Books - अतीन्द्रिय क्षमताओं की पृष्ठभूमि
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Language: HINDI
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अन्तर्निहित विभूतियों का आभास प्रकाश
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‘‘मुझे अच्छी तरह स्मरण है, तब मैं सात वर्ष का बच्चा था। पिताजी किसी काम से बाहर गये थे। वे अपने ही शहर में। विचार और भावनायें कहां से आती हैं, मुझे कुछ मालूम नहीं है, किन्तु मुझे इनमें मानव-जीवन का कुछ यथार्थ, दर्शन और अमरता का रहस्य छिपा हुआ जान पड़ता है। ऐसा मैं इस आधार पर कहता हूं कि मुझे उस दिन यों ही एकाएक खेलते-खेलते ऐसा लगा कि पिताजी एक ट्राम से घर आ रहे हैं। ट्राम दुर्घटना ग्रस्त हो गई है और उसमें पिताजी बुरी तरह घायल हो गये हैं। बिना किसी दूर-दर्शन (टेलीविजन) यन्त्र के इस तरह का आभास क्या था, मुझे कुछ पता नहीं है।’’
रीडर्स डाइजेस्ट नामक विश्व विख्यात मासिक पत्रिका में ‘‘सैम बेन्जोन की सूक्ष्म शक्तियां’’ नामक शीर्षक से यह पंक्तियां उद्धृत की गई हैं। पूर्वाभास की घटनाओं का उल्लेख करते हुए इसमें लेखक ने स्वीकार किया है कि ‘‘संसार में कोई एक ऐसा तत्व भी है, जो हाथ पांव विहीन होकर भी सब कुछ कर सकता है, कान न होकर भी सब कुछ सुन सकता है। आंखें उसके नहीं हैं पर वह अपने आपके प्रकाश में ही सारे विश्व को एक ही दृष्टि में देख सकता है। त्रिकाल में क्या संभाव्य है, यह उसको पता है। उसका सम्बन्ध विचार और भावनाओं से है, इसलिये यह कहा जा सकता है कि विचार और ज्ञान की शक्ति चिरभूत और सनातन है।’’
सैम वेन्सन अपनी मां के पास गया और कहा—मां! पिताजी घायल हो गये लगते हैं, मुझे अभी-अभी ऐसा आभास हुआ है कि वे जिस ट्राम से वापिस आ रहे थे, वह दुर्घटना ग्रस्त हो गई है।’’ मां ने बच्चे को झिड़की दी—‘‘तुझे योंही खयाल आया करते है, चल भाग जा अपना काम कर।’’
बच्चा अभी वहां से गया ही था कि सचमुच उसके पिता घायल अवस्था में घर लाये गये। पूछने पर ज्ञात हुआ कि सचमुच वे जिस ट्राम से आ रहे थे, वह दुर्घटना ग्रस्त हो गई, उसमें कई व्यक्ति मारे गये। मां को जितना पति की चोट का दुःख था, उससे अधिक पुत्र के पूर्वाभास का आश्चर्य। हमारे जीवन में ऐसे अनेक बार आत्मा से प्रकाश आता है, जिसमें हमें कुछ सत्य अनुभव होते हैं पर सांसारिकता में अनुरक्त मनुष्य उनसे आत्म-ज्ञान प्राप्त करने की आवश्यकता कहां अनुभव करते हैं।
क्रिसमस का त्यौहार आया। घर दावत दी गई। बहुत से मित्र, सम्बन्धी और पड़ौसी आये। लोगों ने अनेक तरह के उपहार दिये। उपहार के सब डिब्बे एक तरफ रख दिये। प्रीतिभोज चलता रहा। सबको बड़ी प्रसन्नता रही। हंसी-खुशी के वातावरण में सब कुछ सानन्द सम्पन्न हुआ।
मेहमान घरों को विदा हो गये तब डिब्बों की पड़ताल प्रारम्भ हुई। मां ने बच्चे से कहा—‘‘बेनसन! तू बड़ा भविष्य-दर्शी बनता है, बोल इस डिब्बे में क्या है।’’ ‘बेसबाल’ मां! ऐसे जैसे उसने खोलकर देखा हो। जबकि डिब्बा जैसा आया था, वैसे ही बन्द था, किसी को भी देखने तो क्या खोलने का भी अवकाश नहीं मिला था।
डिब्बा खोला गया। मां अवाक् रह गई। सचमुच डिब्बे में बेसबाल ही था।
अब जब एक्स-रे जैसे यन्त्र बन गये हैं, जो त्वचा के आवरण को भी पारकर के भीतर के चित्र खींच देते हैं। यह कोई आश्चर्यजनक बात नहीं रह गई है। किन्तु बिना किसी लेन्स या यन्त्र के डिब्बे के भीतर की वस्तु का ज्ञान प्राप्त कर लेना यह बताता है कि विचार और भावनाओं की शक्ति इतनी दिव्य और सूक्ष्म है कि गहन अन्तराल में छिपी हुई वस्तुओं का भी ज्ञान बिना किसी माध्यम के प्राप्त कर सकती है। इससे उसकी सर्वव्यापकता का पता चलता है।
सैम बेन्जोन की घरों में रंग-रोगन करने वाले एक पेन्टर मार्टिन से जान-पहचान थी। एक दिन वह अपने आफिस में बैठे हुए कुछ काम कर रहे थे। जैसे चलचित्र में एक रात सैम बेन्जोन घर पर सो रहे थे। एकाएक उनकी नींद टूटी उन्हें ऐसा लगा कि कहीं से किसी के जलने की दुर्गन्ध आ रही है। अपनी धर्म-पत्नी को जगाकर उन्होंने पूछा—‘‘देखना चाहिए कहीं कुछ जल तो नहीं रहा।’’ पति-पत्नी ने सारा घर ढूंढ़ लिया कहीं कोई आग या जलती हुई वस्तु नहीं मिली। बेन्जोन ने कहा—‘‘मुझे ऐसा लगता है, दुर्गन्ध तुम्हारी मां के घर से आ रही है।’’
पत्नी ने बिदक कर कहा—‘‘पागल हुये हो, मेरी माता जी का घर आठ मील दूर है, इतनी दूर से कोई दुर्गन्ध आ सकती है।’’ सैम बेन्जोन ने थोड़ा जोर देकर कहा—‘‘तुम जानती हो मेरा आत्म-विश्वास प्रायः अचूक होता है। देखो टेलीफोन करके ही पूछ लो, सचमुच कोई बात तो नहीं।’’
पत्नी ने रिंग बजाई उधर से कोई आवाज नहीं आई किसी ने टेलीफोन नहीं उठाया। लगभग 15 मिनट तक प्रयत्न करने के बाद भी जब उधर से किसी ने टेलीफोन ‘रिसीव’ नहीं किया तो पत्नी ने झिड़ककर कहा—‘‘सब लोग सो रहे होंगे, व्यर्थ ही परेशान किया। पर तभी उधर से ‘हलो’ की आवाज आई—मां ने बताया घर के पिछले हिस्से में आग लग गई थी, पड़ौसियों की सहायता से उसे बुझाया जा सका। उस घटना का उन पर कुछ ऐसा प्रभाव पड़ा कि फिर उन्होंने आत्मा के अस्तित्व से कभी इनकार नहीं किया। वे रात भर इस विलक्षण तत्व के बारे में सोचती रहीं। यह तो एक व्यक्ति से संबंधित घटना हुई। कई बार साधारण व्यक्तियों को सामान्य अवस्था में भी इस प्रकार की अनुभूतियां होती हैं, जो लगती तो स्वप्न जैसी हैं परन्तु उनकी प्रणादता के कारण वे वास्तविक सी भी लगती है। उस समय की अनुभूतियों पर भले ही विश्वास न हो, परन्तु कालान्तर में वही घटनायें सत्य सिद्ध होती हैं।
पूर्वाभास और स्वप्न
सन् 1943 की रात, द्वितीय महायुद्ध, पैसफिक सागर में तेरहवीं एयर फोर्स बटालियन के कमाण्डर जनरल नेथान एफ टूवीनिंग दुर्भाग्यवश युद्ध के दौरान अपने बेड़े से अगल-अगल पड़ गये। वे एस्पेराइट सान्तो एअर बेस के लिए अपने चौदह साथियों के साथ रवाना हुए थे। युद्ध के दिन थे ही बहुत खोज की गई पर उनका वह उनके साथियों का कुछ भी पता नहीं चला।
जनरल नेथान की पत्नी उस समय अमरीका में अपने घर में रही थीं। प्रगाढ़ निद्रा के समय उन्हें लगा उनके पति उनके पास खड़े हैं और बेचैनी पूर्वक उसे जगा रहे हैं। श्रीमती ट्वीनिंग ने अपने पति का मुंह और हाथ स्पष्ट देखा उन्होंने पति के हाथ पकड़ने चाहे तभी उनकी एकाएक नींद टूट गई। स्वप्न उन्होंने पहले भी देखे थे किन्तु यह स्वप्न उनसे विचित्र था। जग जाने पर भी वह ट्वीनिंग को इस प्रकार रोमांचित कर रहा था कि उनकी गर्दन के बाल—सिहर कर खड़े हो गये थे।
