Magazine - Year 2002 - Version 2
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Language: HINDI
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श्रीरामलीलामृतम् - 5 - चेतना की शिखर यात्रा
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सत्यं परं धीमहि
भागवत् पंडित जी का परम प्रिय शास्त्र था। कथा-प्रवचनों के अलावा सामान्य समय में वे भी इसी की चर्चा करते रहते। घर पर विद्वानों का जमावड़ा रहता। छोटे-मोटे प्रसंगों में वे भी वे भागवत् के श्लोक सुना देते और हर तरह की समस्याओं का समाधान निकाल लेते। जिन दिनों बाहर रहते, उन दिनों भी लोग उन्हें ढूंढ़ते-पूछते हवेली आ जाते थे। जब वे घर पर होते, तब तो कहना ही क्या ? ताई जी उस समय तीन साल के श्रीराम को पिता के सुपुर्द कर देतीं। वे लोगों की बात सुनते, उनका हल बताते या सामान्य विषयों पर चर्चा करते, तो श्रीराम बैठक में ही होते। बाल-सुलभ क्रीड़ाओं में मगन रहते या चुप बैठकर वहाँ उपस्थित लोगों की बातें सुनते। तीन-चार साल के बच्चे के लिए शास्त्र चर्चा, तत्त्वदर्शन और भक्ति-ज्ञान-वैराग्य की बातें समझना शायद कठिन हों! वह उन चर्चाओं से बने वातावरण के संस्कारों से निश्चित ही समृद्ध था। कह सकते हैं कि नए संस्कारों की आवश्यकता नहीं रहीं होगी, लेकिन उस वातावरण ने संस्कारों को उभारने में सहायता तो की ही।
महापुराण में भागवत् माहात्म्य प्रसंग और एकादश स्कंध के विषयों पर पिता जब भी चर्चा छेड़ते, तो तीन-चार के श्रीराम चुपचाप बैठ जाते। उनके मुंह की ओर टकटकी बाँधे देखते रहते। ताई जी बताती थीं नारद जी और भक्ति के संवाद की चर्चा सुनकर उनका श्रीराम उदास हो जाता था। इस प्रसंग में यमुना तट पर भक्ति दुःखी और क्लांत होकर बैठी है।पास ही दो बूढ़े व्यक्ति बेहोश पड़े है।उन्हें होश में लाने के कोशिश करती हुई स्त्री किसी सहायक के आने की प्रतिक्षा करती हुई आस-पास देखती रहती है। कुछ स्त्रियाँ उसे धीरज बँधा रही है। नारद जी संयोग से पहुँचते है और युवती से अपना परिचय देने के लिए कहते हैं।
वह स्त्री कहती है, मेरा नाम भक्ति है।ज्ञान और वैराग्य दोनों मेरे पुत्र हैं। काल के प्रवाह से ये वृद्ध हो गए है। आस-पास जो स्त्रियाँ है, वे गंगा-यमुना आदि नदियाँ हैं, जो मेरी सेवा कर रही हैं ।फिर भी दुःख दूर नहीं हो रहा है क्षीण होने के कारण भक्ति ने यह बताया कि पाखंडियों ने उसके साथ दुर्व्यवहार किया उनके छल, कपट और दुराचारों से भक्ति रुग्ण और दैन्य तो कम हुआ, लेकिन दोनें पुत्रों की जरा भी दूर नहीं हुई। यह कहते हुए भक्ति को भागवत् का उपदेश देते हैं।
