Magazine - Year 1996 - Version 2
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Language: HINDI
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देवसत्ताएँ-चैतन्य ऊर्जाएँ
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देवसत्ताएँ चेतना-ऊर्जा हैं। मूल कणिकाएँ और भौतिकीय ऊर्जा विकिरण उनके भौतिक पक्ष हैं। आन्तरिक चैतन्य विशिष्टता उनका आध्यात्मिक पक्ष है। समस्त देवगण प्राण-ऊर्जा के विभिन्न रूप हैं। भौतिक द्रव्य में क्रियाशीलता ऊर्जा उनकी आधिभौतिक अभिव्यक्ति है। वस्तुतत्व त्रैत स्वरूप या त्रिस्तरीय-त्रिआयामी होता है। यही कारण है कि भारतीय मनीषियों ने वस्तुतत्व का निरूपण करते समय तीनों ही स्तरों पर उनका विवेचन-विश्लेषण किया है। वस्तुसत्ता के तीनों रूपों को समझने के साधन, उपकरण, माध्यम और विधियाँ भिन्न-भिन्न होती हैं, मात्र भौतिकी के द्वारा तीन स्तरों की तत्व विवेचना संभव नहीं होती। आधुनिक भौतिकी वस्तुओं के आधिभौतिकी स्वरूप की ही खोजबीन करती है। उनको आधिदैविक ही चाहिए। भौतिक-द्रव्य से विनिर्मित उपकरण चाहे जितने सूक्ष्म हों, वे आधिभौतिक अर्थ को ही प्रकाशित कर सकते हैं। किन्तु भौतिक विज्ञान के इस युग में बुद्धिमान लोगों की भी प्रवृत्ति मूलतः आधिभौतिक अर्थ को समझने की होने के कारण आधिदैविक अर्थों को भी आधिभौतिक प्रतीकों द्वारा ही संकेतित करना आवश्यक है। यह बहुत कठिन भी नहीं है। क्योंकि भारतीय प्रज्ञा ने अपनी अभिव्यक्ति के लिए सदैव ऐसे शब्दों को प्रचुरता से चुना है, जिनके साथ तीन स्तरों पर तीन अर्थ होते हैं, आधिभौतिक, आधिदैविक एवं आध्यात्मिक।
देवों को प्रजापति की अतिसृष्टि कहा जाता है। सृष्टि का क्रम इनके उपरान्त है। सृष्टि के प्राणी मर्त्य हैं। देवता अमर हैं, क्योंकि से अमृतपान किये हुए हैं। अमृतों की पाँच कोटियाँ हैं, ऐसा छान्दोग्य उपनिषद् में वर्णित है। इन पाँचों अमृतों के अनुगत पाँचों देव वर्ग हैं। छान्दोग्य उपनिषद् में इनका विवरण यों है।
तद्यत्प्रथमममृतं तद्वसव उपजीवन्त्यग्निना मुखेन।
( छा. 3/7/1)
अर्थात् यह जो पहला अमृत है, उससे वसुगण जीवन धारण करते हैं। वे अग्निमुख द्वारा ही उसे धारण करते हैं।
अथ यदिद्वतीयममृतं तद्रुदा उपजीवन्तीन्द्रेण मुखेन।
( छा. 3/7/1)
अर्थात् जो दूसरा अमृत है, उससे रुद्रगण जीवन धारण करते हैं। उनका मुख इन्द्र है।
अथ यत्ततीयममृतं तदादित्या उपजीवन्ति वरुणेन मुखेन।
( छा. 3/8/1)
अर्थात् यह जो तीसरा अमृत है, उससे आदित्यगण जीवन धारण करते हैं। उनका मुख है वरुण।
अथ यच्चुर्थममृतं तन्मरुत उपजीवन्ति सोमेन मुखेन।
( छा. 3/9/1)
अर्थात् चौथे अमृत से मरुत सोम मुख से जीवन धारण करते हैं।
