Magazine - Year 1996 - Version 2
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Language: HINDI
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वन्दनीया माताजी की शक्ति का विस्फोट आश्वमेधिक प्रवाह उमड़ पड़ा
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पूज्यवर के महाप्रयाण के बाद ‘सामान्य गृहिणी’ के बाने में अपने को छिपाए बैठी ‘भगवती’ अपने विराट वैभव के साथ अनायास ही प्रकट हो गयीं। उनकी शक्ति के विस्फोट से आश्वमेधिक प्रवाह अचानक उमड़ पड़ा। अब तक लोगों ने अश्वमेध का नाम भर सुना थी। वेदों-पुराणों की कहानियों में चर्चा सुनी थी । प्राचीन ऐतिहासिक कथाओं में उसका जिक्र सुनाई पड़ा था। वहीं अश्वमेध महायज्ञ अपने वैदिक कर्मकाण्ड विधि-विधान के साथ वर्तमान समय में भी सम्भव हो सकते हैं, यह जनसामान्य की कल्पना से भी परे था। लेकिन माताजी ने जब अपनी ‘गंगोत्री’ सम्पन्न करने का अपना निश्चय शाँतिकुँज के वरिष्ठ कार्यकर्ताओं के सामने प्रकट किया तब सब -के-सब आश्चर्य में पड़ गए। पर इस आश्चर्य को शीघ्र ही समाधान मिला। उनके निर्देशन में आश्वमेधिक कर्मकाण्ड की शोध हुई। साथ ही अश्वमेध के इतिहास और स्वरूप को बताने वाला अश्वमेध विशेषांक भी नम्बर 1992 में प्रकाशित हो गया।
बात इतने तक सीमित न रही। उन्होंने नवम्बर माह में ही प्रथम अश्वमेध जयपुर में किए जाने की घोषणा भी कर दी। इस अवसर पर उन्होंने कहा-”अपनी शुरुआत के दिनों से ही अश्वमेध ब्रह्मशक्ति और क्षात्र शक्ति के सम्मिलित प्रयोगों के रूप में आयोजित होते रहे हैं। ब्राह्मीशक्ति भावना, आदर्शवादिता की प्रतीक है तो क्षात्रशक्ति शौर्य, पराक्रम की विचारणा, भावना क्रिया के बिना पंगु है, शौर्य के अभाव में वह भावुकता बनकर यह जाती है। इसे शौर्य का अभाव ही कहेंगे कि देवमानव गढ़ने, धरती को स्वर्गभूमि में बदलने वाले धर्म विज्ञान को पलायनवाद का पर्याय समझा जाने लगा। इस शब्द की विशालता, व्यापकता भावुकतापूर्ण कर्मकाण्डों के घेरे में सिमट गई। जबकि भगवान की अवतार प्रतिज्ञा में धर्म की स्थापना और अधर्म के विनाश का उभयपक्षीय आश्वासन है। अवतारों, उनके लीला सहचरों ने इसीलिए धर्मोपदेश कम दिए, अनीति से जूझने में अधिक समय लगाना है। अश्वमेध अनीति कि विरुद्ध मन्यु के जागरण की इसी प्रक्रिया का नाम है, जो प्रज्ञावतार के माध्यम से सम्पन्न होने जा रही है।”
माताजी की प्रेरक वाणी ने उपस्थित कार्यकर्त्ताओं की अन्तर्भावनाओं में भूचाल ला दिया । उस समय शाँतिकुँज में शक्तिपीठ के कार्यकर्ताओं के सत्र चल रहे थे। देखते-ही-देखते दस अश्वमेध यज्ञों के संकल्प हो गए। इन संकल्पों के साथ उन्होंने यह कहकर सभी को अचम्भे में डाल दिया कि वे स्वयं इन महायज्ञों के संचालन हेतु जाएँगी। उनके इस कथन ने देश-विदेश के कार्यकर्ताओं में उत्साह का ज्वार ला दिया। सभी हर्षविभोर हो उठे। प्रत्येक की इच्छा थी, जन-मन की हार्दिक अभिलाषा थी कि माताजी उसके क्षेत्र में अवश्य आएँ। इच्छाएँ संकल्पों में बदलने लगीं और इन संकल्पों की धूम मच गई। देश में ही नहीं विदेशों में भी संकल्प होने लगे। तभी इन तरंगित भावनाओं के बीच प्रथम अश्वमेध की पुण्य घड़ी आ पहुँची।
