Magazine - Year 1998 - Version 2
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Language: HINDI
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समस्त समस्याओं के समाधान का सुनिश्चित आधार
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शक्ति और साधनों की उपयोगिता से इनकार नहीं किया जा सकता। सुविधा-संवर्द्धन की दृष्टि से उनका बाहुल्य निश्चित रूप से अभीष्ट हैं। इसलिए इन दोनों का व्यर्थ बताने या उपेक्षा करने का प्रश्न ही नहीं उठता। पराक्रम के लिए सामर्थ्य चाहिए और उपलब्धियों के लिए उपकरण। अस्तु, इन दोनों का संचय-संवर्द्धन मनुष्य आदिमकाल से ही करता रहा हैं और जब तक धरती पर उसका अस्तित्व हैं, तब तक करता भी होगा। यह स्वाभाविक भी हैं, उचित भी और अभीष्ट भी।
किन्तु ध्यान रखने योग्य तथ्य यह है कि शक्ति एवं साधनों का उपयोग करने वाली चेतना का स्तर ऊँचा रहना चाहिए, तभी समर्थता और सम्पदा का सहयोग बन पड़ेगा। इसके अभाव में बन्दर के हाथ में तलवार पड़ने की तरह मात्र अनर्थ की ही सम्भावना हैं। दुर्बुद्धियुक्त कुकर्मी का सशक्त होना उसे विनाश के गर्त में और भी तेजी के साथ धकेलता हैं। आग में ईंधन पड़ने से वह भड़कती ही हैं। अन्तरंग की निकृष्टता, अभावग्रस्त स्थिति में तो दबी भी पड़ी रहती हैं, पर साधन मिलने पर तो उसे खुल खेलने का अवसर मिलता हैं। ऐसी दशा में कुकर्मी का वैभव उसके स्वयं के लिए, सम्बन्धित व्यक्तियों के लिए और समस्त समाज के लिए अभिशाप ही सिद्ध होता हैं। दुर्बलता बुरी होती हैं, पर दुष्टता तो भयानक ही कही जाएगी। अभावजन्य दुर्बलता को कोई पसन्द नहीं करता, पर समर्थताजन्य दुष्टता द्वारा कुछ घटित होता हैं, उसे देखकर तो रोमांच ही हो आता हैं। सम्पन्नता और समर्थता बढ़ने का लाभ तभी हैं, जब उस पर नियन्त्रण करने वाली शालीनता को अक्षुण्ण और प्रखर रखा जा सकें।
पिछले दिनों प्रगति के नाम पर बहुत कुछ हुआ हैं। उससे अनेकों में कुशलता और तत्परता का बड़े परिमाण में नियोजन हुआ हैं। अन्यमनस्कता और अकर्मण्यता की हेय स्थिति की तुलना में इस पुरुषार्थ की मुक्तकण्ठ से सराहना ही की जाएगी। जिन पुरुषार्थियों ने बुद्धि-कौशल से विज्ञान-उद्योग आदि क्षेत्रों में प्रयत्न करके सुविधा-साधन बढ़ाये हैं, उनके पराक्रम को तिरस्कृत नहीं किया जा सकता। इतने पर भी यह अभाव खटकता ही रहेगा कि दूरदर्शिता, विवेकशीलता, उदारता, शालीनता जैसी सत्प्रवृत्तियों का उत्पादन, अभिवर्द्धन उपेक्षित ही पड़ा रहा। उसकी उपयोगिता वैसी नहीं समझी गई, जैसी समझी जानी चाहिए थी। एकांगी चिन्तन यह बताता रहा कि भौतिक प्रगति ही सब कुछ हैं। साधनों के बढ़ने पर मनुष्य के समान उपस्थित होने वाली सभी कठिनाइयों का समाधान हो जाएगा।
