Magazine - Year 1996 - Version 2
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Language: HINDI
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‘ करिष्ये वचनं तव ‘
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लौह शिरस्त्राण, कवच तथा अस्त्र-शस्त्र धारण किए संजय अपने रथ पर बैठे उत्कण्ठा से प्रतीक्षा कर रहे थे। अन्त के आदि की प्रतीक्षा। लग रहा था जैसे अन्त के आरम्भ की प्रतीक्षा अनन्त हुई जा रही है। तभी उनका ध्यान पाण्डव पक्ष की ओर से बढ़े चले आ रहे एक रथ की ओर खिंच गया। रथ पर फहराते हुए कपिध्वज तथा श्वेत अश्वों को देखकर वे पहचान गए कि वह महावीर अर्जुन का रथ है। रथ पाण्डव सेना से काफी आगे आकर मध्य की खाली भूमि पर रुक गया था। उत्सुकता से संजय ने भी अपना रथ बढ़ते ही श्रीकृष्ण को पार्थ सारथी के रूप से देखकर संजय को रोमांच हो आया। पार्थ सारथी के एक हाथ में वल्गाएँ थामकर रथ का संचालन करेगा। श्रीकृष्ण के हाथों में सौंप दी हैं ? श्रीकृष्ण के अधरों पर सदा की भाँति आज भी एक रहस्यमयी मुस्कान है।
अर्जुन का तन महावीर योद्धा की भाँति सुस्थिर व तना हुआ। मुख पर प्रतिशोध का कठोर भाव और नेत्रों में शत्रुनाश का दृढ़ संकल्प साफ-साफ झलक रहा था। वे गर्दन उठाकर शत्रुसेना के एक-एक योद्धा को पहचानने का प्रयास कर रहे थे।
क्या विलम्ब है? युद्ध प्रारम्भ नहीं हो रहा। संजय रथ से उतर पड़े और धीरे-धीरे अर्जुन के रथ की ओर बढ़ने लगे।
अर्जुन देख रहे थे शत्रु सेनाओं को । रजत रथ पर बैठे, श्वेत केशों को श्वेत केशों को श्वेत उष्णीष में बाँधे पितामह भीष्म। लौह कवच पर लहरा रही थी उनकी श्वेत दाढ़ी। वृद्धावस्था के बावजूद उनके मुख पर ब्रह्मचर्य का तेज और दृढ़ता की प्रदीप्ति थी। अर्जुन ने देखा आचार्य द्रोण को जिन्होंने सर्वप्रथम उन्हें अस्त्र-शस्त्र का ज्ञान दिया था और उन्होंने देखा- कृपाचार्य ! मामा शल्य! तात भूरिश्रृवा! भगिनी पति जयद्रथ! दुर्योधन, दुशासन विकर्ण और......ओर........पितामह।
दृष्टि लौट-लौटकर आती और टिकी रह जाती कुल के परम स्नेही महावृद्ध पर। पितामह्गले में कुछ अटक-सा गया। मन हुआ दौड़ लिपट जाए पितामह के चरणों से कि ले लो अपने आश्रय में पहले की भाँति और द्रोणाचार्य ! कृपाचार्य ! अर्जुन का पूरा शरीर थरथरा गया। हृदय विश्वासघात कर गया। नजर धुंधली पड़ती जा रही थी। अँधेरा! चारों ओर घना अंधकार छाता जा रहा था।
अर्जुन विक्षिप्त से चारों ओर देख रहे थे। कौन पुकार रहा है उन्हें ? कहीं से पुकारें आ रही थी। कोई गरज रहा है उन पर। कोई गरज-गरज कर कह रहा है- कृतघ्न ! फेंक दे अस्त्र-शस्त्र और लिपट जा पितामह के चरणों में! कौन पुकार रहा है? कहाँ से गर्जना आ रही हैं ?
