Books - आसन और प्राणायाम
Media: TEXT
Language: HINDI
Language: HINDI
प्राणायाम संबंधी कुछ जानकारियां
Listen online
View page note
Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
छाती से पसली के भीतर दोनों ओर दो फेंफड़े (फुफ्फस) फैले हुए हैं। स्वांस प्रस्वांस क्रिया के यह प्रधान अंग हैं। इनको बनावट शहद की मक्खियों के छत्ते की तरह है। हवा भरने के लिए इनमें छोटे छोटे कोठे बने हुए है। इन वायु मंदिरों की संख्या 16 से 18 करोड़ के लगभग होती है। यदि इन कोठरियों को खोलकर उनकी दीवारें पृथ्वी पर बिछादी जा सकें तो इनका क्षेत्रफल 130 से 150 वर्ग गज होगा। छाती की कोठरी में दोनों फैंफड़े अलग अलग हैं पर जहां पसलियों का जुड़ाव है उसी स्थान पर हृदय, रुधिर और स्वर की बड़ी नाड़िया इन्हें आपस में जोड़ती हैं और रक्त प्रवाहक धमनियां तथा रक्त प्रवाहक शिराएं फेंफड़ों को हृदय से संबंधित करती हैं। यह फेंफड़े एक बहुत ही पतली किन्तु मजबूत झिल्ली के अन्दर रखे हुए हैं जिसे अंग्रेजी में ‘हेल्यूरल सैक’ कहते हैं। जब सांस इन फेंफड़ों में भरती है तो ये फैलती हैं और जब सांस बाहर निकलती है तो ये सकुड़ जाते हैं।
आप जानते ही होंगे कि हृदय दिन रात रक्त को फेंकता रहता है। जब हृदय द्वारा रक्त फेंका जाता है तो वह धमनियों और फिर पतली धमनियों में होता हुआ शरीर के हर एक भाग में पहुंचता है और फिर दूसरे रास्ते से पतली शिराओं में होता हुआ मोटी शिराओं में आकर हृदय में वापिस पहुंच जाता है। आरंभ में जब यह रक्त शरीर में घूमने लगता है तो स्वच्छ एवं शुद्ध होता है किन्तु जब वापिस लौटता है तो शरीर में हर घड़ी उत्पन्न होते रहने वाले विष उसमें मिल जाते हैं। शहर गंदी नालियों की भांति काला नीला होकर यह रक्त हृदय की दाहिनी कोठरी (Auricle) में जमा होता है यहां से उसे एक दूसरी कोठरी (Ventricle) में होकर शुद्ध होने के लिए वह बालों से भी बारीक नालियों द्वारा फेफड़ों की उन हवा वाली लाखों कोठरियों में पहुंचता है जिनका वर्णन ऊपर किया जा चुका है।
सांस द्वारा फेंफड़ों में जो शुद्ध हवा पहुंचती है वह इस विष को अपने साथ बाहर उड़ा लाती है। चौबीस घंटे में मनुष्य के शरीर से सांस द्वारा इतना विष बाहर निकलता है कि उससे 12 हाथियों की मृत्यु हो सकती है। यदि साफ हवा पर्याप्त मात्रा में फेंफड़ों में न पहुंचे तो शरीर प्राण वायु के जीवनदायक लाभों से वंचित तो रहेगा ही साथ ही अशुद्ध रक्त की गंदगी भी ठीक तरह शुद्ध न हो सकेगी और परिणाम यह होगा कि वह थोड़ी थोड़ी अशुद्धता धीरे धीरे जमा होकर स्वास्थ्य को बिगाड़ देगी और नाना प्रकार की बीमारियां उत्पन्न करेगी।
इसलिए गहरी और पूरी सांस लेने की आवश्यकता है जिससे वायु फेंफड़े के हर भाग में जाकर सम्पूर्ण वायु मन्दिरों में से रक्त की सफाई कर सके। अधूरी और उथली सांस लेने से कुछ थोड़े से वायु मंदिरों की सफाई हो पाती है क्योंकि उथली सांस का दबाव इतना नहीं होता कि वह हर एक कोठे तक पहुंच सके, जब हवा वहां तक पहुंचेगी ही नहीं तो सफाई किस प्रकार होगी? सांस का संपर्क होने पर रक्त की अशुद्धता—कार्बोनिक एसिड गैस—बाहर निकल जाती है और सांस का प्राण—आक्सीजन—रक्त में घुल जाती है। यह प्राण शक्ति उस शुद्ध हुए रक्त के दूसरे दौरे के साथ शरीर के अंग प्रत्यंगों में पहुंच कर उन्हें ताजगी और स्फूर्ति प्रदान करती है। शुद्ध रुधिर में एक चौथाई भाग—आक्सीजन का होता है। यदि इसमें न्यूनता हो जाय तो उसका प्रभाव पाचन क्रिया पर अनिवार्य रूप से पड़ता है ऐसे व्यक्तियों की जठराग्नि मंद होने लगती है।
