Books - अतीन्द्रिय क्षमताओं की पृष्ठभूमि
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Language: HINDI
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श्रवण और दर्शन की दिव्य शक्तियां
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उस समय की बात है जब सिकन्दर पंजाब की सीमा पर आ पहुंचा। एक दिन, रात को उसने अपने पहरेदारों को बुलाया और पूछा—यह गाने की आवाज कहां से आ रही है? पहरेदारों ने बहुत ध्यान लगाकर सुनने की कोशिश की पर उन्हें तो झींगुर की भी आवाज न सुनाई दी। भौचक्के पहरेदार एक दूसरे का मुंह देखने लगे, बोले महाराज! हमें तो कहीं से भी गाने की आवाज सुनाई नहीं दे रही।
दूसरे दिन सिकन्दर को फिर वही ध्वनि सुनाई दी, उसने अपने सेनापति को बुलाकर कहा—देखो जी! किसी के गाने की आवाज से मेरी नींद टूट जाती है। पता तो लगाना यह रात को कौन गाना गाता है। सेनापति ने भी बहुतेरा ध्यान से सुनने का प्रयत्न किया किन्तु उसे भी कहीं से कोई आवाज सुनाई नहीं दी। मन में तो आया कि कह दें आपको भ्रम हो रहा है पर सिकन्दर का भय क्या कम था, धीरे से बोला—महाराज! बहुत प्रयत्न करने पर भी कुछ सुनाई नहीं पड़ रहा, लेकिन अभी सैनिकों को आपकी बताई दिशा में भेजता हैं अभी पता लगा कर लाते हैं कौन गा रहा है।
चुस्त घुड़सवार दौड़ाये गये। जिस दिशा से सिकन्दर ने आवाज का आना बताया था—घुड़सवार सैनिक उधर ही बढ़ते गये बहुत पास जाने पर उन्हें एक ग्रामीण के गाने का स्वर सुनाई पड़ा पता चला कि वह स्थान सिकन्दर के राज प्रासाद से 10 मील दूर है। इतनी दूर की आवाज सिकन्दर ने कैसे सुनली सैनिक सेनापति सभी इस बात के लिये स्तब्ध थे। ग्रामीण एक निर्जन स्थान की झोंपड़ी पर से गाता था और आवाज इतना लम्बा मार्ग तय करके सिकन्दर तक पहुंच जाती थी। प्रश्न है कि सिकन्दर इतनी दूर की आवाज कैसे सुन लेता था दूसरे लोग क्यों नहीं सुन पाते थे? सेनापति ने स्वीकार किया कि सचमुच ही अपनी ज्ञानेन्द्रियों को सन्तुष्ट करके केवल वही सत्य नहीं कही जा सकती है अतीन्द्रिय सत्य भी संसार में है उन्हें पहचाने बिना मनुष्य जीवन की कोई उपयोगिता नहीं।
दूर की आवाज सुनना विज्ञान के वर्तमान युग में कोई बड़े आश्चर्य की बात नहीं है ‘रेडियो डिटेक्शन एण्ड रेन्जिंग’ अर्थात् ‘रैडार’ नाम जिन लोगों ने सुना है वे यह भी जानते होंगे कि यह एक ऐसा यन्त्र है जो सैकड़ों मील से दूर से आ रही आवाज, आवाज ही नहीं वस्तु की तस्वीर का भी पता दें देता है। हवाई जहाज उड़ते हैं तब उनके आवश्यक निर्देश, संवाद और मौसम आदि की जानकारियां ‘रैडार’ द्वारा ही भेजी जाती हैं और उनके संदेश रैडार द्वारा ही प्राप्त होते हैं। बादल छाये हैं, कोहरा घना हो रहा है, हवाई पट्टी में धुंआ छाया है रैडार की आंख उसे भी बेध कर देख सकती है और जहाज को रास्ता बताकर उसे कुशलता पूर्वक हवाई अड्डे पर उतारा जा सकता है। छोटे रैडार 150 मील तक की आवाज सुन सकते हैं। जापान ने 500 मील तक की आवाज सुन सकने वाले रैडार बनाये हैं। अमेरिका के पास तो ऐसे भी रैडार हैं जो ‘ह्यूस्टन’ के चन्द्र वैज्ञानिकों को चन्द्रमा में उतरे हुए यात्रियों तक से बात-चीत करा देते हैं। रैडार यंत्र की इस क्षमता पर और उसकी खोज व निर्माण करने वाले वैज्ञानिकों के बुद्धि कौशल पर जितना ही आश्चर्य किया जाय कम है।
किसी विज्ञान जानने वाले विद्यार्थी से यह बात कही जाये तो वह हंस कर कहेगा भाई साहब इसमें आश्चर्य की क्या बात—साधारण सी रेडियो तरंगों का सिद्धांत है जब ध्वनि लहरियां किसी माध्यम से टकराती हैं तो वे फिर वापिस लौट आती हैं उस स्थान वस्तु आदि का पता दें देती हैं। हवाई जहाज की ध्वनि को रेडियो तरंगों द्वारा पकड़ कर यह पता लगा लिया जाता है कि वे किस दिशा में कितनी दूर पर हैं। यह कार्य प्रकाश की गति अर्थात् 186000 मील प्रति सैकिण्ड की गति से होता है। रेडियो तरंगों की भी वही गति होती है तात्पर्य यह है कि यदि उपयुक्त संवेदनशीलता वाला रैडार जैसा कोई यन्त्र हो तो बड़ी से भी बड़ी दूरी की आवाज को सैकड़ों में सुना जा सकता है। देखा जा सकता है। प्रकाश से भी तीव्रगामी तत्वों की खोज ने तो अब इस सम्भावना को और भी बढ़ा दिया है और अब सारे ब्रह्माण्ड को भी कान लगाकर सुने जाने की बात को भी कोई बड़ा आश्चर्य नहीं माना जाता।
मुश्किल इतनी ही है कि कोई भी यन्त्र इतने संवेदन शील नहीं बन पाते कि दशों दिशाओं से आने वाली करोड़ों आवाजों में से किसी भी पतली से पतली आवाज को जान सकें और भयंकर से भी भयंकर निनाद में भी टूटने फटने के भय से बची रहें। रैडार इतना उपयोगी है पर इतना भारी भरकम कि उसे एक स्थान पर स्थापित करने में वर्षों लग जाते हैं। सैकड़ों फुट ऊंचे एण्टीना, ट्रांसमीटर रिसीवर, बहुत अधिक कम्पन वाली (सुपर फ्रीक्वेन्सी) रेडियो ऊर्जा इंडिकेटर, आस्सीलेटर, माडुलेटर, सिकोनाइजर आदि अनेकों यन्त्र प्रणालियां मिलकर एक रैडार काम करने योग्य हो पाता है। उस पर भी अनेक कर्मचारी काम करते हैं, लाखों रुपयों का खर्च आता है, तब कहीं यह काम करने के योग्य हो पाता है। कहीं बिजली का बहुत तेज धमाका हो जाये तो यह रैडार बेकार भी हो जाते हैं और जहाज यदि ऐसे हो जो अपनी ध्वनि को बाहर फैलने ही न दें तो रैडार उनको पहचान भी नहीं सकें। यह सब देखकर इतने भारी मानवीय प्रयत्न और मानवीय बुद्धि कौशल तुच्छ और नगण्य ही दिखाई देते हैं।
दूसरी तरफ एक दूसरा रैडार—मनुष्य का छोटा सा कान एक सर्वशक्तिमान कलाकार—विधाता की याद दिलाता है जिसकी बराबरी का रैडार संभवतः मनुष्य कभी भी बना न पाये। कान हल्की आवाज को भी सुन और भयंकर घोष को भी बर्दाश्त कर सकते हैं। प्रयोगों द्वारा यह सिद्ध हो चुका है कि कानों की मदद से मनुष्य लगभग 5 लाख आवाजें सुनकर पहचान सकता है जबकि रैडार का उपयोग अभी तक सीमित ही है।
कान के भीतरी भाग में, जो संदेशों को मस्तिष्क में पहुंचाने का काम करता है 30500 रोये पाये जाते हैं यह रोये जिस श्रवण झिल्ली से जुड़े होते हैं वह तो 1/25000000000000000 इंच से भी छोटा अर्थात् इलेक्ट्रानिक माइक्रोस्कोप से भी मुश्किल से दिखाई दें सकने वाला होता है। वैज्ञानिकों का भी अनुमान है कि इतने सूक्ष्म व संवेदनशील यंत्र को बनाने में मनुष्य जाति एक बार पूरी तरह सभ्य होकर नष्ट हो जाने के बाद फिर नये सिरे से जनम लेकर विज्ञान की दिशा में प्रगति करे तो ही हो सकती है (अर्थात् मानवीय क्षमता से परे की बात है) इस झिल्ली का यदि पूर्ण उपयोग संभव हो सके तो संसार की सूक्ष्म से सूक्ष्म हलचलों को, लाखों मील दूर की आवाज को भी ऐसे सुना जा सकता है मानो वह यहीं कहीं अपन पास ही हों या बैठे मित्र से ही बात चीत हो रही हो महर्षि पातंजलि ने लिखा है—
श्रीत्रःकाशयोः संबन्ध संयमादिद्व्यं श्रोतम् (पयो सूत्र 40)
अर्थात्—श्रवणेन्द्रिय (कानों) तथा आकाश के सम्बन्ध पर संयम करने से दिव्य ध्वनियों को सुनने की शक्ति प्राप्त होती है। यह बात अब विभिन्न प्रयोगों से भी सिद्ध हो गई है सामान्यतः हम 6 फुट की दूरी की आवाज का भी अधिकतम 1/3000000 वां हिस्सा ही सुन पाते हैं। शेष कितनी ही मंद ध्वनि क्यों न हो वायुभूत हो जाती हैं। संसार के प्रत्येक पदार्थ में ऊर्जा विद्यमान है और चूंकि कोई भी स्थान ऊर्जा से रिक्त नहीं, अतएव प्रत्येक ध्वनि कुछ ही समय में सारे ब्रह्माण्ड में उसी प्रकार फैल जाती है जिस प्रकार जल होता है वहां तक चली जाती हैं।
न्यूजर्सी अमेरिका की बेल टेलीफोन प्रयोगशाला के इंजीनियरों और वैज्ञानिकों ने एक ऐसे भवन का निर्माण किया जो पूरी तरह शब्द प्रूफ था अर्थात् उसके अन्दर बैठने वाले को बाहर की कैसी भी कोई भी ध्वनि सुनाई नहीं पड़ सकती थी। वैज्ञानिकों को अनुमान था कि उस समय निस्तब्ध, नीरवता का आभास होगा पर जब एक व्यक्ति को प्रयोग के तौर पर उसके अन्दर बैठाया गया तो उसे यह सुनकर अत्यन्त आश्चर्य हुआ कि विचित्र प्रकार की ध्वनियां उसके कानों में गूंजने लगीं एक ध्वनि किसी के सीटी बजाने की थी, एक ध्वनि प्रेस मशीन चलने की तरह धड़-धड़ की थी, एक ध्वनि चट-चट चटकने की सी। पहले तो वह व्यक्ति डरा पर पीछे ध्यान देने पर मालूम हुआ कि सीटी की आवाज नसों में दौड़ने वाले रक्त प्रवाह की ध्वनि थी। आमाशय में पाचन रसों की चट-चट और हड्डियों की कड़कड़ाहट की ध्वनियों भी अलग अलग सुनाई पड़ने लगीं मानो शरीर न हो पूरा कारखाना ही हो।
