Books - आसन और प्राणायाम
Media: TEXT
Language: HINDI
Language: HINDI
प्राणायाम
Listen online
View page note
Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
प्राणायाम की महत्ता
‘प्राण’ एक स्वतंत्र तत्त्व है जिसे जीवनी शक्ति भी कह सकते हैं। मिट्टी, पानी, हवा, आकाश ये पांच जड़ तत्त्व हैं, इनकी सहायता से संसार के विभिन्न दृश्य पदार्थों की रचना होती है, परंतु ऐसा न समझना चाहिए कि विश्व के मूल भूत पदार्थ इतने ही हैं। चैतन्य तत्त्वों की सत्ता इनसे पृथक है। विचार तत्त्व की चर्चा हम अपनी कई पुस्तकों में कर चुके हैं कि जो कुछ मनुष्य सोचता है वह एक प्रकार की अदृश्य भाप के रूप में मस्तिष्क में से निकल कर उड़ता है और बादलों की तरह ईथर की तरंगों में फिरता रहता है, और अपनी जाति के अन्य विचार जहां देखता है वहां ही घनीभूत हो जाता है।
विचार तत्त्व के अतिरिक्त प्राण तत्त्व, बुद्धि तत्त्व, आत्म तत्त्व और ब्रह्म तत्त्व अन्य हैं। जैसे पांच जड़ तत्त्व हैं, वैसे ही ये पांच चैतन्य तत्त्व भी हैं। दृश्य जड़ पदार्थों का अस्तित्व जल, तेज, वायु आदि जड़ पंच तत्त्वों के कारण हैं, इसी प्रकार इस निर्जीव दुनिया में हलचल, गति चेतना, विकास के जो भी दृश्य दिखाई पड़ते हैं उनका कर्तृत्व उपरोक्त चैतन्य पंच तत्त्वों के ऊपर निर्भर है। किसी जीव की मृत्यु हो जाती है तो कहते हैं कि इसका ‘प्राण निकल गया।’ यह ‘प्राण’ जड़ पंच तत्त्वों में से एक भी नहीं है क्योंकि मुर्दे के शरीर में वे पांचों ही मौजूद हैं। आत्मा भी कहीं गया नहीं, हिंदू विज्ञान के अनुसार जीव तेरह दिन तक अपने शरीर श्मशान और घर के आस-पास ही भ्रमण करता है। कई बार बिलकुल मरे हुए व्यक्ति पुनः जी उठते हैं, इन सब प्रश्नों पर विचार करने से पता चलता है कि शरीर को आत्मा के रहने योग्य बनाये रहने की क्षमता एक स्वतंत्र तत्त्व में है और उसका नाम है ‘प्राण’। इस प्राण की ही प्रेरणा से बीज उगते हैं, पौधे बढ़ते और हरे रहते हैं। इसे जीवनी शक्ति भी कह सकते हैं, विश्व में जितना भी जीवन दिखाई दे रहा है, वह ‘प्राण तत्त्व’ के कारण ही हैं।
यह प्राण पंच जड़ तत्त्वों के साथ मिलकर उन्हें उपयोगी बनाता है। किन्हीं स्थानों का जल वायु विशेष स्वास्थ्यकर होता है वहां उनमें प्राण का अधिक सम्मिलन पाया जाता है जहां इसकी न्यूनता होती है वहीं अस्वास्थ्यकर विकृति देखी जाती है। अमुक स्थानों का जलवायु अस्वास्थ्यकर है अर्थात वहां प्राण की न्यूनता है। गंगा के जल में प्राण की प्रचुरता है, जिस वायु में प्राण अधिक घुला होता है उसे ‘आक्सिजन’ कहते हैं। इसी प्रकार उर्वरा भूमि में, सह्य सूर्य ताप में, निर्मल आकाश में वह अधिक परिमाण में पाया जाता है। ‘आक्सिजन’ को प्राण वायु कहा जाता है इससे ऐसा समझा जाता है कि यही ‘प्राण’ है परन्तु यथार्थ में ऐसी बात नहीं है। प्राण एक विश्व व्यापी स्वतंत्र चैतन्य तत्त्व है जो वायु की ही तरह सर्वत्र पाया जाता है, वरन अत्यन्त सूक्ष्म होने के कारण वायु आदि में भी घुला रहता है। यही प्राण तत्त्व जब किसी शरीर में से बहुत अधिक मात्रा में कम हो जाता है तो उसमें आत्मा का रहना शक्य नहीं रहता, यही मृत्यु है।
