Magazine - Year 1998 - Version 2
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Language: HINDI
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अड़सठ तीरथ घट भीतर-(3)
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भगवान की बनाई समस्त कृतियों में मानवी-काया व मस्तिष्क को सबसे विलक्षण माना जाता रहा है। इतने अधिक व विविधतापूर्ण ढंग से बनाई गयी, जीव-जन्तुओं, कृमि -कीटकों, वृक्ष- वनस्पतियों से भरी इस सृष्टि का यों तो हर घट अपने आप में अद्भुत है एवं उस परमसत्ता की विराट व्यवस्था का परिचायक है, फिर भी मनुष्य को देखने, गहराई से समझने के बाद लगता है कि प्रजापति ब्रह्मा ने सर्वाधिक परिश्रम इसी घटक को बनाते समय किया होगा। तभी तो जितनी परत खोलते हैं, कुछ न कुछ नया मिलता चला जाता है। जितने क्रिया-कलापों की समा टटोलने का प्रयास करते हैं, उतना ही क्षितिज और दूर और दूर दिखाई देता है। कोई न कोई तो कारण रहा ही होगा तभी तो मनुष्य को ऐसा बनाया गया और उसे रहस्यों की पिटारी के रूप में प्रस्तुत किया गया। परमपूज्य गुरुदेव जी ने जनवरी 1970 में मनुष्य शरीर जैसी मशीन नहीं’ शीर्षक से लिखे एक लेख में लिखा था कि यह विलक्षण संरचना बाती है कि संसार में कोई अदृश्य किन्तु बुद्धिसंपन्न शक्ति है। अवश्य ही। मनुष्य उसकी बराबरी तो नहीं कर सकता। किन्तु उस चेतना के महासागर में डुबकी लगाकर कुछ तो जानने का प्रयास कर सकता है कि किन उद्देश्यों को स्पष्ट कर हमारे प्रत्येक क्षण को महत्वपूर्ण बना सकता है। विगत दो अंकों से प्रकाशित इस लेखमाला में शरीर के विभिन्न अंगों का आम बोलचाल की भाषा में वर्णन कर उनके वास्तविक स्वरूप व विराटतम संभावनाओं की चर्चा की जा रही है। इस समापन किश्त में मस्तिष्क एवं स्नायुसंस्थान, रक्त से वाजीय द्रव्यों को छानने वाले गुर्दों के रूप में एक समग्र मूत्रवाहीतंत्र तथा हारमोन्स के रूप में शरीर का कायाकल्प करने वाले व प्रजनन-प्रक्रिया के लिये उत्तरदायी महत्वपूर्ण घटकों की चर्चा की जा रही है। जहाँ तक मस्तिष्क का प्रश्न है, इसे यदि पूरे शरीर यन्त्र का एक्जीक्यूटिव डायरेक्टर’ कहा जाय तो कोई अत्युक्ति नहीं होगी कुल दस खरब से अधिक न्यूरॉन्स (स्नायु कोशों ) से यह समग्र मस्तिष्क व उससे संचालित स्नायु संस्थान बना है। फिर भी यह संख्या मात्र मस्तिष्क के अंदर स्थित स्नायुकोशों व सिनेप्सों की है जो कि पूरे संस्थान का मात्र दस प्रतिशत ही है। शेष नब्बे प्रतिशत तो इस दस खरब की संख्या के अतिरिक्त हैं, तरह-तरह के आकृति के हैं व अतिसूक्ष्म बनावट के हैं। कई लोग जब मस्तिष्क व कम्प्यूटर की तुलना करते हैं तो कुछ महत्वपूर्ण तथ्यों को नकार देते हैं। गणितीय गणना, तर्क गति से किये जाने वाले कार्य एवं स्पष्ट प्रामाणिक परिणामों की दृष्टि