सामान्यतः यह ध्वनि हर व्यक्ति के शरीर से होती है पर अपने कानों की बाह्यमुखी संवेदनशीलता और एकाग्रता की कमी के कारण कोई भी उन्हें सुन नहीं पाता। पर यदि अभ्यास किया जाये और सूक्ष्म कानों की शक्ति जगाई जा कसें तो अनन्त ब्रह्मांड में होने वाली हलचल पृथ्वी के चलने की आवाज, सौरघोष, उल्काओं की टक्कर के भीषण निनाद मन्दाकिनियों के बहने का स्वर, जीव जन्तुओं के कलरव सब कुछ किसी भी स्थान में बैठकर उसी प्रकार सुने जा सकते हैं जिस प्रकार बेल टेलीफोन, लैबोरेटरी के प्रयोग के समय।
योगी पातंजलि ने लिखा है—‘ततः प्रतिभ श्रावण जायन्ते’ अर्थात् स्वार्थ संयम के अभ्यास से प्रतिभा अर्थात् भूत और भविष्य ज्ञान दिव्य और दूरस्थ शब्द सुनने की सिद्धि प्राप्त होती है।’ योग विभूमि में लिखा है—
‘शब्दार्थ प्रत्ययानामितरेतराध्यासत् सकरस्तस्प्रतिभाग संयमात् सर्व भूतरुतज्ञानम् ।।17।।’
अर्थात् शब्द अर्थ और ज्ञान के अभ्यास से अभेद भासता है और उसके विभाग में संयम करने से सभी प्राणियों के शब्दों में निहित भावनाओं का भी ज्ञान होता है।—यह सूत्र सिद्धान्त सूक्ष्म कर्णेन्द्रिय की महान महत्ता का प्रतिपादन करते हैं और बताते हैं कि जब तक मनुष्य के पास ऐसा क्षमता सम्पन्न शरीर है उसे भौतिक शक्तियों की ओर आकर्षित होने की आवश्यकता नहीं सिकन्दर 10 मील तक ही सुन सकता था योगी तो अपने कान लगाकर सारे ब्रह्माण्ड को सुन सकता है। यह बात अब विज्ञान भी स्वीकार करता है कान की बनावट की नकल करके वैज्ञानिक ऐसे रैडार बनाने के प्रयत्न में हैं जो शुक्र मंगल और उससे आगे की भी गतिविधियों का पता लगा सकें। यह संभव हो जायगा पर कान का मुकाबला बेचारे यंत्र क्या कर सकेंगे। कानों से तो सारे ब्रह्माण्ड को सुना जा सकना है।
अमरीका और इंग्लैण्ड के मनोविज्ञान शास्त्रियों ने सन् 1955 में न्यूयार्क और लन्दन में ‘मनोवैज्ञानिक घटनाओं की खोज’ करने वाली दो संस्थायें स्थापित की हैं। इनमें अभी तक 1000 ऐसी रहस्यमय घटनाओं का विवरण इकट्ठा किया जा चुका है। यह विवरण अमरीका तथा अन्य कितने ही देशों के स्त्री पुरुषों ने स्वयं लिखकर भेजा है और इसकी सचाई के प्रति अपना पूरा विश्वास प्रकट किया है।
इन घटनाओं में अधिकांश दूरवर्ती समाचारों का ज्ञान, दिव्य-दर्शन पूर्वज्ञान से सम्बन्धित हैं। वे जागृत, अर्द्ध-जागृत और निद्रित दशा में अनुभव की गई है। पर प्रायः सभी घटनायें आकस्मिक रूप से अनुभव में आकर चन्द मिनट में समाप्त हो गईं। इसलिये वैज्ञानिक प्रयोगशाला के नियमानुसार उसकी जांच करना सम्भव नहीं। उन्हीं के द्वारा मनुष्यों को दूरवर्ती स्थानों के समाचार या भविष्य में होने वाली घटनाओं का आभास मिला है।
इस प्रकार की भविष्य दर्शन (प्रीकोगनिशन) की घटना प्रायः तब होती है, जब कोई बड़ी दुर्घटना या मृत्यु-संकट शीघ्र ही आने वाला होता है। अधिकांश लोगों के लिए ऐसा अवसर जीवन में एकाध बार ही आता है और वह भी ऐसे आकस्मिक और निराले ढंग से कि वह व्यक्ति उसके कारण के सम्बन्ध में कुछ अनुमान ही नहीं कर सकता। किसी प्रिय व्यक्ति की मृत्यु की सूचना इस रीति से अनेक व्यक्तियों ने हफ्तों या महीनों पहले भी मिल जाती है। यद्यपि ये घटनायें प्रायः ऐसे सामान्य व्यक्तियों द्वारा देखी जाती हैं, जिनका कोई महत्व नहीं दिया जाता। तो भी वह समस्या बनी ही रहती है कि उनको किसी घटना का पूर्वज्ञान किस प्रकार हो जाता है?
इस सम्बन्ध में इस क्षेत्र में खोज-बीन करने वाली एक अमरीकन महिला डा. लुइसा ई. राइन ने अपनी पुस्तक ‘ट्रेसिंग हिडन चेनल्स’ (गुप्त स्रोतों की खोज) में लिखा है कि ‘‘पूर्व दर्शन की घटनायें यद्यपि संख्या में बहुत अधिक होती हैं, पर आश्चर्य यह है कि वे कैसे घट जाती है?’’ फिर लेखिका स्वयं ही उत्तर देती है कि ‘‘ये घटनायें किसी व्यक्ति के दैनिक जीवन के किसी बहुत छोटे अंश से सम्बन्धित होती हैं, चाहे वह देर से सिर के ऊपर मंडराती हुई हों और चाहे रास्ता चलते चलते किसी सवारी गाड़ी से टकरा जाने जैसी सर्वथा आकस्मिक। इस प्रकार की घटनायें सर्वांगपूर्ण नहीं होती और न उनका जीवन से पूरी तरह सम्बन्ध होता है कुछ ही लोग अपनी देखी घटनाओं पर ऐसा विश्वास रखते हैं कि उनका सम्बन्ध उसके समग्र जीवन से है।’’
श्रीमती राइन ने आगे चलकर कहा है—‘‘इस प्रकार की ‘पूर्व दर्शन’ (प्रीकॉगनिशन) में एक मिलती जुलती विशेषता यह होती है कि वे प्रायः सब की सब व्यक्ति सम्बन्धी ही होती हैं। राष्ट्रीय या अन्तर्राष्ट्रीय पैमाने की घटनाओं का पूर्व-दर्शन शायद ही कभी किसी को होता है। अधिकांश में लोगों को अपने निकट सम्बन्धियों के सम्बन्ध में ही होनहार घटनाओं का अनुभव होता है।’’
पर फिर भी अनेक घटनायें ऐसी होती हैं और अनेक बार इस विद्या के अभ्यासी ऐसा आकाट्य प्रमाण देते हैं कि वैज्ञानिकों को भी चुप रह जाना पड़ता है। अमेरिका की मनोविज्ञान की खोज करने वाली संस्था ने जो चौदह हजार उदाहरण इकट्ठे किये हैं, उनमें से कई ऐसे हैं जिनमें घोर अविश्वासियों को भी ‘पूर्व-दर्शन’ की सत्यता को स्वीकार करनी पड़ी। उनमें से ‘चाय के प्याले में तूफान’ शीर्षक घटना में कहा गया है—
‘‘सेन डियागो (कैलीफोर्निया अमरीका का पुलिस सुपरिण्टेण्डेण्ट वाल्टर जे. मेसी जब एक दिन अपने दफ्तर से लौटकर घर जा रहा था तो रास्ते में अपनी पत्नी की सहेली श्रीमती हाफमैन के यहां ठहर गया। उस समय वाल्टर की पत्नी भी वहां आई हुई थी और उसी को लेने के लिये वह गाड़ी से उतर पड़ा था। श्रीमती हाफमैन ने उससे चाय पीने के लिये कहा। बातों ही बातों में श्रीमती हाफमैन कह बैठी—‘‘वाल्टर! अगर तुम पसन्द करो तो मैं तुम्हारे चाय के प्याले को देखकर किसी होनहार घटना की सूचना दे सकती हूं।’’
बाल्टर सोलह वर्ष से पुलिस के महकमे में काम कर रहा और उसे रात-दिन बड़े-बड़े चालाक ठग और जालसाज लोगों के अंगूठे और उंगलियों के निशान देखकर उनका पता लगाना था। इसलिए वह ऐसी ‘दैवज्ञता’ की बातों पर जरा भी विश्वास नहीं करता था। तो भी मनोरंजन की दृष्टि से उसने अपना प्याला मिसेज हाफमैन को दें दिया। उसे देखते-देखते उसका चेहरा पीला पड़ गया और उसने बड़े भयभीत स्वर में कहा मैं इस प्याले में मृत्यु को देख रही हूं। दो मौतें होंगी—उनमें से एक नागरिक है, जोकि गोली से इस तरह मारा गया है कि उसका बदल चलनी हो गया है। दूसरा आदमी व्यापारी है, उसने वर्दी और काले जूते भी पहन रखे हैं।’’
यद्यपि वाल्टर घोर अविश्वासी था पर श्रीमती हाफमैन की मुखाकृति को देखकर वह प्रभावित हो गया और दूसरे दिन उसने इसका जिक्र अपने अफसर जो डोरन से किया वह उससे भी बढ़कर अविश्वासी था और उसने वाल्टर की खूब हंसी उड़ाई। पर जैसा श्रीमती हाफमैन ने कहा था, आगामी रविवार को जब एक लुटेरे ने कैलीफोर्निया थियेटर में घुसकर उसके मैनेजर की हत्या कर डाली और पीछा करने वाले एक पुलिस सारजैन्ट को घायल कर दिया तो वे सब चकित रह गये। पुलिस वाले बराबर लुटेरों का पीछा करते रहे और उनमें से एक को एक तहखाने में छुपा पाकर गोलियों से छेद डाला। उसका बदन छरों के मारे वास्तव में छलनी हो गया था।
ऐसा ही एक प्रयोग सर जोजेफ बार्नवी ने कराया। एक विशेष प्रकार के शीशे में जब उन्होंने दृष्टि जमाई और अपनी पत्नी का हाल जानना चाहा तो उन्होंने एक महिला का चित्र देखा जो बहुत बढ़िया किस्म के वस्त्र और आभूषण पहने हुई थी। महिला की शक्ल-सूरत तो उनकी धर्मपत्नी से मिलती जुलती थी पर उन्होंने बताया कि मेरी पत्नी ऐसे आभूषण पहनती ही नहीं, इसलिये उन्हें इस विज्ञान पर विश्वास नहीं हुआ किन्तु जब वह घर लौटे तो यह देखकर आश्चर्यचकित रह गये कि उनकी धर्मपत्नी ठीक वही आभूषण पहने थीं, जो उन्होंने दर्पण देखा था। तब से बार्नवी भारतीय तत्व-दर्शन से इतना प्रभावित हुये कि उन्होंने तमाम भारतीय दर्शन का कक्षा एक के विद्यार्थी की भांति अध्ययन किया। उनके मस्तिष्क में बहुत दिन तक यह विचार उठता रहा कि जो आत्म-शक्ति न देखे हुये को भी देख सकती है, न जाने हुए को भी जान सकती है, वह अपने आपस में सब प्रकार की भौतिक शक्तियों से निःसन्देह परिपूर्ण होनी चाहिये। अपनी इस परिपूर्ण चेतन अवस्था को जानना इसलिये भी आवश्यक है, क्योंकि वही जीव की अन्तिम स्थिति है और उसे प्राप्त कर लेने पर संसार में और कुछ प्राप्त करने की आवश्यकता नहीं रह जाती।