उसके बाद उन्हें नींद नहीं आई। रात पूरी जागकर बिताई। सवेरा हो चला था। तभी एकाएक टेलीफोन की घण्टी बजी। उनकी एक सहेली का फोन था। उसके पति भी दक्षिणी पैसफिक सागर पर सैनिक अफसर थे इसलिये श्रीमती के हृदय में रात की रोमांचकारी घटना ने फिर एक बार उत्तेजना उत्पन्न की। उन्होंने जल्दी-जल्दी में पूछा—कही सब ठीक तो है ना! उधर आवाज आई सब ठीक पर मेरा मन न जाने क्यों बड़ी देर से बार-बार तुम्हें ही याद कर रहा है मैंने तुम्हारे पास आने का निश्चय किया है कहीं जाना मत, मैं दो तीन दिन में तुम्हारे पास आ रही हूं।
श्रीमती ट्वीनिंग को अब भी आशंका थी कि उसे कोई बात कहनी है जो अभी छिपाई जा रही है किन्तु जब वे घर आई तब भी ऐसी कोई बात उन्होंने नहीं बताई। इतने पर भी श्रीमती ट्वीनिंग की उस स्वप्न के प्रति आशंका गई नहीं।
दो दिन रहकर जब उनकी सहेली वापस लौट गई तब श्रीमती ट्वीनिंग को सरकारी तौर पर जानकारी दी गई कि उनके पति अपने बेड़े के साथ लापता हैं उनकी खोज की जा रही है। खोज करने वाले अधिकारी नियुक्त कर दिये गये हैं। इस समाचार से उनका मन बड़ा व्यग्र हो रहा था। थोड़ी ही देर बाद दूसरी सूचना मिली जिसमें यह बताया गया था कि जहाज मिल गया है। और श्री ट्वीनिंग शीघ्र ही उनसे मिलने घर आ रहे हैं।
भेंट होने पर श्रीमती ट्वीनिंग ने बताया कि सचमुच उस दिन ठीक उसी समय वे संकट में पड़े थे जिस समय उन्होंने स्वप्न देखा। उन्होंने यह भी बताया कि कितने आश्चर्य की बात है कि ठीक उसी समय मुझे—तुम्हारी (उनकी पत्नी) तीव्र याद आई थी इस पारस्परिक अनुभूति का कारण क्या हो सकता है? इसके अतिरिक्त जिस ऑफीसर ने खोज की वह उनकी सहेली का ही पति था उसे किसने वहां आने के लिये प्रेरित किया यह सब ऐसे रहस्य हैं
जीवन में जो कुछ प्रकट है वही सत्य नहीं वरन् सत्य का सागर तो अदृश्य में छुपा हुआ है। और वह विचित्र संयोगों के मध्य प्रकट हुआ करता है।
सत्य की खोज में ‘‘इन सर्च आफ दि ट्रुथ’’ पुस्तक में इस घटना का हवाला देते हुए-श्रीमती रूथ मान्टगुमरी लिखती हैं कि युद्धों के समय पाशविक वृत्तियां एकाएक आत्म-मुखी हो उठती है तब कैसे भी व्यक्तियों को अतीन्द्रिय अनुभूतियां स्पष्ट रूप से होने लगती हैं। युद्ध के मैदानों में लड़ने वाले सैनिक और उसके सम्बन्धी रिश्तेदारों के बीच एक द्रागढ़ भावुक सम्बन्ध स्थापित हो जाता है वही इस अति मानसिक अनुभूतियों की सत्यता का कारण होता है। ध्यान की गहन अवस्था में होने वाले भविष्य की घटनाओं के पूर्वाभास भी इसी कारण होते हैं कि उस समय एक ओर से मानसिक विद्युत दूसरी ओर से पूरी क्षमता के साथ सम्बन्ध जोड़ देती और जिस प्रकार लेजर यन्त्र, दूरदर्शी (टेलिविजन) यन्त्र हमें दूर के दृश्य व समाचार बताने दिखाने लगते हैं उसी प्रकार यह भाव सम्बन्ध हमें दूरवर्ती स्थानों की घटनाओं के सत्य आभास कराने लगते हैं।
द्वितीय विश्वयुद्ध की ही एक अन्य घटना का उल्लेख अपने इसी अध्याय में करते हुये श्रीमती रूथ मान्टगुमरी ने लिखा है कि चैकोस्लोवाकिया तथा थाईलैंड के भूतपूर्व राजदूत जो उसके बाद ही जापान के राजदूत नियुक्त हुए श्री जानसन तब मुकड़ेन नगर में थे। युद्ध की आशंका से बच्चों को अलग कर दिया गया। उनकी धर्मपत्नी श्रीमती पैट्रोसिया जान ने कैलीफोर्निया के लैगुना बीच में एक मकान ले लिया और वहीं रहने लगी।
इस बीच श्रीमती जानसन ने कई बार जापान के समाचार जानने के लिये अपना रेडियो मिलाया पर रेडियो ने वहां का मीटर पकड़ा ही नहीं। एक दिन पड़ौस की एक स्त्री ने बताया कि उनका रेडियो जापानी प्रसारणों को (रेडियो ब्राडकास्टिंग) खूब अच्छी तरह पकड़ लेता है। तीन महीने तक श्रीमती जानसन ने इस तरफ कुछ ध्यान ही नहीं दिया। एक दिन उन्हें एकाएक रेडियो सुनने की इच्छा हुई। रेडियो का स्विच घुमाया ही था कि आवाज आई—हम रेडियो स्टेशन मुकड़ेन से बोल रहे हैं अब आप एक अमेरिकन ऑफीसर वी. जानसन को सुनेंगे।’’
विस्मय विस्फारित श्रीमती जानसन एकाग्र चित्त बैठ गई—अगले ही क्षण जो आवाज आई वह उनके पति की ही आवाज थी। वे बोल रहे—मैं बी. एलेस्सिन जानसन मुकड़ेन से बोल रहा हूं जो भी कैलीफोर्निया अमेरिका का नागरिक इसे सुने कृपया मेरी पत्नी पैट्रोसिया जान्सन या मेरे माता-पिता श्री व श्रीमती कार्ल टी जानसन तक पहुंचायें और बतायें कि मैं यहां कैद में हूं स्वस्थ हूं, खाना अच्छा मिलता है और आशा है कि कैदियों की अदला-बदली में शीघ्र ही छूट जाऊंगा, अपनी पत्नी और बच्चों को प्यार भेजता हूं।’’
दो माह पीछे जानसन कैदियों की बदली में छूट कर आ गये। पैट्रोसिया पति से मिलने गई तो वहां उसे पति से क्षणिक भेंट होने दी क्योंकि कुछ समय के लिये श्री एलेक्सिस जानसन को तुरन्त जहाज पर जाना था। पैट्रोसिया को थोड़ी ही देर में घर लौटना पड़ा। उसकी सहेलियां उसे घुमाने ले गईं पर अभी वे एक सिनेमा में बैठी ही थी कि पैट्रासिया एकाएक उठकर बाहर निकल आईं और अपने घर को फोन मिलाया तो दूसरी ओर से अलेक्सिस जानसन बोले और बताया कि मैं यहां हूं मुझे जहाज में नहीं जाना पड़ा। पैट्रीसिया सिनेमा छोड़कर घर चली आई।
. 3 माह तक कभी भी रेडियो सुनने की आवश्यकता अनुभव न करना और ठीक उसी समय जबकि पति संदेशा देने वाले हों रेडियो सुनने की अन्तःकरण की तीव्र प्रेरणा का रहस्य क्या हो सकता है? कौन सी शक्ति थी जिसने पैट्रोसिया को सिनेमा के समय फोन पर पहुंचने की प्रेरणा दी जब इन बातों पर विचार करते हैं तो पता चलता है कोई एक अदृश्य शक्ति है अवश्य जिसने मानव मात्र को एक भावनात्मक सम्बन्ध में बांध अवश्य रखा है। हम जब तक उसे नहीं जानते तब तक मनुष्य शरीर की सार्थकता कहां? दूरवर्ती स्वजनों के साथ घटित होने वाली घटनाओं तथा भक्तिवताओं का पूर्वाभास कितनी तीन ही बार है विचित्र ढंग से सामने आता है कि न तो उन्हें झुठलाया जा सकता है और न उनका आधार अथवा कारण समझ में आता है।
इस संदर्भ में अमेरिकी मनोवैज्ञानिक डा. नेलसन वाल्ट का कथन है कि—मनुष्य के अन्दर एक बलवती आत्म-चेतना रहती है, जिसे जिजीविषा एवं प्राणघाती शक्ति कह सकते हैं। यह न केवल रोग निरोध अथवा अन्य आत्म-रक्षा जैसे अस्तित्व संरक्षण के अविज्ञात साधन जुटाती है वरन् चेतना जगत में चल रही उन हलचलों का पता लगा लेती है जो अपने आगे विपत्ति के रूप में आने वाली हैं। पूर्वाभास बहुधा अपने ऊपर तथा अपने सम्बन्धियों के ऊपर आने वाले संकटों के ही होते हैं। सुख-सुविधा की परिस्थितियों का ज्ञान कभी-कभी या किसी-किसी को ही हो पाता है।