पुकार आ रही थी उन्हीं के अन्तस्तल से । वीर अर्जुन के अन्तर में एक और अर्जुन के अन्तर में एक और अर्जुन का अस्तित्व था, भीरु और दीन। मोहाकुल और कातर ! भीतर बैठा हुआ वह मोहग्रस्त अर्जुन, योद्धा अर्जुन को धिक्कार-धिक्कार कर कहा रहा था कि छोड़ दे युद्ध की लालसा।
अन्तर से पुकार आ रही थी अर्जुन! किस प्रलोभन में दूल्हे की तरह सजा हुआ खड़ा है। किसकी प्रतीक्षा है तुझे ? पितामह के क्षत-विक्षत तन का गिद्ध, कौओं द्वारा महाभोज होते हुए देखने की प्रतीक्षा ? नहीं-नहीं! अपराजेय योद्धा सिहर उठा। तो ऐसी विराट सैन्य वाहिनी का अग्रणी बना किसकी प्रतीक्षा कर रहा है? द्रोणाचार्य के लहूलुहान शव की ? आचार्य के कटे हुए शीश को देखने की ? मामा शल्य के निर्जीव तन को सियारों द्वारा चीथ-चीथ कर खाए जाने की?
अर्जुन सिहर उठे। अन्तर की पुकारें बढ़ती जा रही थी। भावुक मानस की व्याकुल तरंगें उनके योद्धा मन को झकझोरे डाल रही थी।
अरे रक्त पिपासु वीर सव्यसाची। अरे महापराक्रमी योद्धा धनंजय! तू अपने ही इन सम्बन्धियों पर वीरता दिखाने चला है। राज्य लोभी ! विजयश्री चाहिए तुझे ? तो काटता क्यों नहीं दुर्योधन के पुत्र लक्ष्मण का शीश। फिर देखना उसकी बाल विधवा कैसे हाहाकार करती लोट जाएगी पति के प्राणहीन तन पर। एक ठण्डी कंपकंपी पूरे तन को पुनः सिहरा गयी। अपने प्रचण्ड सेनानायक! दिखा अपना पराक्रम और सुला दे अपने वृद्ध अंधे पितृव्य के सौ पुत्रों को चिर निद्रा में। उठा गाण्डीव। शर-संधान कर। नष्ट कर दे कुलवंश। बुझा दे समस्त वंशीदीप। अर्जुन का कंठ शुष्क हो गया। अरे अपराजेय वीर! रुका क्यों हैं ? कर डाल आज सर्वनाश अपने पिता के वंश का। क्या सुन रहा है ? पुत्र शोक से व्याकुल गाँधारी वक्ष पीट-पीट कर जो क्रन्दन कर रही है ? हाँ ठीक सुन रहा है। यह तेरे ही पितृव्य धृतराष्ट्र का दारुण विलाप है। तेरे अन्धे और असहाय पितृव्य फूट–फूट कर रो रहे हैं। क्यों रो रहे हैं। कौन है उनका अपराधी। क्रूर आत्मा तू! तू! नृशंस सव्यसाची! तू अपराधी है। पापी हैं। तू दुःख पहुँचा रहा है अपने समस्त सम्बन्धियों को। तू उन्हें असहाय कर रहा है। तूने उनके वंशीदीपों को बुझा दिया हैं तूने उनके अवलम्ब छीन लिए हैं। तू उनके पुत्रों-पौत्रों का बधिक है। तू सबके दुःखों का मूल है। तू सबके कष्टों का मूल है। तू ही युद्ध का मूल हैं तू! तू! तू। लोभी ! निष्ठुर! पापी! कुलघाती !