अथ यत्पेचमममृतं तत्साध्या उपजीवन्ति ब्राह्मण मुखेन।
( छा. 3/10/1)
अर्थात् यह जो पाँचवाँ अमृत है, उससे ब्रह्म रूपी मुख से साध्यगण जीवन धारण करते हैं।
इस प्रकार पाँच अमृतों के अनुगत ये पाँच मुख्य देव इस प्रकार हुए वसु, रुद्र, आदित्य, मरुत एवं साध्य। ये सभी चेतन विकिरण-ऊर्जाओं के वर्ग हैं इनके आधिभौतिक स्वरूपों को आधुनिक भौतिकी की भाषा में क्रमशः रेडियो विकिरण, अवरक्त विकिरण, दृश्य विकिरण, एक्स किरण एवं गामा किरण समझा जा सकता है। इनके मुख्य रूप अग्नि, इन्द्र, वरुण, सोम एवं ब्रह्म को क्रमश फोटोन, अल्फा, मेसान, लेक्टान एवं न्यूक्लिआन कण के स्तर पर सक्रिय चेतना ऊर्जाएँ समझा जा सकता है। ये ही मूल कणिकाएँ सृष्टि के, द्रव्य के परमाणुओं का गठन करती है। सर्वव्यापी चैतन्य अमृत सत्ता की शक्ति का अंश ही इन मूल कणिकाओं का भी प्राण है। इन सभी मुखों में वही अमृत समाहित होता तथा इन्हें जीवन प्रदान किये रहता है। चेतन विकिरण ऊर्जाएँ अपनी क्रीड़ा उसी सर्वव्यापक अमृत सत्ता की शक्ति से करती हैं। वे उसका ही अंश हैं। उससे भिन्न कोई सत्ता संभव ही नहीं।
इन पाँच प्रधान देव वर्गों के साथ ही अश्विन कुमारों का अपना विशेष स्थान है। क्योंकि वे देवताओं के वैद्य हैं। विश्वेदेवा देवताओं की सबसे ऊँची कोटि को कहा जाता है। जो अतिसूक्ष्म चिन्मय शक्तियाँ हैं। इस प्रकार प्रमुख देव वर्ग ये सात हुए-आदित्य, वसु, रुद्र, मरुत, साध्य, अश्विन, विश्वेदेवा।
देवशक्तियों के वाचक प्रतीकों के आधिभौतिक अर्थ भी होते हैं और उन्हें भौतिक विज्ञान के द्वारा समझा-जाना जा सकता है। हाँ, अवश्य ही वैदिक विज्ञान की भाषा आधुनिक भौतिक की भाषा से भिन्न थी। इसीलिए इन शब्दों का वर्तमान वैज्ञानिक शब्दों से साम्य नहीं है। किन्तु अर्थ साम्य पूरी तरह है। अतः देवशक्तियों के स्वरूप को समझने के लिए वैदिक वैज्ञानिक पर्याय समझना बौद्धिक वर्ग के लिए उपयोगी संभव तभी है जब देवशक्तियों को इन पर्यायों के आधिभौतिक अर्थ में ही न समझ लिया जाय, अपितु इस समानता को, देववाद को समझने का सूत्र मानकर ग्रहण किया जाय। स्थूल भाव ही ग्रहण कर लेने पर भ्राँति बनी रहेगी। यहाँ देवशक्तियों के सूक्ष्म स्वरूप को समझने के लिए आधुनिक भौतिकी के अविज्ञात सूत्रों का सहारा लिया जा रहा है, उन्हें ग्रहण करते समय उपर्युक्त सतर्कता बरतनी भी आवश्यक है। आदित्य-छान्दोग्य उपनिषद् में बताया गया है कि आदित्य में और नेत्र में एक ही देवता है।
अथ य एषोऽन्तरक्षिणि पुरुषों दृश्यते सैवर्क्तत्साम तदुकथं तद्यजुस्तद्दह्म तस्यैतस्य तदेव रुपं यावमुष्य गेष्णौ तौ गेष्णौ यन्नाम तन्नाम।
(छा. 1/7/5)