मनुष्य जितना बुद्धिमान हैं, उतना ही अदूरदर्शी भी। सम्पदा को सब कुछ मान बैठने और चेतना की उत्कृष्टता को उपेक्षित रखने की भूल निश्चित रूप से अदूरदर्शिता हैं। इतिहास साक्षी हैं कि निकृष्ट स्तर के व्यक्तित्व समर्थता प्राप्त करने के उपरान्त अपने कुकर्मों से सारे वातावरण का ही विक्षुब्ध करते रहे हैं। उनका वैभव असंख्यों के लिए अभिशाप बना हैं। आज भी इस तथ्य को पग-पग पर चरितार्थ होते देखा जा सकता हैं। सम्पन्न देशों के नागरिक उपलब्ध सुविधाओं का उपयोग किस प्रयोजन के लिए कर रहें हैं, उसके क्या-क्या परिणाम भुगत रहे हैं, उसका प्रमाण अमेरिका जैसे सम्पन्न देशों की वास्तविक स्थिति को, ऊपर से चमकीला आवरण उखाड़कर भली-भाँति देखा जा सकता हैं। सम्पन्नता से सुविधाएँ तो बढ़ती हैं, पर उससे व्यक्ति के अन्तरंग को ऊँचा उठाने में तनिक भी सहायता नहीं मिलती। फलतः मात्र भौतिक सफलता के सहारे जिस स्थिति में जा पहुँचते हैं उससे भारी निराशा होती हैं। क्या व्यक्ति, क्या समाज और क्या राष्ट्र सभी पर यह तथ्य समान रूप से लागू होता है कि आदर्शवादिता बढ़े बिना, बढ़े हुए वैभव संकटों और विग्रहों की ही बाढ़ आती हैं।
आदर्शवादिता का नियंत्रण हट जाने पर बलिष्ठता की परिणति उद्दण्ड उच्छृंखलता में होती हैं, सुन्दरता, कामुकता और अहमन्यता का पथ प्रशस्त करती हैं। बढ़ा हुआ बुद्धि-कौशल छद्म रचने के कमा आता हैं। वैभव के बढ़ते ही दुर्व्यसन चढ़ दौड़ते हैं। अधिकारों का उपयोग स्वार्थ के लिए, अशक्तों के शोषण-उत्पीड़न में होता हैं। कला का सौष्ठव पशु-प्रवृत्तियों को भड़काने में नियोजित होता हैं। धनी अधिक धनी बनना चाहता हैं, समर्थ अधिक सामर्थ्यवान, किन्तु वे यह नहीं सोच पाते कि इस अभिवृद्धि का सदुपयोग क्या हो सकता हैं? दूरदर्शी विवेक के अभाव में तृष्णा ओर अहंता की पूर्ति ही वह आधार रह जाती हैं, जिसके लिए बाहुल्य को लगाया जा सकें। यह होता है, यही हो रहा हैं। प्रतिक्रिया सामने हैं- वैभव बढ़ रहा हैं, साथ ही विक्षोभ भी। साधन बढ़ रहे हैं, साथ ही दुर्व्यसन भी। शिक्षा, साधन और कुशलता-संवर्द्धन के अनेकानेक आधार बढ़ रहे हैं। और मनुष्य अपेक्षाकृत अधिक चतुर, अधिक सतर्क बनता जा रहा हैं। इतने पर भी यह बढ़ी हुई बुद्धिमत्ता दूरभिसंधियाँ गढ़ने में ही काम आती हैं।
शान्तचित्त से स्थिति की विवेचना करने पर एक बार तो ऐसा लगता हैं कि प्रगति की दिशा में दौड़ते हुए हम अवगति के गर्त में गिरने को तेजी से बढ़ रहे हैं तब क्या प्रगति निरर्थक हैं? समर्थता और सम्पन्नता बढ़ाने के लिए, जो प्रयत्न चल रहे हैं क्या वह अनावश्यक हैं? इस प्रकार सोचने की आवश्यकता नहीं हैं। सम्पन्नता अचेतन है और समर्थता, अन्धी। इनमें से न किसी को भला कहा जा सकता है, न बुरा। पदार्थ, पदार्थ हैं और बल, बल हैं। इनमें क्षमता भर है। इतनी योग्यता नहीं कि अपना उपयोग किसी भले या बुरे प्रयोजन के लिए कर सकें। आग में ताप तो हैं, पर उससे यह निर्णय करते नहीं बनता कि वह भोजन पकाने में लगे या अग्निकाण्ड उत्पन्न करने में। यह कार्य किसी सचेतन का हैं पदार्थ प्रकृति की प्रेरणा भर अंगीकार करते हैं। उचित-अनुचित का निर्णय करना या परिणाम की कल्पना करना उनके वश से बाहर की बात है। इसलिए बारूद, आग, बिजली जैसी समर्थताओं से भी उचित-अनुचित का निर्णय करते नहीं बन पड़ता।
