गिराने का प्रयत्न करते हैं। ऐसे ही हथकंडे अधिक मात्रा में सम्मान पाने के लिये प्रयुक्त किये जाते है। इस आपाधापी में कौन कितना सफल हुआ यह तो ईश्वर ही जाने पर यह आँख पसार कर सर्वत्र देखा जा सकता है कि यश लोलुपता, पद लोलुपता, अहमन्यता किसी से छिपती। उभर कर ऊपर आती और बदले में घृणा, तिरस्कार पनपने लगता है। अनौचित्य के प्रति तिरस्कार का यह भाव सर्वप्रथम साथियों से आरम्भ होता है। चर्चा आगे बढ़ती है और यश लोलुप के विरुद्ध असंतोष, तिरस्कार का विस्तार क्रमशः अधिक बड़े क्षेत्र में होता चला जाता है। यह है वह प्रतिक्रिया जिसके कारण यश लोलुप तिरस्कार के भोजन बनते और जिस श्रेय सम्मान के, अपनी सेवा साधना के कारण अधिकारी थे उससे भी वंचित होते चले जाते है।
बड़प्पन हर क्षेत्र में महंगा पड़ता है। धन, विद्या, सौंदर्य,पद आदि के क्षेत्रों में जो अपने को बड़ा सिद्ध करना चाहते है उन्हें तरह-तरह के आडम्बर खड़े करके यह प्रकट करना होता है कि उनके पास यह विशेषताएँ है। लोग उसे देखें, समझें और सराहें। फैशन, ठाट-बाट जैसे खर्चीले सरंजाम इसी विज्ञापन बाजी के लिये किये जाते हैं ताकि देखने वाली की आँखें उन पर जायें। यही अनाचरण यश लोलुपों में भी अपनाना पड़ता है। वे किसी न किसी बहाने अपनी शकल बार-बार लोगों को दिखाना चाहते हैं, इसके लिये उन्हें अनेकों ऐसे उद्धत आडम्बर रचने पड़ते है जिसमें उनकी प्रमुखता सिद्ध होती हो। स्टेज पर उठने-बैठने का औचित्य या आमन्त्रण न होने पर भी वहाँ जा धमकते है ऐसी जगह अकारण खड़े होते हैं जहाँ लोग उनकी शकल देखें और किसी महत्वपूर्ण ड्यूटी पर जमे हुये प्रतीत हों। अपना नाम,
फोटो छपाने के लिये आतुर रहना, किसी कार्य में दान दिया हो तो उसकी चर्चा स्वयं करने दूसरों से कराने का रास्ता खोजना दान राशि के पत्थर जड़वाना जैसी बचकानी हरकतें करने वाले प्रयत्न तो यशस्वी बनने का करते हैं पर उनकी शुद्धता अनायास ही प्रकट होती जाती हैं। फलतः वे उल्टे घृणा तिरस्कार के पास बनते है। यश के साथ धन लूटने की भी सम्भावना जुड़ी रहती है। कितने ही इसका लाभ उठाते है। किन्तु स्पष्ट है कि ऐसे हथकंडे अपनाने वाले आन्तरिक दृष्टि से पतित होते चले जाते है। फलतः वे सेवा के क्षेत्र में अन्यत्र की अपेक्षा और घाटे में रहते है। तिरस्कृत, उपेक्षित बहिष्कृत की स्थिति में पहुँचे हुये अनेक तथा कथित नेता ऐसे पाये जा सकते है जो ऐन केन प्रकारेण सम्मान जनक स्थान तक जा पहुँचने, जा बैठने में तो सफल हो जाते हैं। पर संपर्क क्षेत्र में सघन श्रद्धा से क्रमशः अधिकाधिक वंचित होते चले जाते है।
यह अहंता के परिपोषण का प्रतिफल है जिसे लोकसेवी अनजाने ही अपनाने लगते है। स्मरण रखा जाय यह घुड़दौड़ अत्यंत महँगी घाट की ओर मूर्खतापूर्ण है। सड़क पर नंगा नाच कर भी लोगों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया जा सकता है। पर इससे कुछ बनता नहीं। जिस प्रकार बड़प्पन पाने के लिये उद्धत प्रदर्शन करने वाले नट, विदूषक समझे जाते है उसी प्रकार यश लिप्सा भी व्यंग-उपहास तिरस्कार का कारण बनती है। सामने कोई कहे भले ही नहीं पर इस तथ्य को थोड़ा-सा पर्यवेक्षण करने पर सरलता सूचक चरितार्थ होते देखा जा सकता है कि प्रमुखता सिद्ध करने के लिये चित्र विचित्र स्थान बनाने वाले नाटक में मुखौटे, परिधान, पहनकर कभी ऋषि बनने वालों तरह अपनी अवास्तविकता का ढिंढोरा स्वयं