इन सब प्रक्रियाओं पर विचार करने से यह स्पष्ट हो जाता है कि हमें पूरी और गहरी सांस लेने की आवश्यकता है। जिससे रक्त की सफाई अच्छी तरह होकर अशुद्धता शेष न रहने पावे और शुद्ध हुए रक्त में पर्याप्त—आक्सीजन मिल जाय, जिससे अंग प्रत्यंगों में ताजगी एवं स्फूर्ति पहुंचती रहे और पाचन शक्ति में निर्बलता न आने पावे। जठराग्नि मंद होने से अन्य अंगों में शिथिलता आने लगती है और वे अपने काम को अधूरा एवं दोष पूर्ण छोड़ते हैं, यह क्रम यदि कुछ समय जारी रहे तो जीवनयात्रा में नाना प्रकार की विघ्न-बाधाएं उपस्थित हो सकती हैं और विविध भांति के रोगों का सामना करना पड़ सकता है।
अधूरी सांस लेने वालों के फेफड़े का बहुत सा भाग निकम्मा पड़ा रहता है। जिन मकानों की सफाई नहीं होती उनमें गन्दगी, मकड़ी, मच्छर, छिपकली, कीड़े मकोड़े आदि का जमघट होने लगता है इसी प्रकार फेफड़ों के जिन वायु कोष्ठों में सांस की वायु नहीं पहुंचती उनमें क्षय, खांसी, जुकाम, उरक्षत, कफ, दमा आदि के रोग कीट जड़ जमा लेते हैं धीरे धीरे वहां वे निर्वाध रीति से पलते रहते हैं और भीतर ही भीतर अपना इतना आधिपत्य जमा लेते हैं कि फिर उनका निकाल बाहर करना कठिन या असंभव हो जाता है।
प्राणायाम विज्ञान का सब से पहला और आरंभिक पाठ यह है कि हमें पूरी और गहरी सांस लेनी चाहिए। यह आदत डालने का प्रयत्न करना चाहिए कि सदैव इस प्रकार सांस ली जाय कि वायु से पूरे फेंफड़े भर जायें। यह कार्य झटके से या उतावली में नहीं होना चाहिए। धीरे धीरे इस प्रकार पूरी सांस खींचनी चाहिए कि छाती भरपूर चौड़ी हो जाय और फिर उसी धीरे के क्रम से वायु को बाहर निकाल देना चाहिए। यह रीति फेफड़ों को स्वस्थ रखने वाली, रक्त को शुद्ध रखने वाली, शरीर के अंग प्रत्यंगों को चैतन्यता देने वाली पाचन शक्ति ठीक करने बनाये रखने वाली है इसलिए आरोग्य और दीर्घ जीवन देने वाली भी है।
छाती का कमजोर और कम चौड़ा होना स्वास्थ्य के लिए एक खतरनाक अभिशाप है जिसकी ओर हर व्यक्ति को जागरूक होने की आवश्यकता है। जापान के प्रसिद्ध डॉक्टर शोजाबुरो ओटेव ने अपनी पुस्तक ‘‘दी साइंस एंड आर्ट ऑफ डीप ब्रीदिंग इज ए प्रोफिलैक्टिक ऐंड थीराप्यूटिक एजेंट इनकंजप्शन’’ नामक पुस्तक में असंख्य प्रमाणों के साथ यह सिद्ध किया है कि तपेदिक का प्रधान कारण फेफड़ों का कमजोर होना है। उपर्युक्त डॉक्टर साहब ने वेक्टिरियो लोजिकल इंस्टीट्यूट, वेगुली सैनेटोरियम, नेशनल सेनेटोरियम चैरिटी मेडीकल कॉलेज आदि विख्यात अस्पतालों के प्रमुख पदों पर रहकर जो प्रामाणिक अनुभव एकत्रित किए हैं उससे यह भली प्रकार प्रकट होता है कि अधूरी सांस लेने से जिन व्यक्तियों ने अपनी छाती को निर्बल बना लिया है वे संक्रामक रोगों के शिकार होकर अकसर अकाल मृत्यु के ग्रास बनते हैं और जिन्हें गहरा एवं पूरा सांस लेने की आदत है वे अन्य कठिनाइयों के होते हुए भी इतनी सहन शक्ति रखते हैं कि कठिन रोगों से बहुत समय तक युद्ध करते रहें एवं उन पर विजय प्राप्त कर सकें।