आज वैज्ञानिकों ने ऐसे-ऐसे कम्प्यूटर तैयार किये हैं, जिनकी इलेक्ट्रानिक शक्ति उन सब बातों की बता सकती है, जो प्रकृति (नेचर) के गणितीय (मैथेमेटिकल) सिद्धान्त से सम्बन्धित है। कम्प्यूटर शरीर के रोगों का पता बता देते हैं, लाखों प्रकाश वर्ष दूर के सितारों की दूरी, दिशा और कोण तक बता देते हैं, किन्तु यह मनुष्य कब मर जायेगा, एक वर्ष एक माह, एक दिन बाद इस मनुष्य की क्या स्थिति होगी—ऐसा सचेतन ज्ञान पदार्थ के पास और न किसी मशीन में ही है। वह तो किसी आत्म-चेतना की ही शक्ति हो सकती है, जो ज्ञात-अज्ञात रूप से लोगों को प्रेरित और प्रभावित करती रहती है। और ऐसे उदाहरण संसार के हर देश में देखने को मिलते हैं—
पूर्वाभास की अनेक घटनाओं में एक निम्नलिखित घटना भी है जिसमें पूर्ण स्वस्थ रहते हुए भी मृत्यु का पूर्वाभास मिला और अक्षरशः सही निकला। उत्तर-प्रदेश—मुरादाबाद जिले की बिलारी तहसील में ग्राम सवाई के निवासी एक लोकप्रिय समाज सेवी गजराज सिंह को अपनी मृत्यु का आभास चार दिन पूर्व मिल गया था यों वे कुछ रुग्ण तो थे पर चलने फिरते तथा साधारण काम-काज करते रहने समर्थ थे। उन्होंने घर वालों को चार दिन पूर्व अपने मृत्यु का समय बता दिया था और मरघट में जाकर अपने हाथ से जमीन साफ करके दाह कर्म के लिये स्थान निर्धारित किया था। लकड़ी, कफ़न यहां तक कि जमीन लीपने के लिये गोबर तक समय से पूर्व ही मंगा कर रख लिया था। यों वे अन्न खाते थे पर चार दिन पूर्व से उन्होंने दूध और गंगा जल पर रहना आरम्भ कर दिया। आस-पास गांवों के लोगों को बुलाकर उन्होंने आवश्यक परामर्श दिये। मृत्यु का ठीक समय मध्याह्नोत्तर दो बजे था सो उन्होंने हर किसी को भोजन करके निवृत्त होने के लिये आग्रह पूर्वक प्रेरित किया। आश्चर्य यह कि मृत्यु उनके घोषित समय पर ही हुई और मरने से पन्द्रह मिनट पूर्व तक पूर्ण स्वस्थ जैसी स्थिति में बातें करते रहे।
श्री मेयर्स ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक दि ह्यूमन पर्सनेलिटी एण्ड इट्स सरवाइवल आफ बाडीली डेथ में 13 उदाहरण दिये हैं, जिनमें ऐसी अद्भुत ज्ञान शक्तियों का विवरण देकर यह बताने का प्रयत्न किया गया है कि ज्ञान को चमत्कारिक क्षमतायें पदार्थ की नहीं हो सकती। निश्चय ही कोई चेतन-शक्ति का खेल है। इन उदाहरणों में प्रसिद्ध गणितज्ञवास और ऐम्पेयर के उदाहरण भी दिये गये हैं। दो घटनायें अमरीकन इतिहास से संग्रह की गई हैं। वहां 28 फरवरी 1844 को एक बहुत महत्वपूर्ण कार्यक्रम होने को था। ‘यू.एस.एस. प्रिन्स्टन’ नाम का एक नया और सबसे बढ़िया युद्धपोत बनकर तैयार हुआ था और उसके उद्घाटन के अवसर पर उसके कप्तान राबर्ट स्टाक्टन के अनके गण्यमान व्यक्तियों को समारोह में निमन्त्रित किया इनमें कर्नल डेविड ग्रार्डिनर, उनकी पुत्री जूलिया, जलसेना के सेक्रेटरी थामस गेलमर व उनकी पत्नी एनी भी सम्मिलित थे।
इन दोनों महिलाओं ने 27 दिनांक की रात्रि को ऐसे स्वप्न देखे जिनमें जूलिया के पिता और ऐनी के पति की मृत्यु का स्पष्ट संकेत था। इससे भयभीत होकर जूलिया ने अपने पिता से इस समारोह में सम्मिलित न होने का अनुरोध किया। इसी प्रकार ऐनी ने अपने पति को बहुत रोका। पर उन दोनों ने स्वप्न की बातों को अधिक महत्व देना ठीक नहीं समझा और वे जहाज पर चले गये। वहां जब एक तोप को समुद्र की ओर चलाया गया तो वह अकस्मात फट गयी और कर्नल गार्डिनर तथा थामस गेलमर, जो पास खड़े थे तुरन्त मर गये। ऐनी भी वहीं थी, पर वह बच गई। शोक से अभिभूत होकर उसने कहा—‘‘मेरी बात किसी ने क्यों नहीं मानी? दुर्घटना के समय जूलिया डेक के नीचे थी और जब उसने अपने पिता की मृत्यु के बारे में सुना तो वह चिल्ला उठी—‘‘मेरा सपना आखिर सच हो ही गया।’’
बाद में यही जूलिया अमरीका के प्रेसीडेण्ट टेलर की पत्नी बन गई। उसे कुछ ऐसी शक्ति प्राप्त थी कि पति से सौ मील दूर रहने पर वह उसके सम्बन्ध में सब बातें जानती रहती थी। उसके मन इस प्रकार जुड़े थे कि एक की अनुभूति दूसरे को सहज में हो जाती थी। जनवरी 1862 में जब प्रेसीडेण्ट टेलर रिचमाण्ड में एक सरकारी जलसे में गये थे, एक रात को जूलिया ने स्वप्न में देखा कि उनका चेहरा मुर्दे की तरह पीला पड़ गया है, उनके हाथ में कमीज और टाई है तथा वे कह रहे हैं कि ‘मेरा सर थाम लो।’ सुबह होते ही जूलिया स्वयम् रिचमाण्ड को रवाना हो गयी और वहां प्रेसीडेण्ट को सकुशल देखकर उसे प्रसन्नता हुई। पर दूसरे दिन सुबह नाश्ता करते हुये उनकी हालत एकदम खराब हो गई और वे मौत के समय की-सी आकृति में जूलिया के कमरे में घुसे। उनका कोट और टाई उनके हाथ में थी, जैसा स्वप्न में दिखाई पड़ा था। उन्होंने जूलिया कुछ कहा भी पर वह स्पष्ट सुनाई नहीं दिया। कुछ घण्टों में उनकी जीवन-लीला समाप्त हो गई। विज्ञानवादी आलोचक ऐसी घटनाओं का कोई कारण नहीं बता सकते। वे तो बराबर यही कहते रहते हैं कि जो घटना अभी हुई ही नहीं उसका प्रभाव किसी पर कैसे पड़ सकता है? पर एक अध्यात्मवादी जानता है कि मानव-जीवन का निर्णय करने वाली मुख्य घटनायें सूक्ष्म-जगत् में पहले से घटती रहती हैं, बाद में वे स्थूल-जगत् प्रकट होती हैं। इसलिये जिन लोगों को पूर्व-दर्शन की शक्ति किसी दैवी कारण से कुछ क्षणों के लिये प्राप्त हो जाती है, वे ऐसी घटनाओं को अर्द्ध जगत् अथवा स्वप्न की अवस्था में देख लेते हैं। इसके अतिरिक्त योगी और अभ्यास करने वाले भी अन्तरंग शक्ति से अन्तरिक्ष में मौजूद भविष्य के चिह्नों को देख कर समझ जाते हैं। यही भविष्य-दर्शन अथवा पूर्व-दर्शन का वास्तविक रहस्य है।
पूर्वाभास के सत्य अनुभव (ट्रएक्सपीरियन्सेज इन प्रोफेसी) नामक पुस्तक के विद्वान् लेखक श्री मार्टिन इबान ने सैकड़ों घटनाओं का वर्णन किया है, जिसमें सामान्य को भी स्वप्न या साधारण अवस्था में विलक्षण पूर्वाभास हुये। लैण्डेड टू, (दो व्यक्तियों की जान बचाई) शीर्षक से हेरोल्ड ग्लूक एक घटना इस प्रकार देते हैं—
नवम्बर 1050 की एक शनिवार को हमारे घर कोई उत्सव होने वाला था। एक दिन पूर्व शुक्रवार को ही मेरी धर्मपत्नी ने मुझसे कहा—‘‘आज आप बाहर नहीं जाइयेगा। घर की आवश्यक व्यवस्था में आज आपको हाथ बटाना पड़ेगा।’’ किन्तु उस दिन मुझे ऐसी प्रबल प्रेरणा उठ रही थी कि आज तो समुद्र की सैर के लिये जाना ही चाहिये। मैंने अपनी धर्मपत्नी की बात को कभी ठुकराया नहीं पर मैं स्वयं ही नहीं जानता कि उस दिन मुझे किस अज्ञात शक्ति द्वारा प्रेरित किया जा रहा था कि मैंने जानबूझ कर अपने मित्र जैक को कार लेकर अपने साथ चलने को राजी कर लिया। उस दिन समुद्र में तूफान आने की घोषणा मौसम-विभाग के द्वारा की जा चुकी थी, इसलिये, मेरी धर्मपत्नी ने समुद्र की ओर जाने से इनकार कर दिया, किन्तु मेरे तन में न जाने क्यों कोई बात चिपक नहीं रही थी। मेरा कोई मन भी नहीं था पर भीतर से ऐसा लगता था, तुम्हें समुद्र की ओर जाना ही चाहिये।
निश्चित समय पर गाड़ी आ गई हम और जैक समुद्र की ओर चल पड़े। हमारे वहां पहुंचने से पूर्व ही समुद्र भयंकर आवाज के साथ गरजने लग गया था। तटवर्ती मल्लाह पीछे हट चुके थे तो भी मेरे मुख से निकल ही गया—ओ भाई मल्लाह, हमें समुद्र की सैर करनी है, एक बोट तो देना।’’
मल्लाह बुरी तरह झल्लाया ‘‘आपको दिखाई नहीं देता समुद्र किस तरह उबल रहा है, बोट तो डुबोयेंगी ही आप जान से हाथ धो बैठेंगे।’’ यही बात जैक ने भी कहा किन्तु मुझे तो कोई अज्ञात शक्ति खींच रही थी, मैंने कहा—‘‘यह लो बोट की कीमत और एक बोट मेरे लिये छोड़ दो।’’
‘‘मेरे हठ के सामने सब परास्त हो गये। बोट, हम और जैक देखते-देखते समुद्र की लहरों में जा फसे। मुझे 200 गज की दूरी पर फुटबाल की तरह कोई वस्तु दिखाई दी। मैंने जैक को इशारा किया तो जैक झल्लाया—‘‘आज आपको क्या हो गया है, एक साधारण सी फुटबाल के लिये अपने को मौत के मुख में डाल रहे हैं।’’
मुझे वह बातें भी कुछ प्रभावित न कर सकीं। बोट उधर ही बढ़ा दी। पास पहुंचकर देखता हूं कि दो नाविक जो समुद्र के तूफान में फंस गये थे डूब रहे हैं, हमने किसी तरह उन्हें अपनी नाव में चढ़ाया और डोलते डगमगाते किनारे आ पहुंचे।
मेरी इस सहृदयता और साहस को जिसने भी सुना सराहा। मेरी धर्म पत्नी ने उस दिन मुझे हृदय से लगा लिया। तब से बराबर सोचता रहता हूं, वह कौन-सी शक्ति थी जो मुझे इस तरह प्रेरित करके वहां तक ले गई? क्या ऐसा भी कोई तत्व है, जो अपनी इच्छा से विश्व का सृजन और नियमन करता है, यदि हां तो क्या मनुष्य इसकी स्पष्ट अनुभूति कर सकता है?