अर्जुन स्वेद से आचुड़ नहा गए। सूखे अधरों पर बार-बार चिह्न फेरते असक्त हाथों से कभी गाण्डीव पकड़ते, कभी छोड़ते। रोकते-रोकते भी एक कंपकंपाती-सी दीर्घ निःश्वास कंठ से निकली ही गयी।
चौंक कर पार्थ सारथी ने पलटकर देखा।
भेंग मेरुदण्ड। ध्वस्त मनोबल। अपराजेय पौरुष के स्वामी और ऐसे निढाल स्कन्ध। शिथिल-भुजाएँ पाण्डव पक्ष की आशा की प्रदीप धुँआ छोड़ता हुआ। बुझा सा। सात अक्षौहिणी सेनाओं का महाबली केवट विकलता के क्षण में पतवार फेंक नौका को मझधार में छोड़कर पलायन करने को तत्पर। कातर अर्जुन श्रीकृष्ण की मर्मभेदी दृष्टि को अपने ऊपर अनुभव करते हुए अवरुद्ध कंठ से गुहार उठे-
“ अच्युत! मुझे यह राज्य नहीं चाहिए मुझे विजय नहीं चाहिए। मुझे सुख नहीं चाहिए। मुझे कुछ नहीं चाहिए। मैं बन्धुहंता नहीं। मैं गुरुघाती नहीं, मैं कुलनाशी नहीं । गोविन्द। मैं युद्ध नहीं कर सकता। मैं युद्ध नहीं करूंगा।.......... “ विकल मन अर्जुन काँपते हाथों से गाण्डीव रथ में एक ओर रख हाथों से मुख छिपाकर बैठ गए।
संजय स्तब्ध रह गए। कितने माहों से निरन्तर होता आ रहा युद्धाभ्यास। सुदूर जनपदों से आए नरेशों की ये विराट् सेनाएँ और अर्जुन स्वयं ही टूट गए। अब क्या होगा ?
पार्थ सारथी ने सुना। विस्मय से भरकर वे अर्जुन को फटाकर उठे-
कुतस्तवा कष्मलमिदं विषमे समुपस्थिम् ।
अनार्यजुष्टमस्वर्ग्यमकीर्तिकरमर्जुन।।
क्लैब्यं मा स्म गमः पार्थ नैतत्त्वष्युपपद्याते।
क्षुद्रं हृदय दौर्बल्यं त्वक्वोत्तिष्ठ परंतप॥
असमय ऐसी क्लीवता। ऐसा तो कोई श्रेष्ठ वीर नहीं करता। ऐसे आचरण से तू स्वर्ग पाना चाहता है ? हृदय की यह कैसी अनुचित दुर्बलता। छोड़ दे, छोड़ दे, पार्थ मन की इस तुच्छ दुर्बलता को छोड़ दे और हुँकार कर उठा खड़ा हो वीरों की भाँति युद्ध करने।
व्याकुल अर्जुन ने धीर-धीरे मुख पर से अपने हाथ हटाए और वेदनापूरित स्वर में बोले-किन्तु मधुसूदन! पितामह और गुरुवर! इन पर बाण कैसे छोड़ूंगा ? अरिसूदन ये तो दोनों ही मेरे पूज्य हैं। नहीं माधव! नहीं। असम्भव ! मैं भिक्षा माँगकर ही जीवन चला लूँगा परन्तु राज्य पाने के लिए अपने गुरुजनों को नहीं मार सकता।
संजय उत्कण्ठा से और निकट आ गए थे।
श्रीकृष्ण सखा के भावुक मन का अन्तर्द्वन्द्व भलीभाँति समझ रहे थे किन्तु वे अधीर मन को साधना भी जानते थे।