शरीर विज्ञान पर नूतन प्रकाश डालने वाले यूरोप के ख्याति नामा डॉक्टर बर्नर मेकफेडन ने अपनी पुस्तकों में गहरा सांस लेने की आवश्यकता पर अत्यधिक जोर दिया है और स्वस्थता से पूरी सांस लेने का बहुत घना संबंध बताया है। जब कि अन्य डॉक्टर प्राणायाम के अद्भुत शारीरिक लाभों से अपरिचित थे तब आज से करीब 200 वर्ष पूर्व एक जर्मन पंडित इमैनुएल केंट ने अपनी पुस्तक में घोषित किया था कि सांस लेने की प्रक्रिया में सुधार कर लेने से कठिन रोगों से छुटकारा पाया जा सकता है। क्षय रोग के विशेषज्ञ डाक्टर मुथू ने अपने अस्पताल में अन्य उपचारों के साथ साथ रोगियों को प्राणायाम करना अनिवार्य रखा है। अमेरिका के योगी रामाचरक ने ‘‘साइंस ऑफ ब्रीथ’’ पुस्तक लिखकर अपने देश की जनता को प्राणायाम की उपयोगिता भले प्रकार समझाई है। उनके विचारों से अंग्रेजी भाषी लोगों का ध्यान प्राणायाम की ओर विशेष रूप खिंचा है और जगह जगह श्वांस प्रश्वांस क्रियाएं सिखाने वाली संस्थाओं का जन्म हो रहा है।
पूरी सांस लेने का अभ्यास डालने से छाती की चौड़ाई बढ़ती है, फेफड़ों की मजबूती और वजन में वृद्धि होती है, हृदय की कमजोरी में सुधार होकर रक्त संचार की प्रक्रिया में एक चैतन्यता दिखाई देने लगती है। पाठकों को श्वांस विज्ञान के इस तथ्य को गंभीरताउ पूर्वक विचारना चाहिए और अविलम्ब पूरी और गहरी सांस लेने की आदत डालने का प्रयत्न आरंभ कर देना चाहिए। कुछ दिन श्वास क्रिया पर ध्यान रखने से और भूल सुधारते रहने से यह आदत भले प्रकार पड़ जाती है।
प्राणायाम विज्ञान की दूसरी शिक्षा ‘नाक से स्वांस लेना’ है। यद्यपि मुंह से भी सांस ली जा सकती है पर वह उतनी उपयोगी कदापि नहीं हो सकती जितनी कि नाक से लेने पर होती है। एक बार एक जंगी जहाज के यात्रियों में चेचक बड़े उग्र रूप से फैली। डॉक्टरों ने इनकी विशेष सावधानी से इनकी जांच करते रहने का प्रयत्न किया। मृतकों के बारे में उनकी रिपोर्ट थी कि यह लोग मुंह से सांस लेते थे। उस जहाज में एक भी मनुष्य ऐसा न मरा जिसे नाक से श्वांस लेने की आदत थी। जुकाम और सर्दी के रोगों के बारे में भी डाक्टरी जांच का यही निष्कर्ष है कि मुंह खोलकर सांस लेने से इनका प्रकोप विशेष रूप से होता है और भी अनेक छोटे बड़े रोग इसी बुरी आदत के कारण होते देखे गए हैं।
नाक से फेंफड़ों तक जो हवा पहुंचाने वाली नाड़ी गई है उसकी रचना इस प्रकार हुई है कि वायु का उचित रूप से संशोधन परिमार्जन करके भीतर पहुंचावें। नासिका के छिद्रों में छोटे छोटे बाल होते हैं यह एक प्रकार की छलनी है जिनमें धूलि गंदगी के अणु अटके रह जाते हैं और छनी हुई वायु भीतर जाती है। जब आप नासिका के छिद्रों में उंगली डालकर उनकी सफाई करते हैं तो उनमें से कुछ मैल निकलता है। यह मैल वह कचरा है, जो वायु के छानने से जमा हुआ है। नासिका में एक प्रकार का तरल पदार्थ स्रवित होता रहता है, बालों में अटकने के सिवाय जो कचरा बच रहता है वह इस स्राव में चिपक जाता है। वायु का इतना संशोधन नासिका के छिद्रों में हो जाने के उपरांत वह आगे चलती है। श्वास नली जो फेफड़ों तक मस्तिष्क में होती हुई गई है काफी लंबी है, इतनी लम्बाई में यात्रा करते हुए वायु का तापमान सह्य हो जाता है यदि वह गरम हुई तो श्वास नली के ताप के अनुसार ठंडी हो जाती है और यदि ठंडी हुई तो गरम हो जाती है। इस प्रकार फेंफड़ों तक पहुंचते पहुंचते वह सब प्रकार सह्य और संशोधित हो जाता है। किन्तु यदि मुंह से सांस ली जाय तो परिणाम बिलकुल दूसरे ही प्रकार का होता है। मुंह में नासिका की तरह बाल नहीं हैं जो वायु को छानें। दूसरे मुंह का छिद्र इतना बड़ा है कि उसमें वायु का गर्द गुबार बिना रुकावट के चला जा सकता है। तीसरे मुंह से फेफड़ों की दूरी बहुत कम है, इसलिए वायु की सरदी गरमी में भी विशेष परिवर्तन नहीं होने पाता। इस प्रकार बिना छनी, गर्द गुबार युक्त, सर्द गर्म हवा मुंह के द्वारा जब फेफड़ों में पहुंचती है तो उन्हें हानि पहुंचती है और बीमारियों की उत्पत्ति करती है। देखा गया है कि जो लोग रात में मुंह से सांस लेते हैं सवेरे उनका मुंह सूखा हुआ, दाह युक्त, कड़ुआ और बदबूदार होता है। रोगियों को यह लत हो तो उनके स्वस्थ होने में अनावश्यक देरी लग जाती है।