क्या दृष्टि सम्पन्न हुआ जा सकता है—
इन घटनाओं को जानकर प्रश्न उठता है कि—क्या मनुष्य की आंखें वही देख सकती हैं जो सामने परिलक्षित होता है। साधारण स्थिति में ऐसा ही होता है। नाक के ऊपर लगे हुए दो नेत्र गोलक केवल सामने की दिशा में और कुछ दांये-बांये एक नियत रूप तक के दृश्य देख सकते हैं। सो भी उन्हें जो उनकी ज्योति तथा पदार्थों की ध्वनि तरंगों के संयोग का एक नियत माध्यम बनाते हैं। नेत्र-ज्योति क्षीण हो अथवा पदार्थ जीवाणु परमाणु जैसी सूक्ष्म आकृति का हो तो फिर सूक्ष्म दर्शक अथवा दूरदर्शक यन्त्रों से ही अधिक जानकारी प्राप्त कर सकना नेत्र गोलकों के लिए सम्भव होता है। यह दृश्य वर्तमान काल के ही हो सकते हैं। आगे पीछे के नहीं। फोटोग्राफी, चित्रकला एवं फिल्म टेलीविजन जैसे माध्यमों से भूतकाल के दृश्य भी देखे जा सकते थे। अब तक इतनी ही उपलब्धियों से मनुष्य को सन्तुष्ट रहना पड़ा है।
निकट भविष्य में मनुष्य उन चमत्कारों को भी इन्हीं आंखों से देख सकेगा जो भूतकाल में केवल अध्यात्म विज्ञानियों के लिए ही सम्भव थे। भूतकाल की घटनाएं सदा सर्वदा के लिए सुरक्षित रखी जा सकेंगी और उन्हें फिल्म टेलीविजन की तरह आभास मात्र स्तर पर नहीं वरन् बिलकुल उसी तरह देखा जा सकेगा जिस तरह आंखों से देखा जाता है। तब यह पहचानना कठिन हो जायगा कि जो दृश्य देख रहे हैं वह असली है या नकली। भूतकाल को हम वर्तमान में पूर्णतया वैसा ही देखेंगे मानो वह सचमुच अभी अभी ही घटित हो रहा है और हम उसे बिलकुल असली रूप में देख रहे हैं। ऐसा ‘त्रियायतन’ फोटोग्राफी के सुविकसित विज्ञान के द्वारा सम्भव हो सका।
दुर्योधन को पाण्डवों के घर जाकर थल में जल और जल में थल दिखाई दिया था। वह दर्पण का चमत्कार नहीं था। दर्पण के लिए दूसरी छवि वैसी ही सामने उपस्थित होनी चाहिए। वैसा वहां कहां था? खुले आकाश में बिना किसी पर्दे की सहायता के अभीष्ट दृश्यों को देख सकता निस्सन्देह बहुत ही अद्भुत है। पहली बार जिन्हें वैसा कुछ देखने को मिलेगा वे निस्सन्देह अवाक् रह जायेंगे और अपनी आंखों पर विश्वास न करेंगे। संजय ने घर बैठे महाभारत के दृश्य देखें थे और सारा घटनाक्रम धृतराष्ट्र को सुनाया था। इस सम्भावना की टेलीविजन ने पुष्टि कर दी थी अब रही बची—कसर ‘होलीग्राफी’ ने पूरी कर दी है। उस विज्ञान के आधार पर हम देशकाल की समस्त परिधियों को तोड़कर किसी घटना क्रम को इतने स्पष्ट और इतने निर्दोष रूप में देख सकते हैं कि असल-नकल को पहचान सकना ही सम्भव न रहे।
विज्ञानाचार्य आइन्स्टाइन ने देश और काल की मान्यता को भ्रान्त-अवास्तविक—सिद्ध किया है। वेदान्त दर्शन में जगत को माया-भ्रान्तिवत् कहा है और रज्जु सर्प का उदाहरण देकर यह बताया है कि जो कुछ हम देखते हैं वे वास्तविक नहीं है। अणु विज्ञानी की दृष्टि में यह संसार अणु धूलि के आंधी तूफान से भरा बवंडर मात्र है इसमें भंवर चक्रवात जैसे उपक्रम बनते बिगड़ते रहते हैं उन्हें ही अमुक पदार्थों के रूप में अनुभव किया जाता है। जो कुछ दिखाई देता है वह खोखला आवरण मात्र है उसके भीतर आणविक हलचलों का अंधड़ भर चलता रहता है। हमारा मस्तिष्क और नेत्र संस्थान अपनी बनावट एवं अपूर्ण संरचना के कारण वह सब देखता है जिसे हम यथार्थ मानते हैं वस्तुतः होता कुछ और ही है।
स्थिर तस्वीरों को चलती फिरती दिखाकर सिनेमा ने बहुत पहले ही यह सचाई सामने ला दी थी कि आंखों को प्रामाणिक साक्षी नहीं माना जा सकता वे जो कुछ देखती या अनुभव करती हैं वह सब का सब यथार्थ ही नहीं होता। अब रही बची कमी होलोग्राफी ने पूरी कर दी है वह पर्दे पर नहीं, खुले आकाश में हमें ऐसे दृश्य दिखा सकती है मानो उस देशकाल की स्थिति यथार्थ रूप से देखी जा रही है जो वस्तुतः दूरवर्ती हो नहीं भूतकाल की भी है। उस दृश्यावली को फोटोग्राफी कहना—स्वीकार करना भी दर्शक के लिए सम्भव न रहेगा।
अध्यात्म विद्या के आधार पर देशकाल की परिधि से बाहर के दृश्य को देख सकना सम्भव रहा है इसे दिव्य दृष्टि कहा जाता रहा है। दिव्य दृष्टि की बात अविश्वसनीय नहीं है। यह तथ्य होलोग्राफी के रूप में अब सामने आ खड़ा हुआ है। वेदांत का वह कथन भी अब गम्भीरता पूर्वक विचार करने योग्य प्रतीत होता है कि हमारी आंखें धोखा खाती है और अवास्तविक को वास्तविक समझती हैं। यह तथ्य भी उभरता आता है। कि हमारे सामने की दिशा में और नियत सीमा के दृश्य ही देखे जा सकते हैं। किसी भी दिशा के पीठ पीछे के भी—भूतकाल के दूर देश के भी दृश्य हम इन्हीं आंखों से देख सकते हैं कि देशकाल की मान्यता भ्रामक है।
प्रकाश किरणों को छवि के रूप में पकड़ने की कला अब फोटोग्राफी टेलीविजन तक सीमित नहीं रही अब वे आधार प्राप्त कर लिये हैं जिन से तीन आयामों वाले—त्रिविमितीय—चित्र देखे जा सकें। आमतौर से फोटोग्राफी लम्बाई-चौड़ाई का ही बोध कराती है गहराई का तो उसमें आभास मात्र ही होता है, यदि गहराई को भी प्रतिबिम्बित किया जा सके तो फिर आंखों से देखे जाने वाले दृश्य और छाया अंकन में कोई भेद न रहेगा। ऐसा दृश्य प्रचलन सम्भव हो सका तो फिल्में अपने वर्तमान अधूरे स्तर की फोटोग्राफी तक सीमित नहीं रहेगी वरन् पर्दे पर रेल, मोटर, घोड़े मनुष्य आदि उसी तरह चलते, दौड़ते दिखाई पड़ेंगे मानो वे अपने यथार्थ स्वरूप में ही आंखों के आगे से गुजर रहे हैं यदि सामने से अपनी ओर कोई रेल दौड़ती आ रही हो या शेर झपटता आ रहा हो तो बिलकुल यही मालूम पड़ेगा कि अब अपने ऊपर ही चढ़ बैठने वाले हैं। ऐसी दशा में आरम्भिक अभ्यास की स्थिति में सिनेमा दर्शक को भयभीत होकर अपनी सीट छोड़कर भागते ही बनेगा। प्रकाश विज्ञानी एर्नेस्टएये और उनके सहयोगी शिष्य डी. गैवर ने होलोग्राफी के एक नये सिद्धान्त का आविष्कार किया जिसके आधार पर—त्रिविमितीया—स्तर का छाया चित्रण आंखों से देखा जा सकेगा और भूतकालीन दृश्यों को इन्हीं आंखों से इस प्रकार देखा जा सकेगा मानो वह घटना क्रम अभी अभी ही बिलकुल सामने घटित हो रहा है।
इलैक्ट्रन माइकोस्कोस्पी के इस विधि विज्ञान को रूस से विज्ञानिक यूरीदैनिस्यूक के नेतृत्व में और भी आगे बढ़ाया है। इस युग में वैज्ञानिक ने परम्परागत पतली परत वाली फोटो ‘प्लेटों’ के स्थान पर मोटी परत लगाई और उन पर प्रकाश किरणों को गहराई तक प्रवेश कर सकने का अवसर दिया। फलतः तीन आयाम वाले चित्रों की एक विशेषता यह है कि जिस कोण से इन्हें देखा जाय वे उसी कोण से खींचे हुए पूर्ण प्रतिबिम्ब दिखाई पड़ेंगे। सामने खड़े होकर देखें तो वे सामने खिंचे हुए दीखेंगे और अगल-बगल से देखने पर लगेगा उन्हें इसी प्रकार खींचा गया और जितना अंश वहां खड़े हुए दृश्य को जिस रूप देखा जा सकता था, फोटोग्राफ ठीक उसी तरह का दीख रहा है।
होलोग्राफी वस्तुतः लेजर किरणों के अनेक चमत्कारों में से एक है। लेजर का सैद्धांतिक आविष्कार आइन्स्टाइन ने किया था। 50 वर्ष बाद उस परिकल्पना को साकार बनाया चार्ल्स टाडनेस ने सन् 1951 में। परमाणुओं की एक विशेष विद्या से उत्तेजित करने और उनसे एक जैसी माइक्रो तरंगें निकालने की आरम्भिक प्रक्रिया ‘मेजर’ कहलाती थी। उसी का परिष्कृत रूप चार वर्ष बाद सामने आया और वह लेजर कहलाया।
कुछ पदार्थों को गरम या उत्तेजित करने से एक विशेष प्रकार की ऊर्जा एवं आभा निकलती है जो रोशनी की बत्ती से भिन्न प्रकार की होती है। साधारण प्रकाश कई रंगों की किरणों से मिलकर बना होता है और वे किरणें अलग-अलग लम्बाइयों और कलाओं की होती हैं। इन्द्र धनुष पड़ते समय यह लम्बाई की भिन्नता ही उस सुन्दर दृश्य के रूप में अपना परिचय देती है। इस बिखराव को एक भीड़ भेड़चाल कह सकते हैं। लेजर प्रक्रिया में परमाणुओं को उत्तेजित करके एक ही रंग की—एक ही कद की किरणें निकाली जाती हैं और उन्हें अधिक से अधिक सघन बनाया जाता है। इतने से ही वे किरणें इतनी प्रचण्ड हो उठती हैं कि गजब के काम करती हैं। इन्हें अब तक के उपलब्ध शक्ति स्रोतों में सबसे अधिक प्रचण्ड माना जाता है। अणु विस्फोट की शक्ति से भी कई क्षेत्रों में यह अधिक तीखी और पैनी हैं। लेजर किरणों के प्रयोग से अगले दिनों भौतिक क्षेत्रों में अनोखी एवं क्रान्तिकारी प्रतिक्रिया सामने आने वाली है। उन्हीं में से एक होलोग्राफी भी है। आविष्कार के प्रारम्भिक दिनों में यह कठिनाई थी कि लेजर किरणें केवल एक ही रंग की किरणें उत्पन्न करती थी इसलिए फोटो भी एक रंग के बनते थे। दूसरी कठिनाई यह थी कि खींचने की तरह देखने में भी लेजर किरणों का प्रकाश ही प्रयुक्त करना पड़ता था। स्पष्ट है कि लेजर अत्यन्त खतरनाक होती है। उनका तनिक भी व्यक्तिक्रम हो जाय तो सर्वनाश निश्चित है। अब उसमें कितने ही सुधार हो गये हैं। विज्ञानी लिपमाना ने तीन आयाम वाली फोटोग्राफी के लिए जो ‘प्लेट’ बनाई थी वे होलोग्राफी में फिट बैठ गई हैं और तस्वीर देखने के लिए साधारण रोशनी के प्रयोग से काम चलने लगा है। यह सुधार हो जाने से अब मार्ग निष्कंट हो गया और सर्व साधारण के लिए होलोग्राफी का आनन्द हो सकना सम्भव हो गया अब उसके लिए सुलभ यंत्रों का बनना ही शेष रह गया है।
होलोग्राफी का आविष्कार ब्रिटिश नागरिक डा. डैनिस गेवर ने किया उसे इसके उपलक्ष में भौतिकी का नोबेल पुरस्कार मिला है। चमत्कारी आविष्कारों में इस भौतिकी को अपने ढंग की अत्यन्त अद्भुत ही कहा जायगा। यों अभी उसका क्षेत्र निर्धारित प्रयोगशालाओं में ही है। फिल्म या टेलीविजन की तरह उसका विस्तार इतना व्यापक नहीं हुआ है कि जनसाधारण उससे लाभ उठा सके पर वह दिन दूर नहीं जब यह आविष्कार भी सर्व सुलभ हो जायगा। फोटोग्राफी का विज्ञान आविष्कृत होने के 112 वर्ष बाद सर्व साधारण के लिए प्रयोग योग्य बन पाया था। टेलीफोन 56 वर्ष बाद—टेलीविजन 12 वर्ष बाद—एटम बम 5 वर्ष बाद—अपने आविष्कार के बाद उपयोग में आये थे। होलोग्राफी को भी कुछ समय लग सकता है पर जब भी वह प्रयुक्त होगी तब जिनने उसे पहले कभी नहीं देखा था उन्हें बहुत ही अजीब—किसी जादू लोक के तिलस्म जैसा लगेगा।