अर्थात् जो नेत्रों के मध्य में देवसत्ता है, वह वही जो उस आदित्य में है। इसीलिए वहीं पर आगे यह भी कहा गया है कि चाशुष और आदित्य दोनों की एकता जानने वाला ऊर्ध्वलोकों में गमन करता है। बृहदारण्यक उपनिषद् में भी इस एकता का ऐसा ही कथन है। उसके भाष्य में शंकराचार्य ने लिखा है-
विद्युति त्वचि, हृदये चैका देवता।
(बृहदा. 2/1/4 का शंकरभाष्य)
आगे श्री शंकराचार्य ने यह भी लिखा है-
तेजस्वीति विशेषणाम् तस्यास्तत्फलम्।
अर्थात् विद्युत त्वचा और हृदय में एक ही देवता है, उसका फल है। उससे ज्ञात होता है कि दर्शन शक्ति कारणी भूत दृश्य प्रकाश की किरणों में क्रियाशील चेतन शक्ति की संज्ञा आदित्य है। शतपथ ब्राह्मण में कहा गया है कि प्रधानतः अदित से सात आदित्य ही उत्पन्न हुए । ये सात आदित्य दृश्य प्रकाश के सात प्रकारों के प्रतीक देवता है। ज्यामितीय दृष्टि से दिशाओं की संख्या छह है-आगे-पीछे, ऊपर-नीचे, दाहिने और बायें ।
इन छहों दिशाओं को प्रकाशित करने वाले दृश्य विकिरणों के प्रतीक छह आदित्य और होने चाहिए। किन्तु चेतन प्राणी अपने सम्मुख रखी वस्तु के ऊपर, नीचे, दायें, बायें और आगे तो देख सकते हैं, पीछे नहीं देख पाते। इसीलिए वस्तुओं की आकृतियों के निर्धारक पाँच आदित्य ही कहे गये। प्रत्येक आदित्य एक दिशा में वस्तु के विस्तार के निर्धारक दृश्य विकिरण का दैवी प्रतीक है। दिव्य सत्ता है। इसलिए आदित्य बारह ही हैं। पीछे की दिशा के लिए कोई आदित्य नहीं होता। ये सभी आदित्य शक्तियाँ सविता की ही रश्मियाँ हैं यह स्पष्ट है।
वसु-ऋग्वेद के अनुसार वसुओं की दो विशेषताएँ हैं। एक तो वे जाग्रत हैं। अर्थात् शब्द संवाहक एवं शब्द प्रदाता है। दूसरे वे मेरुविर्भदये अर्णसो धायपजः। (ऋग्वेद 1/58/3) हैं अर्थात् अर्णव में यदि कोई फेंक दिया जाता है और वह वसुओं की शरण में जाता है, तो वे उसे बलपूर्वक पार कराते हैं। इस कार्य में वे अति कुशल हैं। इस पर विचार करने पर विदित होता है कि रेडियो तरंगों की संचालक चेतन क्रिया शक्ति ही वसु है। रेडियो प्रसारण केन्द्र में वक्ता या गायक अथवा वादक के मुख से वाद्य यंत्र जो तरंगमयी ध्वनि ऊर्जा उत्पन्न होती है, उसे विद्युत स्पंदनों में परिवर्तित किया जाता है और उन विद्युत स्पन्दनों को उच्च आवृत्ति वाली रेडियो तरंगों पर आरुढ़ कर दिया जाता है। ये रेडियो विकिरण ही आकाश मार्ग से ध्वनि तरंगों के विद्युत-स्पंदनों को बलपूर्वक पार कराते हैं और संग्राहक यंत्र तक पहुँचाते हैं, जहाँ मूल स्वरूप में ध्वनि पुनः प्रकट होती है। आधुनिक आकाशवाणियों एवं दूरदर्शन के साधन वसु ही होते थे और अब भी होते हैं। क्योंकि शक्ति तो वही है प्रविधि भले भिन्न हो।
रुद्र-ऋग्वेद (1/3/3) के अनुसार “ रुद्राणों रोदन कारिणों।”