योगियों की प्राणायाम के अभ्यासियों को यह कड़ी ताकीद होती है कि वे सदा नाक से सांस लिया करें। यदि नासिका भाग में कुछ रुकावट हो जिसके कारण मुंह से सांस लेने के लिए बाध्य होना पड़ता हो तो नासिका रंध्रों की सफाई कर लेनी चाहिए। यदा कदा इस सफाई को अभ्यास की तरह कर लिया जाया करे तो इस प्रकार की रुकावट उत्पन्न ही नहीं होने पाती।
हठयोग के अंतर्गत षट् कर्मों में ‘नेति’ क्रिया का प्रमुख स्थान है। नासिका की सफाई का यह साधन है। सूत की डोरी द्वारा, जल द्वारा, घृत द्वारा रंध्रों की सफाई करके वायु मार्ग में जमा हुआ मैल साफ किया जाता है ताकि सांस लेने में कोई विघ्न उपस्थित न हो। सूत की डोरी से नाक की सफाई करने का तरीका विशेष अनुभवी लोगों की देख रेख में ही किया जा सकता है अन्यथा भयानक खतरा उपस्थित हो सकता है। असावधानी से डोरी यदि नासा रंध्र में अनुचित रीति से धंस जाय तो मृत्यु तक की नौबत आ सकती है। इसलिए जल नेति का तरीका बरतने की ही हम अपने पाठकों को सलाह देते हैं।
प्रातःकाल शौच आदि से निवृत्त होकर अच्छी तरह कुल्ला दातौन करनी चाहिए और नासिका के छेदों को उंगली के सहारे खूब अच्छी तरह सफाई कर डालनी चाहिए। तदुपरांत छना हुआ, स्वच्छ, निर्मल, ताजा जल कटोरी या अंजलि में लेकर धीरे धीरे नासिका द्वारा ऊपर खींचना चाहिए। अभ्यास के आरंभ में कुछ दिन थोड़ी ही दूर तक पानी खींचना चाहिए और फिर नाक से ही लौटा देना चाहिए। फिर क्रमशः अधिक दूरी तक पानी खींचने का अभ्यास करते चलना चाहिए यहां तक कि नाक द्वारा खींचा हुआ पानी मुंह में होकर निकल जाय। इस जल नेति को सप्ताह में एक दो बार कर लेने से नासिका से वायु मार्ग की सफाई होती रहती है और श्वांस संबंधी रुकावटें दूर हो जाती हैं। यह स्वस्थ दशा के लिए है यदि रोग ग्रस्त दशा हो तो स्वच्छ पिघले हुए गौ घृत की नेति करनी चाहिए। कभी कभी ‘नक छिकनी’ बूटी के रस आदि को सूंघ कर छींकें ले लेनी चाहिए। इस प्रकार श्वांस मार्ग की रुकावटें दूर होती रहती हैं और नासिका द्वारा सांस लेने की आदत डालना सरल हो जाता है।
संगीत से फेंफड़े बहुत मजबूत होते हैं। गायन में जिन्हें रुचि होती है उन्हें छाती संबंधी रोग बहुत कम होते देखे गये हैं। अत्यधिक गाने से या अनुचित अवस्था में अविधि पूर्वक गाने से बीमारियां हो सकती हैं परन्तु साधारणतः संगीत की गणना फेंफड़े को मजबूत बनाने वाले अभ्यासों में है। कंठ, हृदय, पसली, आमाशय, आंत, यकृत आदि सभी धड़ के अंतर्गत रहने वाले अंगों पर संगीत से अच्छा व्यायाम होता है। यदि अच्छे बाजे के साथ ध्वनि पूर्वक गाया बजाया जाय तो एक प्रकार की विद्युत तरंगें उत्पन्न होकर स्नायु-तंतुओं को तरंगित करती हैं, जिससे श्वास संचालन क्रिया में विशेष रूप से सहायता मिलती है और मंद एवं शिथिल गति से कार्य करने वाले अंगों में गति शीलता तथा स्फूर्ति का आविर्भाव होता है। जिन्हें गाना बजाना आता है उन्हें भोजन के पश्चात् कम