बुद्धि एक स्वतंत्र तत्त्व है। विवेक, वेद, तत्त्व ज्ञान, प्रज्ञा, द्यौ, मानसिक शक्ति आदि नामों से जिस अदृश्य चैतन्य सत्ता का बोध होता है वह बुद्धि भी विश्वव्यापी और एक है, विभिन्न प्राणियों में इसकी न्यूनाधिक मात्रा देखी जाती है। संपूर्ण भूतों में एक ही आत्मा बैठा हुआ है इसकी विस्तृत विवेचना गीता आदि सभी प्रमुख आध्यात्मिक ग्रंथों में की गई है। जीवों का उत्तर दायित्व सम्मिलित है, एक के पाप पुण्य का दूसरे को भागी बनना पड़ता है। जीवों से आत्माओं से जरा ऊंची और विशुद्ध सत्ता ब्रह्म सत्ता है जिसे ईश्वर कहते हैं यह भी सर्व व्यापी एक और स्वतंत्र है। जड़ पंच तत्त्वों की भांति इन चैतन्य पंच तत्त्वों की क्रिया शीलता अदृश्य जगत में दिखाई देती है। इन चैतन्य तत्त्वों का विस्तृत विवेचन हमें यहां नहीं करना है, इस समय तो हमें प्राण तत्त्व पर विचार करना है, और देखना है कि इस जीवनी शक्ति को हम अधिक मात्रा में अपने अंदर किस प्रकार धारण कर सकते हैं।
भारतीय अध्यात्म विज्ञान वेत्ताओं ने बड़े प्रयत्न, अन्वेषण और अनुभव के उपरान्त उस मार्ग को ढूंढ़ निकाला है जिसके द्वारा उस विश्व व्यापी जीवन दात्री प्राण शक्ति को हम अपने अन्दर प्रचुर मात्रा में भर सकते हैं, और उसके प्रभाव से उत्तम स्वास्थ्य, दीर्घ जीवन, चैतन्यता, स्फूर्ति, क्रिया शक्ति, सहन करने की क्षमता, मानसिक तीक्ष्णता आदि नाना प्रकार की शक्तियां प्राप्त कर सकते हैं। इस मार्ग का नाम है—‘प्राणायाम’ प्राणायाम सांस को खींच, उसे अंदर रोके रहने और बाहर निकालने की एक विशेष क्रिया पद्धति है। इस विधान के अनुसार प्राण को उसी प्रकार अंदर भरा जाता है जैसे साइकिल की पंप से ट्यूब में हवा भरी जाती है। यह पम्प इस प्रकार का बना होता है कि हवा को भरता तो है पर वापस नहीं खींचता। प्राणायाम की व्यवस्था भी इसी प्रकार की है। साधारण श्वास प्रश्वास क्रिया में वायु के साथ वह प्राण इसी प्रकार आता जाता रहता है जैसे सड़क पर मुसाफिर चलते रहते हैं किन्तु प्राणायाम विधि के अनुसार जब श्वास प्रश्वास क्रिया होती है तो वायु में से प्राण को खींचकर खासतौर से उसे शरीर में स्थापित किया जाता है जैसे कि धर्मशाला में यात्री को व्यवस्था पूर्वक टिकाया जाता है।
भारतीय योग शास्त्र षट् चक्रों में सूर्य चक्र को बहुत अधिक महत्त्व देता है। अब पाश्चात्य विज्ञान ने भी (Solar Plexus) सूर्य ग्रन्थि को सूक्ष्म तंतुओं का केंद्र स्वीकार किया है। और माना है कि मानव शरीर में प्रतिक्षण होती रहने वाली क्रिया प्रणाली का संचालन इसी के द्वारा होता है। कुछ वैज्ञानिकों ने इसे ‘पेट का मस्तिष्क’ नाम दिया है। यह सूर्य चक्र या ‘सोलर प्लैक्सस’ आमाशय के ऊपर, हृदय की धुकधुकी के ठीक पीछे, मेरु दंड के दोनों ओर स्थित है, यह एक प्रकार की सफेद और भूरी गद्दी से बना हुआ होता है। पाश्चात्य वैज्ञानिक शरीर की आंतरिक क्रिया विधि पर इसका अधिकार मानते हैं और कहते