Magazine - Year 2002 - Version 2
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Language: HINDI
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सत्य शास्त्रों में नहीं, अनुभव में है
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अर्हत एकुदान जंगल में रहते थे। वृक्ष-वनस्पतियाँ, पर्वत-झरने यही उनके साथी थे। वन की देव शक्तियाँ वनदेवी-वन देवता उनके आत्मीय सखा थे। उनके जीवन का एक ही सत्य था- ‘बुद्धं शरणं गच्छामि।’ इसी का चिन्तन करते हुए वह ध्यानस्थ हो जाते। इसी सूत्र वाक्य का वह उपदेश करते। अपने इस जीवन मंत्र के अलावा अन्य कोई बात उनको आती ही नहीं थी। हालाँकि इसे कहते हुए उनके जीवन का समाधि सुख छलक उठता था। वह एक अनोखे अहोभाव से भर उठते थे। इस एक वाक्य को बोलते हुए उनकी अन्तर्चेतना में अनेकों अलौकिक रंग निखर उठते थे। पर वह बोलते बस एक ही वाक्य थे- बुद्धं शरणं गच्छामि।
उधर जंगल से जो भी गुजरता उन्हें रोज एक ही उपदेश कहते हुए सुनता। एक ही वाक्य में रोज-रोज भला किसको रस आता। इसलिए कोई उनके पास टिकता न था। अपने वन कुटीर में भिक्षु एकुदान अकेले वक्ता थे, श्रोता भी वही अकेले होते। दूसरा कोई होता भी तो कैसे? किसी भी तरह कोई आ भी जाता तो भाग जाता। रोज वही उपदेश शब्दशः वही। उसमें कभी भेद ही नहीं पड़ता था। शायद उन्हें इसके अलावा और कुछ आता भी नहीं था।
लेकिन वह अपने इस एक जीवन सत्य को जब भी कहते पूरे जंगल में एक अनोखा समाँ छा जाता। वृक्ष-वनस्पतियाँ, पर्वत-निर्झर सभी एक अलौकिक चेतना से तरंगित हो उठते। वन देवी- वन देवता उन्हें साधुवाद देते। सारा जंगल गुँजायमान हो जाता था, साधु! साधु! धन्यवाद! धन्यवाद! एक अनोखी छटा - एक अलौकिक जीवन्तता सब ओर छा जाती।
एक दिन उसी जंगल में पाँच-पाँच सौ शिष्यों के साथ दो त्रिपटकधारी भिक्षु आए। उनके अगाध पाण्डित्य की सब ओर ख्याति थी। अर्हत एकुदान उनके आगमन से बड़े प्रसन्न हुए। उन्होंने उन सबका हार्दिक सत्कार किया और बोले, भंते, बहुत अच्छा हुआ जो आप पधारे। मैं तो निपट गंवार हूँ, मुझे कुछ ज्ञान नहीं है। बस एक बात मुझे समझ में आयी है, उसी का रोज उपदेश करता हूँ। और कोई तो सुनता नहीं, बस जंगल के देवता दयावश उसे सुनते हैं, और साधुवाद देते हैं। हालाँकि वे भी उसे सुन-सुनकर थक गए होंगे। यह उनका मुझ बूढ़े पर अनुग्रह ही है कि वे मेरी एक ही बात को बार-बार सुनकर प्रसन्नता व्यक्त करते हैं।
आप दोनों ही महाज्ञानी हैं। त्रिपटक आपको कण्ठस्थ हैं। आपके ज्ञान की महिमा से आकर्षित होकर ही आप के पाँच-पाँच सौ शिष्य हैं। मुझे कुछ आता ही नहीं है- इसीलिए मेरा एक भी शिष्य नहीं है। भला एक ही उपदेश देना हो तो कोई शिष्य बनेगा ही क्यों? वे त्रिपटकधारी दोनों महापण्डित अर्हत एकुदान की बातें सुनकर एक दूसरे की तरफ अर्थगर्भित दृष्टियों से देखते हुए मुस्कराए। उनकी आँखों में पाण्डित्य का अभिमान छलक रहा था।