चेतन ही उन्हें विकास या विनाश के लिए नियोजन करता है। रेल, मोटर, जहाज की गतिशीलता सर्वविदित है, किन्तु वे कुशल ड्राइवर के संरक्षण में ही अपनी उपयोगिता का परिचय दे सकते हैं, अन्यथा वे अनियमित गतिशीलता अपनाकर स्वयं नष्ट होने एवं दूसरों को नष्ट करने जैसी दुर्घटनाएँ ही उपस्थित कर सकते है।
एकांगी प्रगति असंतुलन उत्पन्न करती है। एक पहिए की गाड़ी और अर्द्धांग पक्षाघात से पीड़ित काया कितनी ही मूल्यवान क्यों न हो अन्ततः भारभूत ही सिद्ध होती है। एक पैर मोटा, एक पतला होना सुन्दरता और गतिशीलता में बाधक ही होता है। फूला हुआ पेट, घेंघें का गला, सूजा हुआ चेहरा, रसौली या फोड़ा होने पर वे अंग अपेक्षाकृत उठे, उभरे दिखाई पड़ते हैं, तो भी उस असन्तुलन को न शुभ माना जाता है, न सुविधाजनक। जीवन एकांगी नहीं है। उसके दो पक्ष है, एक शरीर अर्थात् भौतिक, दूसरा प्राण अर्थात् चेतन, दोनों का सम्मिलित ढाँचा जब तक सुसंतुलित बना रहता है तभी तक जीवनचर्या चलती है। एक के विलग हो जाने पर दूसरा अपंग, असमर्थ ही नहीं, परिहार्य ही हो जाता है। प्राणरहित शरीर तो तेजी से सड़ता है, शरीररहित प्राण भूत-पलीत जैसी विचित्र स्थिति में जा पहुँचता है। भौतिक प्रगति को लक्ष्मी कहा गया है, पर नारायण के आदर्श के साथ रहने में ही उसकी शोभा है। ऋद्धि-सिद्धि के युग्म में भौतिक और आत्मिक प्रगति का सहसंतुलन ही प्रतिपादित किया गया है-उमा-महेश शची- पुरंदर, सीता-राम राधेश्याम आदि युग्मों में प्रगति की उभयपक्षीय आवश्यकता का ही प्रतिपादन है। साधन रहित सद्भावना और सद्भावरहित साधन की स्थिति अवांछनीय ही मानी जाती है।
पिछले दिनों बुद्धिवाद और प्रत्यक्षवाद ने जीवन के भौतिकपक्ष को ही तत्त्वदर्शन के आधार पर प्रतिपादित हो सकने वाली उत्कृष्टता को काल्पनिक कहकर अमान्य ठहरा दिया है। फलतः आदर्शवादिता का नियंत्रण लोकमानस पर से उठ गया। अनियंत्रित पशु- प्रवृत्तियाँ समर्थ होने की स्थिति में कितनी उच्छृंखल एवं घातक होती हैं, इसका अनुमान मदोन्मत्त हाथी, नरभक्षी, व्याघ्र, श्मशान के पिशाच, जलाशय के मगर द्वारा किए जाने वाले विनाश को देखकर सहज ही लगाया जा सकता है। छुट्टल पशु हरी-भरी फसल को चरकर समाप्त कर देते है। अराजकता दुष्परिणाम का जो अनुमान लगा सकते है, उन्हें यह भी जानना चाहिए कि चेतना पर से आदर्शवादिता का अंकुश हट जाने पर जो परिस्थिति उत्पन्न होती है, उसे सर्वनाशी दावानल से कम विघातक नहीं माना जा सकता। शत्रुदेश के आक्रमण, गृहयुद्ध, दुर्भिक्ष, महामारी आदि विपत्तियों से जूझने के लिए अवसर आने पर अथवा उससे पहले ही जो सतर्क सक्रियता अपनानी होती है, उससे कम नहीं अधिक ही सावधानी चिन्तनक्षेत्र पर आधिपत्य जमाने वाले स्वेच्छाचार के प्रति बरती जानी चाहिए।