हैं कि भीतरी अंगों का उन्नति अवनति का आधार यही केन्द्र है। किन्तु सच बात यह है कि यह खोज अभी अपूर्ण है। सूर्य चक्र का कार्य और महत्त्व उससे अनेक गुना अधिक है जितना कि वे लोग मानते हैं। ऐसा देखा गया है कि इस केन्द्र पर यदि जरा कड़ी चोट लग जाए तो मनुष्य की तत्काल मृत्यु हो जाती है। योग शास्त्र के केन्द्र को प्राण कोश मानता है और कहता है कि यहीं से निकल कर एक प्रकार का मानवीय विद्युत प्रवाह सम्पूर्ण नाड़ियों में प्रवाहित होता है। ओजस् शक्ति इसी संस्थान में रहती है।
प्राणायाम द्वारा इस सूर्यचक्र की एक प्रकार की हलकी हलकी मालिस होती है जिससे उसमें गर्मी तेजी और उत्तेजना का संचार होता है और उसकी क्रियाशीलता बढ़ती है। प्राणायाम से फुफ्फुसों में वायु भरती है और वे फूलते हैं, यह फुलाव सूर्यचक्र की परिधि को स्पर्श करता है। बार बार स्पर्श करने से जिस प्रकार काम सेवन अंगों में उत्तेजना उत्पन्न हो जाती है उसी प्रकार प्राणायाम द्वारा फुफ्फुस का सूर्यचक्र का स्पर्श होना वहां एक सनसनी उत्तेजना और हलचल पैदा करता है। यह उत्तेजना व्यर्थ नहीं जाती वरन् संबंधित सारे अंग प्रत्यंगों को जीवन और बल प्रदान करती है जिससे शारीरिक और मानसिक उन्नतियों का द्वार खुल जाता है।
मेरुदंड के दाहिने बायें दोनों ओर नाड़ी गुच्छकों (Ganglia) की दो श्रृंखलाएं चलती हैं। यह गुच्छक आपस में संबंधित हैं और इन्हीं से सिर, गले, छाती, पेट आदि के गुच्छक भी आकर शामिल हो गए हैं। अन्य अनेक नाड़ी कणों (Cell’s) का भी वहां जमघट है। इनका प्रथम विभाग जिसे ‘मस्तिष्क मेरु विभाग’ कहते हैं शरीर के ज्ञान तंतुओं से घनीभूत हो रहा है। इसी संस्थान से असंख्य बहुत ही बारीक भूरे तन्तु निकलकर रुधिर नाड़ियों में फैल गये हैं और अपने अन्दर बहने वाली विद्युत शक्ति से भीतरी शारीरिक अवयवों को संचालित किये रहते हैं।
ऊपर बताया जा चुका है कि मेरु दंड के दायें बायें नाड़ी गुच्छकों (Ganglia) की दो प्रधान श्रृंखलाएं चलती हैं इन्हीं को योग की भाषा में इड़ा और पिंगला कहा गया है। रुधिर संचार, श्वास क्रिया, पाचन आदि प्रमुख कार्यों को सुसंचालित रखने की जिम्मेदारी उपरोक्त नाड़ी गुच्छकों के ऊपर प्रधान रूप से है। प्राणायाम साधना में इन इड़ा, पिंगला नाड़ियों को नियत विधि के अनुसार बलवान बनाया जाता है। जिससे उनसे संबंधित शरीर की सहानुभावी क्रिया के विकार दूर होकर आनंददायी स्वस्थता प्राप्त हो सके।
अत्यंत प्राचीनकाल से अध्यात्म वेत्ता पुरुष प्राणायाम के महत्त्व और उसके लाभों को अनुभव करते रहे हैं। तदनुसार समस्त भूमंडल के योगी लोग अपनी अपनी विधि से इन क्रियाओं को करते रहे हैं। महाप्रभु ईसा मसीह अपने शिष्यों सहित एक पर्वत पर चढ़कर ईश्वर की प्रार्थना किया करते थे। कहा जाता है कि इस ऊंची चढ़ाई में आध्यात्मिक श्वांस क्रियाओं का रहस्य छिपा हुआ था। बौद्ध धर्म में ‘जजन’ नामक प्राणायाम बहुत काल से चला आता है। प्रसिद्ध जापानी पुरोहित हकुइन जेंशी ने प्राणायाम का खूब विस्तार किया था। यूनान में प्लेरन से भी बहुत पहले इस विज्ञान की जानकारी का पता चलता है। अन्यान्य देशों में भी किसी न किसी रूप में इस विद्या के अस्तित्व के प्रमाण मिलते हैं।
