Books - आसन और प्राणायाम
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आसन क्यों? और कैसे?
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यम नियमों द्वारा अन्तःचेतना की सफाई के साथ साथ शरीर और मन को बलवान बनाने की आवश्यकता है। चिकित्सा द्वारा शरीर में से बीमारी को हटा देने के पश्चात रोगी को अच्छे भोजन की भी व्यवस्था करनी पड़ती है। फूटे हुए बर्तन के छेद बन्द कर देने के उपरान्त उसमें जल आदि भर देते हैं। खेती को जंगली पशुओं से सुरक्षित रखना आवश्यक है पर इतने से ही काम नहीं चल सकता। अच्छी फसल प्राप्त करने के लिए खेत में खाद देना और सींचना भी जरूरी है। योग साधना ऐसी ही खेती है जिसे यम नियम द्वारा हिंसा, झूंठ, चोरी, व्यभिचार, लोभ, मलीनता, तृष्णा, आलस्य, अज्ञान सरीखे दश जंगली पशुओं से रक्षा करनी होती है और आसनों की खाद तथा प्राणायाम का पानी देना होता है तभी संतोष जनक प्रगति होती है।
आसनों की वाह्य रूप रेखा व्यायाम से मिलती जुलती है, जिस प्रकार दंड बैठक ड्रिल आदि से कसरत होती है वैसी ही क्रिया पद्धति आसनों में देखी जाती है। स्थूल दृष्टि से देखने में आसनों की परिपाटी व्यायाम की आवश्यकता की पूर्ति के लिए बनाई गई प्रतीत होती है। अतएव यह प्रश्न सहज ही उठ खड़ा होता है कि जो लोग पहलवानी करते हैं, दंड-बैठक करते हैं, हॉकी-फुटबाल खेलते हैं या कड़ी मशक्कत करके जीविकोपार्जन करते हैं, उनके लिए आसनों की क्या आवश्यकता है? व्यायाम तो अन्न, जल, निद्रा की भांति साधारण दैनिक क्रिया है, जब खान-पान, शयन, स्नान आदि की चर्चा नहीं की गई है तो व्यायाम में ही ऐसी क्या विशेषता थी जो उसको योग-साधना में प्रमुख स्थान दिया गया?
विवेचना के पश्चात विदित हुआ है कि आसनों का गुप्त आध्यात्मिक महत्व है, इन क्रियाओं से उन सूर्य चक्र, मणिपूर चक्र, अनाहत चक्र आदि, सूक्ष्म मर्म ग्रन्थियों का जागरण होता है और कई मानसिक शक्तियों का असाधारण रूप से विकास होने लगता है, इसके साथ साथ उच्च कोटि का शारीरिक व्यायाम तो यह है ही। आसनों के अतिरिक्त अन्य कोई व्यायाम ऐसा नहीं है जिससे शरीर के सभी अंगों की यथोचित कसरत हो जाय। दंड बैठक आदि में हाथ पांवों को अधिक मेहनत करनी पड़ती है, कभी कभी यह मेहनत इतनी अधिक हो जाती है कि उन स्थानों के मेद तन्तु फट जाते हैं जिससे वहां के अंग कठोर, निर्जीव तथा बेडौल हो जाते हैं, जितनी फुर्ती और चैतन्यता चाहिए उतनी नहीं रहती। इस प्रकार एक ओर तो किन्हीं खास अंगों को आवश्यकता से अधिक कार्य करना पड़ता है और दूसरी ओर कुछ अंग बिना कसरत के ही छूट जाते हैं। इसलिए कई व्यायाम पहलवानी और मजबूती के दृष्टि से अच्छे होते हुए भी सर्वांगीण स्वस्थता की दृष्टि से निकम्मे ही ठहरते हैं। यह कमी आसनों में नहीं है, उनका विधान इस प्रकार का है कि प्रायः सभी अंगों का यथोचित मात्रा में व्यायाम हो जाता है।
पहलवानों के लिए राजसिक और अधिक मात्रा में आहार की आवश्यकता है। जिनको पहलवानों के निकट रहने का अवसर मिला है वे जानते हैं कि कितनी अधिक मात्रा में और कितने बढ़िया भोजन की उन्हें आवश्यकता होती है। योगाभ्यास में यह सब वांछनीय नहीं, राजसिक आहार से वृत्तियां भी राजसिक बनती हैं, योगी को सात्विक आहार की आवश्यकता होती है ताकि उससे उत्पन्न हुआ रस रक्त सात्विकता को उत्पन्न करे। सात्विक आहार में उतनी ताकत नहीं होती है जितनी कि राजसिक में होती है, दूसरे आध्यात्म मार्ग में स्वल्पाहार की प्रधानता है, पहलवानों में उससे तिगुनी चौगुनी खुराक चाहिए, इसलिए भी योग साधकों के लिए अन्य व्यायामों की अपेक्षा आसन ही अधिक उपयोगी बैठते हैं, इनमें इतनी शक्ति खर्च नहीं होती जिसकी पूर्ति के लिए राजसिक आहार को अधिक मात्रा में लेने की आवश्यकता पड़े।
सभी मनुष्यों की शरीर रचना ऐसी नहीं होती कि वे कड़े व्यायामों का लाभ उठा सकें। जिनकी शक्तियां मस्तिष्क में होकर खर्च होती रहती हैं ऐसे बुद्धि जीवी लोग आमतौर से कमजोर शरीर के होते हैं, दो व्यक्तियों के साझे की एक रोटी हो और उसमें से एक अधिक खा जाय तो दूसरे को स्वभावतः कुछ भूखा रहना पड़ेगा, यही बात मानसिक कार्य करने वालों के संबंध में हैं। उनके शरीर को कुछ निर्बल रहना ही पड़ता है। इस युग में अशुद्ध मिलावटी और छोटे दर्जे का खाद्य सामग्री के ऊपर आम जनता को निर्वाह करना पड़ता है, बाल विवाह, कुसंग, अश्लील साहित्य, सिनेमा आदि के कुप्रभावों के कारण तथा नाना प्रकार की सांसारिक, शारीरिक, मानसिक आदि व्याधियों के कारण, सर्व साधारण का स्वास्थ्य बहुत ही गिरे दर्जे का हो गया है। कई व्यक्ति स्वास्थ्य सुधार के लिए व्यायाम आरंभ करते हैं पर उन्हें यह बहुत ही असुविधाजनक होता है, थोड़े से दंड बैठक करने से उनकी नसें दुखने लगती हैं, देह में दर्द होने लगता है, किसी प्रकार चार छै दिन क्रम जारी रखते हैं पर उनकी असुविधाएं बढ़ती जाती हैं और अन्ततः उसे छोड़ देने के लिए विवश होना पड़ता है। जिनकी जीवनी शक्ति इतनी अल्प है कि उससे दैनिक कार्य ही मुश्किल से चल पाते हैं तो फिर व्यायाम को कौन बर्दाश्त करे?