यपुर (राज.) 7 से 10 नवम्बर, 1992।
देव संस्कृति दिग्विजय अभियान के शुभारम्भ का यह प्रथम शंखनाद था। समारोह की प्रभात बेला में 6 नवम्बर, 1992 को ग्यारह सौ से भी अधिक मंगल-कलश-धारिणी देवियों द्वारा गंगामाता मन्दिर के निकट तीर्थ परिक्रमा यात्रा का भव्य स्वागत किया गया। तत्कालीन केन्द्रीय सूचना एवं प्रसारण उपमंत्री सुश्री गिरजा व्यास ने पूजन, अर्चन कर शोभायात्रा को आगे बढ़ाया। मध्याह्न साढ़े ग्यारह बजे राजस्थान प्रशासन के राजकीय विमान द्वारा वन्द. माताजी हरिद्वार से जयपुर पहुँची। जहाँ उनका स्वागत राजस्थान शासन के प्रतिनिधि गृहमंत्री श्री दिग्विजयसिंह और स्वायत्त शासन मंत्री श्री भँवरलाल शर्मा ने किया।
भिलाई (म.प्र.) 17 से 20 फरवरी, 1993।
इस आयोजन के साथ शिवरात्रि पर्व भी जुड़ा था। 18 फरवरी को प्रातः से ही आश्वमेधिक आवाहन-पूजन की प्रक्रिया का प्रारम्भ सोत्साह प्रारम्भ हो गया। इसी बीच माताजी का शुभागमन हुआ। तत्कालीन केन्द्रीय मानव संसाधन मंत्री श्री अर्जुनसिंह ने आकर माताजी को प्रणाम करके यज्ञ के प्रति अपनी सद्भावना अर्पित की।
गुना (म.प्र.) 3 से 6 अप्रैल, 1993।
तीन अप्रैल को वन्दनीया माताजी का हवाई अड्डे पर प्रमुख कार्यकर्ताओं एवं अधिकारियों के साथ ग्वालियर की राजमाता विजयाराजे सिन्धिया ने भव्य स्वागत किया। राजमाता के अतिरिक्त, श्री दिग्विजय सिंह, म.प्र. विधान सभा के अध्यक्ष श्री बृजमोहन मिश्रा, श्री माधव राव सिन्धिया आदि महानुभावों ने इस यज्ञानुष्ठान में अपनी भावभरी आहुतियाँ अर्पित की।
भुवनेश्वर (उड़ीसा) 3 से 6 मई, 1993।
भुवनेश्वर अश्वमेध में मातृशक्ति ने प्रत्येक क्षेत्र में अग्रणी रहकर अपनी गरिमामय भूमिका का परिचय दिया। एक विशिष्ट देवानुग्रह यह भी रहा कि तेज हवाओं से उछलते हुए पाण्डाल में यज्ञ कुण्डों की अग्नि पर वायु का प्रतिकूल प्रभाव नहीं था। अविचल भाव से आहुतियाँ पड़ती रहीं।
लेस्टर (यु.के.) 8 से 11 जुलाई 1993
देव संस्कृति दिग्विजय अभियान ने अपना एक पग और आगे बढ़ाया। इस कदम में प्रथम श्रेयाधिकारी इंग्लैण्ड बना। समारोह के विशिष्ट अभ्यागतों श्री कीथवाज, लाई मेयर, श्री जान मूडी आदि ने वन्द. माताजी को नमन कर पाँच-पाँच मिनट अपनी भावाभिव्यक्ति दी। इंग्लैण्ड में भारत के उच्चायुक्त श्री लक्ष्मीमल सिंधवी सपत्नीक इस कार्यक्रम में सम्मिलित हुए।
टोरण्टो (कनाडा) 23 से 25 जुलाई, 1993
कनाडा की प्रधानमंत्री श्री कैम्पबेल सहित अनेक मन्त्रियों के सहयोग के कारण यहाँ की व्यवस्था दर्शनीय रही । टोरण्टो हवाई अड्डे पर वहाँ के मुख्य संगठनों के प्रमुख तथा गायत्री परिवार के मुख्य परिजनों ने वन्दनीया माताजी का स्वागत किया। माताजी के पधारते ही भीषण वर्षा थम गई और खुशगवार मौसम में अश्वमेध सम्पन्न हुआ।
लॉस एंजेल्स (यु.एस.ए.) 19 से 22 अगस्त, 1993