योग साधन पाद के सूत्र 52, 53 में बताया गया है कि प्राणायाम से अविद्या का अंधकार दूर होकर ज्ञान की ज्योति प्रकट होती है और मन एकाग्र होने लगता है। ऐसी गाथाएं भी सुनी जाती हैं कि प्राणायाम को वश में करके योगी लोग मृत्यु को जीत लेते हैं और जब तक चाहें तब तक जीवित रह सकते हैं। प्राण शक्ति से अपने और दूसरों के रोगों को दूर करने का एक अलग विज्ञान है जिसे हम अपनी ‘प्राण चिकित्सा विज्ञान’ पुस्तक में प्रकट कर चुके हैं। इसके अतिरिक्त अनेक अन्यान्य प्रकार के प्राणायाम से होने वाले लाभ सुने और देखे जाते हैं। यह लाभ कभी कभी इतने विचित्र होते हैं कि उन पर आश्चर्य करना पड़ता है। इन पंक्तियों में उन अद्भुत और आश्चर्य जनक घटनाओं की चर्चा न करके इतना ही कहना पर्याप्त होगा कि प्राणायाम से शरीर की सूक्ष्म क्रिया पद्धति के ऊपर अदृश्य रूप से ऐसे विज्ञान सम्मत प्रभाव पड़ते हैं जिनके कारण रक्त संचार, नाड़ी-संचालन, पाचन क्रिया, स्नायविक दृढ़ता, गाढ़ निद्रा, स्फूर्ति एवं मानसिक विकास के चिह्न स्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर होते हैं एवं स्वस्थता, बलशीलता, प्रसन्नता, उत्साह तथा परिश्रम की योग्यता बढ़ती है। आत्मोन्नति, चित्त की एकाग्रता, स्थिरता, दृढ़ता आदि मानसिक गुणों की मात्रा में प्राण साधना के साथ साथ ही वृद्धि होती है। इन लाभों पर विचार किया जाय तो प्रतीत होता है कि प्राणायाम आत्मोन्नति की एक महत्त्वपूर्ण साधना है।
‘प्राण’ एक स्वतंत्र तत्त्व है जिसे जीवनी शक्ति भी कह सकते हैं। मिट्टी, पानी, हवा, आकाश ये पांच जड़ तत्त्व हैं, इनकी सहायता से संसार के विभिन्न दृश्य पदार्थों की रचना होती है, परंतु ऐसा न समझना चाहिए कि विश्व के मूल भूत पदार्थ इतने ही हैं। चैतन्य तत्त्वों की सत्ता इनसे पृथक है। विचार तत्त्व की चर्चा हम अपनी कई पुस्तकों में कर चुके हैं कि जो कुछ मनुष्य सोचता है वह एक प्रकार की अदृश्य भाप के रूप में मस्तिष्क में से निकल कर उड़ता है और बादलों की तरह ईथर की तरंगों में फिरता रहता है, और अपनी जाति के अन्य विचार जहां देखता है वहां ही घनीभूत हो जाता है।
विचार तत्त्व के अतिरिक्त प्राण तत्त्व, बुद्धि तत्त्व, आत्म तत्त्व और ब्रह्म तत्त्व अन्य हैं। जैसे पांच जड़ तत्त्व हैं, वैसे ही ये पांच चैतन्य तत्त्व भी हैं। दृश्य जड़ पदार्थों का अस्तित्व जल, तेज, वायु आदि जड़ पंच तत्त्वों के कारण हैं, इसी प्रकार इस निर्जीव दुनिया में हलचल, गति चेतना, विकास के जो भी दृश्य दिखाई पड़ते हैं उनका कर्तृत्व उपरोक्त चैतन्य पंच तत्त्वों के ऊपर निर्भर है। किसी जीव की मृत्यु हो जाती है तो कहते हैं कि इसका ‘प्राण निकल गया।’ यह ‘प्राण’ जड़ पंच तत्त्वों में से एक भी नहीं है क्योंकि मुर्दे के शरीर में वे पांचों ही मौजूद हैं। आत्मा भी कहीं गया नहीं, हिंदू विज्ञान के अनुसार जीव तेरह दिन तक अपने शरीर श्मशान और घर के आस-पास ही भ्रमण करता है। कई बार बिलकुल मरे हुए व्यक्ति पुनः जी उठते हैं, इन सब प्रश्नों पर विचार करने से पता चलता है कि शरीर को आत्मा के रहने योग्य बनाये रहने की क्षमता एक स्वतंत्र तत्त्व में है और उसका नाम है ‘प्राण’। इस प्राण की ही प्रेरणा से बीज उगते हैं, पौधे बढ़ते और हरे रहते हैं। इसे जीवनी शक्ति भी कह सकते हैं, विश्व में जितना भी जीवन दिखाई दे रहा है, वह ‘प्राण तत्त्व’ के कारण ही हैं।
यह प्राण पंच जड़ तत्त्वों के साथ मिलकर उन्हें उपयोगी बनाता है। किन्हीं स्थानों का जल वायु विशेष स्वास्थ्यकर होता है वहां उनमें प्राण का अधिक सम्मिलन पाया जाता है जहां इसकी न्यूनता होती है वहीं अस्वास्थ्यकर विकृति देखी जाती है। अमुक स्थानों का जलवायु अस्वास्थ्यकर है अर्थात वहां प्राण की न्यूनता है। गंगा के जल में प्राण की प्रचुरता है, जिस वायु में प्राण अधिक घुला होता है उसे ‘आक्सिजन’ कहते हैं। इसी प्रकार उर्वरा भूमि में, सह्य सूर्य ताप में, निर्मल आकाश में वह अधिक परिमाण में पाया जाता है। ‘आक्सिजन’ को प्राण वायु कहा जाता है इससे ऐसा समझा जाता है कि यही ‘प्राण’ है परन्तु यथार्थ में ऐसी बात नहीं है। प्राण एक विश्व व्यापी स्वतंत्र चैतन्य तत्त्व है जो वायु की ही तरह सर्वत्र पाया जाता है, वरन अत्यन्त सूक्ष्म होने के कारण वायु आदि में भी घुला रहता है। यही प्राण तत्त्व जब किसी शरीर में से बहुत अधिक मात्रा में कम हो जाता है तो उसमें आत्मा का रहना शक्य नहीं रहता, यही मृत्यु है।
बुद्धि एक स्वतंत्र तत्त्व है। विवेक, वेद, तत्त्व ज्ञान, प्रज्ञा, द्यौ, मानसिक शक्ति आदि नामों से जिस अदृश्य चैतन्य सत्ता का बोध होता है वह बुद्धि भी विश्वव्यापी और एक है, विभिन्न प्राणियों में इसकी न्यूनाधिक मात्रा देखी जाती है। संपूर्ण भूतों में एक ही आत्मा बैठा हुआ है इसकी विस्तृत विवेचना गीता आदि सभी प्रमुख आध्यात्मिक ग्रंथों में की गई है। जीवों का उत्तर दायित्व सम्मिलित है, एक के पाप पुण्य का दूसरे को भागी बनना पड़ता है। जीवों से आत्माओं से जरा ऊंची और विशुद्ध सत्ता ब्रह्म सत्ता है जिसे ईश्वर कहते हैं यह भी सर्व व्यापी एक और स्वतंत्र है। जड़ पंच तत्त्वों की भांति इन चैतन्य पंच तत्त्वों की क्रिया शीलता अदृश्य जगत में दिखाई देती है। इन चैतन्य तत्त्वों का विस्तृत विवेचन हमें यहां नहीं करना है, इस समय तो हमें प्राण तत्त्व पर विचार करना है, और देखना है कि इस जीवनी शक्ति को हम अधिक मात्रा में अपने अंदर किस प्रकार धारण कर सकते हैं।
भारतीय अध्यात्म विज्ञान वेत्ताओं ने बड़े प्रयत्न, अन्वेषण और अनुभव के उपरान्त उस मार्ग को ढूंढ़ निकाला है जिसके द्वारा उस विश्व व्यापी जीवन दात्री प्राण शक्ति को हम अपने अन्दर प्रचुर मात्रा में भर सकते हैं, और उसके प्रभाव से उत्तम स्वास्थ्य, दीर्घ जीवन, चैतन्यता, स्फूर्ति, क्रिया शक्ति, सहन करने की क्षमता, मानसिक तीक्ष्णता आदि नाना प्रकार की शक्तियां प्राप्त कर सकते हैं। इस मार्ग का नाम है—‘प्राणायाम’ प्राणायाम सांस को