से कम दो तीन घंटे बचाकर सुविधानुसार अपना अभ्यास करना चाहिए। जो बजा न सकते हों उन्हें केवल गाना ही चाहिए। सुविधानुसार यदि वाद्य गायन सुनने का अवसर मिले तो उससे भी लाभ उठाना चाहिए क्योंकि संगीत से उत्पन्न होने वाली विद्युत लहरें सुनने वालों को भी प्रभावित करती हैं। प्रातः सायं गायन, वाद्य तथा नृत्य के साथ संकीर्तन करने की धार्मिक प्रथा का स्वास्थ्य से बड़ा घना संबंध है। संकीर्तन में सम्मिलित होने वालों का अनायास ही फेंफड़े संबंधी व्यायाम हो जाता है और बहुत अंशों में प्राणायाम का लाभ मिलता है।
आप जानते ही होंगे कि हृदय दिन रात रक्त को फेंकता रहता है। जब हृदय द्वारा रक्त फेंका जाता है तो वह धमनियों और फिर पतली धमनियों में होता हुआ शरीर के हर एक भाग में पहुंचता है और फिर दूसरे रास्ते से पतली शिराओं में होता हुआ मोटी शिराओं में आकर हृदय में वापिस पहुंच जाता है। आरंभ में जब यह रक्त शरीर में घूमने लगता है तो स्वच्छ एवं शुद्ध होता है किन्तु जब वापिस लौटता है तो शरीर में हर घड़ी उत्पन्न होते रहने वाले विष उसमें मिल जाते हैं। शहर गंदी नालियों की भांति काला नीला होकर यह रक्त हृदय की दाहिनी कोठरी (Auricle) में जमा होता है यहां से उसे एक दूसरी कोठरी (Ventricle) में होकर शुद्ध होने के लिए वह बालों से भी बारीक नालियों द्वारा फेफड़ों की उन हवा वाली लाखों कोठरियों में पहुंचता है जिनका वर्णन ऊपर किया जा चुका है।
सांस द्वारा फेंफड़ों में जो शुद्ध हवा पहुंचती है वह इस विष को अपने साथ बाहर उड़ा लाती है। चौबीस घंटे में मनुष्य के शरीर से सांस द्वारा इतना विष बाहर निकलता है कि उससे 12 हाथियों की मृत्यु हो सकती है। यदि साफ हवा पर्याप्त मात्रा में फेंफड़ों में न पहुंचे तो शरीर प्राण वायु के जीवनदायक लाभों से वंचित तो रहेगा ही साथ ही अशुद्ध रक्त की गंदगी भी ठीक तरह शुद्ध न हो सकेगी और परिणाम यह होगा कि वह थोड़ी थोड़ी अशुद्धता धीरे धीरे जमा होकर स्वास्थ्य को बिगाड़ देगी और नाना प्रकार की बीमारियां उत्पन्न करेगी।
इसलिए गहरी और पूरी सांस लेने की आवश्यकता है जिससे वायु फेंफड़े के हर भाग में जाकर सम्पूर्ण वायु मन्दिरों में से रक्त की सफाई कर सके। अधूरी और उथली सांस लेने से कुछ थोड़े से वायु मंदिरों की सफाई हो पाती है क्योंकि उथली सांस का दबाव इतना नहीं होता कि वह हर एक कोठे तक पहुंच सके, जब हवा वहां तक पहुंचेगी ही नहीं तो सफाई किस प्रकार होगी? सांस का संपर्क होने पर रक्त की अशुद्धता—कार्बोनिक एसिड गैस—बाहर निकल जाती है और सांस का प्राण—आक्सीजन—रक्त में घुल जाती है। यह प्राण शक्ति उस शुद्ध हुए रक्त के दूसरे दौरे के साथ शरीर के अंग प्रत्यंगों में पहुंच कर उन्हें ताजगी और स्फूर्ति प्रदान करती है। शुद्ध रुधिर में एक चौथाई भाग—आक्सीजन का होता है। यदि इसमें न्यूनता हो जाय तो उसका प्रभाव पाचन क्रिया पर अनिवार्य रूप से पड़ता है ऐसे व्यक्तियों की जठराग्नि मंद होने लगती है।
इन सब प्रक्रियाओं पर विचार करने से यह स्पष्ट हो जाता है कि हमें पूरी और गहरी सांस लेने की आवश्यकता है। जिससे रक्त की सफाई अच्छी तरह होकर अशुद्धता शेष न रहने पावे और शुद्ध हुए रक्त में पर्याप्त—आक्सीजन मिल जाय, जिससे अंग प्रत्यंगों में ताजगी एवं स्फूर्ति पहुंचती रहे और पाचन शक्ति में निर्बलता न आने पावे। जठराग्नि मंद होने से अन्य अंगों में शिथिलता आने लगती है और वे अपने काम को अधूरा एवं दोष पूर्ण छोड़ते हैं, यह क्रम यदि कुछ समय जारी रहे तो जीवनयात्रा में नाना प्रकार की विघ्न-बाधाएं उपस्थित हो सकती हैं और विविध भांति के रोगों का सामना करना पड़ सकता है।
