Magazine - Year 1998 - Version 2
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Language: HINDI
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सृष्टिक्रम में स्रष्टा की अवतरण- प्रक्रिया
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सृष्टिक्रम में सृजन और उत्थान के तत्व प्रधान है। कृषि कर्म में भूमि शोधन बीजवपन,हरीतिमा का विस्तार पुष्प की शोभा और फलों की सम्पदा का वैभव भी अधिक समय तक दृष्टिगोचर होता है। इतने पर भी वह स्थिति न तो निर्वाध गति से चलती है और न स्थिर रहती है। कृमि कीटक और पशु उस हरीतिमा को नष्ट करने में कमी नहीं रहने देते। ऋतुप्रभाव भी कई बार इस उत्पादन में अवरोध उत्पन्न करता है। अन्ततः एक समय ऐसा आता है। जब पकी फसल सूखती और अपनी जीवनलीला समाप्त करती हैं। उत्पादन का क्रम चक्र चलते रहने के लिये आवश्यक है कि उत्थान के बाद पतन और पतन के बाद उत्थान का क्रम जारी रहे। सूर्य का उदय अस्त प्राणियों का जन्म मरण इस सुनिश्चित साक्षी देते रहते है।
सृष्टि की सुव्यवस्था और सुन्दरता देखने ही योग्य है। प्रगतिक्रम का एक इतिहास है जिसमें नये अध्याय का अन्त नहीं। पतन और पराभव के तत्व अपना काम करते है और प्राणियों की सुरक्षा के लिये अधिक जागरूक रहने की प्रेरणा देते है। जीवनप्रवाह का एक सिरा है जन्म दूसरा मरण। गतिचक्र इसी प्रकार बनता है। विस्तार सीधा चलता रहे उतना स्थान इस ब्रह्माण्ड में नहीं है। इसलिये उसे चक्रगति से परिभ्रमण करने के लिये बाधित किया गया है। पहिये नीचे जाते और ऊपर उठते हैं। सृष्टिक्रम में भी यही होता है। शैशव, किशोरावस्था,यौवन पूर्ण होते होते जराजीर्णता का आना आरम्भ हो जाता है और अन्ततः मरण के अतिरिक्त और कोई समाधान रह नहीं जाता हैं यह मरण भी अन्तिम नहीं है। समापन के दिन से ही नव जीवन की भूमिका आरम्भ हो जाती है। मृतक को नवीन जन्म मिलता। असमर्थ वयोवृद्ध के सामने मरण की निराशा रहती तो है पर उससे अगला कदम अभिनव शैशव के रूप में दूरदर्शी ज्ञानचक्षुषः आसानी से देख सकते है। निराशा की सघन तमिस्रा को प्रत्यक्ष देखते हुये भी उषा द्वारा नवीन अरुणोदय का आश्वासन हर आस्थावान् को उपलब्ध हो सकता है।
मनुष्य को मनः स्थिति के समष्टि प्रवाह में ही उत्थान पतन के पन्ने पलटते रहते है। सृजन प्रधान है उत्कर्ष तथ्य हैं। शालीनता के साथ व्यवस्था जुड़ी विस्तृत है। यही सुनिश्चित है। इतने पर भी पतन और पराभव से छुटकारा नहीं। घुन छोटा होता है, चिनगारी छोटी होती है और विषाणुओं की सत्ता भी नगण्य है, फिर भी वे चुपके चुपके इतना कर गुजरते है कि मरण अथवा उसके समतुल्य संकट का सामना करना पड़ता है। विश्व के इतिहास में ऐसी संकट की घड़ियाँ अनेक बार आई है, जिनमें विनाश के घटाटोप बादल छाये ही नहीं, भयानक रूप से गरजे और सब कुछ डुबा देने की चुनौती लेकर मूसलाधार बरसे हैं। इसी आशंका ने जन जन को भयाक्रान्त किया है कि विपत्ति का प्रभाव सर्वनाश करके ही छोड़ेगा।