फैशन, टीम टाम, सभ्यता, नकलीपन, वैज्ञानिक ऐय्याशी और मिथ्या ज्ञान ने हमारे सार्वजनिक स्वास्थ्य को बुरी तरह खा डाला है। चमकीली पोशाक में लिपटी हुई, रोग ग्रस्त ठठरियां इधर से उधर चलती डोलती दिखाई पड़ती हैं। इनमें से कितने ऐसे हैं जिनको कठोर व्यायाम की, कुश्ती लड़ने, पहलवानी करने या मुद्गर हिलाने की सलाह दी जा सकती है। व्यायाम की अनिवार्य आवश्यकता से इनकार नहीं किया जा सकता, वह उतना ही जरूरी है जितना खाना और सोना। इन परिस्थितियों में वह औषधि जो योगियों के लिए उपयोगी थी सर्व साधारण के लिए भी सर्वश्रेष्ठ बन गई है। अमृतधारा हैजे को रोकने में अच्छा काम करता है पर बिच्छू के काटे पर भी उसका आश्चर्य जनक फल होता है। योग साधकों को आसनों से अपनी स्वास्थ्य रक्षा में बड़ी सहायता मिलती है पर आज की अयोगी जनता के लिए भी आसनों का व्यायाम आमतौर से बहुत ही उपयोगी और हितकर होगा। इस प्रकार इस युग का सर्व सुलभ, सर्वोपयोगी सर्वश्रेष्ठ और सार्वजनिक व्यायाम ‘आसन’ ही हो सकता है।
हमारे पूजनीय पूर्वजों ने प्रकृति के सूक्ष्म नियमों का बारीकी के साथ निरीक्षण करके आसनों की रचना की है। अनेक पशु पक्षी प्रकृति की प्रेरणा से अपनी चैतन्यता को बढ़ाने के लिए एक विशेष प्रकार से अपने अंग प्रत्यंगों को ऐंठते, मरोड़ते या तानते हैं। कुत्ता जब सोकर उठता है तो पांवों को जमाकर धड़ को पीछे की ओर तानता है और फिर आगे की ओर हो जाता है। बिल्ली चारों पांवों को इकट्ठा करके धड़ को ऊपर उठाती है, पशु पक्षियों की इन विभिन्न व्यायाम क्रियाओं का निरीक्षण करके उन्हीं के नाम पर आसनों के नाम रखे गये हैं। जैसे—मयूरासन, कुक्कुटासन, मत्सासन, शलभासन, उष्ट्रासन, विडालासन, सर्पासन आदि। यह प्राणी प्रकृति माता का आदेश सुनते हैं और उसके अनुसार आचरण करते हैं। प्रकृति ने जीवन रक्षा और निरोगता की शिक्षा हर एक प्राणी को दे रखी है। आसनों से स्नायुओं का खिंचाव होता है जिससे उनका विकास होता है, उनमें दृढ़ता आती है, और रक्त प्रवाह शुद्ध हो जाता है। इससे शरीर की सुस्ती दूर हो जाती है, चैतन्यता आकर किसी भी कार्य में उत्साह होता है।
साधारणतः व्यायाम की उद्देश्य शरीर को बलवान बनाना है। परिश्रम करने से मांस पेशियां पुट्ठे, नाड़ी संस्थान, मज्जा तन्तु मजबूत होते हैं उनमें दृढ़ता और समता बढ़ती है, आसनों में यह गुण तो हैं ही साथ में चैतन्यता का लाभ विशेष है, सुस्ती दूर होकर स्फूर्ति, उत्साह, सजीवता, प्रफुल्लता का संचार खास तौर से होता है, काम में मन लगता है, देह हलकी रहती है, सुस्ती, भारीपन और जी उचटने की शिकायतों से सहज ही छुटकारा मिल जाता है। जो लोग जीवन निर्वाह के लिए थका देने वाला कठोर परिश्रम करते हैं या अन्यान्य व्यायाम पद्धतियों को अपनाये हुए हैं उन्हें भी आसनों की आवश्यकता है।
आसनों के लिए प्रातःकाल का समय सबसे श्रेष्ठ है। ब्राह्म मुहूर्त में नित्यकर्म से निवृत्त होकर आसनों के लिए तैयार होना चाहिए। यदि स्नान सवेरे ही करना हो तो आसनों से पहले कर लेना चाहिए अन्यथा उसके बाद आधा घण्टे तक ठहरना चाहिए जब तक कि शरीर की बढ़ी हुई गर्मी शान्त न हो जाय। समतल भूमि पर चटाई बिछाकर आसनों के लिए बैठना चाहिए। हलकी बनियान और ढीला जांघिया शरीर पर रहना पर्याप्त है, अधिक और चुस्त कपड़े पहने रहने से एक तो अंगों के संचालन में बाधा पड़ती है दूसरे उस समय शरीर से निकलने वाली गन्दी वायु के बाहर जाने और उसके स्थान पर नवीन स्वच्छ वायु के आने में बाधा उपस्थित होती है, अतएव यही उचित है कि लज्जा निवारण के लिए जांघिया और हवा की अनावश्य तेजी तथा सर्दी गर्मी से छाती को बचाने के लिए बनियान पहने रखी जाय।
आसनों को तीनो श्रेणी में विभक्त किया जा सकता है। (1) खड़े होकर किये जाने वाले। (2) बैठकर किये जाने वाले (3) लेटकर किये जाने वाले। खड़े होकर किये जाने वालों में हाथ पैर और कमर का परिश्रम अधिक होता है। बैठकर किये जाने वालों में पीठ गरदत, कंधे अधिक श्रम करते हैं और लेटकर किये जाने वालों में पेट छाती, गले को अधिक मेहनत करनी पड़ती है। देखना चाहिए कि हमारे दैनिक कार्य क्रम में किन अंगों को अधिक परिश्रम करना पड़ता है और किनको कम। जिन अंगों को अधिक कार्य करना पड़ता हो उनके लिए व्यायाम की उतनी आवश्यकता नहीं है जितनी कि कम कार्य करने वाले अंगों के लिए है। यों तो हर एक आसन में हर एक अंग को कुछ न कुछ मेहनत करनी पड़ती है इसलिए छूटने तो कोई भी नहीं पाता परन्तु प्रश्न अधिकता और न्यूनता का है। जो अंग कम काम करता है या अधिक निर्बल है उसे सतेज एवं पुष्ट करने की विशेष आवश्यकता है। मध्यम मार्ग भी यही है कि अधिक कार्य करने वाले को आराम दिया जाय अन्यथा अधिक श्रम की गर्मी से वह गलने और विकृत होने लगेगा। इसी प्रकार कम काम करने वाले से परिश्रम कराया जाय वरना वह मंद, क्रियाहीन, निकम्मा और कमजोर होकर बीमारियों का घर बन जायगा।
अनुभवियों का कथन है कि कमजोर, वृद्ध और बुद्धिजीवी लोगों को लेटकर किये जाने वाले आसन अधिक उपयोगी हैं, जिनके उदर तथा वक्ष में निर्बलता है भूख कम लगती है, दस्त साफ नहीं होता, कफ, खांसी, जुकाम आदि की शिकायत बनी रहती है उन्हें पेट पर दबाव डालने वाले आसन खास तौर से करने चाहिए। खड़े और बैठकर की जाने वाली, क्रियाएं उनके लिए गौण हैं। उनमें कम समय लगाया जाय और थोड़ा श्रम दिया जाय तो भी ठीक है।
आसनों संबंधी अनेक भारतीय और विदेशी पुस्तकें हमने पढ़ी हैं तथा इस विषय के सैकड़ों अनुभवी व्यक्तियों से काफी वार्तालाप किया है। (1) आसन कितने हैं? (2) उनके क्या क्या नाम हैं? (3) कौन आसन किसके लिए उपयोगी हैं? इन तीन प्रश्नों पर सबके मत हमें एक दूसरे से भिन्न और विपरीत मिले हैं। एक क्रिया को अमुक पुस्तक में अमुक नाम से बताया गया है, और उसके अमुक लाभ बताये गये हैं किन्तु दूसरी पुस्तक उसका नाम और गुण दूसरा ही बताती है। इसी प्रकार अनुभवी व्यक्तियों के अनुभव एक दूसरे से विपरीत हैं। संख्या के बारे में कुछ ठिकाना नहीं किसी पुस्तक में सत्ताईस किसी में पचपन किसी में चौरासी किसी में एक सौ बत्तीस उनकी संख्या है। एक ही नाम के आसन की क्रियाएं अलग अलग तरह से पाई जाती हैं, कई कई भेद उपभेद भी मिलते हैं। इस प्रकार हमारी गणना में 873 भारतीय आसन प्राप्त हुए हैं, संभव है यह गणना अधूरी हो और कोई दूसरे सज्जन इससे भी अधिक ढूंढ सकें। यूरोप, अमेरिका तथा ऐशिया के अन्यान्य देशों के आसन करीब साढ़े छै हजार तक पहुचंते हैं, इसके अतिरिक्त जो और भी होंगे उनके बारे में कुछ ठीक ठीक नहीं कहा जा सकता।