भक्ति को विलाप करते सुन चार साल के बालक के आँसू बहने लगे, तो पिताश्री ने प्रसंग आगे बढ़ाया। भागवत् सुनकर भक्ति का उद्धार हुआ। उसके दोनों पुत्र स्वस्थ-सहज और स्वाभाविक अवस्था में पहुँच गए। इसी प्रसंग में पिताश्री कहते थे कि भागवत् शास्त्र सभी शास्त्रों का सार है। इन दिनों हम लोग जिस सनातन धर्म का पालन करते हैं, वह इसी शास्त्रों से आया है। ज्ञान, विद्या, आचार, अवतार, भक्ति, कर्म, मंत्र, योग, साधना, इतिहास, पुराण आदि भागवत् में ही समाहित हैं। पिताश्री की मुख-मुद्रा देखकर बालक श्रीराम भी आश्वस्त हो जाता। उठकर वह खेलने-कूदने लगता।
‘ग’ से गायत्री
हवेली में होने वाली चर्चा और वहाँ के परिवेश ने बालक श्रीराम की शिक्षा का आरंभ किया। विधिवत् विद्यारंभ चार साल बीतने के बाद हुआ। पंडित जी चाहते तो अपने सान्निध्य में ही वेद-शास्त्र सब पढ़ा सकते थे, लेकिन उनका मानना था कि शिक्षा ग्रहण करने के लिए गुरु का संसर्ग प्राप्त होना ही चाहिए।उस छोटे-से गाँव में एक अध्यापक थे पंडित रूपराम। वे अपने घर पर ही विद्यालय चलाते थे। पंडित जी ने श्रीराम को उनके सुपुर्द किया। ताई जी बताया करती थीं कि पूजा-पाठ के बाद गुरुजी ने तख्ती थमाई। पट्टी सफेद रंग की थी और लकड़ी से बनी हुई थी। उन दिनों स्लेट और खड़िया का चलन नहीं था। अलग-ज्ञान कराया जाता था। पंडित रूपराम पानी में गेरू के बाद पहला अक्षर अभ्यास कराते। तख्ती और गेरू की पूजा होने के बाद पहला अक्षर सिखाने लगें। सरकंडे की कलम को घुले हुए गेरू में डुबोया और श्रीराम के हाथ में दिया गया। फिर हाथ पकड़कर तख्ती पर पहला अक्षर लिखवाते कहा ‘ग’ श्रीराम ने भी तुरंत अनुकरण किया और गुरु जी उस अक्षर की पहचान बताने के लिए आगे कुछ बोलें, उससे पहले श्रीराम ने कहा, ग-गायत्री का। गुरु जी को इसकी कल्पना श्री नहीं कि छात्र बिना बताए ही अक्षर की पहचान बताए ही अक्षर की पहचान बता उठेगा। पहचान भी ढंग से।
वे ‘ग‘ अक्षर की पहचान ‘गणेश’ शब्द के कराते थे। उनकी मान्यता थी कि ‘ग‘ से ‘गणेश’ का बोध कराने पर छात्र की बुद्धि संस्कारित होती है। गणेश बुद्धि के अधिष्ठाता देव हैं, इसलिए भी यह अच्छा श्रीगणेश है। बिना बताए गायत्री से आरंभ करने पर गुरुजी ही नहीं, वहाँ उपस्थित दूसरे लोग भी चमत्कृत हुए। बाद में गुरुजी ने पूछा, श्रीराम तुम्हें किसने बताया कि ‘ग‘ माने गायत्री’। विद्यार्थी ने कहा कि किसी ने भी नहीं। हवेली में सुना है।पिता जी भी इसी की कथा भागवत् सप्ताह में कहते हैं। गुरु पंडित रूपराम के साथ पं. रूपकिशोर भी गदगद हो उठे। दोनों ने बालक के सिर पर हाथ फेरा और स्नेह से सूँघा।
उन दिनों अभिभावक अपने बच्चे को गुरु के पास रखना ही श्रेयस्कर समझते थे। छात्र गुरु के पास जितना ज्यादा रहेगा, उतना ज्यादा सीखेगा। पंडित रूपराम की पाठशाला में पंद्रह-बीस छात्र रहते थे। आस-पास के गाँवों से आए बच्चे भी थे। पढ़ाई के लिए आने वाले छात्रों की संख्या इससे दो-ढाई गुना थी। इतने छात्र तो प्रायः दिन-रात रहते ही थे। कुछ विद्यार्थी आते-जाते भी रहते , जैसे किसी दिन वहीं सो गए, तो कभी अपने घर चले गए। गुरु जी सभी छात्रों से स्नेहिल व्यवहार रखते। उनके पढ़ने, खाने, पीने, सोने, बैठने और बातचीत करने