से कम्प्यूटर मानवी मस्तिष्क से कुछ आगे है, किन्तु इतनी वैज्ञानिक नि-नूतन की प्रगति के बावजूद भी इसमें कुछ ऐसी खूबियाँ नहीं विकसित हो पायीं जो कि मानवी मस्तिष्क में हैं। ये हैं -विभिन्न चेहरों पहचान लेना तथा संवेदनापरक अनुभूतियाँ व उनकी अभिव्यक्तियाँ। कंप्यूटर को संवेदना से न कोई लेना-देना है, न किसी कला-कौशल की तारीफ से। वह तो हरेक का मूल्याँकन गणितीय आधार पर करता है। एक और महत्वपूर्ण पक्ष मानवी जीवन का है, जो कि उसी आध्यात्मिक पहचान बनाता है, उसके धार्मिक रुझान एवं सुसंस्कारिता का परिचायक है। इस सम्बन्ध में वैज्ञानिकों ने शोध के उपरान्त एक निष्कर्ष निकाला है कि मानवी मस्तिष्क के अन्दर एक ऐसा स्थान है, जो उसे भगवान और धर्म में आस्था रखने हेतु प्रेरित करता रहता है। यह नसों के एक सर्किट के रूप में मौजूद है एवं मनुष्य के भगवान के विषय में चिंतन करते ही सक्रिय हो जाता है। मनुष्य के कानों के ऊपर स्थित टैम्पोरल लोब उसके भी दांये हाथ से लिखने वाले के दायें मस्तिष्क में इसकी उपस्थिति बतायी गयी है। इसे आस्था केन्द्र की उपमा देते हुए सेनडियागो स्थित कैलीफोर्निया विश्वविद्यालय के स्नायु वैज्ञानिकों का दल कहता है कि अमूमन यह सेण्टर सभी व्यक्तियों में मौजूद होता है, किसी में कम व किसी में अधिक विकसित। अनुसंधान दल के प्रमुख डॉ. विलयानुर रामचंद्रन भारतीय मूल के हैं एवं उनकी यह रिपोर्ट लंदन के संडे टाइम्स में दिसम्बर के प्रथम सप्ताह में प्रकाशित हुई थी। इससे विश्व भर के तमाम आस्तिकों के विश्वास को बल मिला है। एक प्रश्न और उठता है कि धर्म-कला के प्रति रुचि-भाव परम अनुभूतियों का यदि केन्द्र हर मानवी मस्तिष्क में है तो क्या यह नास्तिकों व नर-पिशाच, नर-पामर स्तर के व्यक्तियों में बिल्कुल भी विकसित नहीं होता या वे अपने किसी और केन्द्र के द्वारा इस पर नियंत्रण स्थापित कर इसे निष्क्रिय कर देते हैं। विचार करने की विस्तृत शोध करने वाली बात है। यह मात एवं पिता का भगवत्सत्ता में विश्वास भी इस केंद्र जगाने -विकसित करने की एक बड़ी महत्वपूर्ण भेमा निभाता है, ऐसा वैज्ञानिकों का मत है।
प्रायः 3 पौंड भार वाला यह अंग वजन या बनावट के आधार पर किसी निहायत बेवकूफ व अति बुद्धिमान में अन्र का कोई पैमाना नहीं बनता। र्लु पाश्चर जिनने विज्ञान के क्षेत्र में नए कीर्तिमान खड़े किये,ो जीवन के मध्यकाल में ही मस्तिष्क में रक्तस्राव के कारण आधे से अधिक भार वाले मस्तिष्क को साथ लेकर जीवन भर जीना पड़ा, किन्तु इससे उनकी कार्यक्षमता-बौद्धिक कौशल पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा। इस प्रकार वजन थोड़ा बहुत कम-ज्यादा भी हो तो भी व्यक्तित्व का विकास एवं बौद्धिक क्षमता इसके माइक्रोस्ट्रक्चर व न्यूरोहारमोन्स की प्रगतिशील स्थिति पर ही निर्भर