पिछली पीढ़ी प्रत्यक्षवादी अदूरदर्शिता के आतुर आवेश में मात्र भौतिक प्रगति पर ही अपनी सक्रियता नियोजित किए रही है, जबकि उससे भी अधिक प्रयास चेतना को सुसंस्कृत बनाने के लिए किया जाना चाहिए था। शरीर से प्राण का मूल्य और महत्व अधिक है। उसी प्रकार समृद्धि से संस्कृति की गरिमा अपेक्षाकृत अधिक समझी जानी चाहिए। इस संदर्भ में जो असंतुलन बरता गया, एकांगी दृष्टिकोण को अपनाया गया, उसी की प्रतिक्रिया आज अनेकानेक संकटों और विग्रहों के रूप में सामने प्रस्तुत है। जिस तत्परता से समृद्धि-संवर्द्धन का प्रयास किया गया, उसी तन्मयता से सद्भाव उन्नयन के लिए प्रबल प्रयास होने चाहिए थे। शरीर से आत्मा का महत्व अधिक है। इसलिए समृद्धि की तुलना में संस्कृति को प्रमुखता मिलनी चाहिए थी और उसी अनुपात से लोकमानस को उत्कृष्टता से भरा-पूरा रखने वाले प्रयास चलने चाहिए थे। वर्षा का पानी नाला न मिलने पर भयंकर बाढ़ के रूप में विनाशलीला उत्पन्न करता है। इसी का दृश्य हम सब अपनी आँखों से प्रत्यक्ष देखते हैं।
भूल के परिमार्जन का ठीक यही समय है। मानवी दूरदर्शिता से शान्तचित्त से विचार करना चाहिए कि क्या पिछली भूल का परिमार्जन करने के लिए अब कुछ नहीं हो सकता? मानवी प्रखरता को समझने वाले यह भली प्रकार जानते है कि जिस भी दिशा में आकांक्षा और तत्परता का विनियोग होता है, उसी दिशा में तूफानी प्रगति होने लगती है। आज के साधन जहाँ विनाश का पथ प्रशस्त करते हैं वहाँ उनमें यह क्षमता भी विद्यमान है कि विकास के साँस्कृतिक पुनरुत्थान की दिशा में भी चमत्कारी सत्परिणाम प्रस्तुत कर सकें। प्रेस, लाउडस्पीकर, चलचित्र जैसे कितने ही उपयोगी यन्त्र ऐसे निकल पड़े हैं, जिनकी सहायता से चिंतन को परिष्कृत करने की दिशा में कई प्रचारात्मक कार्य आसानी से सम्पन्न हो सकते हैं। युगसाहित्य का निर्माण और प्रसारण एक कार्य है और ज्ञान-गोष्ठियों के माध्यम से मनीषियों द्वारा शिक्षण दूसरा। रचनात्मक और सुधारात्मक गतिविधियों की सुगठित रूपरेखा बनाकर उनमें असंख्यों सद्भाव सम्पन्नों की श्रम-साधना नियोजन की जा सकती है। समृद्धि-संवर्द्धन के लिए जिस प्रकार सोचा जाता रहा है, जिस प्रकार उसमें साधन, श्रम तथा मनोयोग का नियोजन होता रहा है, उसी तन्मयता तथा तत्परता से यह भावनात्मक उत्कृष्टता बढ़ाने के लिए सक्रियता अपनाई जाएगी, तो कोई कारण नहीं कि प्रयत्न असफल चले जाएँ। असफलता का एक ही प्रमुख कारण है, उपयुक्त तन्मयता तथा अभिरुचि एवं प्रयत्नशीलता का अभाव। इसे यदि दूर किया जा सके, तो प्रगति किसी भी क्षेत्र में हो सकती है, भले ही वह उत्कृष्टता-संवर्द्धन के लिए ही नियोजन क्यों न की गई हो?