विचार करने से प्रतीत होता है कि कसरत की कोई विधि पत्थर की लकीर नहीं है। संभव है शुरू शुरू में दो चार ही आसन रहे हों पीछे अनुभव द्वारा उनकी संख्या बढ़ती गई और चौरासी हो गई। चौरासी आसन प्रसिद्ध हैं पर अब तो अनुभव ने उनकी संख्या इससे भी अनेक गुनी करदी है और आगे आगे बढ़ती ही जायगी। मानव शरीर की बनावट एक–सी नहीं होती उनमें फर्क पाया जाता है। इस फर्क के आधार पर आहार और विहार की अनुकूलता में भी अन्तर आता है। एक आदमी को उर्द की दाल बलवर्धक और स्वादिष्ट प्रतीत होती है दूसरे को वह अरुचिकर तथा पेट फुला देने वाली साबित होती है। एक व्यक्ति को सर्दी सह्य होती है गर्मी नहीं किन्तु दूसरा गर्मी में सुखी रहता है और सर्दी में कष्ट अनुभव करता है। यही बात व्यायामों के संबंध में है किसी की नसें इतनी कड़ी होती हैं कि वे अमुक मर्यादा तक ही मुड़ सकती हैं किन्तु किसी का शरीर बहुत लचीला होता है उसे काफी झुकाया या मोड़ा जा सकता है। जिन आसनों में शरीर को अधिक मोड़ने की आवश्यकता है वे लचीली बनावट के लोगों के लिए सुलभ है किन्तु जिनकी नसें कड़ी एवं कठोर हैं उनके लिए दूसरी किस्म के आसन अहितकर होंगे। इस भिन्न प्रकृति के जनाधार पर अनुभवियों को नये नये आसनों की रचना करनी होती है।
किस व्यक्ति के लिए कौन-सा आसन हितकर होगा इसका निर्णय करने से पूर्व उसकी शरीर रचना, प्रकृति, दिनचर्या स्वास्थ्य आदि का निरीक्षण करना होता है। अमुक व्यक्ति को कौन-सा आसन करना अधिक हितकर होगा इसका ठीक ठीक निर्णय क्षणमात्र में कोई विरले ही अनुभवी कर सकते हैं। पर ऐसे अनुभवियों से हर एक का सम्पर्क होना सुलभ नहीं, ऐसी दशा में सबसे अच्छा मार्ग यह है कि अभ्यासी अपने अनुभव द्वारा अपना मार्ग निर्धारित करें। आसनों के चित्रों वाली दर्जनों पुस्तकें और तस्वीरें बाजार में बिकती हैं इनमें से दो चार खरीद लेनी चाहिए और देखना चाहिए कि इनमें से कौन-सा आसन हमारी शरीर रचना और आवश्यकता के अनुकूल पड़ता है। किसी आसन का प्रयोग करते समय बारीकी के साथ यह देखना चाहिए कि इसका दबाव किन किन अंगों पर कितना कितना पड़ता है। एक दो दिन के प्रयोग से उसके द्वारा होने वाले नफा नुकसान का भी आभास मिलने लगता है उन सब बातों को ध्यान में रखते हुए किन्हीं उपयोगी आसनों को अपने लिए चुनना चाहिए, उनकी संख्या चार पांच से अधिक न होनी चाहिए। नित्य आप दस प्रकार का आसन लगावें इसकी कुछ भी आवश्यकता नहीं है। पेट, छाती, पीठ, कमर, कंधे, गरदन, हाथ पैरों यथोचित परिश्रम जिनमें हो जाय ऐसे चार पांच आसनों से भी काम चल सकता है।
आसनों की अनेक किस्में इसलिए नहीं हैं कि इनमें से हर एक का अभ्यास करना चाहिए वरन् इसलिए हैं कि इनमें से जो जिसे अनुकूल पड़े वह उन्हें काम में लेले। बजाज की दुकान पर सैकड़ों किस्म के कपड़े होते हैं उनमें आपको जो रुचे उसे खरीद सकते हैं, यह जरूरी नहीं कि दुकान के सब कपड़े आपको पहनने ही पड़े, जो कपड़ा आपको अच्छा जंचता है संभव है वह दूसरों को बुरा लगे और यह भी संभव है कि दूसरे लोग जिसे बढ़िया समझते हैं वह आपको सही प्रतीत हो। आसनों के बारे में भी यही बात है। शीर्षासन की तारीफ सब ओर सुनी जाती है बहुत लोगों को यह बहुत लाभदायक होता है परन्तु हमने ऐसे लोगों को भी देखा है जो शीर्षासन से मस्तिष्क में अत्यधिक रक्त पहुंच जाने के कारण गर्मी बढ़ गई और वे पागल हो गये, कई को निद्रानाश, चिड़चिड़ापन, नेत्रों में जलन आदि का शिकार हो जाना पड़ा। इसका अर्थ यह न समझना चाहिए कि शीर्षासन बुरा है, बुराई आसन में नहीं वह प्रकृति के अनुकूल आसन का चुनाव न करने में है। शीत प्रकति के मस्तिष्क में रक्त की उष्णता पहुंचाने से उसमें लाभ होता है किन्तु जो दिमाग गर्मी से जला करते हैं जिनमें पहले से ही रक्त का दबाव अत्यधिक है उनके लिए शीर्षासन उपयोगी नहीं हो सकता। इसी प्रकार अन्य आसनों का विषय है, उनका चुनाव भी सावधानी से होना चाहिए। और यह भी निश्चित है कि जितना अच्छा चुनाव अपने लिए खुद किया जा सकता है उतना दूसरा कोई नहीं कर सकता कारण यह है कि अपने बारे में जितनी जानकारी खुद को होती है उतनी दूसरों को नहीं होती।
जिन्हें पुराने आसनों में से कोई अनुकूल न पड़ता हो, या उनकी अधिक जानकारी न हो वे अपनी बुद्धि से नये आसनों का आविष्कार कर सकते हैं। आसन दो प्रकार के हैं एक वे जिनका संबंध व्यायाम से है, दूसरे वे ध्यान योग की साधना के लिए सुख पूर्वक अधिक समय तक बैठे रहने के लिए हैं। ध्यान योग वाले आसनों की चर्चा हम आगे करेंगे यहां तो व्यायाम संबंधी प्रकृयाओं की ही चर्चा हो रही है। इस प्रकार के आसनों का सिद्धान्त यह है कि एक साधारण स्थिति में लेटना, बैठना या खड़ा होना चाहिए। फिर अमुक अंगों को अमुक मर्यादा तक धीरे धीरे तानते हुए ले जाना चाहिए, मर्यादा पर पहुंच कर कुछ देर ठहरना चाहिए तदुपरान्त धीरे धीरे पूर्व क्रिया को वापिस लौटाते हुए साधारण स्थिति पर पहुंच जाना चाहिए। कुछ देर साधारण स्थिति पर रहकर पुनः उसी प्रक्रिया को दुहराना चाहिए, इस प्रकार एक आसन को कई बार करना चाहिए।
