Magazine - Year 2002 - Version 2
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Language: HINDI
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सृजेता के दिव्य धरोहर- यह जीवन
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जीवन अनन्त प्रवाह है नदी की तीव्र जलधारा के समान। कठिनाइयों-अवरोधों को चीरकर बहना ही इसका धर्म है। यही रीति अपनाकर यह अपने सृजेता के संग पुनः तदाकार-एकाकार हो सकता है। जीवन जहाँ से उद्भव हुआ है उसी उद्गम बिन्दु पर मिल जाना, समर्पित-विसर्जित हो जाना चाहता है। यह इतना सहज-सरल नहीं है, इसलिए तो जीवन को रहस्यमय कहा गया है। इस रहस्य के आवरण में ही इसकी पूर्णता का महाआनन्द छुपा हुआ है। इसे केवल प्रचण्ड पुरुषार्थ द्वारा अर्जित किया जा सकता है।
जीवन एक यात्रा है। इसके अनेक पड़ाव हैं। जन्म-मरण रूपी इन पड़ावों में यह कुछ क्षण विराम लेता है, कुछ विश्राम करता है। बस फिर अगले पड़ाव, अगली मंजिल की ओर बढ़ लेता है। एक पड़ाव के बाद तुरन्त अगले पड़ाव की तैयारी होने लगती है। यूँ इन पड़ावों में मृत्यु भी है और जन्म भी। जन्म के बाद मृत्यु अवश्यंभावी है और मृत्यु के बाद नया जन्म। जीवन इन्हीं के बीच बढ़ता-विकसित होता रहता है। इसी में इसका अस्तित्त्व निर्भर है। इस क्रम में यह अनेक लम्बी-पतली सुरंगों, बीहड़ जंगलों, ऊँची-नीची घाटियों, मनोरम पर्वत-उपत्यिकाओं एवं सुन्दर वन-उपवनों से होकर गुजरता है।
जो जीवन की सुरंगों, जंगलों एवं दलदलों की वीभत्स एवं भीषण कठिनाइयों से घबराता-डरता नहीं तथा वन, उपवन एवं उद्यान के सौंदर्य से रीझकर रुकता नहीं वही श्रेष्ठ जीवन कहलाता है। संत, सिद्ध, महात्माओं का जीवन ऐसा ही होता है। यही जीवन ही वरेण्य होता है जो दिव्य गंगा की जलधारा के समान हिमालय के गर्भ से उत्पन्न होकर समुद्र के आँचल में समाये बगैर चैन नहीं लेता, थमता-रुकता एवं भटकता नहीं है।
जीवन की संरचना बड़ी ही जटिल एवं सूक्ष्म होती है। इसका अनेकों रहस्य अगम एवं अगोचर है। इसका दीखने वाला वर्तमान स्वरूप तो इनका मात्र एक अंश है। यह समुद्र में तैरते उस विशाल हिमखण्ड जैसा है जिसका केवल 10 प्रतिशत भाग ही दृश्यमान है शेष 90 प्रतिशत समुद्र के अन्दर समाया रहता है। हमारे जीवन का वर्तमान स्वरूप भी कुछ ऐसा ही है। इसके सभी अच्छे-बुरे संस्कार विगत जीवन की देन है। मुख्यतया अतीत ही वर्तमान जीवन का आधार है हालाँकि तप के महापुरुषार्थ द्वारा अपने वर्तमान क्षण का सदुपयोग करके इसे गढ़ा और संवारा जा सकता है। यदि हमारे जीवन की बुनियाद सच्चाई एवं ईमानदारी पर टिकी हो तो कोई कारण नहीं कि इसके श्रेष्ठ परिणाम जीवन में न उभरें-उछलें।