यह सब होते हुये भी स्रष्टा अपनी इस अद्भुत कलाकृति विश्व वसुधा को मानवीसत्ता को सुरम्यवाटिका को विनाश के गर्त में गिरने से पूर्व सजाता और अपनी सक्रियता का परिचय देता है और परिस्थितियों को उलटने का चमत्कार उत्पन्न करता है। यही अवतार है संकट के सामान्य स्तर से तो मनुष्य ही निपट लेते है। पर जब असामान्य स्तर की विपन्नता उत्पन्न हो जाती है तो स्रष्टा को स्वयं ही अपने आयुध संभालने पड़ते है। उत्थान के साधन जुटाना भी कठिन है, पर पतन के गर्त में द्रुतगति से गिरने वाले लोकमानस को उलट देना अति कठिन है। इस कठिन कार्य को स्रष्टा ने समय समय पर स्वयं ही सम्पन्न किया है।
शरीर में हरी घड़ी विषाक्तता उत्पन्न होती रहती है और उसकी सफाई का व्यवस्था-क्रम भी स्वसंचालित रीति से चलता रहता है। कोशिकाओं का मरण आहार का परिशोधन गतिक्रम में अवरोध बाह्य आघात जैसे अनेकों कारण कायसत्ता के अन्तः क्षेत्र में विकृतियाँ उत्पन्न करते हैं। प्रकृति ने इनकी परिशोधन पद्धति का भी काया के साथ साथ ही निर्माण किया है। मलमूत्र, स्वेद, कफ, श्वास आदि के माध्यम से अनुपयुक्त का निष्कासन होता रहता है। रक्त के श्वेतकण बाहर से आने वाले विषाणुओं से जूझने और उन्हें परास्त करने में निरन्तर अपना प्रयास सजग प्रहरी की तरह जारी रखते है। थकान की क्षतिपूर्ति विश्राम से होती रहती है।
यह विश्व भी विराट ब्रह्म का शरीर है। इसमें भी पिण्ड काया की जैसी व्यवस्था काम करती है। प्रकृति का सृजन और विगति का विसर्जन, निर्माण और ध्वंस की आँखमिचौनी खेलते रहते है।
इसी को अनवरत क्रम से चलने वाला देवासुर संग्राम कहते है। ईसाई मुसलिम धर्मों में इसी को शैतान भगवान की प्रतिद्वंद्विता कहा जाता है। मन का स्वभाव पानी की तरह नीचे की ओर चलना है। मनुष्य शरीर मिलने पर भी निम्न योनियों के संग्रहित कुसंस्कार अपनी जड़ जमाये बैठे रहते है। मानवी मर्यादाओं का धर्म अध्यात्म कानून,व्यवस्था सुप्रचलन आदि के द्वारा उद्बोधन उत्तेजन होता रहता है फिर भी कुसंस्कारिता अपनी करतूत करती ही रहती है। अनगढ़ व्यक्तियों के चिन्तन में भ्रष्टता ओर चरित्र में दुष्टता का बाहुल्य रहता ही है। सज्जन प्रकृति के लोग भी यदा कदा अवांछनीयता की कीचड़ में फिसलते देखे गये है। इस अनुपयुक्तता से जूझना भी उतना ही आवश्यक है जितना कि सृजन के साधन जुटाना।
घर में भोजनालय की तरह ही शौचालय की व्यवस्था करनी पड़ती है और रसोईदारिन की तरह ही महतरानी की भी आवश्यकता रहती है। उपार्जन के साथ साथ ही सुरक्षा की योजना बनानी पड़ती है। भण्डारी की तरह चौकी दार का भी दर्जा है। अगरबत्ती जलाकर सुगंध बिखेरने की ही तरह नाली में फिनायल छिड़कने की भी आवश्यकता रहती है। किसान बीज बोने के बाद पानी की व्यवस्था जुटाने की तरह ही वन्यपशुओं और कृमि कीटकों से फसल को बचाने का भी प्रबन्ध करता हैं माली के श्रम की सार्थकता फलों को पक्षियों से बचाने का प्रबंध किये बिना हो नहीं सकती। सरकारें शिक्षा, चिकित्सा परिवहन सिंचाई बिजली उद्योग आदि के अभिवर्द्धन में जितना ध्यान देती है लगभग उतना ही व्यय उन्हें पुलिस जेल कचहरी, सेना, शस्त्रनिर्माण आदि पर करना पड़ता है। मात्र सृजन ही अभीष्ट नहीं, ध्वंस का अवरोध भी एक तथ्य है। जिसकी