ध्यान रखने की बात यह है कि झटके से किसी आसन को न करना चाहिए धीरे धीरे एक समान गति से अंगों को एक से तनाव के साथ नियत मर्यादा तक ले जाना चाहिए और फिर कुछ ठहर कर जब वापिस लौटने लगे तो उसी प्रकार धीरे धीरे, समान गति और समान तनाव के साथ लौटना चाहिए। जैसे कि आसन को आरंभ करते समय था, दबाव की जो अन्तिम मर्यादा नियत की गई है आरंभ में उसे कुछ नीचा ही रखना चाहिए और फिर धीरे धीरे अधिक आगे बढ़ते जाना चाहिए। आसनों की संख्या में भी यथा क्रम वृद्धि करनी चाहिए; प्रारंभ में जिस प्रक्रिया को चार चार बार किया जाता है, धीरे धीरे उसे पांच छै आठ दस बीस आदि तक सुविधानुसार बढ़ाना चाहिए। प्रारंभ में यदि दस मिनट अभ्यास किया जाय तो उसे धीरे धीरे दो चार मिनट बढ़ाते हुए घण्टे आध घण्टे तक ले जाना चाहिए। प्रारंभ में ही अधिक समय लगाना उचित नहीं जिससे देह में दर्द होने लगे और दूसरे ही दिन अभ्यास को कम करने या बन्द करने के लिए विवश होना पड़े। यथाक्रम आगे बढ़ना ही उचित है जिससे यात्रा निरंतर आगे बढ़ती चले। रोगी और गर्भिणी स्त्रियों को व्यायाम का निषेध किया गया है—यह प्रतिबन्ध कठोर आसनों के लिए है। पीठ के बल लेटकर धीरे धीरे अंग परिचालन करके हलके आसनों का उपयोग वे भी कर सकते हैं, अपनी शक्ति और आवश्यकता का ध्यान रखते हुए इस पद्धति को अपनाना कभी हानिप्रद नहीं हो सकता।
बैठने के कई आसन ऐसे हैं, जिनमें एक प्रकार का बंध बंध जाता है। अमुक अंग से अमुक अंग को जकड़कर इकट्ठा कर दिया जाता है और कुछ देर उसी दशा में जकड़े रहना पड़ता है। मत्स्येद्रासन, जानु शिरासन, द्विहस्त, भुजासन, वातायनासन, पश्चिमोत्तासन, कुक्कुटासन, गर्भासन जैसे आसन इसी प्रकार के हैं। इन आसनों पर अधिक देर न बैठना चाहिए। अनुभव के पश्चात इनकी विशेष उपयोगिता साबित नहीं होती। किन्हीं खास अंगों पर तनाव तो इनसे पड़ता है पर पेशियों का आकुंचन प्रसारण तथा रक्त की चाल का तीव्र होना इनमें नहीं होता, कोई अंग अकड़ गये हों नसों में कठोरता आ गई हो तो उन्हें तानने के लिए इनका उपयोग है, यह विशेष परिस्थिति के आसन हैं, साधारण अवस्था के नहीं।
लेट कर किये जाने वाले आसनों में सर्वांगासन, मयूरासन, मत्स्यासन, दण्डासन, सर्पासन, धनुरासन आदि की उपयोगिता उदर के अंग, प्रत्यंगों के संचालन के लिए है। इनसे पेट, छाती, यकृत, फुफ्फुस तथा जंघाओं की कसरत हो जाती है। मध्यम बल के लोगों के लिए, कमजोरों के लिए, छुटपुट बीमारी की अवस्था में यह उत्तम है। इनमें अधिक दबाव नहीं पड़ता और जितनी शक्ति हो उसी के अनुसार धीरे धीरे इन्हें आसानी के साथ किया जा सकता है।
खड़े होकर हस्त पादांगुष्टासन, गरुड़ासन, वातायनासन, पादहस्तासन, उत्कटासन, ताड़ासन आदि आसन किये जाते हैं। इनसे पीठ, कंधे, रीढ़, जांघ, पिंडलो तथा भुजाओं पर जोर पड़ता है और इन अंगों की भली प्रकार कसरत हो जाती है। खड़े होकर किए जाने वाले आसनों में अपेक्षाकृत शरीर पर अधिक श्रम पड़ता है। जिनका शरीर अच्छे स्वास्थ्य वाला है उनके लिए यह उपयोगी रहते हैं।
वैसे तो हर एक आसन से शरीर के हर अंग पर थोड़ा बहुत बल पड़ता है पर अधिक मात्रा में उनका प्रभाव उपर्युक्त प्रकार से ही होता है, इस पुस्तक के आरंभ में दिये हुए चित्रों में पाठक आसनों का कुछ परिचय प्राप्त कर सकते हैं और अपनी सुविधा तथा शरीर रचना के अनुसार जो उपयोगी पड़ें उन्हें अपने लिए चुन सकते हैं। साधारणतः बैठकर किये जाने वाले आसनों में पश्चिमोत्तासन तथा वद्ध पद्मनाभ, लेटकर किये जाने वालों में सर्वांगासन, मयूरासन, सर्पासन, धनुरासन और खड़े होकर किये जाने वालों में ताड़ासन, पाद-हस्तासन, उत्कटासन उपयोगी हैं। ये नौ आसन प्रतिदिन करने योग्य हैं और अधिकांश व्यक्तियों के लिए उपयोगी पड़ते हैं। जो उपयोगी न पड़े उसे छोड़ देना चाहिए और इसके अतिरिक्त भी हजारों प्रचलित आसनों में से कोई हितकर प्रतीत हो तो उसे अपना लेना चाहिए।
शीर्षासन—जिसे विपरीत करणी मुद्रा भी कहते हैं—की उपयोगिता के संबंध में बहुत सावधानी से परीक्षण करने की आवश्यकता है। पुस्तकों और पत्र पत्रिकाओं में शीर्षासन की तारीफ में बड़े बड़े लंबे चौड़े लेख निकलते हैं। यह गंभीरता पूर्वक देखना चाहिए कि कितने लेखक इनमें से कलम-कौशल के धनी हैं और कितने वास्तविक अनुभवी हैं। आजकल लोगों के स्वास्थ्य बहुत ही निर्बल देखे जाते हैं, नाड़ियों की धारणा शक्ति स्वल्प होती है और उनमें रक्त बहुत न्यून मात्रा में बहता है। ऐसे लोग यदि शीर्षासन पर अधिक जोर देंगे तो शरीर का रक्त अनावश्यक मात्रा में मस्तिष्क में पहुंचकर दिमाग के निर्बल तंतुओं में अधिक उत्तेजना उत्पन्न कर सकता है जिससे अनिद्रा, सिर दर्द, क्रोध, नेत्रों में सुर्खी आदि उपद्रव खड़े हो सकते हैं। हमारे अनुभव में कई ऐसे साधक आये हैं जिन्हें शीर्षासन के कारण उपरोक्त प्रकार की हानि उठानी पड़ी है। इसलिए हम अपने पाठकों को सावधान करते हैं कि किसी अनुभव हीन व्यक्ति के कहने या किसी लेख के पढ़ने मात्र से प्रभावित होकर शीर्षासन साधना की उतावली न करें। बलवान व्यक्तियों के लिए पूर्वकाल में जो आसन बहुत ही लाभदायक थे, संभव है कि आज की परिस्थितियों में निर्बल व्यक्तियों को लाभप्रद न बैठें। हमारे अनुभव में सर्वांगासन की उपयोगिता बहुत है, इससे शीर्षासन की बहुत कुछ आवश्यकता पूरी हो जाती है। वैसे हम शीर्षासन के विरोधी नहीं हैं, हमारी सम्मति तो इतनी ही है कि इस अभ्यास को बहुत थोड़ी मात्रा में धीरे-धीरे आरंभ करना चाहिए और यदि वह अपनी प्रकृति के अनुकूल जंचे तो ही उसके लिए आगे प्रयत्न जारी रखना चाहिए। सूर्य नमस्कार की व्यायाम पद्धति भी बहुत उपयोगी हो रही है, जिनसे यह बन पड़े, अवश्य अपनावें।
आसनों की वाह्य रूप रेखा व्यायाम से मिलती जुलती है, जिस प्रकार दंड बैठक ड्रिल आदि से कसरत होती है वैसी ही क्रिया पद्धति आसनों में देखी जाती है। स्थूल दृष्टि से देखने में आसनों की परिपाटी व्यायाम की आवश्यकता की पूर्ति के लिए बनाई गई प्रतीत होती है। अतएव यह प्रश्न सहज ही उठ खड़ा होता है कि जो लोग पहलवानी करते हैं, दंड-बैठक करते हैं, हॉकी-फुटबाल खेलते हैं या कड़ी मशक्कत करके जीविकोपार्जन करते हैं, उनके लिए आसनों की क्या आवश्यकता है? व्यायाम तो अन्न, जल, निद्रा की भांति साधारण दैनिक क्रिया है, जब खान-पान, शयन, स्नान आदि की चर्चा नहीं की गई है तो व्यायाम में ही ऐसी क्या विशेषता थी जो उसको योग-साधना में प्रमुख स्थान दिया गया?