यहाँ स्मरण रखने योग्य तथ्य यह है कि जिस क्षेत्र में दृष्टिकोण की उत्कृष्टता उत्पन्न होती है वह न तो शरीर है और न मस्तिष्क। शरीर को सैनिकों, नर्तकों, श्रमिकों, बालचारों की तरह कुछ अभ्यास करा दिए जाए तो उससे काया भर सधेगी। मस्तिष्क को प्रशिक्षित करने के लिए कितनी ही तरह के पाठ्यक्रम चलते हैं। दृश्य दिखाए, अनुभव कराए और प्रसंग सुनाए जाते हैं। साहित्य पढ़ने और प्रवचन सुनने का भी क्रम चलता रहता है, उससे जानकारी भर बढ़ती है। आस्थाओं के परिष्कार में कोई खास सहायता नहीं मिलती। नीतिशास्त्र, समाजशास्त्र, नागरिकशास्त्र आदि पढ़ाने वाले अध्यापकों तक का निजी जीवन जब उच्चस्तरीय न बन सका, आदर्शवादिता पर आये दिन लिखते रहने वाले लेखकों तक का स्तर जब सामान्य लोगों से अधिक ऊँचा न उठ सका,कथा - प्रवचनों में संलग्न रहने वाले पुरोहितों तक को जब प्रतिपादन के अनुरूप आचरण करते न पाया जा सका,तो यही मानना पड़ेगा कि मस्तिष्कीय शिक्षा मात्र जानकारी बढ़ाती है। उसका सीधा प्रभाव उस मर्मस्थल तक नहीं पहुँच पाता,जहाँ उच्चस्तरीय आस्थाओं का उत्पादन और उत्थान होता है। यदि व्यक्तियों के मूल आधार - दृष्टिकोण को परिष्कृत - परिमार्जित करना हो तो फिर निश्चय ही पुनर्निर्माण का कार्यक्षेत्र अन्तः करण को मानकर चलना होगा। तब उन आधारों को अपनाना होगा,जो उच्चस्तरीय आस्थाएँ उत्पन्न करने में काम आते और सफल होते रहे है।
आस्थाओं के क्षेत्र को स्पर्श करने वाला एक ही माध्यम है, अध्यात्म - अध्यात्म के चिन्तन को तत्त्वदर्शन और व्यवहार को धर्म कहते हैं। दोनों को मिलाने से ही समग्र अध्यात्म बनाता है। तत्त्वदर्शन को हृदयंगम करने की पद्धति को योग और व्यवहार में उच्चस्तर का समावेश करने का नाम तप कहा जाता है। तप को साधना और योग को ब्रह्मविद्या कहते हैं। आस्तिकता-आध्यात्मिकता और धार्मिकता की त्रिवेणी मिलने से वह त्रिवेणी बनती है, जिसमें स्नान करने पर रामायण में प्रतिपादित ‘काक होहि पिक-बकहु मराला’ का भावनात्मक कायाकल्प सम्भव होता है।