दूर की आवाज सुनना विज्ञान के वर्तमान युग में कोई बड़े आश्चर्य की बात नहीं है ‘रेडियो डिटेक्शन एण्ड रेन्जिंग’ अर्थात् ‘रैडार’ नाम जिन लोगों ने सुना है वे यह भी जानते होंगे कि यह एक ऐसा यन्त्र है जो सैकड़ों मील से दूर से आ रही आवाज, आवाज ही नहीं वस्तु की तस्वीर का भी पता दें देता है। हवाई जहाज उड़ते हैं तब उनके आवश्यक निर्देश, संवाद और मौसम आदि की जानकारियां ‘रैडार’ द्वारा ही भेजी जाती हैं और उनके संदेश रैडार द्वारा ही प्राप्त होते हैं। बादल छाये हैं, कोहरा घना हो रहा है, हवाई पट्टी में धुंआ छाया है रैडार की आंख उसे भी बेध कर देख सकती है और जहाज को रास्ता बताकर उसे कुशलता पूर्वक हवाई अड्डे पर उतारा जा सकता है। छोटे रैडार 150 मील तक की आवाज सुन सकते हैं। जापान ने 500 मील तक की आवाज सुन सकने वाले रैडार बनाये हैं। अमेरिका के पास तो ऐसे भी रैडार हैं जो ‘ह्यूस्टन’ के चन्द्र वैज्ञानिकों को चन्द्रमा में उतरे हुए यात्रियों तक से बात-चीत करा देते हैं। रैडार यंत्र की इस क्षमता पर और उसकी खोज व निर्माण करने वाले वैज्ञानिकों के बुद्धि कौशल पर जितना ही आश्चर्य किया जाय कम है।
किसी विज्ञान जानने वाले विद्यार्थी से यह बात कही जाये तो वह हंस कर कहेगा भाई साहब इसमें आश्चर्य की क्या बात—साधारण सी रेडियो तरंगों का सिद्धांत है जब ध्वनि लहरियां किसी माध्यम से टकराती हैं तो वे फिर वापिस लौट आती हैं उस स्थान वस्तु आदि का पता दें देती हैं। हवाई जहाज की ध्वनि को रेडियो तरंगों द्वारा पकड़ कर यह पता लगा लिया जाता है कि वे किस दिशा में कितनी दूर पर हैं। यह कार्य प्रकाश की गति अर्थात् 186000 मील प्रति सैकिण्ड की गति से होता है। रेडियो तरंगों की भी वही गति होती है तात्पर्य यह है कि यदि उपयुक्त संवेदनशीलता वाला रैडार जैसा कोई यन्त्र हो तो बड़ी से भी बड़ी दूरी की आवाज को सैकड़ों में सुना जा सकता है। देखा जा सकता है। प्रकाश से भी तीव्रगामी तत्वों की खोज ने तो अब इस सम्भावना को और भी बढ़ा दिया है और अब सारे ब्रह्माण्ड को भी कान लगाकर सुने जाने की बात को भी कोई बड़ा आश्चर्य नहीं माना जाता।
मुश्किल इतनी ही है कि कोई भी यन्त्र इतने संवेदन शील नहीं बन पाते कि दशों दिशाओं से आने वाली करोड़ों आवाजों में से किसी भी पतली से पतली आवाज को जान सकें और भयंकर से भी भयंकर निनाद में भी टूटने फटने के भय से बची रहें। रैडार इतना उपयोगी है पर इतना भारी भरकम कि उसे एक स्थान पर स्थापित करने में वर्षों लग जाते हैं। सैकड़ों फुट ऊंचे एण्टीना, ट्रांसमीटर रिसीवर, बहुत अधिक कम्पन वाली (सुपर फ्रीक्वेन्सी) रेडियो ऊर्जा इंडिकेटर, आस्सीलेटर, माडुलेटर, सिकोनाइजर आदि अनेकों यन्त्र प्रणालियां मिलकर एक रैडार काम करने योग्य हो पाता है। उस पर भी अनेक कर्मचारी काम करते हैं, लाखों रुपयों का खर्च आता है, तब कहीं यह काम करने के योग्य हो पाता है। कहीं बिजली का बहुत तेज धमाका हो जाये तो यह रैडार बेकार भी हो जाते हैं और जहाज यदि ऐसे हो जो अपनी ध्वनि को बाहर फैलने ही न दें तो रैडार उनको पहचान भी नहीं सकें। यह सब देखकर इतने भारी मानवीय प्रयत्न और मानवीय बुद्धि कौशल तुच्छ और नगण्य ही दिखाई देते हैं।
दूसरी तरफ एक दूसरा रैडार—मनुष्य का छोटा सा कान एक सर्वशक्तिमान कलाकार—विधाता की याद दिलाता है जिसकी बराबरी का रैडार संभवतः मनुष्य कभी भी बना न पाये। कान हल्की आवाज को भी सुन और भयंकर घोष को भी बर्दाश्त कर सकते हैं। प्रयोगों द्वारा यह सिद्ध हो चुका है कि कानों की मदद से मनुष्य लगभग 5 लाख आवाजें सुनकर पहचान सकता है जबकि रैडार का उपयोग अभी तक सीमित ही है।
कान के भीतरी भाग में, जो संदेशों को मस्तिष्क में पहुंचाने का काम करता है 30500 रोये पाये जाते हैं यह रोये जिस श्रवण झिल्ली से जुड़े होते हैं वह तो 1/25000000000000000 इंच से भी छोटा अर्थात् इलेक्ट्रानिक माइक्रोस्कोप से भी मुश्किल से दिखाई दें सकने वाला होता है। वैज्ञानिकों का भी अनुमान है कि इतने सूक्ष्म व संवेदनशील यंत्र को बनाने में मनुष्य जाति एक बार पूरी तरह सभ्य होकर नष्ट हो जाने के बाद फिर नये सिरे से जनम लेकर विज्ञान की दिशा में प्रगति करे तो ही हो सकती है (अर्थात् मानवीय क्षमता से परे की बात है) इस झिल्ली का यदि पूर्ण उपयोग संभव हो सके तो संसार की सूक्ष्म से सूक्ष्म हलचलों को, लाखों मील दूर की आवाज को भी ऐसे सुना जा सकता है मानो वह यहीं कहीं अपन पास ही हों या बैठे मित्र से ही बात चीत हो रही हो महर्षि पातंजलि ने लिखा है—
श्रीत्रःकाशयोः संबन्ध संयमादिद्व्यं श्रोतम् (पयो सूत्र 40)
अर्थात्—श्रवणेन्द्रिय (कानों) तथा आकाश के सम्बन्ध पर संयम करने से दिव्य ध्वनियों को सुनने की शक्ति प्राप्त होती है। यह बात अब विभिन्न प्रयोगों से भी सिद्ध हो गई है सामान्यतः हम 6 फुट की दूरी की आवाज का भी अधिकतम 1/3000000 वां हिस्सा ही सुन पाते हैं। शेष कितनी ही मंद ध्वनि क्यों न हो वायुभूत हो जाती हैं। संसार के प्रत्येक पदार्थ में ऊर्जा विद्यमान है और चूंकि कोई भी स्थान ऊर्जा से रिक्त नहीं, अतएव प्रत्येक ध्वनि कुछ ही समय में सारे ब्रह्माण्ड में उसी प्रकार फैल जाती है जिस प्रकार जल होता है वहां तक चली जाती हैं।
न्यूजर्सी अमेरिका की बेल टेलीफोन प्रयोगशाला के इंजीनियरों और वैज्ञानिकों ने एक ऐसे भवन का निर्माण किया जो पूरी तरह शब्द प्रूफ था अर्थात् उसके अन्दर बैठने वाले को बाहर की कैसी भी कोई भी ध्वनि सुनाई नहीं पड़ सकती थी। वैज्ञानिकों को अनुमान था कि उस समय निस्तब्ध, नीरवता का आभास होगा पर जब एक व्यक्ति को प्रयोग के तौर पर उसके अन्दर बैठाया गया तो उसे यह सुनकर अत्यन्त आश्चर्य हुआ कि विचित्र प्रकार की ध्वनियां उसके कानों में गूंजने लगीं एक ध्वनि किसी के सीटी बजाने की थी, एक ध्वनि प्रेस मशीन चलने की तरह धड़-धड़ की थी, एक ध्वनि चट-चट चटकने की सी। पहले तो वह व्यक्ति डरा पर पीछे ध्यान देने पर मालूम हुआ कि सीटी की आवाज नसों में दौड़ने वाले रक्त प्रवाह की ध्वनि थी। आमाशय में पाचन रसों की चट-चट और हड्डियों की कड़कड़ाहट की ध्वनियों भी अलग अलग सुनाई पड़ने लगीं मानो शरीर न हो पूरा कारखाना ही हो।
सामान्यतः यह ध्वनि हर व्यक्ति के शरीर से होती है पर अपने कानों की बाह्यमुखी संवेदनशीलता और एकाग्रता की कमी के कारण कोई भी उन्हें सुन नहीं पाता। पर यदि अभ्यास किया जाये और सूक्ष्म कानों की शक्ति जगाई जा कसें तो अनन्त ब्रह्मांड में होने वाली हलचल पृथ्वी के चलने की आवाज, सौरघोष, उल्काओं की टक्कर के भीषण निनाद मन्दाकिनियों के बहने का स्वर, जीव जन्तुओं के कलरव सब कुछ किसी भी स्थान में बैठकर उसी प्रकार सुने जा सकते हैं जिस प्रकार बेल टेलीफोन, लैबोरेटरी के प्रयोग के समय।
योगी पातंजलि ने लिखा है—‘ततः प्रतिभ श्रावण जायन्ते’ अर्थात् स्वार्थ संयम के अभ्यास से प्रतिभा अर्थात् भूत और भविष्य ज्ञान दिव्य और दूरस्थ शब्द सुनने की सिद्धि प्राप्त होती है।’ योग विभूमि में लिखा है—
‘शब्दार्थ प्रत्ययानामितरेतराध्यासत् सकरस्तस्प्रतिभाग संयमात् सर्व भूतरुतज्ञानम् ।।17।।’
अर्थात् शब्द अर्थ और ज्ञान के अभ्यास से अभेद भासता है और उसके विभाग में संयम करने से सभी प्राणियों के शब्दों में निहित भावनाओं का भी ज्ञान होता है।—यह सूत्र सिद्धान्त सूक्ष्म कर्णेन्द्रिय की महान महत्ता का प्रतिपादन करते हैं और बताते हैं कि जब तक मनुष्य के पास ऐसा क्षमता सम्पन्न शरीर है उसे भौतिक शक्तियों की ओर आकर्षित होने की आवश्यकता नहीं सिकन्दर 10 मील तक ही सुन सकता था योगी तो अपने कान लगाकर सारे ब्रह्माण्ड को सुन सकता है। यह बात अब विज्ञान भी स्वीकार करता है कान की बनावट की नकल करके वैज्ञानिक ऐसे रैडार बनाने के प्रयत्न में हैं जो शुक्र मंगल और उससे आगे की भी गतिविधियों का पता लगा सकें। यह संभव हो जायगा पर कान का मुकाबला बेचारे यंत्र क्या कर सकेंगे। कानों से तो सारे ब्रह्माण्ड को सुना जा सकना है।
अमरीका और इंग्लैण्ड के मनोविज्ञान शास्त्रियों ने सन् 1955 में न्यूयार्क और लन्दन में ‘मनोवैज्ञानिक घटनाओं की खोज’ करने वाली दो संस्थायें स्थापित की हैं। इनमें अभी तक 1000 ऐसी रहस्यमय घटनाओं का विवरण इकट्ठा किया जा चुका है। यह विवरण अमरीका तथा अन्य कितने ही देशों के स्त्री पुरुषों ने स्वयं लिखकर भेजा है और इसकी सचाई के प्रति अपना पूरा विश्वास प्रकट किया है।
इन घटनाओं में अधिकांश दूरवर्ती समाचारों का ज्ञान, दिव्य-दर्शन पूर्वज्ञान से सम्बन्धित हैं। वे जागृत, अर्द्ध-जागृत और निद्रित दशा में अनुभव की गई है। पर प्रायः सभी घटनायें आकस्मिक रूप से अनुभव में आकर चन्द मिनट में समाप्त हो गईं। इसलिये वैज्ञानिक प्रयोगशाला के नियमानुसार उसकी जांच करना सम्भव नहीं। उन्हीं के द्वारा मनुष्यों को दूरवर्ती स्थानों के समाचार या भविष्य में होने वाली घटनाओं का आभास मिला है।
इस प्रकार की भविष्य दर्शन (प्रीकोगनिशन) की घटना प्रायः तब होती है, जब कोई बड़ी दुर्घटना या मृत्यु-संकट शीघ्र ही आने वाला होता है। अधिकांश लोगों के लिए ऐसा अवसर जीवन में एकाध बार ही आता है और वह भी ऐसे आकस्मिक और निराले ढंग से कि वह व्यक्ति उसके कारण के सम्बन्ध में कुछ अनुमान ही नहीं कर सकता। किसी प्रिय व्यक्ति की मृत्यु की सूचना इस रीति से अनेक व्यक्तियों ने हफ्तों या महीनों पहले भी मिल जाती है। यद्यपि ये घटनायें प्रायः ऐसे सामान्य व्यक्तियों द्वारा देखी जाती हैं, जिनका कोई महत्व नहीं दिया जाता। तो भी वह समस्या बनी ही रहती है कि उनको किसी घटना का पूर्वज्ञान किस प्रकार हो जाता है?