अर्थात् जो रुदन कराये वह रुद्र हैं। ऋग्वेद में भी कहा गया है कि “रुद्राय क्रूर अग्नये।” अपनी तेजस्विता से भस्मीभूत कर देने वाली प्रचंड शक्ति रुद्र है। पौराणिक भाषा में इसलिए रुद्र को तृतीय नेत्र सम्पन्न कहा गया है, जिसके खुलते ही प्रचण्ड ताप निकलता है। रुदन कराने का अर्थ भी द्रवीभूत करना हैं। अतः उस प्रचण्ड तापशक्ति की अभिमानी देवसत्ता का ही नाम रुद्र है, जो अपने प्रखर ताप से अत्यंत तप्तकारी प्रभाव उत्पन्न करती है और लौह पिण्डों तक को गलाकर द्रवीभूत कर सकती है। वसु शक्ति सम्पन्न रेडियो विकिरणों से अधिक सूक्ष्म, अधिक उच्च आवृत्ति वाली रश्मियों में सक्रिय देवसत्ता रुद्र है, यह छान्दोग्य उपनिषद् में मधु विद्या के वर्णन से स्पष्ट है। उसमें अमृत के पाँच वर्गो का विवेचन है, जो ऊर्जा की सूक्ष्मता के आरोहक्रम से गिनाये गए हैं। इनमें प्रथम क्रम वसुओं को दिया गया है और कहा गया है कि प्रथम अमृत से ही वसुगण जीवन धारण करते हैं। रुद्र वसुओं से अधिक सूक्ष्म हैं। उनकी रश्मियाँ उच्चतर आवृत्ति वाली हैं। आधुनिक भौतिक की भाषा में ये अवरक्त किरणें हैं। अवतरण किरणों में सक्रिय चेतन सत्ता ही रुद्र हैं। छान्दोग्य उपनिषद् में यह भी कहा गया है कि वसुओं की अपेक्षा रुद्रों का भोगकाल दूना है। मरुतगण वायु के देवता है। ऋग्वेद के अनुसार वे तीक्ष्ण तथा भेदन सामर्थ्य से सम्पन्न होते हैं। किन्तु ये रुद्र की तरह तापकारी, रुलाने, गलाने वाले नहीं हैं। क्योंकि मरुत का शब्दार्थ ही हैं, ‘मारुदन्त’ जो रुलाते नहीं, पीड़ा नहीं देते किन्तु सूक्ष्म और भेदन क्षमता से युक्त हैं, वे मरुत हैं।
भारतीय तत्वदर्शन में जिसे वायु तत्व कहा गया है, वह आधुनिक भौतिकी के इलेक्ट्रॉन कण का पर्याय है मरुत का इलेक्ट्रॉन अथवा वायुतत्व से भी सम्बन्ध होना चाहिए। इन सभी विशेषताओं का विचार करने पर एक्स किरणों में क्रियाशील देवशक्ति ही मरुत प्रतीत होती है। एक्स किरणों का तरंग-दैर्ध्य इलेक्ट्रॉन की आनुषंगिक तरंग-दैर्ध्य स्तर का होता है। एक्स किरणें शरीर में प्रविष्ट होने पर भी पीड़ा नहीं पहुंचाती। सूक्ष्म होती है और भेदन में समर्थ होती हैं। इससे एक्स किरणों की मरुद्गणों से समानता प्रकट होती है।
साध्य मरुद्गणों से भी अधिक सूक्ष्म चैतन्य ऊर्जा है। इसे आदित्रु की उर्ध्वादिक सम्बंधी किरणें भी कहा गया है। जिस प्रकार परमाणु के मध्य में है। जिस प्रकार परमाणु के मध्य में नाभिक होता है, उसी प्रकार आदित्य के मध्य में यह मधु स्थापित है। परमाणु के नाभिक सदा संक्षुब्ध से रहते हैं और उनमें तीव्र हलचल होती रहती है। साध्य देवों को भी आदित्य के मध्य में क्षुब्ध होता हुआ मधु कहा गया है। सूक्ष्मता और संक्षोभ से सम्बन्ध दिखाये जाने से पता चलता है कि विकिरणधर्मी गामा किरणों में सक्रिय चेतना शक्ति को ही साध्व देव कहा गया है। वे मरुद्गणों से ऊपर अधिष्ठित हैं। गामा किरणें भी एक्स किरणों से अधिक सूक्ष्म होती हैं। वे विघटनशाली संक्षुब्ध परमाणु नाभिकों से उत्सर्जित होती हैं।