उन दोनों ने ही सोचा, यह बेचारा बूढ़ा अकेले रहते-रहते एकदम पागल हो गया है। अकेलेपन के कारण इसे विक्षिप्तता ने घेर लिया है। अन्यथा कोई एक ही उपदेश रोज-रोज देता है? अपनी विक्षिप्तता के कारण ही यह कहता है कि इसका उपदेश जंगल के देवता सुनते हैं, और साधुवाद देते हैं। अरे, कहाँ के देवता। भला देवता भी कहीं किसी का उपदेश सुनने आते हैं। जब हम दोनों जैसे ज्ञानी पण्डितों का उपदेश सुनने के लिए वे आज तक नहीं आए। तब इन मूर्ख की वही एक तोता रटन्त सुनने के लिए भला वे क्या आएँगे। बेचारा, वृद्ध! अपने बुढ़ापे के कारण यह परेशान है। और इसी विक्षिप्तता एवं परेशानी के कारण इसका मन परेशानी से भर गया है। कोई बात नहीं, चलो आज बताएँगे इसको कि उपदेश क्या होता है? कुछ क्षणों में ही उन दोनों महापण्डितों ने इतनी सारी बातें सोच डाली। पर प्रत्यक्ष में उन्होंने एकुदान की आयु का ख्याल करते हुए बड़ी शालीनता से कहा- भन्ते! हम दोनों को ही आपका प्रस्ताव स्वीकार है। मेरे उपदेश से आपको भी यथार्थ का बोध पाने में मदद मिलेगी।
आप दोनों महाज्ञानियों की इस कृपा से कृतार्थ हुआ भन्ते। भिक्षु एकुदान का हृदय कृतज्ञता के भावों से ओत-प्रोत हो गया। उसने बड़े प्रेम और परिश्रम से उनके प्रवचन का इन्तजाम किया। महापण्डितों के बैठने के लिए धर्मासन की व्यवस्था की। आज वह स्वयं को कृतकृत्य मान रहा था कि उसे इतनी पाण्डित्यपूर्ण वाणी सुनने को मिलेगी।
हुआ भी वही। धर्मासन पर बैठकर उन दोनों ने बारी-बारी से उपदेश दिया। वे बड़े पण्डित थे, त्रिपटक के ज्ञाता थे। बुद्ध के सारे वचन उन्हें कण्ठस्थ थे। हमेशा ही वे अपने प्रशंसकों और शिष्यों से घिरे रहते थे। पाँच सौ शिष्यों की मण्डली सदा ही उनकी सेवा के लिए तैयार और तत्पर रहती थी। उन पण्डितों ने एक-एक करके उपदेश दिया। उपदेश से पहले शिष्यों ने उनकी विद्वता एवं प्रभुता का परिचय दिया। यह बताया कि समाज में उनका कितना प्रभाव है। कितने लोग उनकी जय-जयकार करते हैं। कितने देशों का उन्होंने भ्रमण किया है। कितनी उपाधियाँ एवं प्रमाण पत्र उन्हें मिले हैं। राजन्यवर्ग उनका कितना सम्मान करता है।
इस परिचय के बाद शिष्यों ने साज और संगीत के साथ गीत गाया। कुल मिलाकर प्रवचन की प्रस्तुति को प्रभावी बनाने की कोई कसर नहीं छोड़ी गयी। प्रवचन हुआ, शास्त्र सम्मत, पाण्डित्य से भरपूर, तर्क से प्रतिष्ठित। शिष्यों ने हर्षध्वनि की- साधु! साधु! वृद्ध भिक्षु एकुदान भी परम आनन्दित हुए। उन्होंने भी सराहना की। बस एक बात उन्हें खटक रही थी कि आज वन की देवशक्तियों ने कुछ नहीं कहा। जंगल के देवता कुछ भी नहीं बोले। वन देवी- वन देवता चुप थे सो चुप ही रहे। उन्होंने यह बात पण्डितों को भी कही कि बात क्या है? आज जंगल के देवता चुप क्यों हैं? इनको क्या हो गया? आज ये कहाँ चले गए? ये रोज मेरा उपदेश सुनते हैं तो पूरा जंगल इनके साधुवाद से भर जाता है। और आज ऐसा परम उपदेश हुआ, ऐसा ज्ञान से भरा। फिर भी ये सब मौन हैं, आखिर बात क्या है?