“ पार्थ ! भयभीत न हो। मृत्यु से भयभीत न हो। तू बड़ी भ्रान्ति में पड़ा हुआ है। मृत्यु से कैसा भय। मृत्यु है क्या ? जिस प्रकार शरीर को बचपन, यौवन और वृद्धावस्था के परिवर्तन एक के बाद एक भोगने पड़ते हैं उसी प्रकार आत्मा भी पुराने शरीर रूपी वस्त्र उतारकर नए शरीर के वस्त्र धारण कर लेती है। मृत्यु कोई चिन्तनीय विषय नहीं है, पार्थ यह तो आत्मा का चोला बदलना मात्र है। एक शरीर को छोड़कर जब आत्मा दूसरे शरीर में प्रवेश करती है तब उसे हम मृत्यु कहते हैं। मृत्यु को देहान्त भी कहते हैं क्योंकि मृत्यु को देहान्त भी कहते हैं। क्योंकि मृत्यु केवल देह अथवा ऊपरी आवरण अथवा चोला का ही अन्त करती है, आत्मा की नहीं।...................।
नैनं छिन्दन्ति शास्त्राणि नैनं दहति पावकः।
न चैनं क्लेदयन्तापों न शोषयति मारुतः॥
कुन्तीपुत्र ! इसे न शास्त्र भेद सकते हैं, न अग्नि जला सकती है, न ही इसे वायु सुखा सकती है, न ही इस दुःख, सुख क्लेश आदि प्रभावित कर सकते हैं। अतः तु भलीभाँति समझ ले कि आत्मा अमर और अवध्य है।
तू सोचता है कि अपने पितामह, आचार्य, तथा बान्धवों का वध यदि तु करेगा, तो ही वे मृत्यु को प्राप्त होंगे और यदि तू उनका वध न करेगा तो ये चिरायु हो जाएँगे? कितनी बड़ी भ्रान्ति है तेरी। कितना बड़ भ्रम! भारत! यह स्पष्ट समझ ले, हर मनुष्य अपने कर्मफल के अनुसार मृत्यु वरण करता है। तू किसी की मृत्यु का कारण नहीं । अर्जुन मात्र निमित्त है।.............
अँधेरे मन के भीतर यह कौन-सा अनजाना गवाक्ष सहसा खुल गया है कि भीतर प्रकाश ही प्रकाश भरा जा रहा है। संजय चकित थे। यह कैसी विवेचना जीवन मृत्यु के रहस्य की ! तो जन्म, मृत्यु भाग्य और मनुष्यों के परस्पर सम्बन्धों को कर्म संचालित करता है। दूर-दूर से जुड़ जाते हैं, वह भी कर्म के कारण।
सम्मोहित से संजय और आगे बढ़ आए। बहुत पहले कभी एक बार वृक्ष की शाखा पर बैठे चातक को मेघ की ओर एकटक निहारते देखकर वे कौतुक में पड़ गए थे। स्वाति के बूंद के लिए इतनी पिपासा। चातक चोंच खोले स्वाति की प्रतीक्षा कर रहा था। आज अर्जुन की उसी दशा में संजय देख रहे हैं। अर्जुन कौतूहल से मुख उठाए एकटक श्रीकृष्ण को देख रहे हैं। उनका मुख खुला हुआ था, नेत्र खुले हुए थे। उनका मुख, नेत्र कान, पुरा शरीर और रोम-रोम चातक-सा अमृत पान कर रहा था। गीतामृत की बूँद-बूंद तृषित कंठ में उतार रहा था, आत्मसात कर रहा था।
अर्जुन के हृदय के भीतर जैसे एक और नए हृदय का उदय हो रहा है। उस मोह के राहू से ग्रस्त हृदय के स्थान पर जैसे एक नया उज्ज्वल हृदय शनैः-शनैः जन्म ले रहा है। अंतःस्तल के अन्धकार के पंक में सुप्त पड़े पद्म को पहली बार सूर्य की किरणों ने स्पर्श कर जैसे जगा दिया था। एक पंखुड़ी हौले-हौले खुलने लगी थी।