अश्विन तैत्तिरीय ब्राह्मण में दोनों अश्विनों को देवों के वैद्य, हवियों का वहन करने वाले, विश्वेदेवों के दूत तथा अमृत के रक्षक कहा गया है।
अश्विन या अश्विनीकुमार दो हैं। अश्विन या अश्विनीकुमार दो हैं। अश्वयन का अर्थ प्रसरण, विसरण या फैलना है। वे गणदेवों का प्रभाव प्रसारित करते हैं, उनकी श्रेष्ठता के अमृत स्तर को सुरक्षित रखते हैं। इन सब बातों का विचार करने पर चलता है कि विद्युत चुम्बकीय ऊर्जा तरंग के उभय घटक ही दो अश्विनीकुमार हैं। प्रत्येक रश्मि तरंग वस्तुतः विद्युत ऊर्जा और चुम्बकीय ऊर्जा की समयुग्मित तरंग होती है। ये दोनों ही घटक समरूप होते हैं। दोनों अश्विनीकुमार भी समरूप होते हैं। इन घटकों के आयामों के द्वारा ही किसी तरंग का प्रभाव आगे बढ़ता है। जितनी अधिक इनकी आवृत्ति होगी, उतनी ही सूक्ष्म किरण होगी। अग्निकण फोटान कणों में ऊर्जा के परिमाण की कमी या अधिकता के ही अनुसार गणदेवों या सूक्ष्म प्रवाह तरंगों का स्वरूप वैविध्य विनिर्मित होता है।
इसलिए उस ऊर्जा के संवाहक विद्युत चुम्बकीय घटकों के आयामों को अश्विनों के बाहु कहा गया है, जिनसे वे अग्नि में अर्पित हव्य को ऊर्जा रूप में वहन करते हैं।
अग्नि को देवों का पुरोहित कहा गया है। बृहस्पति भी उसका पर्याय नाम है। उसे देवमुख के नाम से भी जाना जाता है क्योंकि वह चैतन्य विकिरण ऊर्जाओं का मुख जैसा ही है। मात्र विश्वेदेवा उससे भी सूक्ष्म चैतन्य ऊर्जाएं हैं। विश्वेदेवा-आर्षग्रंथों में विश्वेदेवा के दो भिन्न-भिन्न समूहों की चर्चा है। कहीं संख्या तेरह बतायी गयी है, कहीं इक्कीस। ये अति श्रेष्ठ देव शक्तियाँ है, जो आकाश के अज्ञात प्रदेशों से आती हैं। अनंत अंतरिक्ष के अज्ञात प्रदेशों से आती हैं। अनंत अंतरिक्ष के अज्ञात प्रदेशों से बरसने वाली अतिसूक्ष्म कास्मिक किरणों में क्रियाशील चित् शक्ति ही विश्वदेव है। आधुनिक विज्ञान अभी इनके आधिभौतिक पथ का ही अनुसंधान नहीं कर पाया है। फिर देव सत्ताएँ तो भौतिकी के कार्यक्षेत्र और अन्वेषण क्षेत्र से सर्वथा भिन्न चैतन्य ऊर्जाएँ हैं। उन्हें अनुभव करने का माध्यम श्रद्धा है। ऐसा शास्त्रों में स्पष्ट कहा गया है। बिना श्रद्धा के देवसत्ताओं की अनुभूति कर सकना, उनके अनुदान पा सकना असम्भव है। श्रद्धा ही उन चेतन ऊर्जाओं से संबंध जोड़ती है।