इस सम्बन्ध में इस क्षेत्र में खोज-बीन करने वाली एक अमरीकन महिला डा. लुइसा ई. राइन ने अपनी पुस्तक ‘ट्रेसिंग हिडन चेनल्स’ (गुप्त स्रोतों की खोज) में लिखा है कि ‘‘पूर्व दर्शन की घटनायें यद्यपि संख्या में बहुत अधिक होती हैं, पर आश्चर्य यह है कि वे कैसे घट जाती है?’’ फिर लेखिका स्वयं ही उत्तर देती है कि ‘‘ये घटनायें किसी व्यक्ति के दैनिक जीवन के किसी बहुत छोटे अंश से सम्बन्धित होती हैं, चाहे वह देर से सिर के ऊपर मंडराती हुई हों और चाहे रास्ता चलते चलते किसी सवारी गाड़ी से टकरा जाने जैसी सर्वथा आकस्मिक। इस प्रकार की घटनायें सर्वांगपूर्ण नहीं होती और न उनका जीवन से पूरी तरह सम्बन्ध होता है कुछ ही लोग अपनी देखी घटनाओं पर ऐसा विश्वास रखते हैं कि उनका सम्बन्ध उसके समग्र जीवन से है।’’
श्रीमती राइन ने आगे चलकर कहा है—‘‘इस प्रकार की ‘पूर्व दर्शन’ (प्रीकॉगनिशन) में एक मिलती जुलती विशेषता यह होती है कि वे प्रायः सब की सब व्यक्ति सम्बन्धी ही होती हैं। राष्ट्रीय या अन्तर्राष्ट्रीय पैमाने की घटनाओं का पूर्व-दर्शन शायद ही कभी किसी को होता है। अधिकांश में लोगों को अपने निकट सम्बन्धियों के सम्बन्ध में ही होनहार घटनाओं का अनुभव होता है।’’
पर फिर भी अनेक घटनायें ऐसी होती हैं और अनेक बार इस विद्या के अभ्यासी ऐसा आकाट्य प्रमाण देते हैं कि वैज्ञानिकों को भी चुप रह जाना पड़ता है। अमेरिका की मनोविज्ञान की खोज करने वाली संस्था ने जो चौदह हजार उदाहरण इकट्ठे किये हैं, उनमें से कई ऐसे हैं जिनमें घोर अविश्वासियों को भी ‘पूर्व-दर्शन’ की सत्यता को स्वीकार करनी पड़ी। उनमें से ‘चाय के प्याले में तूफान’ शीर्षक घटना में कहा गया है—
‘‘सेन डियागो (कैलीफोर्निया अमरीका का पुलिस सुपरिण्टेण्डेण्ट वाल्टर जे. मेसी जब एक दिन अपने दफ्तर से लौटकर घर जा रहा था तो रास्ते में अपनी पत्नी की सहेली श्रीमती हाफमैन के यहां ठहर गया। उस समय वाल्टर की पत्नी भी वहां आई हुई थी और उसी को लेने के लिये वह गाड़ी से उतर पड़ा था। श्रीमती हाफमैन ने उससे चाय पीने के लिये कहा। बातों ही बातों में श्रीमती हाफमैन कह बैठी—‘‘वाल्टर! अगर तुम पसन्द करो तो मैं तुम्हारे चाय के प्याले को देखकर किसी होनहार घटना की सूचना दे सकती हूं।’’
बाल्टर सोलह वर्ष से पुलिस के महकमे में काम कर रहा और उसे रात-दिन बड़े-बड़े चालाक ठग और जालसाज लोगों के अंगूठे और उंगलियों के निशान देखकर उनका पता लगाना था। इसलिए वह ऐसी ‘दैवज्ञता’ की बातों पर जरा भी विश्वास नहीं करता था। तो भी मनोरंजन की दृष्टि से उसने अपना प्याला मिसेज हाफमैन को दें दिया। उसे देखते-देखते उसका चेहरा पीला पड़ गया और उसने बड़े भयभीत स्वर में कहा मैं इस प्याले में मृत्यु को देख रही हूं। दो मौतें होंगी—उनमें से एक नागरिक है, जोकि गोली से इस तरह मारा गया है कि उसका बदल चलनी हो गया है। दूसरा आदमी व्यापारी है, उसने वर्दी और काले जूते भी पहन रखे हैं।’’
यद्यपि वाल्टर घोर अविश्वासी था पर श्रीमती हाफमैन की मुखाकृति को देखकर वह प्रभावित हो गया और दूसरे दिन उसने इसका जिक्र अपने अफसर जो डोरन से किया वह उससे भी बढ़कर अविश्वासी था और उसने वाल्टर की खूब हंसी उड़ाई। पर जैसा श्रीमती हाफमैन ने कहा था, आगामी रविवार को जब एक लुटेरे ने कैलीफोर्निया थियेटर में घुसकर उसके मैनेजर की हत्या कर डाली और पीछा करने वाले एक पुलिस सारजैन्ट को घायल कर दिया तो वे सब चकित रह गये। पुलिस वाले बराबर लुटेरों का पीछा करते रहे और उनमें से एक को एक तहखाने में छुपा पाकर गोलियों से छेद डाला। उसका बदन छरों के मारे वास्तव में छलनी हो गया था।
ऐसा ही एक प्रयोग सर जोजेफ बार्नवी ने कराया। एक विशेष प्रकार के शीशे में जब उन्होंने दृष्टि जमाई और अपनी पत्नी का हाल जानना चाहा तो उन्होंने एक महिला का चित्र देखा जो बहुत बढ़िया किस्म के वस्त्र और आभूषण पहने हुई थी। महिला की शक्ल-सूरत तो उनकी धर्मपत्नी से मिलती जुलती थी पर उन्होंने बताया कि मेरी पत्नी ऐसे आभूषण पहनती ही नहीं, इसलिये उन्हें इस विज्ञान पर विश्वास नहीं हुआ किन्तु जब वह घर लौटे तो यह देखकर आश्चर्यचकित रह गये कि उनकी धर्मपत्नी ठीक वही आभूषण पहने थीं, जो उन्होंने दर्पण देखा था। तब से बार्नवी भारतीय तत्व-दर्शन से इतना प्रभावित हुये कि उन्होंने तमाम भारतीय दर्शन का कक्षा एक के विद्यार्थी की भांति अध्ययन किया। उनके मस्तिष्क में बहुत दिन तक यह विचार उठता रहा कि जो आत्म-शक्ति न देखे हुये को भी देख सकती है, न जाने हुए को भी जान सकती है, वह अपने आपस में सब प्रकार की भौतिक शक्तियों से निःसन्देह परिपूर्ण होनी चाहिये। अपनी इस परिपूर्ण चेतन अवस्था को जानना इसलिये भी आवश्यक है, क्योंकि वही जीव की अन्तिम स्थिति है और उसे प्राप्त कर लेने पर संसार में और कुछ प्राप्त करने की आवश्यकता नहीं रह जाती।
आज वैज्ञानिकों ने ऐसे-ऐसे कम्प्यूटर तैयार किये हैं, जिनकी इलेक्ट्रानिक शक्ति उन सब बातों की बता सकती है, जो प्रकृति (नेचर) के गणितीय (मैथेमेटिकल) सिद्धान्त से सम्बन्धित है। कम्प्यूटर शरीर के रोगों का पता बता देते हैं, लाखों प्रकाश वर्ष दूर के सितारों की दूरी, दिशा और कोण तक बता देते हैं, किन्तु यह मनुष्य कब मर जायेगा, एक वर्ष एक माह, एक दिन बाद इस मनुष्य की क्या स्थिति होगी—ऐसा सचेतन ज्ञान पदार्थ के पास और न किसी मशीन में ही है। वह तो किसी आत्म-चेतना की ही शक्ति हो सकती है, जो ज्ञात-अज्ञात रूप से लोगों को प्रेरित और प्रभावित करती रहती है। और ऐसे उदाहरण संसार के हर देश में देखने को मिलते हैं—
पूर्वाभास की अनेक घटनाओं में एक निम्नलिखित घटना भी है जिसमें पूर्ण स्वस्थ रहते हुए भी मृत्यु का पूर्वाभास मिला और अक्षरशः सही निकला। उत्तर-प्रदेश—मुरादाबाद जिले की बिलारी तहसील में ग्राम सवाई के निवासी एक लोकप्रिय समाज सेवी गजराज सिंह को अपनी मृत्यु का आभास चार दिन पूर्व मिल गया था यों वे कुछ रुग्ण तो थे पर चलने फिरते तथा साधारण काम-काज करते रहने समर्थ थे। उन्होंने घर वालों को चार दिन पूर्व अपने मृत्यु का समय बता दिया था और मरघट में जाकर अपने हाथ से जमीन साफ करके दाह कर्म के लिये स्थान निर्धारित किया था। लकड़ी, कफ़न यहां तक कि जमीन लीपने के लिये गोबर तक समय से पूर्व ही मंगा कर रख लिया था। यों वे अन्न खाते थे पर चार दिन पूर्व से उन्होंने दूध और गंगा जल पर रहना आरम्भ कर दिया। आस-पास गांवों के लोगों को बुलाकर उन्होंने आवश्यक परामर्श दिये। मृत्यु का ठीक समय मध्याह्नोत्तर दो बजे था सो उन्होंने हर किसी को भोजन करके निवृत्त होने के लिये आग्रह पूर्वक प्रेरित किया। आश्चर्य यह कि मृत्यु उनके घोषित समय पर ही हुई और मरने से पन्द्रह मिनट पूर्व तक पूर्ण स्वस्थ जैसी स्थिति में बातें करते रहे।