रहते हैं। जन्म के समय शिशु के पास एक परिपूर्ण विकसित मस्तिष्क होता है। इसमें वृद्धि यों तो प्रारम्भ के बारह वर्षों तक तेजी से व फिर 20 वर्ष की आयु तक सतत् होती रहती है पर वह मात्र मस्तिष्क कोशिकाओं व उनसे जुड़े सम्बन्धित स्नायुसूत्रों में बढ़ोत्तरी के रूप में। मस्तिष्कीय कोषाओं की आकृति में वृद्धि होती रहती है, कोई नई प्रकृति वाला स्नायु कोष जन्म के बाद नए सिरे से जुड़ता नहीं प्रयासस्वरूप जाग्रत अवश्य किया जा सकता है। यह जानने योग्य बात है कि एक समय मात्र सात से तेरह प्रतिशत मस्तिष्क का हिस्सा जाग्रतावस्था में रहता है। प्रायः 94 से 99 प्रतिशत लोगों की यही स्थिति जीवन भर रहती, शेष 87 प्रतिशत हिस्सा अविज्ञात के गर्भ में छिपा रहता है। जो उसे जगा व विकसित कर लेता है, वह प्रतिभासंपन्न-अतीन्द्रिय क्षमताओं से सुशोभित देखा जा सकता है। मस्तिष्क के तीन भाग सुविख्यात हैं- फोरब्रेन, मिब्रेन न व हाइण्टर ब्रेन बोलचाल की भाषा में जिन्हें क्रमशः अग्र, मध्य व पृष्ठ मस्तिष्क कहा जाता है। अग्र मस्तिष्क विकास की दृष्टि से सबसे बाद में विकसित हुआ, किन्तु सर्वाधिक हिस्सा पूरे मस्तिष्क में शेयर करने वाला अंग है। संवेदन तन्तुओं से सन्देशों को ग्रहण करना विचारों स्मृतियों का संग्रह चलाये रखना इसी का काम है। बौद्धिक कला-कौशल इसी क्षेत्र में विद्यमान होता है। बाँया भाग शरीर के दांये हिस्से को एवं दांये भाग शरीर के बाँये हिस्से को विकसित करता है। इसी का एक अंग थेलेमस हमारी एकाग्रता को एवं दूसरा अंग हाइपोथेलेमस हमारी भाव संवेदनाओं,-भूख, प्यास व शरीर को आराम देने वाली चिन्तक चेतना को नियन्त्रित करता है। मध्य मस्तिष्क हर आने वाले संदेश की जाँच पड़ताल करता, परखता व उन्हें फिल्टर करता है। स्पाइनल कार्ड (सुषुम्ना) नाड़ी के माध्यम से पूरे शरीर से आने वाले हर संदेश को सही रूप में ऊपर अग्र मस्तिष्क तक पहुँचना इसी का काम है। जितनी भी स्वचालित प्रक्रियायें हैं, यथा चींटी के काटते ही हाथ का शरीर के उस भाग तक पहुँच जाना, पीठ के दर्द के समय हाथ का उस हिस्से को मलने लगना, आग का स्पर्श होते ही तुरंत हट जाना मूत्र विसर्जन हेतु ब्लैडर से संदेश मिलने पर उसके लिए प्रयासरत होना आदि, ये सभी यही से नियन्त्रित होती हैं। इन्हें आंटोनॉमिक कहा जाता है। शरीर की चेतनावस्था एवं निद्रा-जाग्रत चक्रों का नियन्त्रण भी इसी हिस्से द्वारा होता है। पृष्ठ मस्तिष्क इसके तुरंत पीछे की ओर होता है। शरीर का हिलना-डुलना, चलना-फिरना, संतुलन बनाये रखना यही से संचालित होता है। जितनी भी हमारी दक्षताएं कार्य प्रणाली से सम्बन्धित हैं-उनका एक विराट मेमोरी बैंक यही पर सरेबेलम में स्थित होता है। इस छोटे से भाग में बिना शरीर के विराट घटाकाश में अस्तित्व की कल्पना भी नहीं की जा सकती।