परा मनोविज्ञानी हैराल्ड कहते हैं स्वप्न में ही नहीं, अपितु जागृत स्थिति में भी कई बार बिलकुल सही ऐसे पूर्वाभास होते पाये गये हैं जिनका सामयिक परिस्थितियों से कोई सीधा सम्बन्ध नहीं था। उन्होंने फ्रांसीसी उड्डयन संस्थान में काम करने वाले एक यान चालक की विमान दुर्घटना से मृत्यु होने का उल्लेख किया है और बताया है कि ठीक दुर्घटना के समय ही रास्ता चलती उसकी एकमात्र बहिन को यह अनुभव हुआ था कि अभी-अभी उनका भाई वायुयान दुर्घटना में मरा है। दूसरे दिन ठीक वैसा ही समाचार भी उसे मिल गया। इस प्रकार के प्रसंगों में व्यक्तियों की पारस्परिक आत्मीयता की सघनता का बहुत हाथ रहता है।
मनःशास्त्री हेनब्रुक ने अपनी शोधों में इस बात का उल्लेख किया है कि अतीन्द्रिय क्षमता पुरुषों की अपेक्षा नारियों में कहीं अधिक होती है। दिव्य अनुभूतियों की अधिकता उन्हें ही क्यों मिलती है इसका कारण वे नारी स्वभाव में कोमलता, सहृदयता जैसे सौम्य गुणों के आधिक्य को ही महत्व देते हैं। उनकी दृष्टि में अध्यात्म क्षेत्र नारी को अपनी प्रकृति प्रदत्त विशेषताओं के कारण सहज ही अधिक सफलता मिलती रहती है।
बीज रूप से यह आलौकिक एवं अतीन्द्रिय क्षमता हर किसी में मौजूद है। और यह सम्भावना हर किसी के सामने खुली पड़ी है कि उस दिव्य शक्ति को प्रयत्न पूर्वक विकसित करके न केवल अपना किन्तु दूसरों का भी भला कर सके।
मनुष्य शरीर में इन सम्भावनाओं को किन स्थानों पर हो, इस सम्बन्ध में भारतीय योगियों की मान्यता है कि मेरुस्तम्भ के शिखर पर सीधे ऊपर खोपड़ी के बीच में बाल स्थान से थोड़ा हटाकर ललिमा लिये डा. भूरे रंग का कोण की शकल की वस्तु मस्तिष्क की पिछली कोठरी के आगे तीसरी कोठरी की तह से मिली हुई पायी जाती है। यह गुछी का पुन्ज है, जिसमें छोटे-छोटे खुरखुरे चूनेदार अणु होते हैं। इन्हें ‘‘मस्तिष्क बालुका’’ कहा जाता है। पश्चिमी वैज्ञानिक इसे पाइ-लग्लैन्ड या पाइनल बाडी कहते हैं। पर वे अभी उसके कार्य अभिप्राय और आयोग से बिलकुल अनभिज्ञ हैं। मेरी जानकारियां ही इस संबंध में मिलती हैं।
दूरवर्ती वस्तुओं और सूक्ष्म से सूक्ष्म मन तक लगाव का कारण योगी लोग इसी स्थान को मानते हैं। यह आत्मा की ज्ञान-शक्ति का कोप कहा जा सकता है। इस अवयव के लिये यह आवश्यक नहीं कि इसमें कोई बाह्य द्वार हो जैसा कि कान, नाक, मुंह में होता है। इसमें से उठने वाले विचार कम्पन स्थूल पदार्थों का भेदन भी उसी तरह कर जाते हैं, जिस तरह ‘एक्सरेज’। वह सूक्ष्म विचार कम्पन पहाड़ों की चट्टानों, लोहे आदि का भी भेदन कर उसके भीतर की आणविक संरचना का ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं।
उल्लेखनीय है कि जमशेद जी टाटा को खनिज और स्पात का कारखाना खड़ा करने का स्थान स्वामी विवेकानन्द ने लन्दन में तब बताया था, जब श्री टाटा जी वहां उसकी स्वीकृति लेने गये थे। खनिज पदार्थ, पानी और तेल के कुओं तक का पता धरती के भीतर हजारों फीट सिंचाई में हो तो वहां भी यह विचार कम्पन पहुंचकर वहां की स्थिति का रहस्य आत्मा को बता सकते हैं। उन दिनों पाकिस्तान से दिल्ली आये हुए 40 हजार शरणार्थियों के लिए फरीदाबाद के निकट एक बस्ती बसाई जा रही थी। योजना पूरी तैयार थी, पर पानी का विकट प्रश्न था। यमुना वहां से 18 मीन दूर थी इतनी लम्बी पाइप लाइन तुरन्त बिछाना कठिन भी था और खर्चीला भी इंजीनियर पहले ही बता चुके थे उस इलाके की जमीन में नलकूप लगाये जाने योग्य पानी नहीं है। समस्या बड़ी विकट थी।
तभी श्री नेहरू को याद आया कि जाम साहब नवा नगर ने एक बार उनसे किसी ऐसे व्यक्ति की चर्चा की थी जिसमें भूमिगत पानी का पता लगाने की अद्भुत शक्ति है। तत्काल जामसाहब के पास सन्देश पहुंचाया गया और वह व्यक्ति साधारण किसान की वेषभूषा वाला ‘‘पानी वाला महाराज’’ दिल्ली जा पहुंचा। महाराज को लेकर उस क्षेत्र की 3500 एकड़ जमीन का पर्यवेक्षण किया। उसने पैर से ठोक-ठोक कर कई जगह की जमीन जांची और दस जगहों पर निशान लगवाये कि यहां पानी है, तदनुसार नलकूप खोदे गये और सचमुच ही वहां जल के गहरे स्रोत निकले। इनमें से हर कुंआ अभी भी तीन हजार गैलन पानी हर घन्टे की गति से दें रहा है। इससे पूर्व इस पथरीले इलाके में इतना पानी मिलने की किसी इंजीनियर ने कल्पना भी नहीं की थी।
मस्तिष्क का ‘कोनोला अणु’ बेतार के तार की तरह अदृश्य जगत् के सूक्ष्म से सूक्ष्म कम्पन को भी पकड़ लेता है, इसलिये जो बात मन में तो न हो पर अवचेतन मन में हो, उसे भी जाना जा सकता है। उदाहरण के लिये कौड़ी वाले बैल देखें होंगे जो अपने स्वामी के संकेत पर बता देते हैं कि 5) का नोट किसकी जेब में है—बैल चलता है और उस आदमी के पास जा पहुंचता है। वह आदमी पूछता है—इनमें ‘राम-शंकर’ कौन है, उस समय भीड़ में खड़ा रामशंकर अपने मन में अपना नाम भी नहीं लेता, उस समय तो उसे केवल कौतूहल होता है पर चूंकि उसके अवचेतन मस्तिष्क में यह बात रहती है कि मैं रामशंकर हूं, उसी को बैल का वह अवयव पकड़ा लेता है और उस व्यक्ति के पास जाकर बता देता है।
इस तरह के खेल प्रायः सभी ने देखे होंगे अभी तक इनको चमत्कार माना जाता है, पर मनुष्येत्तर जीवों में सभी ये इस तरह की जानशक्ति के आधार पर यह पता लग सकता है कि आत्मा का अस्तित्व मनुष्य में ही नहीं अन्य प्राणियों में भी है। जिस दिन यह मान्यता लोगों के मस्तिष्क में उतर जायेगी, उसी दिन पुनर्जन्म व कर्म फल के अनेक रहस्य भी मालूम होने लगेंगे और तब अब की तरह चोटी छल कपट, धोखा, अपराध अत्याचार करने वाले लोगों को मालूम होगा कि इनके कारण दूसरी योनियों में रहकर किस तरह उठाना पड़ा और देहासक्तिऐ अब किस तरह क्या जा सकता है।
अध्यात्म विज्ञान में स्थान-स्थान पर प्रकाश की साधना और प्रकाश की याचना की चर्चा मिलती है। यह प्रकाश बल्ब, बत्ती अथवा सूर्य, चंद्र आदि से निकलने वाला उजाला नहीं वरन् वह परम ज्योति है इस विश्व चेतना का आलोक बनकर जगमगा रही है। गायत्री का उपास्य सविता देवता इसी परम ज्योति को कहते हैं। इसका आस्तित्व ऋतम्भरा प्रज्ञा के रूप में प्रत्यक्ष और कण-कण में संव्याप्त जीवन ज्योति के रूप में प्रत्येक व्यक्ति अपने भीतर भी देख सकता है। इसकी जितनी मात्रा जिसके भीतर विद्यमान हो समझना चाहिए कि उसमें उतना ही अधिक ईश्वरीय अंश आलोकित हो रहा है।