अधूरी सांस लेने वालों के फेफड़े का बहुत सा भाग निकम्मा पड़ा रहता है। जिन मकानों की सफाई नहीं होती उनमें गन्दगी, मकड़ी, मच्छर, छिपकली, कीड़े मकोड़े आदि का जमघट होने लगता है इसी प्रकार फेफड़ों के जिन वायु कोष्ठों में सांस की वायु नहीं पहुंचती उनमें क्षय, खांसी, जुकाम, उरक्षत, कफ, दमा आदि के रोग कीट जड़ जमा लेते हैं धीरे धीरे वहां वे निर्वाध रीति से पलते रहते हैं और भीतर ही भीतर अपना इतना आधिपत्य जमा लेते हैं कि फिर उनका निकाल बाहर करना कठिन या असंभव हो जाता है।
प्राणायाम विज्ञान का सब से पहला और आरंभिक पाठ यह है कि हमें पूरी और गहरी सांस लेनी चाहिए। यह आदत डालने का प्रयत्न करना चाहिए कि सदैव इस प्रकार सांस ली जाय कि वायु से पूरे फेंफड़े भर जायें। यह कार्य झटके से या उतावली में नहीं होना चाहिए। धीरे धीरे इस प्रकार पूरी सांस खींचनी चाहिए कि छाती भरपूर चौड़ी हो जाय और फिर उसी धीरे के क्रम से वायु को बाहर निकाल देना चाहिए। यह रीति फेफड़ों को स्वस्थ रखने वाली, रक्त को शुद्ध रखने वाली, शरीर के अंग प्रत्यंगों को चैतन्यता देने वाली पाचन शक्ति ठीक करने बनाये रखने वाली है इसलिए आरोग्य और दीर्घ जीवन देने वाली भी है।
छाती का कमजोर और कम चौड़ा होना स्वास्थ्य के लिए एक खतरनाक अभिशाप है जिसकी ओर हर व्यक्ति को जागरूक होने की आवश्यकता है। जापान के प्रसिद्ध डॉक्टर शोजाबुरो ओटेव ने अपनी पुस्तक ‘‘दी साइंस एंड आर्ट ऑफ डीप ब्रीदिंग इज ए प्रोफिलैक्टिक ऐंड थीराप्यूटिक एजेंट इनकंजप्शन’’ नामक पुस्तक में असंख्य प्रमाणों के साथ यह सिद्ध किया है कि तपेदिक का प्रधान कारण फेफड़ों का कमजोर होना है। उपर्युक्त डॉक्टर साहब ने वेक्टिरियो लोजिकल इंस्टीट्यूट, वेगुली सैनेटोरियम, नेशनल सेनेटोरियम चैरिटी मेडीकल कॉलेज आदि विख्यात अस्पतालों के प्रमुख पदों पर रहकर जो प्रामाणिक अनुभव एकत्रित किए हैं उससे यह भली प्रकार प्रकट होता है कि अधूरी सांस लेने से जिन व्यक्तियों ने अपनी छाती को निर्बल बना लिया है वे संक्रामक रोगों के शिकार होकर अकसर अकाल मृत्यु के ग्रास बनते हैं और जिन्हें गहरा एवं पूरा सांस लेने की आदत है वे अन्य कठिनाइयों के होते हुए भी इतनी सहन शक्ति रखते हैं कि कठिन रोगों से बहुत समय तक युद्ध करते रहें एवं उन पर विजय प्राप्त कर सकें।
शरीर विज्ञान पर नूतन प्रकाश डालने वाले यूरोप के ख्याति नामा डॉक्टर बर्नर मेकफेडन ने अपनी पुस्तकों में गहरा सांस लेने की आवश्यकता पर अत्यधिक जोर दिया है और स्वस्थता से पूरी सांस लेने का बहुत घना संबंध बताया है। जब कि अन्य डॉक्टर प्राणायाम के अद्भुत शारीरिक लाभों से अपरिचित थे तब आज से करीब 200 वर्ष पूर्व एक जर्मन पंडित इमैनुएल केंट ने अपनी पुस्तक में घोषित किया था कि सांस लेने की प्रक्रिया में सुधार कर लेने से कठिन रोगों से छुटकारा पाया जा सकता है। क्षय रोग के विशेषज्ञ डाक्टर मुथू ने अपने अस्पताल में अन्य उपचारों के साथ साथ रोगियों को प्राणायाम करना अनिवार्य रखा है। अमेरिका के योगी रामाचरक ने ‘‘साइंस ऑफ ब्रीथ’’ पुस्तक लिखकर अपने देश की जनता को प्राणायाम की उपयोगिता भले प्रकार समझाई है। उनके विचारों से अंग्रेजी भाषी लोगों का ध्यान प्राणायाम की ओर विशेष रूप खिंचा है और जगह जगह श्वांस प्रश्वांस क्रियाएं सिखाने वाली संस्थाओं का जन्म हो रहा है।