इस विलक्षण संस्थान के बारे में जिसे भानुमती का जादुई पिटारा भी कहा जाता है, इतना कहना ही काफी है कि जितनी कार्य-कुशलतायें मस्तिष्क सम्पन्न करता है, वे यदि किसी कम्प्यूटर से सम्पन्न करायी जाये तो इसे इतना ही बड़ा-विराट बनाना होगा, जितना की हमारी पृथ्वी का आकार है। सोचा जा सकता है कि इस नियन्ता ने कितने परिश्रम व लगन के साथ किस मानवीय-काया व उसमें भी इस संस्थान को, जो कि सारी गतिविधियों का संचालक है, को विनिर्मित किया होगा। मानवीय बुद्धि ससीम है। अतः वह ऐसा निर्माण करने की सोचना तो दूर प्रयास भी आरंभ नहीं कर सकती। कई व्यक्ति शतरंज खेल में विख्यात खिलाड़ियों की कम्प्यूटर से मूठ-भेड़ एवं उसमें कम्प्यूटर की जीत का प्रसंग सुनकर सोचने लगते हैं कि सम्भवतः कम्प्यूटर अब मानवीय मेधा का पर्याय बन सकता है, किन्तु ऐसा है नहीं। उस विधाता की बनाई किसी कृति के एक क्रिया परक पक्ष को आर्टिफिशियल इंटेलीजेन्स, रोबोट आदि के द्वारा किया जा सकता है-उनका प्रदर्शन भी किया जा सकता है, पर उसे हूबहू बनाकर मानव का विकल्प बना पाना नितान्त असंभव है। यही मनुष्य के पुरुषार्थ की सीमा का एवं परमसत्ता की वैविध्यपूर्ण विलक्षणता का परिचय हमें मिलता है। इस संस्थान से शरीर के विभिन्न हिस्सों में संदेश स्नायु-तन्तुओं के द्वारा जाते हैं। इसके गति बड़ा अन्तर देखने को मिलता है। हाथ से किये गये किसी क्रिया-कौशल भरे कार्य की इम्पर्ल्स की गति 25 मील प्रतिघटे होगी, तो एक चुम्बन की प्रतिक्रिया प्रायः 140 मील प्रति घण्टे की रफ्तार से दौड़ती पायी जाती हैं, जितना कष्टदायी दर्द होगा। उतना ही उसके मस्तिष्क तक पहुँचने की गति धीमी होती जायेगी। यहाँ तक 2 मील प्रति घण्टा। इसका मूल कारण यही है कि इस बीच स्थानीय स्तर पर ऊतकों की मरम्मत का अवसर मिल जाये एवं अनावश्यक रूप से शरीर का व्यवस्था-तंत्र मस्तिष्क के स्तर पर विचलित न हो। कितनी विलक्षण व्यवस्था शरीर के एक-एक घटक है? इसी पर आश्चर्यचकित होकर यदि ऋषि कह बैठते हैं-“ आश्चर्यवत् पश्यति कश्चिदेनम्-तो किसी को इस उक्ति पर कोई असमंजस नहीं होना चाहिए।
मस्तिष्क में उत्सर्जित होने वाले रस स्रावों व किसी के भी व्यक्तित्व को चलाने हेतु उत्तरदायी शरीर व्यापी हारमोन की संक्षिप्त चर्चा के पूर्व शरीर के और महत्वपूर्ण घटक गुर्दों (किडनीज़) की चर्चा कर ली जाय। वह भी इसलिए कि ये होते तो पेट में है, किन्तु अपना प्रभाव मस्तिष्क से लेकर समय स्नायु संस्थान रक्तवाही संस्थान, हार्मोन्स, हृदय एवं चयापचय के लिए जिम्मेदार अंगों पर बड़ा गहरा डालते हैं। हार्मोन्स एवं गुर्दों का परस्पर बड़ा सघन सम्बन्ध है।