ओर से आँख मींच सकना न कायसत्ता के लिये न विश्व व्यवस्था के लिये न व्यक्त के लिये और न समाज के लिये संभव होता है। उपार्जन एवं सृजन की कितनी ही महत्ता क्यों न हो, उसकी अपूर्णता तब तक बनी ही रहेगी जब तक विनाश के विघातक तत्वों से निपटने का प्रबंध ने किया जाय। मानवी और दैवी व्यवस्था-क्रम में दोनों का ही समुचित समावेश पाया जाता है इस क्रम जब भी असंतुलन पड़ता है तभी विषम परिस्थितियाँ उत्पन्न होती है और विडम्बनाओं का सामना करना होता हैं
उपयोगी का अभिवर्द्धन करने के लिये सृजन के तत्व गतिशील रहते है। उन्हीं के पुरुषार्थ से भौतिक और आत्मिक जगत् में समृद्धि और संस्कृति की सुषमा हरीतिमा इस विश्व वसुधा पर दृष्टिगोचर होती है। साथ ही निकृष्टता की विनाशलीला को निरस्त करने के लिये प्रखर पराक्रम भी अपना जहर दिखाता रहता है। शौर्य और साहस इसी का नाम है। श्रेष्ठता के संवर्द्धन और निकृष्टता के उन्मूलन में नियोजित मानवी प्रखरता को ही त्याग बलिदान कहते है। इतिहास में ऐसे ही वीर पुरुषों का यशगान है। धर्मग्रन्थों के ऋषि प्रायः सृजनकृत्य में संलग्न रहे हैं, उन्होंने सर्वतोमुखी प्रगति के महत्वपूर्ण आधार खड़े किये हैं। साधु और ब्राह्मण की परम्परा इन्हीं पुण्य प्रयोजनों में गतिशील रही है। वीर बलिदानियों का वर्ग क्षत्रिय है। क्षात्रधर्म भी ब्रह्म के समकक्ष ही माना गया है और उसकी शक्ति भी समतुल्य ही आँकी जाती रही हैं। ब्रह्म क्षात्र का समन्वय ही श्रेष्ठता के संवर्द्धन और संरक्षण में समर्थ इकाई बनकर प्रकट होता हैं। एक ही केन्द्र से दोनों प्रवृत्तियाँ चलें या दो उद्गमों से निकलकर एक लक्ष्य तक पहुँचें यह परिस्थितियों पर आधारित है किन्तु पूर्णता समग्रता बनती तभी है जब सृजन का अभिवर्द्धन और ध्वंस का उन्मूलन सन्तुलित गति से अपना आधार सुदृढ़ बनाये रख सके।
शास्त्र और शस्त्र का समन्वय करने वाले तत्वों और व्यक्तित्वों ने ही सृष्टि के प्रगतिक्रम को आगे बढ़ाया है। उन्हीं ने ध्वंस की चुनौती से वसुधा की सौंदर्य सुषमा को सुरक्षित रखा है। ऋषि परम्परा में द्रोणाचार्य,परशुराम भीष्म, विश्वामित्र आदि के अनेकानेक उदाहरण ऐसे है जो उभयपक्षीय भूमिका निभाते रहते है। शास्त्र का समान उपयोग करते रहते हैं। होता ऐसा भी रहा है कि दोनों उद्गम स्वतन्त्र इकाई बनकर रहें और आवश्यकतानुसार उपयुक्त मात्रा से तालमेल बिठाकर काम करें। धर्मतन्त्र और राजतन्त्र की दो ध्वजाओं के नीचे दो आधार पृथक् पृथक् भी एकत्रित होते रहे है और पारस्परिक सहयोग से समृद्धि और प्रगति की सुख शान्ति का ढाँचा खड़ा करते रहे हैं।
कायसत्ता की तरह विश्वसत्ता में भी औचित्य का संवर्द्धन और अनौचित्य का उन्मूलनक्रम रथ के दो पहियों की तरह सहयोगपूर्वक चलता है। यह सुव्यवस्था जब तक सही रूप में बनी रहती है तब तक प्रगतिक्रम सुनियोजित गति से चलता और सुख शान्ति का वातावरण बनता रहता है। किन्तु जब असन्तुलन उत्पन्न होता है अथवा सामंजस्य लड़खड़ाता है, तो संकट की घटाएँ घुमड़ने लगती हैं। जन जीवन में सृजन की चेतना उच्चस्तरीय रहनी आवश्यक है। धर्म और अध्यात्म का तत्त्वदर्शन इसी की भावनात्मक पृष्ठभूमि खड़ी करता है। सन्त और सृजेता अपनी प्रवृत्तियाँ इस प्रयोजन में नियोजित रखते हैं, साथ ही प्रखरता का पराक्रम निकृष्टता को निरस्त करने में अपने शौर्य साहस का परिचय देता है। शान्ति और सुव्यवस्था की गारण्टी इन दोनों की समर्थता और सहकारिता पर ही निर्भर रहती है।