1008 कुण्डों में यज्ञाग्नि प्रज्ज्वलित होने पर सम्पूर्ण वातावरण में दिव्यता छा गई। यज्ञ-स्थल में लगभग 30 हजार की उपस्थिति में वन्दनीया माताजी ने संक्षिप्त दीक्षा उद्बोधन के साथ सभी को दीक्षा दी।
लखनऊ (उ.प्र.) 27 से 30 अक्टूबर, 1993
महायज्ञ का शुभारम्भ 27 अक्टूबर को भव्य मंगल कलश यात्रा से हुआ। 30 को पूर्णाहुति के दिन सोलह पालियों में लगभग 2 लाख श्रद्धालु याजकों ने श्रद्धापूर्वक यजन किया। प्रदेश के तत्कालीन राज्यपाल श्री मोतीलाल वोरा एवं राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के सर कार्यवाहक प्रो. राजेन्द्रसिंह एक साथ मंत्र पर उपस्थित थे। दिनाँक 29 को दीप यज्ञ के पूर्व माननीय शेषाद्रि जी तथा दीप यज्ञ के मध्य श्री अटल बिहारी बाजपेई ने मंच पर उपस्थित होकर अपने उद्गार किए।
बड़ौदा (गुजरात) 26 से 29 नवम्बर, 1993
अपराह्न यज्ञाश्व पूजन के समय वन्द, माताजी ने गुजराती भाषा में यज्ञारम्भ की घोषणा की। तत्कालीन मुख्यमंत्री श्री चिमनभाई पटेल दिनाँक 27 को यज्ञ में पहुँचे। उन्होंने राज्य की ओर से ताजी का स्वागत किया। यज्ञ में गायकवाड़ राजपरिवार की भागीदारी प्रषंसनीय थी।
भोपाल (म.प्र.)11 से 14 दिसम्बर, 1993
10 दिसम्बर को कलशयात्रा का शुभारम्भ महामहिम राष्ट्रपति डॉ. शंकर दयाल शर्मा की माताजी के द्वारा पूजन-अर्जन के साथ हुआ। मध्याह्न 12.30 पर राजकीय अतिथि के रूप में वन्दनीया माताजी बैरागढ़ हवाई अड्डे पहुंचीं। मुख्यमंत्री श्री दिग्विजयसिंह ने 13 दिसम्बर को जनसभा में वन्द. माताजी से आशीर्वाद लिया और श्रोताओं को सम्बोधित किया। मध्यप्रदेश के राज्यपाल महामहिम श्री मो. शफी कुरैशी 12 ता. को जनसभा में पूरे समय रहे। उन्होंने अपने उद्गार प्रकट करते हुए कहा-”यहाँ मैं कुछ दे नहीं सका, कुछ लेकर जा रहा हूँ।”
नागपुर (महाराष्ट्र) 6 से 9 जनवरी, 1994
लोकमान्य तिलक, शिवाजी महाराज, रामदास, तुकाराम आदि महापुरुषों की जन्मभूमि में हुआ यह महायज्ञ अनेक रूपों में अद्भुत था। डा. श्री कान्त (काँग्रेस साँसद) एवं श्री बनवारी लाल पुरोहित (पूर्व भाजपा साँसद) ने यज्ञ कार्य में संयोजन का दायित्व लिया। सर्वेक्षकों ने इसे नवयुग का महाकुम्भ कहा।
ब्रह्मपुर (उड़ीसा) 26 से 29 जनवरी, 1994
दिनाँक 26 जनवरी को प्रातः देवपूजन अत्यन्त भावपूर्ण वातावरण में सम्पन्न हुआ। सायंकालीन पारी में माताजी की उपस्थिति के बाद उत्साह एवं उमंग की सीमा न रही। दिनाँक 27 से ही अनपेक्षित भीड़ उमड़ पड़ी। उड़ीसा के अंतरंग भागों एवं आंध्रप्रदेश से पहुंचे भोले- भाले ग्रामीणों से लेकर सुशिक्षितों में यज्ञ के प्रति असाधारण उत्साह था।
कोरबा (मध्यप्रदेश) 6 से 9 फरवरी, 1994
छत्तीसगढ़ क्षेत्र में एक वर्ष पुरा होते-होते यह दूसरा अश्वमेध यज्ञ था। वन्दनीया माताजी दिनाँक 7 फरवरी की मध्याह्न 2.30 बजे कोरबा पहुँचीं। यज्ञीय कार्यक्रमों के संचालन के साथ उन्होंने नित्यप्रति सारे स्टेडियम के अन्दर गोल पथ पर खुली गाड़ी में घूमकर परिजनों के अभिवादन स्वीकार करते हुए मंगलाशीश दिए।
पटना (बिहार) 23 से 26 फरवरी, 1994