गुर्दों का शरीर का रिसायकलिंग संस्थान कहा जाय तो कोई अत्युक्ति नहीं होगी। गुर्दे शरीर में से उन सभी बाय प्रोडक्टस को हटा देते हैं, जो शरीर में रहते तो सम्भवतः हानिकारक हो सकते थे। डेढ़ लीटर पानी शरीर में पहुंचना प्रतिदिन जरूरी है, ताकि गुर्दे यह कार्य कर सकें। रक्त का अम्लीय-क्षारीय स्तर समान रूप से बनाये रखना गुर्दों का सबसे प्रमुख कार्य है। लगभग 2 लीटर रक्त प्रति मिनट गुर्दों में सतत् प्रतिक्षण जीवन भर पहुँचता व क्षन कर आगे बढ़ता रहता है। रिनल आर्टरी से आकर यह रक्त रिनेल वेन से वापस रक्त वाही संस्थान में पहुँच जाता है। यह रक्त मात्र 5 मिनट में पूरे शरीर का चक्कर लगाकर गुर्दों में पुनः पहुँच जाता है। एवं यह चक्र अनवरत चलता रहता है। इस परिवहन व छनने की क्रिया का परिणाम ही है कि प्रायः 60 ग्राम (2 औंन्स) ठोस पदार्थ मूत्र में घुलकर शरीर से बाहर प्रतिदिन निकाल दिये जाते हैं। इस प्रकार पिये गये जल से मूत्र का घनत्व अधिक होता है। इस छानने की क्रिया के लिए 4 ग् 2.5 इंच के आकार की गुर्दों में प्रमुख भूमिका छोटी-छोटी इकाइयाँ निभाती हैं। इन इकाइयों को जिन्हें ग्लोमरयुलर फिलेट्रेशन यूनिट (नेफ्रान) कहते हैं, जिनकी संख्या पाँच से दस लाख के बीच होती है, को यदि सिरे से सिरे मिलाकर फैलाया जाय तो एक व्यक्ति के गुर्दे से ही 50 मील लम्बी दूरी तक को घेरा जा सकता है और भी सूक्ष्मता की ओर चले तो इनमें विद्यमान छोटी-छोटी रक्तवाही नलिकाओं शिराओं के जाल को यदि फैलाया जाय तो एक ही व्यक्ति के गुर्दे से उन नलिकाओं के दो फेरे पूरी धरती के चारों ओर लगाये जा सकते हैं। कितना विराट लघुतम से घटक में भरा पड़ा है, यह जानकर अणोरणीयान् महतोमहीयान्’ को उपमा सार्थक जान पड़ती है।
गुर्दे लगभग सारा जल, जो उनके पास रक्त के माध्यम से पहुँचा देते हैं। मात्र 1 प्रतिशत को छोड़कर, जो कि मूत्र का रूप ले लेता है, अपूर्ण है। गर्मी में शरीर का पानी उत्सर्जित करने का कार्य यदि त्वचा भी करती है, तो ठण्डक में यह कार्य मात्र गुर्दे करते हैं। कई प्रकार के बुखारों व पीलिया में मूत्र का रंग पीला हो जाता है तो टाइफ़ाइड बुखार में यह रंग नीला हो जाता है। यदि गहरा नीले रंग का मूत्र बार-बार जा रहा हो तो हैजे की शंका की जानी चाहिए। वस्तुतः गुर्दे सारे शरीर के अन्दर की वास्तविक स्थिति का दर्पण होते हैं। इस दर्पण यदि पढ़ा जा सके तो शरीर की स्वस्थता की स्थिति जानी जा सकती है। गुर्दे कई प्रकार के हार्मोन्स का उत्सर्जन शरीर की आन्तरिक स्थिति की यथावत् रखने में बड़ी महत्वपूर्ण भूमिका भी निभाते हैं।