यह हुआ सृष्टि की सुव्यवस्था का सन्तुलित प्रगतिक्रम साथ ही असन्तुलन की अव्यवस्था भी दृष्टव्य हैं। जब सृजन के तत्व दुर्बल पड़ जाते है, तो आत्मिक क्षेत्र में अज्ञान और भौतिक क्षेत्र में दारिद्रय की विभीषिकाएँ सिर उठाने लगती है। इसी प्रकार पतन से जूझने वाली प्रखरता अपनी वरिष्ठता भूलकर ललक लिप्सा के गर्त में गिरने लगती है तो निकृष्टता को अपनी विनाशलीला रचने के लिये खुला क्षेत्र मिल जाता है। सृजन कर शिथिलता और विनाश की स्वच्छन्दता का असन्तुलन ही व्यक्ति और समाज के सम्मुख अनेकानेक विपत्तियाँ खड़ी करता है। समस्यायें और कठिनाइयाँ इसी स्थिति में आँधी तूफान की तरह उठाती है। सर्वनाशी विभीषिकाओं का आधारभूत कारण यह असन्तुलन ही है जिससे देवपक्ष दुर्बल पड़ता है और दैत्य को स्वच्छन्द रहने का अवसर मिलता है।
काया में दुर्बलता रुग्णता और अकालमृत्यु जैसे संकट तभी खड़े होते जब पोषण घटता और मालिन्य बढ़ता है। मानसिक तेजस्विता का व्यक्तित्व की उत्कृष्टता का हास भी इसी आधार पर होता है कि चिन्तन और चरित्र में से आदर्शवादिता घटती और दुर्बुद्धिजन्य दुश्चरित्रता बढ़ती जाती हैं। व्यक्ति के पतन -पराभव का एकमात्र कारण यही है। समाज का उत्थान पतन भी इसी तथ्य पर आधारित है। सृष्टि का चिरपुरातन इतिहास साक्षी है कि संकट असाधारण रूप से जब कभी जहाँ कहाँ उभरे है वहाँ सृजन की दुर्बलता और कहाँ उभरे है वहाँ सृजन की दुर्बलता और ध्वंस की बलिष्ठता को भी नाना आकार प्रकार के संकटों को बनाते उभारते देखा जा सकता है।
सृजन की सत्प्रवृत्तियाँ सनातन हैं। वे अपना काम करती ही रहती है। परिस्थितिवश दुर्बल तो पड़ती है पर पूर्णतया नष्ट नहीं होती। लंका में असुरों का बाहुल्य था फिर भी विभीषण और मन्दोदरी न केवल अपनी वरिष्ठता बनाये रहे वरन् अनीति के प्रतिरोध अधिक सम्भव न होने पर भी असहयोग और विरोध तो करते ही रहे। सन्त सुधारक और शहीद तथा श्रेष्ठता के समर्थन और निकृष्टता के उन्मूलन में भी अपनी क्षमता और परिस्थितियों की विषमता के साथ तालमेल बिठाकर कुछ योजना बनाते और प्रयास करते है। यह सामान्यक्रम हलके भारी रूप में चलता ही रहता है किन्तु कभी कभी स्थिति बहुत विषम हो जाती हैं सामान्य प्रयासों से न सृजन की बढ़ी चढ़ी आवश्यकता पूरी होती है और न ध्वंस की विनाशलीला पर नियन्त्रण बन पड़ता है। आतंक को तमिस्रा घनी होती जाती है। ओर निराशा भरी परिस्थितियाँ मानवी पुरुषार्थ को हतप्रभ बना देती है। लगता है परिस्थितियाँ बेकाबू हो गई है। और पतन और उत्थान में बदल सकने वाली प्रखरता मनुष्य के हाथ से छिन गयी। यह असमंजस यदि देर तक ऐसा ही बना रहे। तो ध्वंस ही जीतेगा। विनाश हो नग्ननृत्य करेगा।