में अनुशासन दिखाई देता था, लेकिन यह अनुशासन लादा हुआ नहीं था। स्नेह और मधुर दुलार से छात्र के भीतर जगाया हुआ था। उदाहरण के लिए पाठशाला या गुरुगृह में ही सोने वाले बच्चों को गुरु जी सुबह खुद जगाते थे। बच्चे थके-माँदे नहीं हों, तो भी देर तक नींद आती है। अभ्यास नहीं होने के कारण बिना सोए भी बिस्तर पर पड़े रहने में मजा आता है। सुबह जल्दी उठने की आदत डालने के लिए गुरु जी खुद उन बच्चों के पास जाते। उन्हें स्नेह से पुकारते, उठाते, उषःपान कराते और नहा धोकर पढ़ने के लिए बिठा देते।
गायत्री ब्राह्मण की कामधेनु
बालक श्रीराम का सोना-जागना अपनी हवेली में ही रहा। सुबह सात बजे वह बिना नागा पाठशाला पहुंच जाते और देर शाम तक वहीं पढ़ते रहते। पढ़ाई पूरी होने के बाद वापस अपने घर आ जाते। पाँच-छह साल यह क्रम चला होगा कि पिताजी के साथ काशी की यात्रा आरंभ हुई। काशी हिंदू विश्वविद्यालय की स्थापना के समय निश्चित हुआ कि श्रीराम को यज्ञोपवीत दीक्षा मालवीय जी स्वयं देंगे। उस निर्धारण को ध्यान में रखते हुए सात-आठ वर्ष की आयु में पिता ने चिरंजीव का उपनयन नहीं कराया था। काशी जाने पर मालवीय जी के निवास पर ही सादे समारोह में यज्ञोपवीत संपन्न हो गया। संस्कार के समय मालवीय जी ने गायत्री को सर्व वेदमय और ब्रह्मस्वरूप होने के जो उपदेश दिए थे, वे रास्ते में हर क्षण कानों में गूंजते रहे। दस-बारह साल के बालक के लिए ये उपदेश गूढ भी थे और सहज ग्राह्य भी । ग्रहण कर लिए जाए, तो पूरे जीवन की दिशाधारा तय हो जाती है।
अपनी समझ के अनुसार बालक श्रीराम ने पिताश्री से उपदेशों के बारे में कई जिज्ञासाएं की। गायत्री को ब्राह्मण की कामधेनु क्यों कहा है? ब्राह्मण कौन है, किसे गायत्री सिद्ध होती है? अगर ब्राह्मण को गायत्री सिद्ध होती है, तो इस जाति के लोग दीन-हीन क्यों होते हैं? गायत्री को किसने शाप दिया? उस शाप का विमोचन कैसे किया जाए, आदि प्रश्नों का समाधान रास्ते में ही होगा । गुरुदेव के बाद में पिताजी से मिले सभी समाधानों का समय-समय पर उल्लेख किया है। वह विवेचन गायत्री साधना के मर्म को स्पष्टतः उद्घाटित करता है। यहाँ इतना ही कि यज्ञोपवीत के बाद बालक श्रीराम ने संध्या गायत्री जप आरंभ कर दिया।यह बात मन अच्छी तरह बैठ गई थी कि संध्या-गायत्री नहीं करने से यज्ञोपवीत भंग हो जाता है। व्यक्ति को व्रात्यसंज्ञक अर्थात् पतित कहा जाने लगता है और यज्ञोपवीत संस्कार के समय हुआ उसका दूसरा जन्म या मनुष्य जीवन स्थगित हो जाता है। वह अपने आपको द्विज कहने का अधिकार खो देता है।