यों चिन्तन के माध्यम से ही आस्थाएँ जगाई जाती है, पर वह उथला नहीं गहरा होता है। तर्क का समावेश तो रहता है, पर साथ में श्रद्धा भी जुड़ी रहती है। शुष्क तर्क बुद्धि -विलास है। बहस के लिए ही बहस करने वाले, मस्तिष्क से चतुर वकीलों की तरह वह प्रतिपादन करते चले जाते है, जिन पर उनकी आस्था तनिक भी नहीं है। सच्चे को फँसाने और झूठे को छुड़ाने के लिए वे वकील भी प्रभावी बहस करते देखे गये है, जो वस्तु -स्थिति को ठीक तरह समझते है। इसलिए मस्तिष्क को माध्यम को माध्यम मानते हुए उन आस्थाओं को उच्चस्तरीय बनाने के लिए पर्याप्त नहीं माना जा सकता। इसके लिए एक ही अवलम्बन है- अध्यात्म।अध्यात्म का प्राण है ऋतम्भरा -प्रज्ञा में विवेक और श्रद्धा इन दो तत्त्वों का समन्वय होता है। विवेक अर्थात् दूरदर्शिता,श्रद्धा अर्थात् उच्चस्तरीय आस्थाओं में उल्लास भरी सघन अभिरुचि। यह भाव - संवेदनाएँ जिन चिन्तन और जिस अभ्यास से उभारी जाती है उसे ऋतम्भरा -प्रज्ञा कहते है। संक्षेप में इसी को प्रज्ञा कहा गया है। गायत्री मंत्र की अन्तरात्मा को प्रज्ञा की प्रेरणा माना गया है। प्रज्ञा जीवन्त तभी होती है जब उसमें प्रेरणा देने प्रवाह उत्पन्न करने की क्षमता हो। गायत्री महामंत्र में यही सब कुछ है। उसके चौबीस बीजाक्षरों में मान्यताओं, संवेदनाओं और प्रेरणाओं का सुनियोजित तारतम्य विद्यमान है। युगपरिवर्तन के लिए लोकमानस को उच्चस्तरीय बनाने के लिए इस एक महामंत्र के अतिरिक्त और कोई ऐसा कारगर उपाय नहीं खोजा जा सका, जो मनुष्यों में देवोपम आस्थाएँ जगाने-प्रेरणाएँ उभारने और सक्रियता अपनाने के लिए अभीष्ट लक्ष्य तक खींचता-घसीटता चला जाए।
सामयिक विकृतियों से निपटने और उज्ज्वल भविष्य का सृजन करने के उभयपक्षीय प्रयोजन जिस एक ही युगान्तरीय चेतना से सम्भव होने जा रहे है उसी के उदय-उद्भव का नाम है, प्रज्ञावतरण। इन दिनों इसी का उषाकाल है। अरुणोदय सन्निकट है। नवप्रभात की संभावनाएँ प्रकट ओर प्रत्यक्ष होती जा रही है। विकृतियों की तमिस्रा का निराकरण और गतिशीलता उत्पन्न करने की ऊर्जा का संवर्द्धन जिस युगप्रभात में होने जा रहा है उसी को अपने समय का अवतार कहना चाहिए। सामान्य मानवी-प्रयास इतने बड़े अभियान में कम न पड़ जाएँ इसलिए महाकाल की युग-चेतना का सूक्ष्मजगत में विशिष्ट प्रादुर्भाव हो रहा है। प्रज्ञावतार का विशिष्ट प्रादुर्भाव हो रहा है। प्रज्ञावतार का आलोक युग-समस्याओं के समाधान की महती भूमिका सम्पादित कर सकेगा इस पर विश्वास कर के ठोस कारण सामने ही विद्यमान है।