दार्शनिक दृष्टि जीवन को एक प्रवाह के रूप में स्वीकारती है। आज का जीवन कल की परछाई है। विगत कल के समस्त गुण-दोषों के बीज वर्तमान जीवन की उर्वर भूमि में पलते-बढ़ते एवं विकसित होते हैं। कल के कर्म आज परिणाम देते हैं। कल हमने जो किया है उन्हीं के भले-बुरे रूपों को इस जीवन में भोगना पड़ता है। आज जो करेंगे अनिवार्य रूप से उसे ही भविष्य में वरण करना पड़ेगा। जीवन की यह कड़वी सच्चाई है। यह एक यथार्थ है जिससे कोई भी मुँह मोड़ नहीं सकता। इसे अपनाना ही पड़ेगा। अतः आवश्यकता है वर्तमान जीवन के हरेक पल को प्रत्येक क्षण को सहेजने-संवारने और गढ़ने की। जीवन बहुमूल्य है। यह सृजेता की दिव्य धरोहर है। स्रष्टा का यह ऐसा बेशकीमती एवं दुर्लभ उपहार है, जिसे पाने के लिए देवता भी लालायित रहते हैं। जरूरत है तो बस इस श्रेष्ठ मानव जीवन की महानता एवं महत्ता को हृदयंगम करने की, यह वर्तमान जीवन को सद्कर्मों में सुनियोजित करके ही सम्भव है।
जीवन की तमाम सफलताएँ-असफलताएँ, हानि-लाभ इसी बिन्दु पर निर्भर करते हैं। जिसने वर्तमान जीवन को पहचाना, समझा और छककर जीया वह धन्य हो गया। इसमें ऐसा अमृत रस भरा पड़ा है, जो अतीत की सभी कलुष-कालिमा को धो डालता है। इसमें सभी पाप-ताप के कालकूट धुल जाते हैं एवं दिव्यता का भाव उत्पन्न होता है। वर्तमान जीवन के मूल्य को पहचानकर एवं इसके पियूष रस को पीकर डाकू रत्नाकर झूम उठे थे। उनका क्रूर एवं निर्दयी हृदय पिघल गया था। उनके हाथों से खड्ग खिसककर लेखनी उठ गयी थी। वे भावना एवं संवेदना की साकार मूरत बन गये थे। उनका जीवन अतीत के खण्डहर से खड़ा हुआ और सुकोमल भावनाओं की ईंटों से भव्य बना। जहाँ पर सीता माता को आश्रय मिला। लव-कुश जैसे दिव्य बालकों का जन्म हुआ। यही नहीं वे स्वयं विश्ववंद्य महाकवि वाल्मीकि के नाम से विख्यात हुए थे। यह दृढ़ इच्छाशक्ति एवं प्रबल भावनाओं के संग वर्तमान जीवन को पहचान लेने का ही परिणाम था।
जीवन के इसी महान् क्षण को पहचाना था आतंक की प्रतीक प्रतिनिधि अंगुलीमाल ने। भगवान् बुद्ध की मर्मस्पर्शी एवं सजल करुणा तो एक माध्यम बनी थी। जीवन को बदलने एवं परिवर्तित करने का कार्य तो उन्होंने स्वयं ही किया था। कहते हैं सैकड़ों बुद्ध एवं हजारों ईसा मिलकर भी किसी के जीवन को नहीं बदल सकते जब तक कोई स्वयं अपने जीवन को बदलने की दृढ़ इच्छा शक्ति न रखता हो। अंगुलीमाल बदले। उनका पाषाण एवं चट्टान सा हृदय पिघला एवं उसमें से निर्ममता एवं निर्दयता के स्थान पर भावना, संवेदना, दया, करुणा का अजस्र प्रवाह फूट पड़ा था। इससे उनके अतीत जीवन का पाप पंक धुल गया था। और वे उज्ज्वल पुण्य पुरुष बन गये थे। उनके वर्तमान जीवन में असीम धैर्य उत्पन्न हो गया। तभी तो जिसे देखने मात्र से लोग काँपते एवं थरथराने लगते थे, उन्हीं ने सामान्य जनों से पत्थरों की मार झेली, निःशब्द प्रतिक्रियाहीन। क्योंकि वह जानते थे कि जो लोग कर रहे हैं कभी वह स्वयं भी जीवन को न पहचान पाने के कारण करते थे। अब स्वयं को पहचान कर वह स्वयं दुःख-सुख से परे हो गये, पाप-ताप से मुक्त हो गये और करुणावतार भगवान् बुद्ध के कृपा पात्र बन गये।