अर्जुन नहा रहे थे। वर्षा की धारा थी। मन की कलुषता धुली जा रही थी। बही जा रही थी। मन पर जमा हुई घनी काई को ब्रह्म विद्या की धारा छील-छील कर निकाल रही थी। मन परिमार्जित होता जा रहा था। स्फटिक-सा निर्मल निकलता आ रहा था, उज्ज्वल होता जा रहा था। अर्जुन का रोम-रोम भीग रहा था। मन का ताप शीतल हो रहा था। पीड़ा, दुःख, उद्वेलन शीतल पड़ चुके थे। दूर नीले आकाश पार से जैसे विश्व गुरु की गम्भीर वाणी तैरती-सी आ रही थी-
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन
मा कर्मफल हेतुर्भूमा ते संगोस्त्व कर्मणि॥
भारत! कर्म कर किन्तु परिणाम में आसक्ति मत रख। जय-पराजय जैसे कर्मफल से मुक्त होकर अपना कर्तव्य पालन कर। करना है इसलिए कर। कर्म के लिए कर्म कर फल के लिए कर्म नहीं। निर्विकार और निरपेक्ष भाव से कर्म कर। यह मत सोच कि कर्म का कर्ता तू है। स्वयं को कर्म में लिप्त न कर क्योंकि तू करने वाला नहीं है। तू सोचना है कि तू अपनी इच्छा से जो चाहे कर लेगा, तो यह तेरा भ्रम है। जो तू चाहेगा, वह न होगा और जो न चाहेगा, वह हो जाएगा क्योंकि नियामक तू नहीं, तू पूरी शक्ति से चाहकर भी किसी को मार नहीं सकता और न चाहकर भी तू मारेगा। इसलिए अपने मन से अहंकार को निकाल दे कि तू कर्ता है मैं यह करूंगा, मैं वह करूंगा यह सब अहंकार मात्र है, जो भ्रम से उत्पन्न हुआ है। अतः अनासक्त भाव से अपना कर्तव्य पुरा कर परिणाम पर मत जा। फल पर मत जा।
पार्थ! यदि तू ईश्वर की उपासना करना चाहता है तो अपने कर्मों के द्वारा ही उपासना कर। कर्म ही तेरे लिए पत्र-पुष्प हैं, कर्म ही फल व दूग्ध हैं अतः समर्पित कर दे अपने समस्त कर्म ईश्वर को जल में रहकर भी जैसे कमल पत्र जल से ऊपर रहता है, उसी प्रकार कर्म करते हुए भी तू कमल पत्र की भाँति कर्म से ऊपर उठा रह।........
अर्जुन को लग रहा था पृथ्वी, पर्वतों और सरोवरों से वे ऊपर उठे जा रहे हैं, उनका मानस जैसे किसी हंस पर बैठे मोह के मेघों को चीरता, मानवीय सम्बन्धों को भेदता हुआ ऊपर उड़ा जा रहा था। नचिकेता ने जो रहस्य यम से पूछा था, अर्जुन के मानस के समक्ष वे रहस्य स्वयं खुले जा रहे थे जन्म, कर्म, भ्रम, मर्म, धर्म सबको छिन्न-भिन्न करते हुए सबके मध्य वे किसी अद्भुत आलोक लोक में विचर रहे थे।
संजय बाबले से कभी पार्थ के शिष्यवत् जुड़े हाथ देखते, तो कभी अपने छलछलाते नेत्रों को पोछते। हृदय स्पन्दन बढ़ता जा रहा था।
उधर अर्जुन की स्वाभाविक एकाग्रता आज अपने चरमबिन्दु पर पहुँच चुकी थी। उन्हें कुछ नहीं दिख रहा था। न गुरुजन, न कुरुजन, न युद्ध, न योद्धा। न मित्र, न शत्रु। न महारथी, न अतिरथी। न कुरुक्षेत्र, न धर्मक्षेत्र।