ऐसे ही अवसरों पर स्रष्टा का वह आश्वासन अवतरित होता है, जिसमें उसने अपने सुरम्य उद्यान को विनाश के गर्त में गिरने से पूर्व ही बचाते रहने का सुनिश्चित विश्वास दिलाया है। यदा यदा हि धर्मस्य ...........वाली प्रतिज्ञा गीताकार ने अर्जुन के सम्मुख ही प्रकट नहीं की है वरन् इस आश्वासन का शास्त्रों और आप्तवचनों में अनादिकाल से अनवरत उल्लेख होता रहा है। न केवल उल्लेख वरन् उसके प्रकटीकरण का प्रमाण भी समय समय पर उपलब्ध होता रहा है। दिव्यसत्ता का अवतरण ऐसे ही अवसरों पर होता है। अवतार ऐसी ही विषम परिस्थितियों प्रकट होते है। मनुष्य का पौरुष जहाँ लड़खड़ाता है वहाँ गिरने से पूर्व ही सृजेता के लम्बे हाथ असन्तुलन को सन्तुलन में बदलने के लिये अपना चमत्कार प्रस्तुत करते दिखाई पड़ते है। यहीं है स्रष्टा का लीला अवतरण प्रकटीकरण।
सृष्टि के आदि से लेकर अब तक अनेक बार अनेक क्षेत्रों में अनेक विषमताओं को निरस्त करने के लिये ऐसे अवतरण होते रहे है। भूतकाल में विश्व बिखरा हुआ था। यातायात के साधनों में न्यूनता रहने से एक दुनिया छोटी छोटी अनेक दुनियाओं में बंटी हुई थी। इसलिये विषमताएँ भी क्षेत्रविशेष की स्थानीय परिस्थितियों की होती थी। विश्वव्यापी कोई संकट प्रायः नहीं ही होता था, इसलिये अवतार भी क्षेत्रीय अवतार भी क्षेत्रीय ही होते थे और उनके सामने लक्ष्य भी उतना ही रहता था जितना कि उन दिनों संकट उत्पन्न करने के लिये उत्तरदायी था भारतवर्ष में हिन्दू धर्म के अंतर्गत 24 अवतार गिनाये जाते है। जैन धर्म के 24 तीर्थंकर इनके अतिरिक्त है। सिक्खों के दस गुरु भी उसी श्रेणी के गिने जाते है। अन्याय सम्प्रदायों में भी अपने प्रवर्तकों एवं ऋषि देवताओं का पृथक् पृथक् उल्लेख है। हिन्दू धर्म की शाखा प्रशाखाओं के अंतर्गत जिन्हें अवतार स्तर की मान्यता मिली है उसकी गणना हजारों हो जाती है फिर भारत से बाहर अन्य देशों एवं धर्मों की गाथाओं में अपने अपने अवतारों का अलग से वर्णन है। ईसाई मुसलिम पारसी यहूदी आदि धर्मावलम्बी भी अपने अवतारों की गणना अलग से करते हैं। वे हिन्दू धर्मानुयायियों की गणना से भिन्न हैं।
मात्र धार्मिकता का क्षेत्र ही एक मानवी आवश्यकताओं एवं समस्याओं का क्षेत्र नहीं है। उसके बाहर भी बहुत कुछ है। उन क्षेत्रों में भी समस्याओं का समाधान करने वाली शक्तियाँ भी अनेक महामानवों के रूप प्रकट होती रही हैं। दर्शन विज्ञान शिक्षा चिकित्सा जैसे क्षेत्रों में छाये हुये अन्धकार को प्रकाश में बदलने वाले व्यक्तित्वों को उनसे लाभान्वित होने वाले एवं श्रद्धालु लोग अवतार ही मानते है। दर्शन एवं विज्ञान की महत्वपूर्ण उपलब्धियाँ प्रस्तुत करने वाले महानुभावों को वैसा ही मसीहा माना जाता है जैसा कि धर्मक्षेत्र के लोग पौराणिक अवतारों को श्रद्धास्पद एवं अभिनन्दनीय मानते है।