मस्तिष्क के मध्य भाग से प्रकाश कणों का एक फव्वारा सा फूटता रहता है। उसकी उछलती हुई तरंगें एक वृत्त बनाती हैं और फिर अपने अपने मूल उद्गम में लौट जाती हैं। यह रेडियो प्रसारण और संग्रहण जैसी प्रक्रिया है, ब्रह्मरंध्र से छूटने वाली ऊर्जा अपने भीतर छिपी हुई भाव स्थिति को विश्व-ब्रह्माण्ड में ईथर कम्पनी द्वारा प्रवाहित करती रहती है, इस प्रकार मनुष्य अपनी चेतना का परिचय और प्रभाव समस्त संसार में फेंकता रहता। फुहारें की लौटती हुई धाराएं अपने साथ विश्व-व्यापी असीम ज्ञान की नवीनतम घटनात्मक जानकारियां लेकर लौटती हैं यदि उन्हें ठीक तरह समझा जा सके, गृहण किया जा सके, तो कोई भी व्यक्ति भूतकालीन और वर्तमान काल की अत्यन्त सुविस्तृत और महत्वपूर्ण जानकारियां प्राप्त कर सकता है। व्यक्ति में प्रवाह ग्रहण करने की और प्रसारित करने की जो क्षमता है उसका माध्यम यह ब्रह्मरंध्र अवस्थित ध्रुव संस्थान ही है। पृथ्वी पर अन्य ग्रहों का प्रचुर अनुदान आता है तथा उसकी विशेषताएं अन्यत्र चली जाती हैं। यह आदान-प्रदान का कार्य ध्रुव केन्द्रों द्वारा सम्पन्न होता है। शरीर के दो ध्रुव हैं—एक मस्तिष्क, दूसरा जनन गह्वर। चेतनात्मक विकरण मस्तिष्क से और शक्ति परक ऊर्जा प्रवाह झननगह्वर से सम्बन्धित है। सूक्ष्म आदान-प्रदान की अति महत्वपूर्ण प्रक्रिया इन्हीं केन्द्रों के माध्यम से संचालित होती हैं।
शारीरिक और मानसिक स्थिति के अनुरूप तेजोवलय की स्थिरता बनती है। यदि स्थिति बदलने लगे तो प्रकाश पुंज की स्थिति भी बदल जायेगी। इतना ही नहीं समय समय पर मनुष्य के बदलते हुए स्वभाव तथा चिन्तन स्तर के अनुरूप उसमें सामयिक परिवर्तन होते रहते हैं। सूक्ष्म-दर्शी उसकी भिन्नताओं को रंग बदलते हुए परिवर्तनों के रूप में देख सकते हैं। शान्ति और सज्जनता की मनःस्थिति हलके नीले रंग में देखी जायगी। विनोदी, कामुक, सत्तावान, वैभवशाली, विशुद्ध व्यवहार कुशल स्तर की मनोभूमि पीले रंग की होती है। क्रोधी, अहंकारी, क्रूर, निष्ठुर, स्वार्थी, हठी और मूर्ख मनुष्य लाल वर्ण के तेजोवलय से घिरे रहते हैं। हरा रंग सृजनात्मक एवं कलात्मक प्रवृत्ति का द्योतक है। गहरा बैगनी चंचलता और अस्थिर मति का प्रतीक है। धार्मिक ईश्वर भक्त और सदाचारी व्यक्तियों की आभा केसरिया रंग की होती है। इसी प्रकार विभिन्न रंगों का मिश्रण मनुष्य के गुण, कर्म, स्वभाव के परिवर्तनों के अनुसार बदलता रहता है। यह तेजोवलय सदा स्थिर नहीं रहता। बदलती हुई मनोवृत्ति प्रकाश पुंज के रंगों में परिवर्तन कर देती है। यह रंग स्वतंत्र रूप से कुछ नहीं। मनोभूमि में होने वाले परिवर्तन, शरीर से निसृत होते रहने वाले ऊर्जा कम्पनी की घटती-बढ़ती संख्या के आधार पर आंखों को अनुभव होते हैं। वैज्ञानिक उन्हें ‘‘फ्रीक्वेन्सी आव दी वेयस’’ कहते हैं।
दिव्य दर्शन (क्लेयर वाइन्स) दिव्य अनुभव (साइको मैन्ट्री) प्रभाव प्रेषण (टेलिपैथी) संकल्प प्रयोग (सजैशन) जैसे प्रयोग थोड़ी आत्मशक्ति विकसित होते ही आसानी से किये जा सकते हैं। इन विद्याओं पर पिछले दिनों से काफी शोध कार्य होता चला आ रहा है और उन प्रयासों के फलस्वरूप उपयोगी, निष्कर्ष सामने आये हैं। परामनोविज्ञान अतीन्द्रिय विज्ञान, मैटाफिजिक्स जैसी चेतनात्मक विद्यायें भी अब रेडियो विज्ञान तथा इलेक्ट्रोनिक्स की ही तरह विकसित हो रही हैं। अचेतन मन की सामर्थ्य के सम्बन्ध में जैसे-जैसे रहस्यमय जानकारियों के पर्त खुलते हैं, वैसे-वैसे यह स्पष्ट होता जाता है कि नर-पशु लगने वाला मनुष्य वस्तुतः असीम और अनन्त क्षमताओं का भण्डार है। कठिनाई इतनी भर है कि उसकी अधिकांश विकृतियां प्रसुप्त अविज्ञात स्थिति में पड़ी हैं। प्रकाश रश्मियों की लम्बाई एक इंच के सोलह से तीस लाखवें हिस्से के बराबर होती है। रेडियो पर सुनी जाने वाली ध्वनि तरंगों की गति एक सैकिण्ड के एक लाख छियासी हजार मील की होती है, वह एक सैकिण्ड में सारी धरती की सात परिक्रमा कर लेती हैं। शब्द और प्रकाश तरंगों का आकार एवं प्रवाह इतना सूक्ष्म एवं गतिशील है कि उन्हें बिना सूक्ष्म यन्त्रों की सहायता से हमारी इन्द्रियां अनुभव नहीं कर सकती हैं।
डा. जे.सी. ने ‘अणु और आत्मा’ ग्रन्थ में स्वीकार किया है कि मानव अणुओं की प्रकाश वाष्प न केवल मनुष्यों में वरन् अन्य जीवधारियों, वृक्ष वनस्पति, औषधि आदि में भी होती है, यह प्रकाश अणु ही जीवधारी के यथार्थ शरीरों का निर्माण करते हैं खनिज पदार्थों से बना मनुष्य या जीवों का शरीर तो तभी तक स्थिर रहना है, जब तक यह प्रकाश अणु शरीर में रहते हैं। इन प्रकाश अणुओं के हटते ही स्थूल शरीर बेकार हो जाता है, फिर उसे जलाते या गाढ़ते ही बनता है। खुला छोड़ देने पर तो उसकी सड़ांद से उसके पास एक क्षण भी ठहरना कठिन हो जाता है।
स्वभाव, संस्कार, इच्छाएं, क्रिया शक्ति यह सब इन प्रकाश अणुओं का ही खेल है। हम सब जानते हैं कि प्रकाश का एक अणु (फैटान) भी कई रंगों के अणुओं से मिलकर बना होता है। मनुष्य शरीर की प्रकाश भी कई रंगों से बनी होती है। डा. जे.सी. ट्रस्ट ने अनेक रोगियों, अपराधियों तथा सामान्य व श्रेष्ठ व्यक्तियों का सूक्ष्म निरीक्षण करके बताया है कि जो मनुष्य जितना श्रेष्ठ और अच्छे गुणों वाला होता है, उसके मानव अणु दिव्य तेज और आभा वाले होते हैं, जबकि अपराधी और रोगी व्यक्तियों के प्रकाश अणु क्षीण और अन्धकारपूर्ण होते हैं। उन्होंने बहुत से मनुष्यों के काले धब्बों को अपनी दिव्य दृष्टि से देखकर उनके रोगी या अपराधी होने की बात को बताकर लोगों को स्वीकार करा दिया था कि सचमुच रोग और अपराधी वृत्तियां काले रंग के अणुओं की उपस्थिति का प्रतिफल होते हैं, मनुष्य अपने स्वभाव में चाहते हुए भी तब तक परिवर्तन नहीं कर सकता, जब तक यह दूषित प्रकाश-अणु अपने अन्दर विद्यमान बने रहते हैं।
यही नहीं जन्म-जन्मान्तरों तक खराब प्रकाश अणुओं की उपस्थिति मनुष्य से बलात्, दुष्कर्म कराती रहती है, इस तरह मनुष्य पतन के खड्डे में बार-बार गिरता और अपनी आत्मा को दुःखी बनाता रहता है। जब तक यह अणु नहीं बदलते न निष्क्रिय होते तब तक मनुष्य किसी भी परिस्थिति में अपनी दशा नहीं सुधार पाता।