महाकवि वाल्मीकि एवं अंगुलीमाल ने जीवन के प्रवाह को महत्त्वपूर्ण मोड़ दिया था। मजबूत इरादे से अपने जीवन को नई दिशा दी थी। जीवन में दुर्गुणों के स्थान पर सद्गुणों को सम्मान दिया था। इन्हें अपनाया एवं अंगीकार किया था। सबसे बढ़कर बात यह थी कि उन्होंने अपने वर्तमान जीवन की नौका को आत्मानुसंधान की श्रेष्ठधारा में डाल दिया था। भले ही उनका प्रयास प्रारम्भ में छोटा था परन्तु इसे निभा ले जाने के बाद परिणाम अत्यन्त सुखद हुआ। अच्छे एवं महान् कहे जाने वाले सभी प्रयास पुरुषार्थ प्रारम्भ में छोटे होते हैं। अपने इस लघु रूप के कारण लोगों का उपहास एवं अपमान भी झेलते हैं लेकिन अपनी महान् सामर्थ्य के कारण इसे करने वालों का जीवन धन्य हुए बिना नहीं रहता। वे अपने साथ-साथ असंख्यों को जीवन की दिशाधारा को मोड़ने में सफल होते हैं।
नगण्य एवं नन्हा सा दिखने वाला बीज अंकुरित-विकसित होकर विराट् वृक्ष का रूप धारण करता है। इसमें कितने ही पक्षी-नीड़ बनाकर रहते हैं। जब छोटी सी कली खिलती है तो वातावरण में सुरभित सुमन की मुस्कान बिखर जाती है। भौंरे मण्डराने लगते हैं। लोग आकर्षित होते हैं तथा वह पुष्प देवों एवं दिव्य जनों का अलंकार-आभूषण बनता है। आँखों से न दिखने वाला छोटे से परमाणु के विस्फोट से इतनी असीम एवं प्रचण्ड ऊर्जा निकलती है कि समूचा विश्व क्षण भर में ही राख की ढेरी में बदल सकता है। इसके सदुपयोग से परमाणु भट्टी द्वारा बिजली का निर्माण भी किया जा सकता है, जिससे अनेकों कल कारखाने चलते हैं तथा दैनिक जीवन की आवश्यकताओं की पूर्ति होती है। जीवन के नन्हें-नन्हें क्षणों में भी इसी तरह अपार सामर्थ्य शक्ति छुपी हुई है। चाहे तो इसका सदुपयोग कर लें या दुरुपयोग, यह अपने हाथों में है। जीवन प्रवाह के सदुपयोग से आसानी से महामानव, देवमानव बना जा सकता है। जीवन के हर क्षण का श्रेष्ठ सदुपयोग एवं समुचित सुनियोजन करके व्यक्ति नर से नारायण बन सकता है तथा अपार ऐश्वर्य-वैभव का अधिकारी हो सकता है। श्रेय, सम्मान, पद, प्रतिष्ठ अर्जित कर सकता है। कामना-वासना जन्य इच्छाओं और आकाँक्षाओं से जीवन की गति मंथर एवं अवरुद्ध हो जाती है जबकि प्रेम, दया, सेवा, सहकार जन्य उदात्तवृत्तियों से इसका प्रवाह तीव्र, तीव्रतर एवं तीव्रतम हो जाता है। और इस वर्तमान जीवन में ही अपने ईष्ट-लक्ष्य से मिलन-समर्पण का अनुभव बोध प्राप्त कर सकता है। जीवन का परमात्मा में विसर्जन-विलय ही सच्ची पूर्णता है। और यही जीवन की चरम एवं परम पुरुषार्थ है।