पटना अश्वमेध यज्ञ कुछ नए अनोखे कीर्तिमान दिखाएगा, यह बात प्रारम्भ से ही झलकने लगी थी। यज्ञ प्रारम्भ से ही झलकने लगी थी। यज्ञ प्रारम्भ होने के पूर्व ही समारोहों में राज्य के राज्यपाल महोदय एवं मुख्यमंत्री महोदय के पहुँचने तथा उत्साह भरे सहयोग की घोषणा ने क्षेत्रीय कार्यकर्त्ताओं के मन में अपूर्व उत्साह का संचार किया। धर्म मंच पर लोगों ने मुख्यमंत्री श्री लालू प्रसाद यादव को पहली बार भावुक होते देखा। व्यक्तिगत वार्ता में उनने आते ही कहा- “ मेरी माँ मुझे मिल गई।” इस प्रकार बुद्धावतार के क्षेत्र में प्रज्ञावतार का प्रखर प्रवाह उभरा।
कुरुक्षेत्र (हरियाणा) 31 मार्च से 3 अप्रैल, 1994
श्रीमद्भगवद्गीता की भूमि कुरुक्षेत्र में आयोजन के प्रथम दिन हरियाणा के राज्यपाल श्री धनिक लाल मण्डल ने आकर पू. गुरुदेव के जीवन दर्शन की प्रदर्शनी का उद्घाटन किया। शिक्षामंत्री श्री फूलचन्द्र मुलाना ने वन्दनीया माताजी की अगवानी की। 1 अप्रैल को तत्कालीन मुख्यमंत्री श्री भजन लालजी भी यज्ञ करने आए। वहाँ से वन्दनीया माताजी से भेंट करने, उनके ठहरने के स्थान पर भी गए। वहाँ उनके साथ केन्द्रीय मंत्री श्री विद्याचरण शुक्ल एवं बिहार के मुख्यमंत्री श्री जगन्नाथ मिश्र भी थे।
चित्रकुट 16 से 20 अप्रैल, 1994
किसी को भी पता नहीं था कि चित्रकुट कार्यक्रम वन्दनीया माताजी का अन्तिम प्रवास होगा। किन्तु उनकी उस यात्रा में इस पत्रिका के सम्पादक को तो संकेत मिले, उनका मर्म बाद में उद्घाटित हुआ। वन्द.माताजी बार-बार पूछतीं थीं- “ प्रणव। रामनवमी को हम कहाँ होंगे? उन्हें जवाब दिया जाता कि हम लोग चित्रकुट में होंगे। यकायक विमान के जालीग्राण्ट हवाई अड्डे से रवाना होते समय वे बोलीं-”अब मैं शायद विमान यात्रा न कर पाऊँ, विमान की अब जरूरत भी क्या पड़ेगी।”
सतना हवाई अड्डे में उतरने पर वहाँ से कारों का काफिला पिण्डरा शक्तिपीठ पहुँचा। इस शक्तिपीठ प्राण-प्रतिष्ठा करते समय वह यकायक बोल उठीं- “प्रणव! शायद यह अंतिम प्राण प्रतिष्ठा है। मैंने जयपुर में पहली प्राण प्रतिष्ठा की थी। उसके बाद के क्रम में यह अब अन्तिम ही है। मैं शायद इसके बाद आगे कहीं और यह उपक्रम न कर सकूँ।
“16 से 20 अप्रैल की उनकी यात्रा उनकी ही नहीं, मिशन की जीवन यात्रा में एक महत्वपूर्ण स्थान रखती है। इस अवधि में अश्वमेध महायज्ञ के कार्य को सम्पन्न करने के साथ, वे अपनी शारीरिक अशक्तता के बावजूद उन स्थानों पर गयीं, जहाँ कभी भगवान श्रीराम अपने लीला-सहचरों, सीता माता तथा भाई लक्ष्मण के साथ गए थे। चित्रकुट यात्रा में उनके साथ रही, उनकी अनन्य भक्त सेवाभावी मानस पुत्री, दुर्गा दीदी ने बाद के दिनों में बताया कि-”चित्रकूट में मैं अक्सर देखती कि माताजी जैसे अपनी पुरानी यादों में खोयी हुई हैं। अचरज तब होता जब स्फटिक शिला, कामदगिरि, गुप्त गोदावरी जैसे स्थानों पर पहुँचने पर वह कुछ इस तरह देखने लगतीं मानो यही-कहीं अपने श्रीराम को ढूँढ़ रही हों।” उनकी इसी यात्रा के साथ अश्वमेध अभियान का एक अध्याय पूर्ण हो गया। अश्वमेध यज्ञ तो बाद में भी हुए पर उनमें उनकी स्थूल उपस्थिति नहीं रही। तब तक वे स्थूल से सूक्ष्म हो चुकी थीं।