व्यक्तियों को अवतार मानना होना मात्र धर्मक्षेत्र की विभूतियों को ही नहीं सन्तुलन में सहायक महान को उसी श्रेणी में गिनने पड़ेगा। ऐसी दशा में उनकी संख्या सीमा का निर्धारण सम्भव न रहेगा। साथ ही एक कठिनाई और बनी रहेगी कि उनके स्तर के अनुरूप कनिष्ठ वरिष्ठ का वर्गीकरण भी आवश्यक हो जायेगा। अवतारों का क्षमता और विशिष्टता का मूल्याँकन उनकी कलाओं के मापदण्ड में आँका जाता है। परशुराम जी तीन कला के और रामचन्द्र जी बारह कला के अवतार थे। दोनों एक ही समय में हुये और एक दूसरे के संबंध में यथार्थता से अपरिचित ही बने रहे। मच्छ, कच्छ वाराह आदि की कलाएँ कम थी और क्रमिक विकास के अनुसार बढ़ती चली आई। राम बारह कला के और कृष्ण सोलह कला के अवतार थे। बुद्ध बीस के पूर्ण कला चौसठ मानी जाती है। इस प्रकार अब तक के अवतारों को सामयिक परिस्थितियों के अनुसार जैसा भी पुरुषार्थ करना पड़ता है उसके स्तर और विस्तार को देखते हुये उनका महत्व स्तर और पराक्रम भी बढ़ता रहा हैं।
अपने युग में भगवान की सत्ता प्रज्ञावतार के रूप में प्रकट हो रही है। इसकी कलाएँ चौबीस है। गायत्री के चौबीस अक्षरों में से प्रत्येक को एक कला किरण माना जा सकता है। इन दिव्य धाराओं में बीज रूप से वह सब कुछ विद्यमान है जो मानवी गरिमा को स्थिर एवं समुन्नत बनाने के लिये आवश्यक है। सूर्य के सप्त अश्व, सप्तमुख, सप्तायुध प्रसिद्ध है। सविता की प्राणसत्ता गायत्री की शक्तिधाराएँ इससे अधिक है। गायत्री के चौबीस अक्षरों में साधनपरक सिद्धियाँ और व्यक्तित्वपरक ऋद्धियाँ अनेकानेक है उनका वर्गीकरण चौबीस विभागों में करने से विस्तार का समझने में सुविधा होती हैं। चेतना क्षेत्र में अंतर्गत का परिष्कार और साधन-सुविधाओं का विस्तार यह दोनों ही तथ्य मिलने पर मनुष्य में देवत्व के उदय और समाज में स्वर्णिम परिस्थितियों के विस्तारण की सम्भावना बनती है। प्रज्ञावतार का कार्यक्षेत्र यही है। वह व्यक्ति के रूप में नहीं शक्ति के रूप में प्रकट होगी। जिस व्यक्ति में इस प्रज्ञातत्व की मात्रा जितनी अधिक प्रकट होगी वह युगसृजेताओं की गणना में आ सकेगा और अपने पुरुषार्थ के आधार पर श्रेय प्राप्त कर सकेगा, इतने पर भी परिवर्तन के लिये अवतरित मूलसत्ता निराकार ही रहेगी। चेतना सदा निराकार ही रहती है। व्यक्तियों में घटनाओं के माध्यम से उसके प्रवाह का अनुभव भर किया जा सकता है। पंखा बल्ब मोटर हीटर आदि बिजली से चलते तो है पर वे उपकरण बिजली नहीं है। विद्युत धारक मूलभूत स्वरूप को प्रत्यक्ष नहीं देखा जा सकता उसकी प्रतिक्रिया भर अनुभव की जा सकती है। प्रज्ञावतार का दर्शन भी इसी आधार पर कर सकना सम्भव होगा। उसे किसी व्यक्ति की आकृति में देखा जा सकेगा? हाँ विशिष्ट व्यक्तियों में उसकी ज्योति न्यूनाधिक मात्रा में जलती देखी जा सकेगी। यह ज्योतिपुञ्ज अपनी विशिष्टता का परिचय देते हुये यह प्रमाणित करेगा कि युगपरिवर्तन की ईश्वरीय इच्छा को पूरा करने में वे कितने समर्थ एवं श्रेयाधिकारी बन सके।
अवतार का प्रयोजन डगमगाते सन्तुलन को स्थिर करने के लिये सूक्ष्मजगत में ऐसा भावनात्मक प्रवाह उत्पन्न करता है। जो अपनी प्रेरणा से असंख्य प्राणवानों में नवसृजन के लिये अभीष्ट आवेश उत्पन्न कर सके। धर्म की ग्लानि को ओर दुष्कृतों को उलटकर धर्म की स्थापना एवं साधुता की सुरक्षा का महान प्रयोजन इसी प्रकार सम्पन्न होता रहा है। अपने युग में वह प्रक्रिया इसी क्रम से सम्पन्न होने जा रही है।