यह तो है कि अपने प्रकाश अणुओं में यदि तीव्रता है तो उससे दूसरों को आकस्मिक सहायता दी जा सकती है। रोग दूर किये जा सकते हैं। खराब विचार वालों को कुछ देर के लिये अच्छे सन्त स्वभाव में बदला जा सकता है। महर्षि नारद के सम्पर्क में आते ही डाकू बाल्मीकि के प्रकाश अणुओं में तीव्र झटका लगा और वह अपने आपको परिवर्तित कर डालने को विवश हुआ। भगवान बुद्ध के इन प्रकाश अणुओं से निकलने वाली विद्युत विस्तार सीमा में आते ही डाकू अंगुलिमाल की विचारधारायें पलट गई थीं। ऋषियों के आश्रमों में गाय और शेर एक घाट पानी पी आते थे, वह इन प्रकाश-अणुओं की ही तीव्रता के कारण होता था। उस वातावरण से निकलते ही व्यक्तिगत प्रकाश अणु फिर बलवान हो उठने में लोग पुनः दुष्कर्म करने लगते हैं इसलिए किसी को आत्म-शक्ति या अपना प्राण देने की अपेक्षा भारतीय आचार्यों ने एक पद्धति का प्रसार किया था, जिसमें इन प्रकाश-अणुओं का विकास कोई भी व्यक्ति इच्छानुसार कर सकता था। देव उपासना उसी का नाम है। उपासना एक वैज्ञानिक प्रक्रिया है, जिसमें हम अपने भीतर के काले, मटमैले और पापाचरण को प्रोत्साहन देने वाले प्रकाश-अणुओं को दिव्य तेजस्वी, सदाचरण और शान्ति एवं प्रसन्नता की वृद्धि करने वाले मानव-अणुओं में परिवर्तित करते हैं। विकास की इस प्रक्रिया में किसी नैसर्गिक, तत्व, पिण्ड या ग्रह नक्षत्र की साझेदारी होती है—उदाहरण के लिए जब हम गायत्री की उपासना करते हैं तो हमारे भीतर के दूषित प्रकाश-अणुओं को हटाने और उसके स्थान पर दिव्य प्रकाश अणु भर देने का माध्यम ‘गायत्री’ का देवता अर्थात् सूर्य होता है।
वर्ण रचना और प्रकाश की दृष्टि से यह मानव-अणु भिन्न-भिन्न स्वभाव के होते हैं। मनुष्य का जो कुछ भी स्वभाव आज दिखाई देता है, वह इन्हीं अणुओं की उपस्थिति के कारण होता है, यदि इस विज्ञान को समझा जा सके तो न केवल अपना जीवन शुद्ध, सात्विक, सफल रोगमुक्त बनाया जा सकता है, वरन् औरों को भी प्रभावित और इन लाभों से लाभान्वित किया जा सकता है। परलोक और इन लाभों से लाभान्वित किया जा सकता है। परलोक और सद्गति के आधार भी यह प्रकाश अणु या मानव अणु ही हैं।
वस्तुयें हम प्रकाश की सहायता से देख सकते हैं। किन्तु साधारण प्रकाश कणों की सहायता से हम शरीर के कोश (सैल) को देखना चाहें तो वह इतने सूक्ष्म हैं कि उन्हें देख नहीं सकते। इलेक्ट्रानों को जब 5000 वोल्ट आवेश पर सूक्ष्मदर्शी (माइक्रोस्कोप) में भेजा जाता है तो उनकी तरंग दैर्ध्य श्वेत प्रकाश कणों की तुलना में 1/10000 भाग सूक्ष्म होता है, तब वह हाइड्रोजन के परमाणु का जितना व्यास होता है, उसके भी 42.3 वें हिस्से छोटे परमाणु में भी प्रवेश करके वहां की गतिविधियां दिखा सकती हैं। उदाहरण के लिए यदि मनुष्य की आंख एक इंच घेरे को देख सकती है तो उससे भी 500 अंश कम को प्रकाश-सूक्ष्मदर्शी और 10000 अंश छोटे भाग को सूक्ष्मदर्शी। इसी से अनुमान लगा सकते हैं कि मनुष्य शरीर के कोश (सेल्स) का चेतन भाग कितना सूक्ष्म होना चाहिए। इस तरह के सूक्ष्मदर्शी से जब कोश का निरीक्षण किया गया तो उसमें भी एक टिमटिमाता हुआ प्रकाश दिखाई दिया। चेतना या महत्तत्व इस प्रकार प्रकाश की ही अति सूक्ष्म स्फुरणा है, यह विज्ञान भी मानता है।
भारतीय योगियों ने ब्रह्मरन्ध्र स्थित जिन षटचक्रों की खोज की है, सहस्रार कमल उनसे बिल्कुल अलग सर्वप्रभुता सम्पन्न है। यह स्थान कनपटियों से दो इंच अन्दर भृकुटि से लगभग ढाई या तीन इंच अन्दर छोटे से पोले में प्रकाश पुंज के रूप में हैं। तत्वदर्शियों के अनुसार यह स्थान उलटे छाते या कटोरे के समान 17 प्रधान प्रकाश तत्वों से बना होता है, देखने में मर्करी लाइट के समान दिखाई देता है। छान्दोग्य उपनिषद् में सहस्रार दर्शन की सिद्धि पांच अक्षरों में इस तरह प्रतिपादित की ‘तस्य सर्वेषु लोकेषु कामचारी भवति’ अर्थात् सहस्रार प्राप्त कर लेने वाला योगी सम्पूर्ण भौतिक विज्ञान प्राप्त करने में समर्थ हो जाता है। यही वह शक्ति केन्द्र है जहां से मस्तिष्क शरीर का नियंत्रण करता है और विश्व में जो कुछ भी मानवकृत विलक्षण विज्ञान दिखाई देता है, उनका सम्पादन करता है।
आत्मा या चेतना जिन अणुओं से अपने को अभिव्यक्त करती है, वह यह प्रकाश अणु ही है, जबकि आत्मा स्वयं उससे भिन्न है। प्रकाश अणुओं को प्राण, विधायक शक्ति, अग्नि, तेजस कहना चाहिए, वह जितने शुद्ध दिव्य और तेजस्वी होंगे, व्यक्ति उतना ही महान् तेजस्वी, यशस्वी, वीर साहसी और कलाकार होगा। महापुरुषों के तेजोवलय उसी बात के प्रतीक हैं जबकि निकृष्ट कोटि के व्यक्तियों में यह अणु अत्यन्त शिथिल मन्द और काले होते हैं। हमें चाहिए कि हम इन दूषित प्रकाश अणुओं को दिव्य अणुओं में बदलें और अपने को भी महापुरुषों की श्रेणी में ले जाने का यत्न करें। गायत्री उपासना में सविता देवता का ध्यान न करने की प्रक्रिया इसलिए की जाती है कि अन्तर के कण कण में सर्वव्याप्त प्रकाश आभा की अधिक दीप्तिमान बनने का अवसर मिले। अपने ब्रह्म रंध्र में अवस्थित सहस्रांशु आदित्य सहस्रदल कमल को खिलाये और उसकी प्रत्येक पंखुड़ी में सन्निहित दिव्य कलाओं के उदय का लाभ साधक को मिले।
ब्रह्म विद्या का उद्गाता ‘तमसो मा ज्योतिर्गमय’ की प्रार्थना में इस दिव्य प्रकाश की याचना करता है। इसी की प्रत्येक जागृत आत्मा को आवश्यकता अनुभव होती हैं अस्तु गायत्री उपासक अपने जप प्रयोजन में इसी ज्योति को अन्तः भूमिका में अवतरण करने के लिये सविता का ध्यान करता है।
रीडर्स डाइजेस्ट नामक विश्व विख्यात मासिक पत्रिका में ‘‘सैम बेन्जोन की सूक्ष्म शक्तियां’’ नामक शीर्षक से यह पंक्तियां उद्धृत की गई हैं। पूर्वाभास की घटनाओं का उल्लेख करते हुए इसमें लेखक ने स्वीकार किया है कि ‘‘संसार में कोई एक ऐसा तत्व भी है, जो हाथ पांव विहीन होकर भी सब कुछ कर सकता है, कान न होकर भी सब कुछ सुन सकता है। आंखें उसके नहीं हैं पर वह अपने आपके प्रकाश में ही सारे विश्व को एक ही दृष्टि में देख सकता है। त्रिकाल में क्या संभाव्य है, यह उसको पता है। उसका सम्बन्ध विचार और भावनाओं से है, इसलिये यह कहा जा सकता है कि विचार और ज्ञान की शक्ति चिरभूत और सनातन है।’’
सैम वेन्सन अपनी मां के पास गया और कहा—मां! पिताजी घायल हो गये लगते हैं, मुझे अभी-अभी ऐसा आभास हुआ है कि वे जिस ट्राम से वापिस आ रहे थे, वह दुर्घटना ग्रस्त हो गई है।’’ मां ने बच्चे को झिड़की दी—‘‘तुझे योंही खयाल आया करते है, चल भाग जा अपना काम कर।’’
बच्चा अभी वहां से गया ही था कि सचमुच उसके पिता घायल अवस्था में घर लाये गये। पूछने पर ज्ञात हुआ कि सचमुच वे जिस ट्राम से आ रहे थे, वह दुर्घटना ग्रस्त हो गई, उसमें कई व्यक्ति मारे गये। मां को जितना पति की चोट का दुःख था, उससे अधिक पुत्र के पूर्वाभास का आश्चर्य। हमारे जीवन में ऐसे अनेक बार आत्मा से प्रकाश आता है, जिसमें हमें कुछ सत्य अनुभव होते हैं पर सांसारिकता में अनुरक्त मनुष्य उनसे आत्म-ज्ञान प्राप्त करने की आवश्यकता कहां अनुभव करते हैं।