श्री मेयर्स ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक दि ह्यूमन पर्सनेलिटी एण्ड इट्स सरवाइवल आफ बाडीली डेथ में 13 उदाहरण दिये हैं, जिनमें ऐसी अद्भुत ज्ञान शक्तियों का विवरण देकर यह बताने का प्रयत्न किया गया है कि ज्ञान को चमत्कारिक क्षमतायें पदार्थ की नहीं हो सकती। निश्चय ही कोई चेतन-शक्ति का खेल है। इन उदाहरणों में प्रसिद्ध गणितज्ञवास और ऐम्पेयर के उदाहरण भी दिये गये हैं। दो घटनायें अमरीकन इतिहास से संग्रह की गई हैं। वहां 28 फरवरी 1844 को एक बहुत महत्वपूर्ण कार्यक्रम होने को था। ‘यू.एस.एस. प्रिन्स्टन’ नाम का एक नया और सबसे बढ़िया युद्धपोत बनकर तैयार हुआ था और उसके उद्घाटन के अवसर पर उसके कप्तान राबर्ट स्टाक्टन के अनके गण्यमान व्यक्तियों को समारोह में निमन्त्रित किया इनमें कर्नल डेविड ग्रार्डिनर, उनकी पुत्री जूलिया, जलसेना के सेक्रेटरी थामस गेलमर व उनकी पत्नी एनी भी सम्मिलित थे।
इन दोनों महिलाओं ने 27 दिनांक की रात्रि को ऐसे स्वप्न देखे जिनमें जूलिया के पिता और ऐनी के पति की मृत्यु का स्पष्ट संकेत था। इससे भयभीत होकर जूलिया ने अपने पिता से इस समारोह में सम्मिलित न होने का अनुरोध किया। इसी प्रकार ऐनी ने अपने पति को बहुत रोका। पर उन दोनों ने स्वप्न की बातों को अधिक महत्व देना ठीक नहीं समझा और वे जहाज पर चले गये। वहां जब एक तोप को समुद्र की ओर चलाया गया तो वह अकस्मात फट गयी और कर्नल गार्डिनर तथा थामस गेलमर, जो पास खड़े थे तुरन्त मर गये। ऐनी भी वहीं थी, पर वह बच गई। शोक से अभिभूत होकर उसने कहा—‘‘मेरी बात किसी ने क्यों नहीं मानी? दुर्घटना के समय जूलिया डेक के नीचे थी और जब उसने अपने पिता की मृत्यु के बारे में सुना तो वह चिल्ला उठी—‘‘मेरा सपना आखिर सच हो ही गया।’’
बाद में यही जूलिया अमरीका के प्रेसीडेण्ट टेलर की पत्नी बन गई। उसे कुछ ऐसी शक्ति प्राप्त थी कि पति से सौ मील दूर रहने पर वह उसके सम्बन्ध में सब बातें जानती रहती थी। उसके मन इस प्रकार जुड़े थे कि एक की अनुभूति दूसरे को सहज में हो जाती थी। जनवरी 1862 में जब प्रेसीडेण्ट टेलर रिचमाण्ड में एक सरकारी जलसे में गये थे, एक रात को जूलिया ने स्वप्न में देखा कि उनका चेहरा मुर्दे की तरह पीला पड़ गया है, उनके हाथ में कमीज और टाई है तथा वे कह रहे हैं कि ‘मेरा सर थाम लो।’ सुबह होते ही जूलिया स्वयम् रिचमाण्ड को रवाना हो गयी और वहां प्रेसीडेण्ट को सकुशल देखकर उसे प्रसन्नता हुई। पर दूसरे दिन सुबह नाश्ता करते हुये उनकी हालत एकदम खराब हो गई और वे मौत के समय की-सी आकृति में जूलिया के कमरे में घुसे। उनका कोट और टाई उनके हाथ में थी, जैसा स्वप्न में दिखाई पड़ा था। उन्होंने जूलिया कुछ कहा भी पर वह स्पष्ट सुनाई नहीं दिया। कुछ घण्टों में उनकी जीवन-लीला समाप्त हो गई। विज्ञानवादी आलोचक ऐसी घटनाओं का कोई कारण नहीं बता सकते। वे तो बराबर यही कहते रहते हैं कि जो घटना अभी हुई ही नहीं उसका प्रभाव किसी पर कैसे पड़ सकता है? पर एक अध्यात्मवादी जानता है कि मानव-जीवन का निर्णय करने वाली मुख्य घटनायें सूक्ष्म-जगत् में पहले से घटती रहती हैं, बाद में वे स्थूल-जगत् प्रकट होती हैं। इसलिये जिन लोगों को पूर्व-दर्शन की शक्ति किसी दैवी कारण से कुछ क्षणों के लिये प्राप्त हो जाती है, वे ऐसी घटनाओं को अर्द्ध जगत् अथवा स्वप्न की अवस्था में देख लेते हैं। इसके अतिरिक्त योगी और अभ्यास करने वाले भी अन्तरंग शक्ति से अन्तरिक्ष में मौजूद भविष्य के चिह्नों को देख कर समझ जाते हैं। यही भविष्य-दर्शन अथवा पूर्व-दर्शन का वास्तविक रहस्य है।
पूर्वाभास के सत्य अनुभव (ट्रएक्सपीरियन्सेज इन प्रोफेसी) नामक पुस्तक के विद्वान् लेखक श्री मार्टिन इबान ने सैकड़ों घटनाओं का वर्णन किया है, जिसमें सामान्य को भी स्वप्न या साधारण अवस्था में विलक्षण पूर्वाभास हुये। लैण्डेड टू, (दो व्यक्तियों की जान बचाई) शीर्षक से हेरोल्ड ग्लूक एक घटना इस प्रकार देते हैं—
नवम्बर 1050 की एक शनिवार को हमारे घर कोई उत्सव होने वाला था। एक दिन पूर्व शुक्रवार को ही मेरी धर्मपत्नी ने मुझसे कहा—‘‘आज आप बाहर नहीं जाइयेगा। घर की आवश्यक व्यवस्था में आज आपको हाथ बटाना पड़ेगा।’’ किन्तु उस दिन मुझे ऐसी प्रबल प्रेरणा उठ रही थी कि आज तो समुद्र की सैर के लिये जाना ही चाहिये। मैंने अपनी धर्मपत्नी की बात को कभी ठुकराया नहीं पर मैं स्वयं ही नहीं जानता कि उस दिन मुझे किस अज्ञात शक्ति द्वारा प्रेरित किया जा रहा था कि मैंने जानबूझ कर अपने मित्र जैक को कार लेकर अपने साथ चलने को राजी कर लिया। उस दिन समुद्र में तूफान आने की घोषणा मौसम-विभाग के द्वारा की जा चुकी थी, इसलिये, मेरी धर्मपत्नी ने समुद्र की ओर जाने से इनकार कर दिया, किन्तु मेरे तन में न जाने क्यों कोई बात चिपक नहीं रही थी। मेरा कोई मन भी नहीं था पर भीतर से ऐसा लगता था, तुम्हें समुद्र की ओर जाना ही चाहिये।
निश्चित समय पर गाड़ी आ गई हम और जैक समुद्र की ओर चल पड़े। हमारे वहां पहुंचने से पूर्व ही समुद्र भयंकर आवाज के साथ गरजने लग गया था। तटवर्ती मल्लाह पीछे हट चुके थे तो भी मेरे मुख से निकल ही गया—ओ भाई मल्लाह, हमें समुद्र की सैर करनी है, एक बोट तो देना।’’
मल्लाह बुरी तरह झल्लाया ‘‘आपको दिखाई नहीं देता समुद्र किस तरह उबल रहा है, बोट तो डुबोयेंगी ही आप जान से हाथ धो बैठेंगे।’’ यही बात जैक ने भी कहा किन्तु मुझे तो कोई अज्ञात शक्ति खींच रही थी, मैंने कहा—‘‘यह लो बोट की कीमत और एक बोट मेरे लिये छोड़ दो।’’
‘‘मेरे हठ के सामने सब परास्त हो गये। बोट, हम और जैक देखते-देखते समुद्र की लहरों में जा फसे। मुझे 200 गज की दूरी पर फुटबाल की तरह कोई वस्तु दिखाई दी। मैंने जैक को इशारा किया तो जैक झल्लाया—‘‘आज आपको क्या हो गया है, एक साधारण सी फुटबाल के लिये अपने को मौत के मुख में डाल रहे हैं।’’
मुझे वह बातें भी कुछ प्रभावित न कर सकीं। बोट उधर ही बढ़ा दी। पास पहुंचकर देखता हूं कि दो नाविक जो समुद्र के तूफान में फंस गये थे डूब रहे हैं, हमने किसी तरह उन्हें अपनी नाव में चढ़ाया और डोलते डगमगाते किनारे आ पहुंचे।
मेरी इस सहृदयता और साहस को जिसने भी सुना सराहा। मेरी धर्म पत्नी ने उस दिन मुझे हृदय से लगा लिया। तब से बराबर सोचता रहता हूं, वह कौन-सी शक्ति थी जो मुझे इस तरह प्रेरित करके वहां तक ले गई? क्या ऐसा भी कोई तत्व है, जो अपनी इच्छा से विश्व का सृजन और नियमन करता है, यदि हां तो क्या मनुष्य इसकी स्पष्ट अनुभूति कर सकता है?