विवेचना के पश्चात विदित हुआ है कि आसनों का गुप्त आध्यात्मिक महत्व है, इन क्रियाओं से उन सूर्य चक्र, मणिपूर चक्र, अनाहत चक्र आदि, सूक्ष्म मर्म ग्रन्थियों का जागरण होता है और कई मानसिक शक्तियों का असाधारण रूप से विकास होने लगता है, इसके साथ साथ उच्च कोटि का शारीरिक व्यायाम तो यह है ही। आसनों के अतिरिक्त अन्य कोई व्यायाम ऐसा नहीं है जिससे शरीर के सभी अंगों की यथोचित कसरत हो जाय। दंड बैठक आदि में हाथ पांवों को अधिक मेहनत करनी पड़ती है, कभी कभी यह मेहनत इतनी अधिक हो जाती है कि उन स्थानों के मेद तन्तु फट जाते हैं जिससे वहां के अंग कठोर, निर्जीव तथा बेडौल हो जाते हैं, जितनी फुर्ती और चैतन्यता चाहिए उतनी नहीं रहती। इस प्रकार एक ओर तो किन्हीं खास अंगों को आवश्यकता से अधिक कार्य करना पड़ता है और दूसरी ओर कुछ अंग बिना कसरत के ही छूट जाते हैं। इसलिए कई व्यायाम पहलवानी और मजबूती के दृष्टि से अच्छे होते हुए भी सर्वांगीण स्वस्थता की दृष्टि से निकम्मे ही ठहरते हैं। यह कमी आसनों में नहीं है, उनका विधान इस प्रकार का है कि प्रायः सभी अंगों का यथोचित मात्रा में व्यायाम हो जाता है।
पहलवानों के लिए राजसिक और अधिक मात्रा में आहार की आवश्यकता है। जिनको पहलवानों के निकट रहने का अवसर मिला है वे जानते हैं कि कितनी अधिक मात्रा में और कितने बढ़िया भोजन की उन्हें आवश्यकता होती है। योगाभ्यास में यह सब वांछनीय नहीं, राजसिक आहार से वृत्तियां भी राजसिक बनती हैं, योगी को सात्विक आहार की आवश्यकता होती है ताकि उससे उत्पन्न हुआ रस रक्त सात्विकता को उत्पन्न करे। सात्विक आहार में उतनी ताकत नहीं होती है जितनी कि राजसिक में होती है, दूसरे आध्यात्म मार्ग में स्वल्पाहार की प्रधानता है, पहलवानों में उससे तिगुनी चौगुनी खुराक चाहिए, इसलिए भी योग साधकों के लिए अन्य व्यायामों की अपेक्षा आसन ही अधिक उपयोगी बैठते हैं, इनमें इतनी शक्ति खर्च नहीं होती जिसकी पूर्ति के लिए राजसिक आहार को अधिक मात्रा में लेने की आवश्यकता पड़े।
सभी मनुष्यों की शरीर रचना ऐसी नहीं होती कि वे कड़े व्यायामों का लाभ उठा सकें। जिनकी शक्तियां मस्तिष्क में होकर खर्च होती रहती हैं ऐसे बुद्धि जीवी लोग आमतौर से कमजोर शरीर के होते हैं, दो व्यक्तियों के साझे की एक रोटी हो और उसमें से एक अधिक खा जाय तो दूसरे को स्वभावतः कुछ भूखा रहना पड़ेगा, यही बात मानसिक कार्य करने वालों के संबंध में हैं। उनके शरीर को कुछ निर्बल रहना ही पड़ता है। इस युग में अशुद्ध मिलावटी और छोटे दर्जे का खाद्य सामग्री के ऊपर आम जनता को निर्वाह करना पड़ता है, बाल विवाह, कुसंग, अश्लील साहित्य, सिनेमा आदि के कुप्रभावों के कारण तथा नाना प्रकार की सांसारिक, शारीरिक, मानसिक आदि व्याधियों के कारण, सर्व साधारण का स्वास्थ्य बहुत ही गिरे दर्जे का हो गया है। कई व्यक्ति स्वास्थ्य सुधार के लिए व्यायाम आरंभ करते हैं पर उन्हें यह बहुत ही असुविधाजनक होता है, थोड़े से दंड बैठक करने से उनकी नसें दुखने लगती हैं, देह में दर्द होने लगता है, किसी प्रकार चार छै दिन क्रम जारी रखते हैं पर उनकी असुविधाएं बढ़ती जाती हैं और अन्ततः उसे छोड़ देने के लिए विवश होना पड़ता है। जिनकी जीवनी शक्ति इतनी अल्प है कि उससे दैनिक कार्य ही मुश्किल से चल पाते हैं तो फिर व्यायाम को कौन बर्दाश्त करे?