क्रिसमस का त्यौहार आया। घर दावत दी गई। बहुत से मित्र, सम्बन्धी और पड़ौसी आये। लोगों ने अनेक तरह के उपहार दिये। उपहार के सब डिब्बे एक तरफ रख दिये। प्रीतिभोज चलता रहा। सबको बड़ी प्रसन्नता रही। हंसी-खुशी के वातावरण में सब कुछ सानन्द सम्पन्न हुआ।
मेहमान घरों को विदा हो गये तब डिब्बों की पड़ताल प्रारम्भ हुई। मां ने बच्चे से कहा—‘‘बेनसन! तू बड़ा भविष्य-दर्शी बनता है, बोल इस डिब्बे में क्या है।’’ ‘बेसबाल’ मां! ऐसे जैसे उसने खोलकर देखा हो। जबकि डिब्बा जैसा आया था, वैसे ही बन्द था, किसी को भी देखने तो क्या खोलने का भी अवकाश नहीं मिला था।
डिब्बा खोला गया। मां अवाक् रह गई। सचमुच डिब्बे में बेसबाल ही था।
अब जब एक्स-रे जैसे यन्त्र बन गये हैं, जो त्वचा के आवरण को भी पारकर के भीतर के चित्र खींच देते हैं। यह कोई आश्चर्यजनक बात नहीं रह गई है। किन्तु बिना किसी लेन्स या यन्त्र के डिब्बे के भीतर की वस्तु का ज्ञान प्राप्त कर लेना यह बताता है कि विचार और भावनाओं की शक्ति इतनी दिव्य और सूक्ष्म है कि गहन अन्तराल में छिपी हुई वस्तुओं का भी ज्ञान बिना किसी माध्यम के प्राप्त कर सकती है। इससे उसकी सर्वव्यापकता का पता चलता है।
सैम बेन्जोन की घरों में रंग-रोगन करने वाले एक पेन्टर मार्टिन से जान-पहचान थी। एक दिन वह अपने आफिस में बैठे हुए कुछ काम कर रहे थे। जैसे चलचित्र में एक रात सैम बेन्जोन घर पर सो रहे थे। एकाएक उनकी नींद टूटी उन्हें ऐसा लगा कि कहीं से किसी के जलने की दुर्गन्ध आ रही है। अपनी धर्म-पत्नी को जगाकर उन्होंने पूछा—‘‘देखना चाहिए कहीं कुछ जल तो नहीं रहा।’’ पति-पत्नी ने सारा घर ढूंढ़ लिया कहीं कोई आग या जलती हुई वस्तु नहीं मिली। बेन्जोन ने कहा—‘‘मुझे ऐसा लगता है, दुर्गन्ध तुम्हारी मां के घर से आ रही है।’’
पत्नी ने बिदक कर कहा—‘‘पागल हुये हो, मेरी माता जी का घर आठ मील दूर है, इतनी दूर से कोई दुर्गन्ध आ सकती है।’’ सैम बेन्जोन ने थोड़ा जोर देकर कहा—‘‘तुम जानती हो मेरा आत्म-विश्वास प्रायः अचूक होता है। देखो टेलीफोन करके ही पूछ लो, सचमुच कोई बात तो नहीं।’’
पत्नी ने रिंग बजाई उधर से कोई आवाज नहीं आई किसी ने टेलीफोन नहीं उठाया। लगभग 15 मिनट तक प्रयत्न करने के बाद भी जब उधर से किसी ने टेलीफोन ‘रिसीव’ नहीं किया तो पत्नी ने झिड़ककर कहा—‘‘सब लोग सो रहे होंगे, व्यर्थ ही परेशान किया। पर तभी उधर से ‘हलो’ की आवाज आई—मां ने बताया घर के पिछले हिस्से में आग लग गई थी, पड़ौसियों की सहायता से उसे बुझाया जा सका। उस घटना का उन पर कुछ ऐसा प्रभाव पड़ा कि फिर उन्होंने आत्मा के अस्तित्व से कभी इनकार नहीं किया। वे रात भर इस विलक्षण तत्व के बारे में सोचती रहीं। यह तो एक व्यक्ति से संबंधित घटना हुई। कई बार साधारण व्यक्तियों को सामान्य अवस्था में भी इस प्रकार की अनुभूतियां होती हैं, जो लगती तो स्वप्न जैसी हैं परन्तु उनकी प्रणादता के कारण वे वास्तविक सी भी लगती है। उस समय की अनुभूतियों पर भले ही विश्वास न हो, परन्तु कालान्तर में वही घटनायें सत्य सिद्ध होती हैं।
पूर्वाभास और स्वप्न
सन् 1943 की रात, द्वितीय महायुद्ध, पैसफिक सागर में तेरहवीं एयर फोर्स बटालियन के कमाण्डर जनरल नेथान एफ टूवीनिंग दुर्भाग्यवश युद्ध के दौरान अपने बेड़े से अगल-अगल पड़ गये। वे एस्पेराइट सान्तो एअर बेस के लिए अपने चौदह साथियों के साथ रवाना हुए थे। युद्ध के दिन थे ही बहुत खोज की गई पर उनका वह उनके साथियों का कुछ भी पता नहीं चला।
जनरल नेथान की पत्नी उस समय अमरीका में अपने घर में रही थीं। प्रगाढ़ निद्रा के समय उन्हें लगा उनके पति उनके पास खड़े हैं और बेचैनी पूर्वक उसे जगा रहे हैं। श्रीमती ट्वीनिंग ने अपने पति का मुंह और हाथ स्पष्ट देखा उन्होंने पति के हाथ पकड़ने चाहे तभी उनकी एकाएक नींद टूट गई। स्वप्न उन्होंने पहले भी देखे थे किन्तु यह स्वप्न उनसे विचित्र था। जग जाने पर भी वह ट्वीनिंग को इस प्रकार रोमांचित कर रहा था कि उनकी गर्दन के बाल—सिहर कर खड़े हो गये थे।
उसके बाद उन्हें नींद नहीं आई। रात पूरी जागकर बिताई। सवेरा हो चला था। तभी एकाएक टेलीफोन की घण्टी बजी। उनकी एक सहेली का फोन था। उसके पति भी दक्षिणी पैसफिक सागर पर सैनिक अफसर थे इसलिये श्रीमती के हृदय में रात की रोमांचकारी घटना ने फिर एक बार उत्तेजना उत्पन्न की। उन्होंने जल्दी-जल्दी में पूछा—कही सब ठीक तो है ना! उधर आवाज आई सब ठीक पर मेरा मन न जाने क्यों बड़ी देर से बार-बार तुम्हें ही याद कर रहा है मैंने तुम्हारे पास आने का निश्चय किया है कहीं जाना मत, मैं दो तीन दिन में तुम्हारे पास आ रही हूं।
श्रीमती ट्वीनिंग को अब भी आशंका थी कि उसे कोई बात कहनी है जो अभी छिपाई जा रही है किन्तु जब वे घर आई तब भी ऐसी कोई बात उन्होंने नहीं बताई। इतने पर भी श्रीमती ट्वीनिंग की उस स्वप्न के प्रति आशंका गई नहीं।
दो दिन रहकर जब उनकी सहेली वापस लौट गई तब श्रीमती ट्वीनिंग को सरकारी तौर पर जानकारी दी गई कि उनके पति अपने बेड़े के साथ लापता हैं उनकी खोज की जा रही है। खोज करने वाले अधिकारी नियुक्त कर दिये गये हैं। इस समाचार से उनका मन बड़ा व्यग्र हो रहा था। थोड़ी ही देर बाद दूसरी सूचना मिली जिसमें यह बताया गया था कि जहाज मिल गया है। और श्री ट्वीनिंग शीघ्र ही उनसे मिलने घर आ रहे हैं।
भेंट होने पर श्रीमती ट्वीनिंग ने बताया कि सचमुच उस दिन ठीक उसी समय वे संकट में पड़े थे जिस समय उन्होंने स्वप्न देखा। उन्होंने यह भी बताया कि कितने आश्चर्य की बात है कि ठीक उसी समय मुझे—तुम्हारी (उनकी पत्नी) तीव्र याद आई थी इस पारस्परिक अनुभूति का कारण क्या हो सकता है? इसके अतिरिक्त जिस ऑफीसर ने खोज की वह उनकी सहेली का ही पति था उसे किसने वहां आने के लिये प्रेरित किया यह सब ऐसे रहस्य हैं
जीवन में जो कुछ प्रकट है वही सत्य नहीं वरन् सत्य का सागर तो अदृश्य में छुपा हुआ है। और वह विचित्र संयोगों के मध्य प्रकट हुआ करता है।
सत्य की खोज में ‘‘इन सर्च आफ दि ट्रुथ’’ पुस्तक में इस घटना का हवाला देते हुए-श्रीमती रूथ मान्टगुमरी लिखती हैं कि युद्धों के समय पाशविक वृत्तियां एकाएक आत्म-मुखी हो उठती है तब कैसे भी व्यक्तियों को अतीन्द्रिय अनुभूतियां स्पष्ट रूप से होने लगती हैं। युद्ध के मैदानों में लड़ने वाले सैनिक और उसके सम्बन्धी रिश्तेदारों के बीच एक द्रागढ़ भावुक सम्बन्ध स्थापित हो जाता है वही इस अति मानसिक अनुभूतियों की सत्यता का कारण होता है। ध्यान की गहन अवस्था में होने वाले भविष्य की घटनाओं के पूर्वाभास भी इसी कारण होते हैं कि उस समय एक ओर से मानसिक विद्युत दूसरी ओर से पूरी क्षमता के साथ सम्बन्ध जोड़ देती और जिस प्रकार लेजर यन्त्र, दूरदर्शी (टेलिविजन) यन्त्र हमें दूर के दृश्य व समाचार बताने दिखाने लगते हैं उसी प्रकार यह भाव सम्बन्ध हमें दूरवर्ती स्थानों की घटनाओं के सत्य आभास कराने लगते हैं।