वे दोनों महापण्डितों ने वृद्ध एकुदान की इन बातों को फिर से उनकी विक्षिप्तता से उपजा पागलपन समझा। उन दोनों ने सोचा एक तो हमने महानगरों में लाखों की भीड़ की जगह यहाँ जंगल में प्रवचन देने की कृपा की। इसके ऊपर इतना बड़ा अहसान किया। पर ये है कि मेरा अनुग्रह मानने के स्थान पर कहता है कि जंगल के देवता नहीं बोले। पर प्रकट में उन दोनों ने यही कहा, भन्ते अच्छा यही है, आप अपना उपदेश करें। हम दोनों को भी सुनने का अवसर मिलेगा। साथ ही जंगल के देवताओं की वाणी भी हमें सुनने को मिल जाएगी। उन्होंने ये बात एक तरह से मजाक में ही कही। उन्होंने सोचा तो यही कि वैसे भी इस बूढ़े गंवार को कुछ आता-जाता नहीं। बस इसकी एक बात सुनकर छुट्टी मिल जाएगी।
साधे-सरल वृद्ध एकुदान ने उन पण्डितों के मजाक को उनका आग्रह समझा। और बड़े ही संकोच से धर्मासन पर चढ़े। फिर बड़ी विनम्रता से उपस्थित जनों को प्रणाम किया। सभी देवशक्तियों की अभ्यर्थना करके अपने आराध्य भगवान् बुद्ध को सिर नवाया। फिर हृदय की गहराइयों से- समूचे मन-प्राण से कहा- ‘बुद्धं शरणं गच्छामि।’ इसी के साथ वे गहरी भाव समाधि में डूब गए। उनके मुख मण्डल पर सम्बोधि की आभा छलकने लगी। उनके अस्तित्त्व का कण-कण रोमाँचित हो उठा। उपस्थित जनों पर भी उनकी इस अनुभूति के अमृत कलश से कुछ बूँदें छलक पड़ी। समूचे जंगल से साधु! साधु! का अपूर्व निनाद गूँज उठा। जैसे वृक्ष-वृक्ष से आवाज उठी। पत्थर-पत्थर से आवाज उठी- जंगल के सारे देवता मुखरित हो उठे। सारा धर्मासन उनके द्वारा की गयी अलौकिक पुष्पवृष्टि से भर उठा।
अब तो दोनों महापण्डित बड़े हैरान हुए। वे सोचने लगे, तो यह बूढ़ा पागल नहीं है। देवता सचमुच में ही हैं। पर क्या देवता पागल हैं? क्योंकि ऐसा कहा क्या इसने, बस एक साधारण सा वाक्य- बुद्ध शरणं गच्छामि। क्या धरा है इसमें? कोई कह सकता है- कभी कह सकता है- कहीं कह सकता है। पण्डितों ने अपने दम्भ में यह भी सोच डाला कि ये देवता जंगल के हैं, जंगली होंगे, नासमझ होंगे। जरूर इन्हें मेरा प्रवचन समझ में नहीं आया होगा। ऐसी ही अनेकों तरह की कल्पना-जल्पना करते वे चले गए।