खींच, उसे अंदर रोके रहने और बाहर निकालने की एक विशेष क्रिया पद्धति है। इस विधान के अनुसार प्राण को उसी प्रकार अंदर भरा जाता है जैसे साइकिल की पंप से ट्यूब में हवा भरी जाती है। यह पम्प इस प्रकार का बना होता है कि हवा को भरता तो है पर वापस नहीं खींचता। प्राणायाम की व्यवस्था भी इसी प्रकार की है। साधारण श्वास प्रश्वास क्रिया में वायु के साथ वह प्राण इसी प्रकार आता जाता रहता है जैसे सड़क पर मुसाफिर चलते रहते हैं किन्तु प्राणायाम विधि के अनुसार जब श्वास प्रश्वास क्रिया होती है तो वायु में से प्राण को खींचकर खासतौर से उसे शरीर में स्थापित किया जाता है जैसे कि धर्मशाला में यात्री को व्यवस्था पूर्वक टिकाया जाता है।
भारतीय योग शास्त्र षट् चक्रों में सूर्य चक्र को बहुत अधिक महत्त्व देता है। अब पाश्चात्य विज्ञान ने भी (Solar Plexus) सूर्य ग्रन्थि को सूक्ष्म तंतुओं का केंद्र स्वीकार किया है। और माना है कि मानव शरीर में प्रतिक्षण होती रहने वाली क्रिया प्रणाली का संचालन इसी के द्वारा होता है। कुछ वैज्ञानिकों ने इसे ‘पेट का मस्तिष्क’ नाम दिया है। यह सूर्य चक्र या ‘सोलर प्लैक्सस’ आमाशय के ऊपर, हृदय की धुकधुकी के ठीक पीछे, मेरु दंड के दोनों ओर स्थित है, यह एक प्रकार की सफेद और भूरी गद्दी से बना हुआ होता है। पाश्चात्य वैज्ञानिक शरीर की आंतरिक क्रिया विधि पर इसका अधिकार मानते हैं और कहते हैं कि भीतरी अंगों का उन्नति अवनति का आधार यही केन्द्र है। किन्तु सच बात यह है कि यह खोज अभी अपूर्ण है। सूर्य चक्र का कार्य और महत्त्व उससे अनेक गुना अधिक है जितना कि वे लोग मानते हैं। ऐसा देखा गया है कि इस केन्द्र पर यदि जरा कड़ी चोट लग जाए तो मनुष्य की तत्काल मृत्यु हो जाती है। योग शास्त्र के केन्द्र को प्राण कोश मानता है और कहता है कि यहीं से निकल कर एक प्रकार का मानवीय विद्युत प्रवाह सम्पूर्ण नाड़ियों में प्रवाहित होता है। ओजस् शक्ति इसी संस्थान में रहती है।
प्राणायाम द्वारा इस सूर्यचक्र की एक प्रकार की हलकी हलकी मालिस होती है जिससे उसमें गर्मी तेजी और उत्तेजना का संचार होता है और उसकी क्रियाशीलता बढ़ती है। प्राणायाम से फुफ्फुसों में वायु भरती है और वे फूलते हैं, यह फुलाव सूर्यचक्र की परिधि को स्पर्श करता है। बार बार स्पर्श करने से जिस प्रकार काम सेवन अंगों में उत्तेजना उत्पन्न हो जाती है उसी प्रकार प्राणायाम द्वारा फुफ्फुस का सूर्यचक्र का स्पर्श होना वहां एक सनसनी उत्तेजना और हलचल पैदा करता है। यह उत्तेजना व्यर्थ नहीं जाती वरन् संबंधित सारे अंग प्रत्यंगों को जीवन और बल प्रदान करती है जिससे शारीरिक और मानसिक उन्नतियों का द्वार खुल जाता है।
मेरुदंड के दाहिने बायें दोनों ओर नाड़ी गुच्छकों (Ganglia) की दो श्रृंखलाएं चलती हैं। यह गुच्छक आपस में संबंधित हैं और इन्हीं से सिर, गले, छाती, पेट आदि के गुच्छक भी आकर शामिल हो गए हैं। अन्य अनेक नाड़ी कणों (Cell’s) का भी वहां जमघट है। इनका प्रथम विभाग जिसे ‘मस्तिष्क मेरु विभाग’ कहते हैं शरीर के ज्ञान तंतुओं से घनीभूत हो रहा है। इसी संस्थान से असंख्य बहुत ही बारीक भूरे तन्तु निकलकर रुधिर नाड़ियों में फैल गये हैं और अपने अन्दर बहने वाली विद्युत शक्ति से भीतरी शारीरिक अवयवों को संचालित किये रहते हैं।