क्या दृष्टि सम्पन्न हुआ जा सकता है—
इन घटनाओं को जानकर प्रश्न उठता है कि—क्या मनुष्य की आंखें वही देख सकती हैं जो सामने परिलक्षित होता है। साधारण स्थिति में ऐसा ही होता है। नाक के ऊपर लगे हुए दो नेत्र गोलक केवल सामने की दिशा में और कुछ दांये-बांये एक नियत रूप तक के दृश्य देख सकते हैं। सो भी उन्हें जो उनकी ज्योति तथा पदार्थों की ध्वनि तरंगों के संयोग का एक नियत माध्यम बनाते हैं। नेत्र-ज्योति क्षीण हो अथवा पदार्थ जीवाणु परमाणु जैसी सूक्ष्म आकृति का हो तो फिर सूक्ष्म दर्शक अथवा दूरदर्शक यन्त्रों से ही अधिक जानकारी प्राप्त कर सकना नेत्र गोलकों के लिए सम्भव होता है। यह दृश्य वर्तमान काल के ही हो सकते हैं। आगे पीछे के नहीं। फोटोग्राफी, चित्रकला एवं फिल्म टेलीविजन जैसे माध्यमों से भूतकाल के दृश्य भी देखे जा सकते थे। अब तक इतनी ही उपलब्धियों से मनुष्य को सन्तुष्ट रहना पड़ा है।
निकट भविष्य में मनुष्य उन चमत्कारों को भी इन्हीं आंखों से देख सकेगा जो भूतकाल में केवल अध्यात्म विज्ञानियों के लिए ही सम्भव थे। भूतकाल की घटनाएं सदा सर्वदा के लिए सुरक्षित रखी जा सकेंगी और उन्हें फिल्म टेलीविजन की तरह आभास मात्र स्तर पर नहीं वरन् बिलकुल उसी तरह देखा जा सकेगा जिस तरह आंखों से देखा जाता है। तब यह पहचानना कठिन हो जायगा कि जो दृश्य देख रहे हैं वह असली है या नकली। भूतकाल को हम वर्तमान में पूर्णतया वैसा ही देखेंगे मानो वह सचमुच अभी अभी ही घटित हो रहा है और हम उसे बिलकुल असली रूप में देख रहे हैं। ऐसा ‘त्रियायतन’ फोटोग्राफी के सुविकसित विज्ञान के द्वारा सम्भव हो सका।
दुर्योधन को पाण्डवों के घर जाकर थल में जल और जल में थल दिखाई दिया था। वह दर्पण का चमत्कार नहीं था। दर्पण के लिए दूसरी छवि वैसी ही सामने उपस्थित होनी चाहिए। वैसा वहां कहां था? खुले आकाश में बिना किसी पर्दे की सहायता के अभीष्ट दृश्यों को देख सकता निस्सन्देह बहुत ही अद्भुत है। पहली बार जिन्हें वैसा कुछ देखने को मिलेगा वे निस्सन्देह अवाक् रह जायेंगे और अपनी आंखों पर विश्वास न करेंगे। संजय ने घर बैठे महाभारत के दृश्य देखें थे और सारा घटनाक्रम धृतराष्ट्र को सुनाया था। इस सम्भावना की टेलीविजन ने पुष्टि कर दी थी अब रही बची—कसर ‘होलीग्राफी’ ने पूरी कर दी है। उस विज्ञान के आधार पर हम देशकाल की समस्त परिधियों को तोड़कर किसी घटना क्रम को इतने स्पष्ट और इतने निर्दोष रूप में देख सकते हैं कि असल-नकल को पहचान सकना ही सम्भव न रहे।
विज्ञानाचार्य आइन्स्टाइन ने देश और काल की मान्यता को भ्रान्त-अवास्तविक—सिद्ध किया है। वेदान्त दर्शन में जगत को माया-भ्रान्तिवत् कहा है और रज्जु सर्प का उदाहरण देकर यह बताया है कि जो कुछ हम देखते हैं वे वास्तविक नहीं है। अणु विज्ञानी की दृष्टि में यह संसार अणु धूलि के आंधी तूफान से भरा बवंडर मात्र है इसमें भंवर चक्रवात जैसे उपक्रम बनते बिगड़ते रहते हैं उन्हें ही अमुक पदार्थों के रूप में अनुभव किया जाता है। जो कुछ दिखाई देता है वह खोखला आवरण मात्र है उसके भीतर आणविक हलचलों का अंधड़ भर चलता रहता है। हमारा मस्तिष्क और नेत्र संस्थान अपनी बनावट एवं अपूर्ण संरचना के कारण वह सब देखता है जिसे हम यथार्थ मानते हैं वस्तुतः होता कुछ और ही है।
स्थिर तस्वीरों को चलती फिरती दिखाकर सिनेमा ने बहुत पहले ही यह सचाई सामने ला दी थी कि आंखों को प्रामाणिक साक्षी नहीं माना जा सकता वे जो कुछ देखती या अनुभव करती हैं वह सब का सब यथार्थ ही नहीं होता। अब रही बची कमी होलोग्राफी ने पूरी कर दी है वह पर्दे पर नहीं, खुले आकाश में हमें ऐसे दृश्य दिखा सकती है मानो उस देशकाल की स्थिति यथार्थ रूप से देखी जा रही है जो वस्तुतः दूरवर्ती हो नहीं भूतकाल की भी है। उस दृश्यावली को फोटोग्राफी कहना—स्वीकार करना भी दर्शक के लिए सम्भव न रहेगा।
अध्यात्म विद्या के आधार पर देशकाल की परिधि से बाहर के दृश्य को देख सकना सम्भव रहा है इसे दिव्य दृष्टि कहा जाता रहा है। दिव्य दृष्टि की बात अविश्वसनीय नहीं है। यह तथ्य होलोग्राफी के रूप में अब सामने आ खड़ा हुआ है। वेदांत का वह कथन भी अब गम्भीरता पूर्वक विचार करने योग्य प्रतीत होता है कि हमारी आंखें धोखा खाती है और अवास्तविक को वास्तविक समझती हैं। यह तथ्य भी उभरता आता है। कि हमारे सामने की दिशा में और नियत सीमा के दृश्य ही देखे जा सकते हैं। किसी भी दिशा के पीठ पीछे के भी—भूतकाल के दूर देश के भी दृश्य हम इन्हीं आंखों से देख सकते हैं कि देशकाल की मान्यता भ्रामक है।
प्रकाश किरणों को छवि के रूप में पकड़ने की कला अब फोटोग्राफी टेलीविजन तक सीमित नहीं रही अब वे आधार प्राप्त कर लिये हैं जिन से तीन आयामों वाले—त्रिविमितीय—चित्र देखे जा सकें। आमतौर से फोटोग्राफी लम्बाई-चौड़ाई का ही बोध कराती है गहराई का तो उसमें आभास मात्र ही होता है, यदि गहराई को भी प्रतिबिम्बित किया जा सके तो फिर आंखों से देखे जाने वाले दृश्य और छाया अंकन में कोई भेद न रहेगा। ऐसा दृश्य प्रचलन सम्भव हो सका तो फिल्में अपने वर्तमान अधूरे स्तर की फोटोग्राफी तक सीमित नहीं रहेगी वरन् पर्दे पर रेल, मोटर, घोड़े मनुष्य आदि उसी तरह चलते, दौड़ते दिखाई पड़ेंगे मानो वे अपने यथार्थ स्वरूप में ही आंखों के आगे से गुजर रहे हैं यदि सामने से अपनी ओर कोई रेल दौड़ती आ रही हो या शेर झपटता आ रहा हो तो बिलकुल यही मालूम पड़ेगा कि अब अपने ऊपर ही चढ़ बैठने वाले हैं। ऐसी दशा में आरम्भिक अभ्यास की स्थिति में सिनेमा दर्शक को भयभीत होकर अपनी सीट छोड़कर भागते ही बनेगा। प्रकाश विज्ञानी एर्नेस्टएये और उनके सहयोगी शिष्य डी. गैवर ने होलोग्राफी के एक नये सिद्धान्त का आविष्कार किया जिसके आधार पर—त्रिविमितीया—स्तर का छाया चित्रण आंखों से देखा जा सकेगा और भूतकालीन दृश्यों को इन्हीं आंखों से इस प्रकार देखा जा सकेगा मानो वह घटना क्रम अभी अभी ही बिलकुल सामने घटित हो रहा है।
इलैक्ट्रन माइकोस्कोस्पी के इस विधि विज्ञान को रूस से विज्ञानिक यूरीदैनिस्यूक के नेतृत्व में और भी आगे बढ़ाया है। इस युग में वैज्ञानिक ने परम्परागत पतली परत वाली फोटो ‘प्लेटों’ के स्थान पर मोटी परत लगाई और उन पर प्रकाश किरणों को गहराई तक प्रवेश कर सकने का अवसर दिया। फलतः तीन आयाम वाले चित्रों की एक विशेषता यह है कि जिस कोण से इन्हें देखा जाय वे उसी कोण से खींचे हुए पूर्ण प्रतिबिम्ब दिखाई पड़ेंगे। सामने खड़े होकर देखें तो वे सामने खिंचे हुए दीखेंगे और अगल-बगल से देखने पर लगेगा उन्हें इसी प्रकार खींचा गया और जितना अंश वहां खड़े हुए दृश्य को जिस रूप देखा जा सकता था, फोटोग्राफ ठीक उसी तरह का दीख रहा है।
होलोग्राफी वस्तुतः लेजर किरणों के अनेक चमत्कारों में से एक है। लेजर का सैद्धांतिक आविष्कार आइन्स्टाइन ने किया था। 50 वर्ष बाद उस परिकल्पना को साकार बनाया चार्ल्स टाडनेस ने सन् 1951 में। परमाणुओं की एक विशेष विद्या से उत्तेजित करने और उनसे एक जैसी माइक्रो तरंगें निकालने की आरम्भिक प्रक्रिया ‘मेजर’ कहलाती थी। उसी का परिष्कृत रूप चार वर्ष बाद सामने आया और वह लेजर कहलाया।
कुछ पदार्थों को गरम या उत्तेजित करने से एक विशेष प्रकार की ऊर्जा एवं आभा निकलती है जो रोशनी की बत्ती से भिन्न प्रकार की होती है। साधारण प्रकाश कई रंगों की किरणों से मिलकर बना होता है और वे किरणें अलग-अलग लम्बाइयों और कलाओं की होती हैं। इन्द्र धनुष पड़ते समय यह लम्बाई की भिन्नता ही उस सुन्दर दृश्य के रूप में अपना परिचय देती है। इस बिखराव को एक भीड़ भेड़चाल कह सकते हैं। लेजर प्रक्रिया में परमाणुओं को उत्तेजित करके एक ही रंग की—एक ही कद की किरणें निकाली जाती हैं और उन्हें अधिक से अधिक सघन बनाया जाता है। इतने से ही वे किरणें इतनी प्रचण्ड हो उठती हैं कि गजब के काम करती हैं। इन्हें अब तक के उपलब्ध शक्ति स्रोतों में सबसे अधिक प्रचण्ड माना जाता है। अणु विस्फोट की शक्ति से भी कई क्षेत्रों में यह अधिक तीखी और पैनी हैं। लेजर किरणों के प्रयोग से अगले दिनों भौतिक क्षेत्रों में अनोखी एवं क्रान्तिकारी प्रतिक्रिया सामने आने वाली है। उन्हीं में से एक होलोग्राफी भी है। आविष्कार के प्रारम्भिक दिनों में यह कठिनाई थी कि लेजर किरणें केवल एक ही रंग की किरणें उत्पन्न करती थी इसलिए फोटो भी एक रंग के बनते थे। दूसरी कठिनाई यह थी कि खींचने की तरह देखने में भी लेजर किरणों का प्रकाश ही प्रयुक्त करना पड़ता था। स्पष्ट है कि लेजर अत्यन्त खतरनाक होती है। उनका तनिक भी व्यक्तिक्रम हो जाय तो सर्वनाश निश्चित है। अब उसमें कितने ही सुधार हो गये हैं। विज्ञानी लिपमाना ने तीन आयाम वाली फोटोग्राफी के लिए जो ‘प्लेट’ बनाई थी वे होलोग्राफी में फिट बैठ गई हैं और तस्वीर देखने के लिए साधारण रोशनी के प्रयोग से काम चलने लगा है। यह सुधार हो जाने से अब मार्ग निष्कंट हो गया और सर्व साधारण के लिए होलोग्राफी का आनन्द हो सकना सम्भव हो गया अब उसके लिए सुलभ यंत्रों का बनना ही शेष रह गया है।
होलोग्राफी का आविष्कार ब्रिटिश नागरिक डा. डैनिस गेवर ने किया उसे इसके उपलक्ष में भौतिकी का नोबेल पुरस्कार मिला है। चमत्कारी आविष्कारों में इस भौतिकी को अपने ढंग की अत्यन्त अद्भुत ही कहा जायगा। यों अभी उसका क्षेत्र निर्धारित प्रयोगशालाओं में ही है। फिल्म या टेलीविजन की तरह उसका विस्तार इतना व्यापक नहीं हुआ है कि जनसाधारण उससे लाभ उठा सके पर वह दिन दूर नहीं जब यह आविष्कार भी सर्व सुलभ हो जायगा। फोटोग्राफी का विज्ञान आविष्कृत होने के 112 वर्ष बाद सर्व साधारण के लिए प्रयोग योग्य बन पाया था। टेलीफोन 56 वर्ष बाद—टेलीविजन 12 वर्ष बाद—एटम बम 5 वर्ष बाद—अपने आविष्कार के बाद उपयोग में आये थे। होलोग्राफी को भी कुछ समय लग सकता है पर जब भी वह प्रयुक्त होगी तब जिनने उसे पहले कभी नहीं देखा था उन्हें बहुत ही अजीब—किसी जादू लोक के तिलस्म जैसा लगेगा।