पूरी सांस लेने का अभ्यास डालने से छाती की चौड़ाई बढ़ती है, फेफड़ों की मजबूती और वजन में वृद्धि होती है, हृदय की कमजोरी में सुधार होकर रक्त संचार की प्रक्रिया में एक चैतन्यता दिखाई देने लगती है। पाठकों को श्वांस विज्ञान के इस तथ्य को गंभीरताउ पूर्वक विचारना चाहिए और अविलम्ब पूरी और गहरी सांस लेने की आदत डालने का प्रयत्न आरंभ कर देना चाहिए। कुछ दिन श्वास क्रिया पर ध्यान रखने से और भूल सुधारते रहने से यह आदत भले प्रकार पड़ जाती है।
प्राणायाम विज्ञान की दूसरी शिक्षा ‘नाक से स्वांस लेना’ है। यद्यपि मुंह से भी सांस ली जा सकती है पर वह उतनी उपयोगी कदापि नहीं हो सकती जितनी कि नाक से लेने पर होती है। एक बार एक जंगी जहाज के यात्रियों में चेचक बड़े उग्र रूप से फैली। डॉक्टरों ने इनकी विशेष सावधानी से इनकी जांच करते रहने का प्रयत्न किया। मृतकों के बारे में उनकी रिपोर्ट थी कि यह लोग मुंह से सांस लेते थे। उस जहाज में एक भी मनुष्य ऐसा न मरा जिसे नाक से श्वांस लेने की आदत थी। जुकाम और सर्दी के रोगों के बारे में भी डाक्टरी जांच का यही निष्कर्ष है कि मुंह खोलकर सांस लेने से इनका प्रकोप विशेष रूप से होता है और भी अनेक छोटे बड़े रोग इसी बुरी आदत के कारण होते देखे गए हैं।
नाक से फेंफड़ों तक जो हवा पहुंचाने वाली नाड़ी गई है उसकी रचना इस प्रकार हुई है कि वायु का उचित रूप से संशोधन परिमार्जन करके भीतर पहुंचावें। नासिका के छिद्रों में छोटे छोटे बाल होते हैं यह एक प्रकार की छलनी है जिनमें धूलि गंदगी के अणु अटके रह जाते हैं और छनी हुई वायु भीतर जाती है। जब आप नासिका के छिद्रों में उंगली डालकर उनकी सफाई करते हैं तो उनमें से कुछ मैल निकलता है। यह मैल वह कचरा है, जो वायु के छानने से जमा हुआ है। नासिका में एक प्रकार का तरल पदार्थ स्रवित होता रहता है, बालों में अटकने के सिवाय जो कचरा बच रहता है वह इस स्राव में चिपक जाता है। वायु का इतना संशोधन नासिका के छिद्रों में हो जाने के उपरांत वह आगे चलती है। श्वास नली जो फेफड़ों तक मस्तिष्क में होती हुई गई है काफी लंबी है, इतनी लम्बाई में यात्रा करते हुए वायु का तापमान सह्य हो जाता है यदि वह गरम हुई तो श्वास नली के ताप के अनुसार ठंडी हो जाती है और यदि ठंडी हुई तो गरम हो जाती है। इस प्रकार फेंफड़ों तक पहुंचते पहुंचते वह सब प्रकार सह्य और संशोधित हो जाता है। किन्तु यदि मुंह से सांस ली जाय तो परिणाम बिलकुल दूसरे ही प्रकार का होता है। मुंह में नासिका की तरह बाल नहीं हैं जो वायु को छानें। दूसरे मुंह का छिद्र इतना बड़ा है कि उसमें वायु का गर्द गुबार बिना रुकावट के चला जा सकता है। तीसरे मुंह से फेफड़ों की दूरी बहुत कम है, इसलिए वायु की सरदी गरमी में भी विशेष परिवर्तन नहीं होने पाता। इस प्रकार बिना छनी, गर्द गुबार युक्त, सर्द गर्म हवा मुंह के द्वारा जब फेफड़ों में पहुंचती है तो उन्हें हानि पहुंचती है और बीमारियों की उत्पत्ति करती है। देखा गया है कि जो लोग रात में मुंह से सांस लेते हैं सवेरे उनका मुंह सूखा हुआ, दाह युक्त, कड़ुआ और बदबूदार होता है। रोगियों को यह लत हो तो उनके स्वस्थ होने में अनावश्यक देरी लग जाती है।