काया की माया बड़ी निराली है। इसके सम्बन्ध में जितना जानने का प्रयास किया जाय, और भी अधिक रहस्य हाथ लगते चले आते हैं। हारमोन्स रूपी रसस्राव जो सूक्ष्मतम कुछ माइक्रोमीटर की मात्रा में रक्त में सतत् घुलते रहते हैं इस रहस्य भरी दुनिया का एक परिचय देते हैं। हमारी चुस्ती-फुर्ती बनाये रखने, प्रजनन प्रक्रिया द्वारा वंश को बढ़ाते रखने, कामोल्लास की गति के सुनियोजन द्वारा सकारात्मक मानसिक विकास करते चलने एवं प्रसन्नता, क्रोध, स्नेह-दुख जैसे भावों की अभिव्यक्ति में हारमोन्स की भूमिका बड़ी महत्वपूर्ण होती है। तुरन्त की माँग हो, जैसे तनाव की प्रतिक्रिया स्वरूप शरीर पर संकटापन्न स्थिति भी आ जाने पर अथवा थोड़ी समयावधि वाली माँग हो, जैसे-बच्चे के लिए दुग्ध का स्तनों में निर्माण-प्रत्येक में कुछ गिने-चुने छोटे-छोटे आकार के नाम मात्र के अंग ही सारी भूमिका कुछ ही बूँदों के रस को रक्त के द्वारा विभिन्न घटकों तक भेजकर पूरी कर देते हैं। हाइपोथेलेमस जो स्नायु-संस्थान का घटक है एवं पिट्यूटरी मिलकर यह तय करते हैं कि कब बालक को किशोर में बदलना है एवं देखते-देखते आवाज़ में कठोरता, चेहरे व काखों में बाल तथा एवं यौन भावनाओं में परिवर्तन आने लगता है। यह चमत्कार पारस्परिक ताल मेल से चलने वाली उस प्रक्रिया का है, जो शरीर-संचालन हेतु विभिन्न घटक अपनाते हैं। बच्चियों में स्तनों का विकास ऋतुस्राव का प्रारंभ भी इन्हीं हारमोन्स के स्राव की ही परिणति है।
अखण्ड ज्योति पाठक हारमोन्स पर विस्तार से अगले दिनों पढ़ेंगे, क्योंकि अब आज की बीसवीं शताब्दी की समापन की बेला में हमारे पास आधुनिकतम शोधों के कारण बहुत कुछ जानकारियाँ उपलब्ध हैं। फिर भी एक तथ्य यहाँ इनकी प्रभाव क्षमता से सम्बन्धित बताना प्रासाँगिक होगा। अमेरिकी विश्व विद्यालयों में एक अध्ययन से पाया गया है कि प्रायः 1000 क्रूरतम अपराध करने वाले व्यक्तियों में से 60 से अधिक प्रतिशत में एड्रीनल ग्रंथियों, जो गुर्दे के ऊपर अवस्थित होती हैं, कि कार्य-प्रणाली में बिखराव पाया गया है। इस कारण उनमें हारमोन्स का स्तर विशेषतः एड्रीनेलिन व सिरम कार्टिसाल अधिक देखने में आया। यह अकेला तथ्य ही परिचायक है। इस निष्कर्ष का कि देखने में छोटे लगं-घाव करे गम्भीर” वाले ये सूक्ष्मतम मात्रा में स्रावित होने वाले हारमोन्स व्यक्तित्व में किस स्तर का परिवर्तन ला सकते हैं।
वस्तुतः मानव तन अभी तक वैज्ञानिकों के लिए एक पहली बना हुआ है। जब काया की माया को जान पाने में पसीना छूटता है, तो चेतना, जो काया के कण-कण में गुँथी है- उसे जान पाना तो और भी कठिन है शरीर को जान लेना-उसके सूक्ष्मतम स्वरूप को समझ लेना हमारी इस लेखमाला का लक्ष्य नहीं रहा है। लक्ष्य है-शरीर पर सर्वतोभावेन नियन्त्रण करने की क्षमता-योगाभ्यास के माध्यम से प्राप्त कर इसी विलक्षणताओं का सदुपयोग, सुनियोजन करना, व्यक्तित्व को इच्छानुसार श्रेष्ठतम स्तर की ओर ढालना-बदलना-सुधारना। आत्मसाधना का विज्ञान ज्ञात एवं अभिज्ञात क्षमताओं के नियन्त्रण-संचालन का विज्ञान है। विधिवत् एक विधान है। इसे हृदयंगम कर जीवन क्षेत्र में लागू कर रही हम अपनी अपूर्णता को पूर्णता में बदल सकते हैं।