द्वितीय विश्वयुद्ध की ही एक अन्य घटना का उल्लेख अपने इसी अध्याय में करते हुये श्रीमती रूथ मान्टगुमरी ने लिखा है कि चैकोस्लोवाकिया तथा थाईलैंड के भूतपूर्व राजदूत जो उसके बाद ही जापान के राजदूत नियुक्त हुए श्री जानसन तब मुकड़ेन नगर में थे। युद्ध की आशंका से बच्चों को अलग कर दिया गया। उनकी धर्मपत्नी श्रीमती पैट्रोसिया जान ने कैलीफोर्निया के लैगुना बीच में एक मकान ले लिया और वहीं रहने लगी।
इस बीच श्रीमती जानसन ने कई बार जापान के समाचार जानने के लिये अपना रेडियो मिलाया पर रेडियो ने वहां का मीटर पकड़ा ही नहीं। एक दिन पड़ौस की एक स्त्री ने बताया कि उनका रेडियो जापानी प्रसारणों को (रेडियो ब्राडकास्टिंग) खूब अच्छी तरह पकड़ लेता है। तीन महीने तक श्रीमती जानसन ने इस तरफ कुछ ध्यान ही नहीं दिया। एक दिन उन्हें एकाएक रेडियो सुनने की इच्छा हुई। रेडियो का स्विच घुमाया ही था कि आवाज आई—हम रेडियो स्टेशन मुकड़ेन से बोल रहे हैं अब आप एक अमेरिकन ऑफीसर वी. जानसन को सुनेंगे।’’
विस्मय विस्फारित श्रीमती जानसन एकाग्र चित्त बैठ गई—अगले ही क्षण जो आवाज आई वह उनके पति की ही आवाज थी। वे बोल रहे—मैं बी. एलेस्सिन जानसन मुकड़ेन से बोल रहा हूं जो भी कैलीफोर्निया अमेरिका का नागरिक इसे सुने कृपया मेरी पत्नी पैट्रोसिया जान्सन या मेरे माता-पिता श्री व श्रीमती कार्ल टी जानसन तक पहुंचायें और बतायें कि मैं यहां कैद में हूं स्वस्थ हूं, खाना अच्छा मिलता है और आशा है कि कैदियों की अदला-बदली में शीघ्र ही छूट जाऊंगा, अपनी पत्नी और बच्चों को प्यार भेजता हूं।’’
दो माह पीछे जानसन कैदियों की बदली में छूट कर आ गये। पैट्रोसिया पति से मिलने गई तो वहां उसे पति से क्षणिक भेंट होने दी क्योंकि कुछ समय के लिये श्री एलेक्सिस जानसन को तुरन्त जहाज पर जाना था। पैट्रोसिया को थोड़ी ही देर में घर लौटना पड़ा। उसकी सहेलियां उसे घुमाने ले गईं पर अभी वे एक सिनेमा में बैठी ही थी कि पैट्रासिया एकाएक उठकर बाहर निकल आईं और अपने घर को फोन मिलाया तो दूसरी ओर से अलेक्सिस जानसन बोले और बताया कि मैं यहां हूं मुझे जहाज में नहीं जाना पड़ा। पैट्रीसिया सिनेमा छोड़कर घर चली आई।
. 3 माह तक कभी भी रेडियो सुनने की आवश्यकता अनुभव न करना और ठीक उसी समय जबकि पति संदेशा देने वाले हों रेडियो सुनने की अन्तःकरण की तीव्र प्रेरणा का रहस्य क्या हो सकता है? कौन सी शक्ति थी जिसने पैट्रोसिया को सिनेमा के समय फोन पर पहुंचने की प्रेरणा दी जब इन बातों पर विचार करते हैं तो पता चलता है कोई एक अदृश्य शक्ति है अवश्य जिसने मानव मात्र को एक भावनात्मक सम्बन्ध में बांध अवश्य रखा है। हम जब तक उसे नहीं जानते तब तक मनुष्य शरीर की सार्थकता कहां? दूरवर्ती स्वजनों के साथ घटित होने वाली घटनाओं तथा भक्तिवताओं का पूर्वाभास कितनी तीन ही बार है विचित्र ढंग से सामने आता है कि न तो उन्हें झुठलाया जा सकता है और न उनका आधार अथवा कारण समझ में आता है।
इस संदर्भ में अमेरिकी मनोवैज्ञानिक डा. नेलसन वाल्ट का कथन है कि—मनुष्य के अन्दर एक बलवती आत्म-चेतना रहती है, जिसे जिजीविषा एवं प्राणघाती शक्ति कह सकते हैं। यह न केवल रोग निरोध अथवा अन्य आत्म-रक्षा जैसे अस्तित्व संरक्षण के अविज्ञात साधन जुटाती है वरन् चेतना जगत में चल रही उन हलचलों का पता लगा लेती है जो अपने आगे विपत्ति के रूप में आने वाली हैं। पूर्वाभास बहुधा अपने ऊपर तथा अपने सम्बन्धियों के ऊपर आने वाले संकटों के ही होते हैं। सुख-सुविधा की परिस्थितियों का ज्ञान कभी-कभी या किसी-किसी को ही हो पाता है।
परा मनोविज्ञानी हैराल्ड कहते हैं स्वप्न में ही नहीं, अपितु जागृत स्थिति में भी कई बार बिलकुल सही ऐसे पूर्वाभास होते पाये गये हैं जिनका सामयिक परिस्थितियों से कोई सीधा सम्बन्ध नहीं था। उन्होंने फ्रांसीसी उड्डयन संस्थान में काम करने वाले एक यान चालक की विमान दुर्घटना से मृत्यु होने का उल्लेख किया है और बताया है कि ठीक दुर्घटना के समय ही रास्ता चलती उसकी एकमात्र बहिन को यह अनुभव हुआ था कि अभी-अभी उनका भाई वायुयान दुर्घटना में मरा है। दूसरे दिन ठीक वैसा ही समाचार भी उसे मिल गया। इस प्रकार के प्रसंगों में व्यक्तियों की पारस्परिक आत्मीयता की सघनता का बहुत हाथ रहता है।
मनःशास्त्री हेनब्रुक ने अपनी शोधों में इस बात का उल्लेख किया है कि अतीन्द्रिय क्षमता पुरुषों की अपेक्षा नारियों में कहीं अधिक होती है। दिव्य अनुभूतियों की अधिकता उन्हें ही क्यों मिलती है इसका कारण वे नारी स्वभाव में कोमलता, सहृदयता जैसे सौम्य गुणों के आधिक्य को ही महत्व देते हैं। उनकी दृष्टि में अध्यात्म क्षेत्र नारी को अपनी प्रकृति प्रदत्त विशेषताओं के कारण सहज ही अधिक सफलता मिलती रहती है।
बीज रूप से यह आलौकिक एवं अतीन्द्रिय क्षमता हर किसी में मौजूद है। और यह सम्भावना हर किसी के सामने खुली पड़ी है कि उस दिव्य शक्ति को प्रयत्न पूर्वक विकसित करके न केवल अपना किन्तु दूसरों का भी भला कर सके।
मनुष्य शरीर में इन सम्भावनाओं को किन स्थानों पर हो, इस सम्बन्ध में भारतीय योगियों की मान्यता है कि मेरुस्तम्भ के शिखर पर सीधे ऊपर खोपड़ी के बीच में बाल स्थान से थोड़ा हटाकर ललिमा लिये डा. भूरे रंग का कोण की शकल की वस्तु मस्तिष्क की पिछली कोठरी के आगे तीसरी कोठरी की तह से मिली हुई पायी जाती है। यह गुछी का पुन्ज है, जिसमें छोटे-छोटे खुरखुरे चूनेदार अणु होते हैं। इन्हें ‘‘मस्तिष्क बालुका’’ कहा जाता है। पश्चिमी वैज्ञानिक इसे पाइ-लग्लैन्ड या पाइनल बाडी कहते हैं। पर वे अभी उसके कार्य अभिप्राय और आयोग से बिलकुल अनभिज्ञ हैं। मेरी जानकारियां ही इस संबंध में मिलती हैं।
दूरवर्ती वस्तुओं और सूक्ष्म से सूक्ष्म मन तक लगाव का कारण योगी लोग इसी स्थान को मानते हैं। यह आत्मा की ज्ञान-शक्ति का कोप कहा जा सकता है। इस अवयव के लिये यह आवश्यक नहीं कि इसमें कोई बाह्य द्वार हो जैसा कि कान, नाक, मुंह में होता है। इसमें से उठने वाले विचार कम्पन स्थूल पदार्थों का भेदन भी उसी तरह कर जाते हैं, जिस तरह ‘एक्सरेज’। वह सूक्ष्म विचार कम्पन पहाड़ों की चट्टानों, लोहे आदि का भी भेदन कर उसके भीतर की आणविक संरचना का ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं।