ऊपर बताया जा चुका है कि मेरु दंड के दायें बायें नाड़ी गुच्छकों (Ganglia) की दो प्रधान श्रृंखलाएं चलती हैं इन्हीं को योग की भाषा में इड़ा और पिंगला कहा गया है। रुधिर संचार, श्वास क्रिया, पाचन आदि प्रमुख कार्यों को सुसंचालित रखने की जिम्मेदारी उपरोक्त नाड़ी गुच्छकों के ऊपर प्रधान रूप से है। प्राणायाम साधना में इन इड़ा, पिंगला नाड़ियों को नियत विधि के अनुसार बलवान बनाया जाता है। जिससे उनसे संबंधित शरीर की सहानुभावी क्रिया के विकार दूर होकर आनंददायी स्वस्थता प्राप्त हो सके।
अत्यंत प्राचीनकाल से अध्यात्म वेत्ता पुरुष प्राणायाम के महत्त्व और उसके लाभों को अनुभव करते रहे हैं। तदनुसार समस्त भूमंडल के योगी लोग अपनी अपनी विधि से इन क्रियाओं को करते रहे हैं। महाप्रभु ईसा मसीह अपने शिष्यों सहित एक पर्वत पर चढ़कर ईश्वर की प्रार्थना किया करते थे। कहा जाता है कि इस ऊंची चढ़ाई में आध्यात्मिक श्वांस क्रियाओं का रहस्य छिपा हुआ था। बौद्ध धर्म में ‘जजन’ नामक प्राणायाम बहुत काल से चला आता है। प्रसिद्ध जापानी पुरोहित हकुइन जेंशी ने प्राणायाम का खूब विस्तार किया था। यूनान में प्लेरन से भी बहुत पहले इस विज्ञान की जानकारी का पता चलता है। अन्यान्य देशों में भी किसी न किसी रूप में इस विद्या के अस्तित्व के प्रमाण मिलते हैं।
योग साधन पाद के सूत्र 52, 53 में बताया गया है कि प्राणायाम से अविद्या का अंधकार दूर होकर ज्ञान की ज्योति प्रकट होती है और मन एकाग्र होने लगता है। ऐसी गाथाएं भी सुनी जाती हैं कि प्राणायाम को वश में करके योगी लोग मृत्यु को जीत लेते हैं और जब तक चाहें तब तक जीवित रह सकते हैं। प्राण शक्ति से अपने और दूसरों के रोगों को दूर करने का एक अलग विज्ञान है जिसे हम अपनी ‘प्राण चिकित्सा विज्ञान’ पुस्तक में प्रकट कर चुके हैं। इसके अतिरिक्त अनेक अन्यान्य प्रकार के प्राणायाम से होने वाले लाभ सुने और देखे जाते हैं। यह लाभ कभी कभी इतने विचित्र होते हैं कि उन पर आश्चर्य करना पड़ता है। इन पंक्तियों में उन अद्भुत और आश्चर्य जनक घटनाओं की चर्चा न करके इतना ही कहना पर्याप्त होगा कि प्राणायाम से शरीर की सूक्ष्म क्रिया पद्धति के ऊपर अदृश्य रूप से ऐसे विज्ञान सम्मत प्रभाव पड़ते हैं जिनके कारण रक्त संचार, नाड़ी-संचालन, पाचन क्रिया, स्नायविक दृढ़ता, गाढ़ निद्रा, स्फूर्ति एवं मानसिक विकास के चिह्न स्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर होते हैं एवं स्वस्थता, बलशीलता, प्रसन्नता, उत्साह तथा परिश्रम की योग्यता बढ़ती है। आत्मोन्नति, चित्त की एकाग्रता, स्थिरता, दृढ़ता आदि मानसिक गुणों की मात्रा में प्राण साधना के साथ साथ ही वृद्धि होती है। इन लाभों पर विचार किया जाय तो प्रतीत होता है कि प्राणायाम आत्मोन्नति की एक महत्त्वपूर्ण साधना है।