योगियों की प्राणायाम के अभ्यासियों को यह कड़ी ताकीद होती है कि वे सदा नाक से सांस लिया करें। यदि नासिका भाग में कुछ रुकावट हो जिसके कारण मुंह से सांस लेने के लिए बाध्य होना पड़ता हो तो नासिका रंध्रों की सफाई कर लेनी चाहिए। यदा कदा इस सफाई को अभ्यास की तरह कर लिया जाया करे तो इस प्रकार की रुकावट उत्पन्न ही नहीं होने पाती।
हठयोग के अंतर्गत षट् कर्मों में ‘नेति’ क्रिया का प्रमुख स्थान है। नासिका की सफाई का यह साधन है। सूत की डोरी द्वारा, जल द्वारा, घृत द्वारा रंध्रों की सफाई करके वायु मार्ग में जमा हुआ मैल साफ किया जाता है ताकि सांस लेने में कोई विघ्न उपस्थित न हो। सूत की डोरी से नाक की सफाई करने का तरीका विशेष अनुभवी लोगों की देख रेख में ही किया जा सकता है अन्यथा भयानक खतरा उपस्थित हो सकता है। असावधानी से डोरी यदि नासा रंध्र में अनुचित रीति से धंस जाय तो मृत्यु तक की नौबत आ सकती है। इसलिए जल नेति का तरीका बरतने की ही हम अपने पाठकों को सलाह देते हैं।
प्रातःकाल शौच आदि से निवृत्त होकर अच्छी तरह कुल्ला दातौन करनी चाहिए और नासिका के छेदों को उंगली के सहारे खूब अच्छी तरह सफाई कर डालनी चाहिए। तदुपरांत छना हुआ, स्वच्छ, निर्मल, ताजा जल कटोरी या अंजलि में लेकर धीरे धीरे नासिका द्वारा ऊपर खींचना चाहिए। अभ्यास के आरंभ में कुछ दिन थोड़ी ही दूर तक पानी खींचना चाहिए और फिर नाक से ही लौटा देना चाहिए। फिर क्रमशः अधिक दूरी तक पानी खींचने का अभ्यास करते चलना चाहिए यहां तक कि नाक द्वारा खींचा हुआ पानी मुंह में होकर निकल जाय। इस जल नेति को सप्ताह में एक दो बार कर लेने से नासिका से वायु मार्ग की सफाई होती रहती है और श्वांस संबंधी रुकावटें दूर हो जाती हैं। यह स्वस्थ दशा के लिए है यदि रोग ग्रस्त दशा हो तो स्वच्छ पिघले हुए गौ घृत की नेति करनी चाहिए। कभी कभी ‘नक छिकनी’ बूटी के रस आदि को सूंघ कर छींकें ले लेनी चाहिए। इस प्रकार श्वांस मार्ग की रुकावटें दूर होती रहती हैं और नासिका द्वारा सांस लेने की आदत डालना सरल हो जाता है।
संगीत से फेंफड़े बहुत मजबूत होते हैं। गायन में जिन्हें रुचि होती है उन्हें छाती संबंधी रोग बहुत कम होते देखे गये हैं। अत्यधिक गाने से या अनुचित अवस्था में अविधि पूर्वक गाने से बीमारियां हो सकती हैं परन्तु साधारणतः संगीत की गणना फेंफड़े को मजबूत बनाने वाले अभ्यासों में है। कंठ, हृदय, पसली, आमाशय, आंत, यकृत आदि सभी धड़ के अंतर्गत रहने वाले अंगों पर संगीत से अच्छा व्यायाम होता है। यदि अच्छे बाजे के साथ ध्वनि पूर्वक गाया बजाया जाय तो एक प्रकार की विद्युत तरंगें उत्पन्न होकर स्नायु-तंतुओं को तरंगित करती हैं, जिससे श्वास संचालन क्रिया में विशेष रूप से सहायता मिलती है और मंद एवं शिथिल गति से कार्य करने वाले अंगों में गति शीलता तथा स्फूर्ति का आविर्भाव होता है। जिन्हें गाना बजाना आता है उन्हें भोजन के पश्चात् कम से कम दो तीन घंटे बचाकर सुविधानुसार अपना अभ्यास करना चाहिए। जो बजा न सकते हों उन्हें केवल गाना ही चाहिए। सुविधानुसार यदि वाद्य गायन सुनने का अवसर मिले तो उससे भी लाभ उठाना चाहिए क्योंकि संगीत से उत्पन्न होने वाली विद्युत लहरें सुनने वालों को भी प्रभावित करती हैं। प्रातः सायं गायन, वाद्य तथा नृत्य के साथ संकीर्तन करने की धार्मिक प्रथा का स्वास्थ्य से बड़ा घना संबंध है। संकीर्तन में सम्मिलित होने वालों का अनायास ही फेंफड़े संबंधी व्यायाम हो जाता है और बहुत अंशों में प्राणायाम का लाभ मिलता है।