फैशन, टीम टाम, सभ्यता, नकलीपन, वैज्ञानिक ऐय्याशी और मिथ्या ज्ञान ने हमारे सार्वजनिक स्वास्थ्य को बुरी तरह खा डाला है। चमकीली पोशाक में लिपटी हुई, रोग ग्रस्त ठठरियां इधर से उधर चलती डोलती दिखाई पड़ती हैं। इनमें से कितने ऐसे हैं जिनको कठोर व्यायाम की, कुश्ती लड़ने, पहलवानी करने या मुद्गर हिलाने की सलाह दी जा सकती है। व्यायाम की अनिवार्य आवश्यकता से इनकार नहीं किया जा सकता, वह उतना ही जरूरी है जितना खाना और सोना। इन परिस्थितियों में वह औषधि जो योगियों के लिए उपयोगी थी सर्व साधारण के लिए भी सर्वश्रेष्ठ बन गई है। अमृतधारा हैजे को रोकने में अच्छा काम करता है पर बिच्छू के काटे पर भी उसका आश्चर्य जनक फल होता है। योग साधकों को आसनों से अपनी स्वास्थ्य रक्षा में बड़ी सहायता मिलती है पर आज की अयोगी जनता के लिए भी आसनों का व्यायाम आमतौर से बहुत ही उपयोगी और हितकर होगा। इस प्रकार इस युग का सर्व सुलभ, सर्वोपयोगी सर्वश्रेष्ठ और सार्वजनिक व्यायाम ‘आसन’ ही हो सकता है।
हमारे पूजनीय पूर्वजों ने प्रकृति के सूक्ष्म नियमों का बारीकी के साथ निरीक्षण करके आसनों की रचना की है। अनेक पशु पक्षी प्रकृति की प्रेरणा से अपनी चैतन्यता को बढ़ाने के लिए एक विशेष प्रकार से अपने अंग प्रत्यंगों को ऐंठते, मरोड़ते या तानते हैं। कुत्ता जब सोकर उठता है तो पांवों को जमाकर धड़ को पीछे की ओर तानता है और फिर आगे की ओर हो जाता है। बिल्ली चारों पांवों को इकट्ठा करके धड़ को ऊपर उठाती है, पशु पक्षियों की इन विभिन्न व्यायाम क्रियाओं का निरीक्षण करके उन्हीं के नाम पर आसनों के नाम रखे गये हैं। जैसे—मयूरासन, कुक्कुटासन, मत्सासन, शलभासन, उष्ट्रासन, विडालासन, सर्पासन आदि। यह प्राणी प्रकृति माता का आदेश सुनते हैं और उसके अनुसार आचरण करते हैं। प्रकृति ने जीवन रक्षा और निरोगता की शिक्षा हर एक प्राणी को दे रखी है। आसनों से स्नायुओं का खिंचाव होता है जिससे उनका विकास होता है, उनमें दृढ़ता आती है, और रक्त प्रवाह शुद्ध हो जाता है। इससे शरीर की सुस्ती दूर हो जाती है, चैतन्यता आकर किसी भी कार्य में उत्साह होता है।
साधारणतः व्यायाम की उद्देश्य शरीर को बलवान बनाना है। परिश्रम करने से मांस पेशियां पुट्ठे, नाड़ी संस्थान, मज्जा तन्तु मजबूत होते हैं उनमें दृढ़ता और समता बढ़ती है, आसनों में यह गुण तो हैं ही साथ में चैतन्यता का लाभ विशेष है, सुस्ती दूर होकर स्फूर्ति, उत्साह, सजीवता, प्रफुल्लता का संचार खास तौर से होता है, काम में मन लगता है, देह हलकी रहती है, सुस्ती, भारीपन और जी उचटने की शिकायतों से सहज ही छुटकारा मिल जाता है। जो लोग जीवन निर्वाह के लिए थका देने वाला कठोर परिश्रम करते हैं या अन्यान्य व्यायाम पद्धतियों को अपनाये हुए हैं उन्हें भी आसनों की आवश्यकता है।
आसनों के लिए प्रातःकाल का समय सबसे श्रेष्ठ है। ब्राह्म मुहूर्त में नित्यकर्म से निवृत्त होकर आसनों के लिए तैयार होना चाहिए। यदि स्नान सवेरे ही करना हो तो आसनों से पहले कर लेना चाहिए अन्यथा उसके बाद आधा घण्टे तक ठहरना चाहिए जब तक कि शरीर की बढ़ी हुई गर्मी शान्त न हो जाय। समतल भूमि पर चटाई बिछाकर आसनों के लिए बैठना चाहिए। हलकी बनियान और ढीला जांघिया शरीर पर रहना पर्याप्त है, अधिक और चुस्त कपड़े पहने रहने से एक तो अंगों के संचालन में बाधा पड़ती है दूसरे उस समय शरीर से निकलने वाली गन्दी वायु के बाहर जाने और उसके स्थान पर नवीन स्वच्छ वायु के आने में बाधा उपस्थित होती है, अतएव यही उचित है कि लज्जा निवारण के लिए जांघिया और हवा की अनावश्य तेजी तथा सर्दी गर्मी से छाती को बचाने के लिए बनियान पहने रखी जाय।
आसनों को तीनो श्रेणी में विभक्त किया जा सकता है। (1) खड़े होकर किये जाने वाले। (2) बैठकर किये जाने वाले (3) लेटकर किये जाने वाले। खड़े होकर किये जाने वालों में हाथ पैर और कमर का परिश्रम अधिक होता है। बैठकर किये जाने वालों में पीठ गरदत, कंधे अधिक श्रम करते हैं और लेटकर किये जाने वालों में पेट छाती, गले को अधिक मेहनत करनी पड़ती है। देखना चाहिए कि हमारे दैनिक कार्य क्रम में किन अंगों को अधिक परिश्रम करना पड़ता है और किनको कम। जिन अंगों को अधिक कार्य करना पड़ता हो उनके लिए व्यायाम की उतनी आवश्यकता नहीं है जितनी कि कम कार्य करने वाले अंगों के लिए है। यों तो हर एक आसन में हर एक अंग को कुछ न कुछ मेहनत करनी पड़ती है इसलिए छूटने तो कोई भी नहीं पाता परन्तु प्रश्न अधिकता और न्यूनता का है। जो अंग कम काम करता है या अधिक निर्बल है उसे सतेज एवं पुष्ट करने की विशेष आवश्यकता है। मध्यम मार्ग भी यही है कि अधिक कार्य करने वाले को आराम दिया जाय अन्यथा अधिक श्रम की गर्मी से वह गलने और विकृत होने लगेगा। इसी प्रकार कम काम करने वाले से परिश्रम कराया जाय वरना वह मंद, क्रियाहीन, निकम्मा और कमजोर होकर बीमारियों का घर बन जायगा।
अनुभवियों का कथन है कि कमजोर, वृद्ध और बुद्धिजीवी लोगों को लेटकर किये जाने वाले आसन अधिक उपयोगी हैं, जिनके उदर तथा वक्ष में निर्बलता है भूख कम लगती है, दस्त साफ नहीं होता, कफ, खांसी, जुकाम आदि की शिकायत बनी रहती है उन्हें पेट पर दबाव डालने वाले आसन खास तौर से करने चाहिए। खड़े और बैठकर की जाने वाली, क्रियाएं उनके लिए गौण हैं। उनमें कम समय लगाया जाय और थोड़ा श्रम दिया जाय तो भी ठीक है।