ही पीटते फिरते है। उसमें उन्हें श्रम, समय, धन और चातुर्य का निरर्थक अपव्यय करना पड़ता है। मूर्ख या चमचे इर्द-गिर्द करके उनके बीच रंगे सियार द्वारा वनराज बनने का ढकोसला भर खड़ा किया जा सकता है। पर उससे मिलता क्या है? परोक्ष व्यंग, उपहास अपने साथ जो गहरी अवज्ञा छिपाये रहते है? उससे लोकसेवक विदूषक स्तर का बनकर रह जाता है। इस दुर्गति जन्य दुर्गति का यदि पूर्वाभास रहे तो लोक सेवा क्षेत्र में प्रवेश करने वाले आरम्भ से ही सजग रहें ओर खिलवाड़ रचने की अपेक्षा सतर्क रहने का कार्य चुनें। विज्ञापन बाजी से बचकर नम्रताजन्य स्नेह सौजन्य अपनाने वाले वस्तुतः अधिक श्रेयाधिकारी बनते है। यश लिप्सा भी छाया की भाँति है। उसके पीछे दौड़ने वाले असफल रहते और खीझ पश्चाताप के अतिरिक्त और कुछ पाते नहीं। इनकी अपेक्षा वे कहीं मुनाफे में रहते है जो श्रेय दूसरे को बाँटते है स्वयं पीछे रहते है। विनम्र स्वयं सेवक की तरह जिन्हें अपनी श्रम साधना, परमार्थ परायणता के आधार पर मिलने वाले आत्म संतोष को ही पर्याप्त मानने की विवेक दृष्टि रहती है, वे अनचाहा यश पाते है। उन्हें वह गहरा स्नेह सद्भाव प्राप्त होता है जिसके साथ साथियों, परिचितों का विश्वास और सहयोग प्रचुर मात्रा में जुड़ा रहता है। दूरदर्शिता इसी में है कि लोक सेवी सच्चे मन से यश, पद लोलुपता अहंता छोड़ें विनम्रता अपनाये। दूसरों को आगे रखें। स्वयं पीछे रहें। अपना बखान स्थगित करें। अपना चेहरा चमकाये नहीं वरन् उस तरह रहें जैसा कि सादा जीवन उच्च विचार के सिद्धान्त में आस्था रखने वाले अपने दृष्टि कोण चरित्र व्यवहार से अधिकारिक शालीनता भरते और महानता के उच्च पद पर अपनी विशेषता के कारण जा पहुँचते है।
बालकों से स्नेह तो किया जाय, पर वह मोह की पराकाष्ठा पर न पहुँचे। वह तो फिर अहितकर बन जाता है। अनेक सुन्दरी उब्बरी राजमहिषी बनी। उनके रूप-सौंदर्य और गुण-स्वभाव की भी ख्याति थी। कुछ समय उपरान्त उब्बरी ने एक कन्या को जन्म दिया, अपनी ही जैसी चन्द्रमुखी उसकी किलकारियों ने राजमहल की शोभा सुषमा में चार चाँद लगा दिये। भाग्य विधान पलटा। कन्या का देहावसान हो गया। माता वज्रपात हुआ। वह विक्षिप्त जैसी हो गयी। जिस श्मशान में अन्त्येष्टि हुई थी, वह उसी में जा पहुँची और विलाप से आकाश हिला देती। दर्शकों की आँखों से आँसू ढुलकने लगते। उब्बरी इस शोक-संताप में सूख-सूख कर कर काँटा हो गयी। किसी के प्रबोधन का उस प्रभाव हो नहीं रहा था।
एक दिन तथागत उस राह से गुजरे। रुदन सुनकर ठिठक गये। विवरण जाना तो क्रन्दन करती युवती के पास जा पहुँची। उब्बरी ने सिर उठाकर देखा और अनुग्रह की याचना करने लगी। बुद्ध ने कहा-देवी इसी श्मशान ने सहस्रों के मृत शरीर भस्मीभूत हुये है। उनके परिजन यदि ऐसा ही क्रन्दन करते, तो इस संसार में शोक के अतिरिक्त और कुछ बचा रहता क्या? विवेक की आँखें और इस मरणधर्मी शरीर की अन्तिम गति पर विचार करो। जो चले गये उन्हें जाने दो अपनी आत्मा का विचार करो, जो पुत्री से भी अधिक प्रिय होनी चाहिये। ऐसा न हो कि तुम पुत्री की तरह आत्मा को भी गँवा बैठो। उब्बरी तथागत का एक-एक शब्द हृदयंगम करती गयी। उसने अन्तरात्मा को पहचाना और मृत का दामन छोड़कर उस जीवन्त का परिपालन आरम्भ कर दिया। कुछ दिन उपरान्त उब्बरी महिला बौद्ध विहार की अधिष्ठात्री बनी, सीमित मोह का व्यापक प्रेम के रूप में परिवर्तन जो हुआ था।