वाराणसी से लौटने के बाद बालक श्रीराम ने अपने लिए हवेली में एक कमरा निश्चित कर लिया। वहाँ वे जप-ध्यान करते। संध्यावंदन के लिए खुले में जाते। यह खुलापन घर की छत पर होता या गाँव के बाहर बने शिवालय में। अपने खेत में वटवृक्ष के नीचे भी वे संध्यावंदन के लिए जाते थे। पुत्र को जप-ध्यान में इतना तन्मय देखकर पिताश्री बहुत प्रसन्न होते थे। वे कहते श्रीराम अपना ब्राह्मण होना सार्थक करेगा। अपने आपको ही नहीं, पूरे कुल को और गायत्री उपासकों को धन्य बनाएगा। पिताश्री ‘जब’ ब्राह्मण’ कहते थे, तो उनका आशय इस नाम के किसी कुल या जाति में जन्म लेने वाले व्यक्ति से नहीं था। सीधे-सादे शब्दों में वे कहते थे, जिसका आचार शुद्ध हो, वही ब्राह्मण है। जो ब्रह्म को जानने और पाने के लिए अपने आपको तपा रहा हो, वह ब्राह्मण है।
घर में छत पर ‘मंदिर में’ वट वृक्ष के नीचे और खुले आकाश तले बालक श्रीराम का जप-ध्यान चलता। सुबह पाँच के लगभग वे उठ जाते और स्नान आदि से निवृत्त होकर संध्या-वंदन के लिए बैठ जाते। प्राची में सूर्योदय की लालिमा फैलने तक संध्यावंदन और गायत्री ज पके साथ सविता देवता के स्वर्णिम प्रकाश का ध्यान होता। संध्या के सभी कृत्य’ अनेन संध्योपासनेन कर्मणा श्री परमेश्वरःप्रीयताँ न मन । ॐ तत्सद् ब्रह्मार्पणमस्तु’ के पाठ के बाद संपन्न हो जाता । इस पाठ के साथ जप-साधना का पुण्य परमात्मा को ही समर्पित कर बालक श्रीराम वापस लौट आते। सात बजे पंडित रूपराम की पाठशाला में पहुँच जाते। वहाँ शिक्षा के साथ आचार आदि के अभ्यास होता। शाम के समय भी सूर्यास्त होने के ठीक पहले सायंकालीन संध्या शुरू हो जाती। तारे दिखाई देने तक वह संध्या कर्म भी परब्रह्म को समर्पित हो जाता। यह सिलसिला चार-पाँच साल चला।
शास्त्रीय मान्यता है कि नियमपूर्वक नियत समय पर विधि-विधान से किया गया गायत्री जप तेजी से आध्यात्मिक ऊँचाइयों की ओर ले जाता है। विधि-विधान का तात्पर्य अपनी साधना में श्रद्धा-विश्वास का समावेश है। जो किया जा रहा है, जो समझाया गया है, उसमें प्रत्यक्ष की तरह विश्वास कहा गया है कि गायत्री कामधेनु है, तो उसी रूप में मान लिया। यक संदेह नहीं उठा कि यह सिर्फ महत्व बताने के लिए ही है। सच्चाई शायद कुछ और हो। शास्त्र गुरु और साधना में श्रद्धा सिद्धि के मार्ग पर ले जाती है।
साधना का खेल
बालक श्रीराम प्रातः-सायं संध्या और गायत्री जप के साथ दिन में भी ध्यान का अभ्यास करते! गुरु जी की पाठशाला में यह उनका प्रिय खेल था। अध्ययन से अवकाश मिलता, तो वे ध्यान-जप के लिए बैठ जाते। दूसरे छात्र खेलते रहते। कुछ सहपाठियों ने भी उनके खेल में रुची दिखाई। दो-चार साथी मिल जाने पर नया खेल खिलाड़ी पालथी मारकर बैठ जाते। उनसे कहा जाता आँखें बंद कर देखने की कोशिश करो। उस जगह देखो जहाँ दोनों भौहें मिलती है। देखते हुए अनुभव करो कि वहाँ सूर्य चमक रहा है। पता नहीं कितने छात्रों ने इस खेल को समझा। बहरहाल वे चुपचाप बैठे रहते। पूछने पर कहते कि बड़ा मजा आ रहा है। खेल के अगले चरण में गायत्री , हिमालय, गंगा, यमुना, सरस्वती, सिद्ध, संत और इसी तरह की चर्चा चल पड़ती। इन चर्चाओं में कोई तारतम्य नहीं होता। आठ-दस वाक्यों में ज्यादा संगति भी नहीं बैठती,लेकिन आधा-पौने घंटे तक खेल चलता रहता। कुछ दिन बाद वे चार पाँच शाखाओं को लेकर जंगल भी जाने लगे। घनी छाया वाले पेड़ के नीचे बैठकर खेल चलता।