आसनों संबंधी अनेक भारतीय और विदेशी पुस्तकें हमने पढ़ी हैं तथा इस विषय के सैकड़ों अनुभवी व्यक्तियों से काफी वार्तालाप किया है। (1) आसन कितने हैं? (2) उनके क्या क्या नाम हैं? (3) कौन आसन किसके लिए उपयोगी हैं? इन तीन प्रश्नों पर सबके मत हमें एक दूसरे से भिन्न और विपरीत मिले हैं। एक क्रिया को अमुक पुस्तक में अमुक नाम से बताया गया है, और उसके अमुक लाभ बताये गये हैं किन्तु दूसरी पुस्तक उसका नाम और गुण दूसरा ही बताती है। इसी प्रकार अनुभवी व्यक्तियों के अनुभव एक दूसरे से विपरीत हैं। संख्या के बारे में कुछ ठिकाना नहीं किसी पुस्तक में सत्ताईस किसी में पचपन किसी में चौरासी किसी में एक सौ बत्तीस उनकी संख्या है। एक ही नाम के आसन की क्रियाएं अलग अलग तरह से पाई जाती हैं, कई कई भेद उपभेद भी मिलते हैं। इस प्रकार हमारी गणना में 873 भारतीय आसन प्राप्त हुए हैं, संभव है यह गणना अधूरी हो और कोई दूसरे सज्जन इससे भी अधिक ढूंढ सकें। यूरोप, अमेरिका तथा ऐशिया के अन्यान्य देशों के आसन करीब साढ़े छै हजार तक पहुचंते हैं, इसके अतिरिक्त जो और भी होंगे उनके बारे में कुछ ठीक ठीक नहीं कहा जा सकता।
विचार करने से प्रतीत होता है कि कसरत की कोई विधि पत्थर की लकीर नहीं है। संभव है शुरू शुरू में दो चार ही आसन रहे हों पीछे अनुभव द्वारा उनकी संख्या बढ़ती गई और चौरासी हो गई। चौरासी आसन प्रसिद्ध हैं पर अब तो अनुभव ने उनकी संख्या इससे भी अनेक गुनी करदी है और आगे आगे बढ़ती ही जायगी। मानव शरीर की बनावट एक–सी नहीं होती उनमें फर्क पाया जाता है। इस फर्क के आधार पर आहार और विहार की अनुकूलता में भी अन्तर आता है। एक आदमी को उर्द की दाल बलवर्धक और स्वादिष्ट प्रतीत होती है दूसरे को वह अरुचिकर तथा पेट फुला देने वाली साबित होती है। एक व्यक्ति को सर्दी सह्य होती है गर्मी नहीं किन्तु दूसरा गर्मी में सुखी रहता है और सर्दी में कष्ट अनुभव करता है। यही बात व्यायामों के संबंध में है किसी की नसें इतनी कड़ी होती हैं कि वे अमुक मर्यादा तक ही मुड़ सकती हैं किन्तु किसी का शरीर बहुत लचीला होता है उसे काफी झुकाया या मोड़ा जा सकता है। जिन आसनों में शरीर को अधिक मोड़ने की आवश्यकता है वे लचीली बनावट के लोगों के लिए सुलभ है किन्तु जिनकी नसें कड़ी एवं कठोर हैं उनके लिए दूसरी किस्म के आसन अहितकर होंगे। इस भिन्न प्रकृति के जनाधार पर अनुभवियों को नये नये आसनों की रचना करनी होती है।
किस व्यक्ति के लिए कौन-सा आसन हितकर होगा इसका निर्णय करने से पूर्व उसकी शरीर रचना, प्रकृति, दिनचर्या स्वास्थ्य आदि का निरीक्षण करना होता है। अमुक व्यक्ति को कौन-सा आसन करना अधिक हितकर होगा इसका ठीक ठीक निर्णय क्षणमात्र में कोई विरले ही अनुभवी कर सकते हैं। पर ऐसे अनुभवियों से हर एक का सम्पर्क होना सुलभ नहीं, ऐसी दशा में सबसे अच्छा मार्ग यह है कि अभ्यासी अपने अनुभव द्वारा अपना मार्ग निर्धारित करें। आसनों के चित्रों वाली दर्जनों पुस्तकें और तस्वीरें बाजार में बिकती हैं इनमें से दो चार खरीद लेनी चाहिए और देखना चाहिए कि इनमें से कौन-सा आसन हमारी शरीर रचना और आवश्यकता के अनुकूल पड़ता है। किसी आसन का प्रयोग करते समय बारीकी के साथ यह देखना चाहिए कि इसका दबाव किन किन अंगों पर कितना कितना पड़ता है। एक दो दिन के प्रयोग से उसके द्वारा होने वाले नफा नुकसान का भी आभास मिलने लगता है उन सब बातों को ध्यान में रखते हुए किन्हीं उपयोगी आसनों को अपने लिए चुनना चाहिए, उनकी संख्या चार पांच से अधिक न होनी चाहिए। नित्य आप दस प्रकार का आसन लगावें इसकी कुछ भी आवश्यकता नहीं है। पेट, छाती, पीठ, कमर, कंधे, गरदन, हाथ पैरों यथोचित परिश्रम जिनमें हो जाय ऐसे चार पांच आसनों से भी काम चल सकता है।
आसनों की अनेक किस्में इसलिए नहीं हैं कि इनमें से हर एक का अभ्यास करना चाहिए वरन् इसलिए हैं कि इनमें से जो जिसे अनुकूल पड़े वह उन्हें काम में लेले। बजाज की दुकान पर सैकड़ों किस्म के कपड़े होते हैं उनमें आपको जो रुचे उसे खरीद सकते हैं, यह जरूरी नहीं कि दुकान के सब कपड़े आपको पहनने ही पड़े, जो कपड़ा आपको अच्छा जंचता है संभव है वह दूसरों को बुरा लगे और यह भी संभव है कि दूसरे लोग जिसे बढ़िया समझते हैं वह आपको सही प्रतीत हो। आसनों के बारे में भी यही बात है। शीर्षासन की तारीफ सब ओर सुनी जाती है बहुत लोगों को यह बहुत लाभदायक होता है परन्तु हमने ऐसे लोगों को भी देखा है जो शीर्षासन से मस्तिष्क में अत्यधिक रक्त पहुंच जाने के कारण गर्मी बढ़ गई और वे पागल हो गये, कई को निद्रानाश, चिड़चिड़ापन, नेत्रों में जलन आदि का शिकार हो जाना पड़ा। इसका अर्थ यह न समझना चाहिए कि शीर्षासन बुरा है, बुराई आसन में नहीं वह प्रकृति के अनुकूल आसन का चुनाव न करने में है। शीत प्रकति के मस्तिष्क में रक्त की उष्णता पहुंचाने से उसमें लाभ होता है किन्तु जो दिमाग गर्मी से जला करते हैं जिनमें पहले से ही रक्त का दबाव अत्यधिक है उनके लिए शीर्षासन उपयोगी नहीं हो सकता। इसी प्रकार अन्य आसनों का विषय है, उनका चुनाव भी सावधानी से होना चाहिए। और यह भी निश्चित है कि जितना अच्छा चुनाव अपने लिए खुद किया जा सकता है उतना दूसरा कोई नहीं कर सकता कारण यह है कि अपने बारे में जितनी जानकारी खुद को होती है उतनी दूसरों को नहीं होती।
जिन्हें पुराने आसनों में से कोई अनुकूल न पड़ता हो, या उनकी अधिक जानकारी न हो वे अपनी बुद्धि से नये आसनों का आविष्कार कर सकते हैं। आसन दो प्रकार के हैं एक वे जिनका संबंध व्यायाम से है, दूसरे वे ध्यान योग की साधना के लिए सुख पूर्वक अधिक समय तक बैठे रहने के लिए हैं। ध्यान योग वाले आसनों की चर्चा हम आगे करेंगे यहां तो व्यायाम संबंधी प्रकृयाओं की ही चर्चा हो रही है। इस प्रकार के आसनों का सिद्धान्त यह है कि एक साधारण स्थिति में लेटना, बैठना या खड़ा होना चाहिए। फिर अमुक अंगों को अमुक मर्यादा तक धीरे धीरे तानते हुए ले जाना चाहिए, मर्यादा पर पहुंच कर कुछ देर ठहरना चाहिए तदुपरान्त धीरे धीरे पूर्व क्रिया को वापिस लौटाते हुए साधारण स्थिति पर पहुंच जाना चाहिए। कुछ देर साधारण स्थिति पर रहकर पुनः उसी प्रक्रिया को दुहराना चाहिए, इस प्रकार एक आसन को कई बार करना चाहिए।