उन्हें दिख रहा था केवल अपनी नील सारथी। जिसने हृदय और मन की बागडोर सम्हाल ली थी। विष्णु आकाश-सा विराट सारथी। सर्वव्यापी विराट पुरुष जिसमें उन्हें दिख रही थी समूची सृष्टि, पृथ्वी, नक्षत्र मण्डल असंख्य प्राणी।
अर्जुन को कुछ सुनायी नहीं दे रहा था। न चिंघाड़ें, न हुँकारें, न टंकारें। उनके कानों में था केवल अनहद-नाद-सा एक स्वर हिरण्यगर्भ की अतल गहराई से उठकर गूँजता हुआ एक घोर गम्भीर स्वर।
कालोऽस्मि लोकक्षयकृत्य वृद्धो
लोकान्समाहर्तुमिह, प्रवृत्तः।
ऋतेऽपि त्वाँ न भविष्यन्ति सर्वे
येऽवस्थिताः प्रत्यनीकेषु योधाः।
तस्मात्त्वमुत्तिष्ठ यषो लभस्व जित्वा
शत्रून्भुडक्ष्व राज्यं समृद्धम्।
भयैवैते निहिताः पूर्वमेव निमित्त मात्रं भवसव्यसाचिन्॥
मैं ही महाकाल हूँ अर्जुन? आज मैं असुरता, अनीति, दुष्प्रवृत्तियों के लोकों को नष्ट करने के लिए उठ खड़ा हुआ हूँ। जो आज दिखाई देता है, वह कल न रहेगा। इसलिए तू उठ खड़ा हो । समय को पहचान और यशस्वी बन।
अर्जुन अमृत वर्षा से आचूड़ भीगे हुए थे। धुँध छट रहा था। ज्ञान के प्रखर ताप से मन की मलीनता पिघल-पिघलकर गल-गल कर बही जा रही थी। परिताप बहा जा रहा था। फफूँद नष्ट हो गयी थी। मन शुद्ध सोने-सा निखर पड़ा था।
महाकाल के स्वर कुरुक्षेत्र में गूँज रहे थे-
भारत! मोह, ममता, संकोच सब त्याग दे। यदि त्याग न सके तो अपनी ये दोष-दुर्बलताएँ मुझे सौंप दे। अपने समस्त कर्मों को मुझे समर्पित करके तू निश्चिंत हो जा। तेरे कर्म का दायित्व मैं अपने ऊपर लेता हूँ। सब कुछ मुझ पर छोड़ कर तू मेरी शरण में आ जा। मेरे कहे के अनुसार कर्म कर क्योंकि तेरे मोक्ष का एकमात्र मार्ग वही है।
भारत! युगधर्म के रूप में आज तेरे उज्ज्वल भविष्य का द्वार खुला हुआ है। भाग्यवान मनुष्य ही ऐसा स्वर्ण अवसर पाते हैं और तू स्वर्ग द्वार पर पहुँचकर भी पलायन करके नरक भागना चाहता है, सौभाग्यशाली वीर! उठ खड़ा हो, क्योंकि आज आत्मिक उन्नति भी तेरी मुट्ठी में है, और भौतिक प्रगति भी तरी मुट्ठी में है, कीर्ति भी तेरी मुट्ठी में है। उठा ले लाभ इस पवित्र अवसर का। उठ जा। खड़ा हो जा। गाँडीव धारण कर। युद्ध कर।
संजय के नेत्र फिर छलछला आये थे। दृष्टि धुँधला गई थी। कुछ देख पाना कठिन हो गया था। बार-बार नेत्र पोछते, बार बार अश्रु उमड़ आते। बड़ी कठिनाई से नेत्र पोंछकर उन्होंने देखने का प्रयास किया।
पर जो कुछ देखा उससे तो व चकित रह गए अर्जुन कर्मपथ पर दृढ़ चरणों से शिला के समान खड़े हो चुके थे। नेत्रों में ज्वाला थी । हाथों में गाण्डीव और गाण्डीव में टंकार। उनके अधरों से एक दृढ़ स्वर निकाला “करिष्ये वचनं तव” साथ ही देवदत्त शंख का ऋषभ स्वर-जिसे सुनकर असुरता व अनीति की सेना में कंपकंपी की लहर दौड़ गई।