उन दिनों बुद्ध संघ में यह घटना बड़ी प्रचारित हुई। पर कोई भी इसका ठीक भेद न जान पाया। भगवान के शिष्य महाकाश्यप ने भगवान से यह कथा कही- और इसके भेद को स्पष्ट करने की प्रार्थना की। बुद्ध मुस्कराए- उन्होंने कहा, वत्स महाकाश्यप! एकुदान ‘बुद्धं शरणं गच्छामि’ का मर्म जान चुके हैं। वह क्षीणास्रव हो चुके हैं। महाकाश्यप ने विनम्रता से पूछा- भगवान् क्षीणास्रव होना क्या है? बुद्ध बोले- चार आस्रव होते हैं। पहला है- कामास्रव। इसके क्षीण होने का मतलब है अब कुछ पाने की कामना नहीं रही। सारी चाहतें मिट गयीं। अब नाम, धन, यश, पद या कुछ और पाने की धुन नहीं है। दूसरा आस्रव है- भवास्रव, यानि कि स्वर्ग, मोक्ष या फिर अगले अच्छे जीवन की कामना। इसके क्षीण होने का मतलब है- जीवेषणा गिर गयी। लौकिक ही नहीं अलौकिक चाहतें भी मिट गयीं।
इसे समझाते हुए भगवान तथागत ने कहा- भन्ते, तीसरा आस्रव है- दृष्टस्रव। यानि दृष्टि, शास्त्र एवं सिद्धान्त से आसक्ति। इसके क्षीण होने का अर्थ है, जाति, धर्म, कुल, देश, शास्त्र या सिद्धान्त से मोह टूट जाना। संकुचित दृष्टि का व्यापक हो जाना। और चौथा आस्रव है- अविद्यास्राव- मैं हूँ। इसकी क्षीणता का अर्थ है- मैं पन का गिर जाना। सारी सीमाओं का समाप्त हो जाना, असीम हो जाना।
महाकाश्यप सुन रहे थे, भगवान के वचनों को। भगवान ने आगे हृदयस्पर्शी स्वरों में कहा- भिक्षु एकुदान के ये चारों ही आस्रव क्षीण हो चुके हैं। वे अब क्षीणास्रव हैं। यह कहते-कहते अन्तर्यामी भगवान ने महाकाश्यप की अगली जिज्ञासा जान ली। वह हल्के से हंसे फिर बोले- बुद्धं शरणं गच्छामि। भिक्षु एकुदान के लिए यह वाक्य नहीं अनुभूति है। उन्होंने सचमुच ही बुद्ध की बुद्धत्व की शरण पा ली है। वह बुद्धत्व की धारा में निमग्न हो चुके हैं। उनके लिए यह वाक्य शास्त्र वचन नहीं, समाधि सत्य है। इसके उच्चारण के साथ ही वह बुद्धत्व से एकात्म होते हैं। उनकी अनुभूति के पलों को निहार कर देवता धन्य होते हैं। उन्हें साधुवाद देते हैं।
अपनी बात को समझाते हुए भगवान ने यह धम्म गाथा कही-
न तेन पंडितो होति होति यावता बहु भासति।
खेमी अवेरी अभयो पंडितोति यवुच्चति॥
हे भिक्षुओं! बहुत भाषण करने से कोई पंडित नहीं होता। बल्कि जो क्षेमवान, अवैरी और निर्भय होता है, वही पंडित है।
महाकाश्यप सहित सभी भिक्षु शान्त थे। भगवान कह रहे थे- ‘सत्य शास्त्र में नहीं है। सत्य शब्द में भी नहीं है, सत्य तथाकथित बौद्धिक ज्ञान में भी नहीं है, सत्य है अनुभव। और अनुभव शून्य में प्रकट होता है, मौन और आन्तरिक एकान्त में प्रकट होता है। वैसे जीवन्त अनुभव की अभिव्यक्ति पर सारा अस्तित्त्व आच्छादित होता है। ऐसे में देवताओं का प्रसन्न होकर साधुवाद देना स्वाभाविक है।’ ऐसा कहकर भगवान मौन में डूब गए। महाकाश्यप सहित अन्य भिक्षु भगवान के द्वारा कहे गए वचनों का मनन करने की चेष्टा करने लगे।