ध्यान रखने की बात यह है कि झटके से किसी आसन को न करना चाहिए धीरे धीरे एक समान गति से अंगों को एक से तनाव के साथ नियत मर्यादा तक ले जाना चाहिए और फिर कुछ ठहर कर जब वापिस लौटने लगे तो उसी प्रकार धीरे धीरे, समान गति और समान तनाव के साथ लौटना चाहिए। जैसे कि आसन को आरंभ करते समय था, दबाव की जो अन्तिम मर्यादा नियत की गई है आरंभ में उसे कुछ नीचा ही रखना चाहिए और फिर धीरे धीरे अधिक आगे बढ़ते जाना चाहिए। आसनों की संख्या में भी यथा क्रम वृद्धि करनी चाहिए; प्रारंभ में जिस प्रक्रिया को चार चार बार किया जाता है, धीरे धीरे उसे पांच छै आठ दस बीस आदि तक सुविधानुसार बढ़ाना चाहिए। प्रारंभ में यदि दस मिनट अभ्यास किया जाय तो उसे धीरे धीरे दो चार मिनट बढ़ाते हुए घण्टे आध घण्टे तक ले जाना चाहिए। प्रारंभ में ही अधिक समय लगाना उचित नहीं जिससे देह में दर्द होने लगे और दूसरे ही दिन अभ्यास को कम करने या बन्द करने के लिए विवश होना पड़े। यथाक्रम आगे बढ़ना ही उचित है जिससे यात्रा निरंतर आगे बढ़ती चले। रोगी और गर्भिणी स्त्रियों को व्यायाम का निषेध किया गया है—यह प्रतिबन्ध कठोर आसनों के लिए है। पीठ के बल लेटकर धीरे धीरे अंग परिचालन करके हलके आसनों का उपयोग वे भी कर सकते हैं, अपनी शक्ति और आवश्यकता का ध्यान रखते हुए इस पद्धति को अपनाना कभी हानिप्रद नहीं हो सकता।
बैठने के कई आसन ऐसे हैं, जिनमें एक प्रकार का बंध बंध जाता है। अमुक अंग से अमुक अंग को जकड़कर इकट्ठा कर दिया जाता है और कुछ देर उसी दशा में जकड़े रहना पड़ता है। मत्स्येद्रासन, जानु शिरासन, द्विहस्त, भुजासन, वातायनासन, पश्चिमोत्तासन, कुक्कुटासन, गर्भासन जैसे आसन इसी प्रकार के हैं। इन आसनों पर अधिक देर न बैठना चाहिए। अनुभव के पश्चात इनकी विशेष उपयोगिता साबित नहीं होती। किन्हीं खास अंगों पर तनाव तो इनसे पड़ता है पर पेशियों का आकुंचन प्रसारण तथा रक्त की चाल का तीव्र होना इनमें नहीं होता, कोई अंग अकड़ गये हों नसों में कठोरता आ गई हो तो उन्हें तानने के लिए इनका उपयोग है, यह विशेष परिस्थिति के आसन हैं, साधारण अवस्था के नहीं।
लेट कर किये जाने वाले आसनों में सर्वांगासन, मयूरासन, मत्स्यासन, दण्डासन, सर्पासन, धनुरासन आदि की उपयोगिता उदर के अंग, प्रत्यंगों के संचालन के लिए है। इनसे पेट, छाती, यकृत, फुफ्फुस तथा जंघाओं की कसरत हो जाती है। मध्यम बल के लोगों के लिए, कमजोरों के लिए, छुटपुट बीमारी की अवस्था में यह उत्तम है। इनमें अधिक दबाव नहीं पड़ता और जितनी शक्ति हो उसी के अनुसार धीरे धीरे इन्हें आसानी के साथ किया जा सकता है।
खड़े होकर हस्त पादांगुष्टासन, गरुड़ासन, वातायनासन, पादहस्तासन, उत्कटासन, ताड़ासन आदि आसन किये जाते हैं। इनसे पीठ, कंधे, रीढ़, जांघ, पिंडलो तथा भुजाओं पर जोर पड़ता है और इन अंगों की भली प्रकार कसरत हो जाती है। खड़े होकर किए जाने वाले आसनों में अपेक्षाकृत शरीर पर अधिक श्रम पड़ता है। जिनका शरीर अच्छे स्वास्थ्य वाला है उनके लिए यह उपयोगी रहते हैं।
वैसे तो हर एक आसन से शरीर के हर अंग पर थोड़ा बहुत बल पड़ता है पर अधिक मात्रा में उनका प्रभाव उपर्युक्त प्रकार से ही होता है, इस पुस्तक के आरंभ में दिये हुए चित्रों में पाठक आसनों का कुछ परिचय प्राप्त कर सकते हैं और अपनी सुविधा तथा शरीर रचना के अनुसार जो उपयोगी पड़ें उन्हें अपने लिए चुन सकते हैं। साधारणतः बैठकर किये जाने वाले आसनों में पश्चिमोत्तासन तथा वद्ध पद्मनाभ, लेटकर किये जाने वालों में सर्वांगासन, मयूरासन, सर्पासन, धनुरासन और खड़े होकर किये जाने वालों में ताड़ासन, पाद-हस्तासन, उत्कटासन उपयोगी हैं। ये नौ आसन प्रतिदिन करने योग्य हैं और अधिकांश व्यक्तियों के लिए उपयोगी पड़ते हैं। जो उपयोगी न पड़े उसे छोड़ देना चाहिए और इसके अतिरिक्त भी हजारों प्रचलित आसनों में से कोई हितकर प्रतीत हो तो उसे अपना लेना चाहिए।
शीर्षासन—जिसे विपरीत करणी मुद्रा भी कहते हैं—की उपयोगिता के संबंध में बहुत सावधानी से परीक्षण करने की आवश्यकता है। पुस्तकों और पत्र पत्रिकाओं में शीर्षासन की तारीफ में बड़े बड़े लंबे चौड़े लेख निकलते हैं। यह गंभीरता पूर्वक देखना चाहिए कि कितने लेखक इनमें से कलम-कौशल के धनी हैं और कितने वास्तविक अनुभवी हैं। आजकल लोगों के स्वास्थ्य बहुत ही निर्बल देखे जाते हैं, नाड़ियों की धारणा शक्ति स्वल्प होती है और उनमें रक्त बहुत न्यून मात्रा में बहता है। ऐसे लोग यदि शीर्षासन पर अधिक जोर देंगे तो शरीर का रक्त अनावश्यक मात्रा में मस्तिष्क में पहुंचकर दिमाग के निर्बल तंतुओं में अधिक उत्तेजना उत्पन्न कर सकता है जिससे अनिद्रा, सिर दर्द, क्रोध, नेत्रों में सुर्खी आदि उपद्रव खड़े हो सकते हैं। हमारे अनुभव में कई ऐसे साधक आये हैं जिन्हें शीर्षासन के कारण उपरोक्त प्रकार की हानि उठानी पड़ी है। इसलिए हम अपने पाठकों को सावधान करते हैं कि किसी अनुभव हीन व्यक्ति के कहने या किसी लेख के पढ़ने मात्र से प्रभावित होकर शीर्षासन साधना की उतावली न करें। बलवान व्यक्तियों के लिए पूर्वकाल में जो आसन बहुत ही लाभदायक थे, संभव है कि आज की परिस्थितियों में निर्बल व्यक्तियों को लाभप्रद न बैठें। हमारे अनुभव में सर्वांगासन की उपयोगिता बहुत है, इससे शीर्षासन की बहुत कुछ आवश्यकता पूरी हो जाती है। वैसे हम शीर्षासन के विरोधी नहीं हैं, हमारी सम्मति तो इतनी ही है कि इस अभ्यास को बहुत थोड़ी मात्रा में धीरे-धीरे आरंभ करना चाहिए और यदि वह अपनी प्रकृति के अनुकूल जंचे तो ही उसके लिए आगे प्रयत्न जारी रखना चाहिए। सूर्य नमस्कार की व्यायाम पद्धति भी बहुत उपयोगी हो रही है, जिनसे यह बन पड़े, अवश्य अपनावें।