एक बार श्रीराम अकेले ही गए और तीसरे पहर लौटे। पाठशाला का समय था। गुरु जी ने समझा कि छात्र किसी काम से घर गया होगा।घरवालों ने समझा कि पाठशाला में ही होगा। इसलिए उन्हें खोजा नहीं। जिन छात्रों को ‘साधना-साधन’ खेल में रस आने लगा था, वे ढूँढ़ते रहे। तीसरे पहर उनके खेल का लीडर प्रकट हुआ तो पूछा कहाँ गए थे। श्रीराम ने उत्तर दिया, एक गुफा मिल गई थी। वहाँ काई नहीं आता। आराम से बैठकर ध्यान किया जा सकता है। अगले दिन वे साथियों को लेकर गुफा के पास गए। साथी किसी तरह गुफा तक चले तो गए, लेकिन भीतर जाने का साहस नहीं हुआ। डर लगा। श्रीराम अंदर घुस गए। दूसरे लड़कों से न अंदर जाते बना और न ही वापस लौटने की हिम्मत हुई। अपने लीडर के वापस आने तक बाहर ही खड़े रहे।
घंटे-डेढ़ घंटे बाद श्रीराम वापस आए, तो छात्रों ने उलाहना दिया। कहा कि इस खेल में अब आगे से शामिल नहीं होंगे। श्रीराम ने छात्रों के साथ छोड़ देने की परवाह नहीं की। समय मिलते ही घंटे-आधा घंटे के लिए अकेले ही निकल जाना और गुफा में ध्यान लगाना जारी रखा। बीच-बीच में कक्षा से गायब हो जाने पर गुरु जी का ध्यान भी गया। उन्होंने श्रीराम से सीधे न पूछकर छात्रों से ही पूछ डाला। गोपालदास नामक छात्र ने बता दिया । गुरु जी ने कहा, तुम उसके घर जाकर यह बात कह देना। इस तरह ताई जी को गुफा में जाने की बात पता लग गई। उन्होंने श्रीराम को बुलाकर डाँटा। कहा कि शेर-चीते की गुफा होगी, किसी दिन तुम्हें देख लेगा, तो फाड़कर खा जाएगा। माँ की डाँट सुनकर श्रीराम ने मौन हामी भर दी कि वे अब नहीं जाएँगे। हामी भरते ही माँ ने पुत्र को हृदय से लगा लिया।
इसके बाद कोई दिन ऐसा नहीं बीता था कि स्कूल नहीं गए हों। हारी-बीमारी की बात अलग है, अन्यथा पाठशाला नियमित जाना होता था। बिना नागा और बिना देर किए अपनी कक्षा में पहुँच जाते। जिस किसी दिन नहीं आना होता था, उस दिन हवेली से सूचना पहुँच जाती थी कि आज श्रीराम अमुक कारण से विद्यालय नहीं आएँगे। एक दिन न सूचना पहुँची और नहीं श्रीराम आए।पंडित रूपराम ने सोचा किसी कारण सूचना नहीं भिजवाई जा सकी होगी। उन्होंने गौर नहीं किया। उसी दिन शाम को हवेली से संदेश आया कि श्रीराम अभी तक घर नहीं पहुँचे है। क्या कक्षाएँ देर तक चल रही है?
गुरुजी के सामने अब उजागर हुआ कि उनका छात्र पाठशाला के लिए निकला तो था, लेकिन कहीं और चला गया है। पहली आशंका यही हुई कि ध्यान वाली गुफा में बैठा हो, जहाँ महीनों पहले कुछ सहपाठियों के साथ जाया करते थे। ताई जी ने कहा, श्रीराम ने मना कर दिया था,इसलिए वहाँ जाने का सवाल ही नहीं उठता। फिर भी एक बार गुफा में तलाशने के लिए कुछ लोग निकले। अष्टमी या नवमी की रात थी। चंद्रमा की मद्धिम चाँदनी में रास्ता देखा जा सकता था फिर भी जरूरत पड़ने पर मशाल जलाने का इंतजार कर लिया।