उल्लेखनीय है कि जमशेद जी टाटा को खनिज और स्पात का कारखाना खड़ा करने का स्थान स्वामी विवेकानन्द ने लन्दन में तब बताया था, जब श्री टाटा जी वहां उसकी स्वीकृति लेने गये थे। खनिज पदार्थ, पानी और तेल के कुओं तक का पता धरती के भीतर हजारों फीट सिंचाई में हो तो वहां भी यह विचार कम्पन पहुंचकर वहां की स्थिति का रहस्य आत्मा को बता सकते हैं। उन दिनों पाकिस्तान से दिल्ली आये हुए 40 हजार शरणार्थियों के लिए फरीदाबाद के निकट एक बस्ती बसाई जा रही थी। योजना पूरी तैयार थी, पर पानी का विकट प्रश्न था। यमुना वहां से 18 मीन दूर थी इतनी लम्बी पाइप लाइन तुरन्त बिछाना कठिन भी था और खर्चीला भी इंजीनियर पहले ही बता चुके थे उस इलाके की जमीन में नलकूप लगाये जाने योग्य पानी नहीं है। समस्या बड़ी विकट थी।
तभी श्री नेहरू को याद आया कि जाम साहब नवा नगर ने एक बार उनसे किसी ऐसे व्यक्ति की चर्चा की थी जिसमें भूमिगत पानी का पता लगाने की अद्भुत शक्ति है। तत्काल जामसाहब के पास सन्देश पहुंचाया गया और वह व्यक्ति साधारण किसान की वेषभूषा वाला ‘‘पानी वाला महाराज’’ दिल्ली जा पहुंचा। महाराज को लेकर उस क्षेत्र की 3500 एकड़ जमीन का पर्यवेक्षण किया। उसने पैर से ठोक-ठोक कर कई जगह की जमीन जांची और दस जगहों पर निशान लगवाये कि यहां पानी है, तदनुसार नलकूप खोदे गये और सचमुच ही वहां जल के गहरे स्रोत निकले। इनमें से हर कुंआ अभी भी तीन हजार गैलन पानी हर घन्टे की गति से दें रहा है। इससे पूर्व इस पथरीले इलाके में इतना पानी मिलने की किसी इंजीनियर ने कल्पना भी नहीं की थी।
मस्तिष्क का ‘कोनोला अणु’ बेतार के तार की तरह अदृश्य जगत् के सूक्ष्म से सूक्ष्म कम्पन को भी पकड़ लेता है, इसलिये जो बात मन में तो न हो पर अवचेतन मन में हो, उसे भी जाना जा सकता है। उदाहरण के लिये कौड़ी वाले बैल देखें होंगे जो अपने स्वामी के संकेत पर बता देते हैं कि 5) का नोट किसकी जेब में है—बैल चलता है और उस आदमी के पास जा पहुंचता है। वह आदमी पूछता है—इनमें ‘राम-शंकर’ कौन है, उस समय भीड़ में खड़ा रामशंकर अपने मन में अपना नाम भी नहीं लेता, उस समय तो उसे केवल कौतूहल होता है पर चूंकि उसके अवचेतन मस्तिष्क में यह बात रहती है कि मैं रामशंकर हूं, उसी को बैल का वह अवयव पकड़ा लेता है और उस व्यक्ति के पास जाकर बता देता है।
इस तरह के खेल प्रायः सभी ने देखे होंगे अभी तक इनको चमत्कार माना जाता है, पर मनुष्येत्तर जीवों में सभी ये इस तरह की जानशक्ति के आधार पर यह पता लग सकता है कि आत्मा का अस्तित्व मनुष्य में ही नहीं अन्य प्राणियों में भी है। जिस दिन यह मान्यता लोगों के मस्तिष्क में उतर जायेगी, उसी दिन पुनर्जन्म व कर्म फल के अनेक रहस्य भी मालूम होने लगेंगे और तब अब की तरह चोटी छल कपट, धोखा, अपराध अत्याचार करने वाले लोगों को मालूम होगा कि इनके कारण दूसरी योनियों में रहकर किस तरह उठाना पड़ा और देहासक्तिऐ अब किस तरह क्या जा सकता है।
अध्यात्म विज्ञान में स्थान-स्थान पर प्रकाश की साधना और प्रकाश की याचना की चर्चा मिलती है। यह प्रकाश बल्ब, बत्ती अथवा सूर्य, चंद्र आदि से निकलने वाला उजाला नहीं वरन् वह परम ज्योति है इस विश्व चेतना का आलोक बनकर जगमगा रही है। गायत्री का उपास्य सविता देवता इसी परम ज्योति को कहते हैं। इसका आस्तित्व ऋतम्भरा प्रज्ञा के रूप में प्रत्यक्ष और कण-कण में संव्याप्त जीवन ज्योति के रूप में प्रत्येक व्यक्ति अपने भीतर भी देख सकता है। इसकी जितनी मात्रा जिसके भीतर विद्यमान हो समझना चाहिए कि उसमें उतना ही अधिक ईश्वरीय अंश आलोकित हो रहा है।
मस्तिष्क के मध्य भाग से प्रकाश कणों का एक फव्वारा सा फूटता रहता है। उसकी उछलती हुई तरंगें एक वृत्त बनाती हैं और फिर अपने अपने मूल उद्गम में लौट जाती हैं। यह रेडियो प्रसारण और संग्रहण जैसी प्रक्रिया है, ब्रह्मरंध्र से छूटने वाली ऊर्जा अपने भीतर छिपी हुई भाव स्थिति को विश्व-ब्रह्माण्ड में ईथर कम्पनी द्वारा प्रवाहित करती रहती है, इस प्रकार मनुष्य अपनी चेतना का परिचय और प्रभाव समस्त संसार में फेंकता रहता। फुहारें की लौटती हुई धाराएं अपने साथ विश्व-व्यापी असीम ज्ञान की नवीनतम घटनात्मक जानकारियां लेकर लौटती हैं यदि उन्हें ठीक तरह समझा जा सके, गृहण किया जा सके, तो कोई भी व्यक्ति भूतकालीन और वर्तमान काल की अत्यन्त सुविस्तृत और महत्वपूर्ण जानकारियां प्राप्त कर सकता है। व्यक्ति में प्रवाह ग्रहण करने की और प्रसारित करने की जो क्षमता है उसका माध्यम यह ब्रह्मरंध्र अवस्थित ध्रुव संस्थान ही है। पृथ्वी पर अन्य ग्रहों का प्रचुर अनुदान आता है तथा उसकी विशेषताएं अन्यत्र चली जाती हैं। यह आदान-प्रदान का कार्य ध्रुव केन्द्रों द्वारा सम्पन्न होता है। शरीर के दो ध्रुव हैं—एक मस्तिष्क, दूसरा जनन गह्वर। चेतनात्मक विकरण मस्तिष्क से और शक्ति परक ऊर्जा प्रवाह झननगह्वर से सम्बन्धित है। सूक्ष्म आदान-प्रदान की अति महत्वपूर्ण प्रक्रिया इन्हीं केन्द्रों के माध्यम से संचालित होती हैं।
शारीरिक और मानसिक स्थिति के अनुरूप तेजोवलय की स्थिरता बनती है। यदि स्थिति बदलने लगे तो प्रकाश पुंज की स्थिति भी बदल जायेगी। इतना ही नहीं समय समय पर मनुष्य के बदलते हुए स्वभाव तथा चिन्तन स्तर के अनुरूप उसमें सामयिक परिवर्तन होते रहते हैं। सूक्ष्म-दर्शी उसकी भिन्नताओं को रंग बदलते हुए परिवर्तनों के रूप में देख सकते हैं। शान्ति और सज्जनता की मनःस्थिति हलके नीले रंग में देखी जायगी। विनोदी, कामुक, सत्तावान, वैभवशाली, विशुद्ध व्यवहार कुशल स्तर की मनोभूमि पीले रंग की होती है। क्रोधी, अहंकारी, क्रूर, निष्ठुर, स्वार्थी, हठी और मूर्ख मनुष्य लाल वर्ण के तेजोवलय से घिरे रहते हैं। हरा रंग सृजनात्मक एवं कलात्मक प्रवृत्ति का द्योतक है। गहरा बैगनी चंचलता और अस्थिर मति का प्रतीक है। धार्मिक ईश्वर भक्त और सदाचारी व्यक्तियों की आभा केसरिया रंग की होती है। इसी प्रकार विभिन्न रंगों का मिश्रण मनुष्य के गुण, कर्म, स्वभाव के परिवर्तनों के अनुसार बदलता रहता है। यह तेजोवलय सदा स्थिर नहीं रहता। बदलती हुई मनोवृत्ति प्रकाश पुंज के रंगों में परिवर्तन कर देती है। यह रंग स्वतंत्र रूप से कुछ नहीं। मनोभूमि में होने वाले परिवर्तन, शरीर से निसृत होते रहने वाले ऊर्जा कम्पनी की घटती-बढ़ती संख्या के आधार पर आंखों को अनुभव होते हैं। वैज्ञानिक उन्हें ‘‘फ्रीक्वेन्सी आव दी वेयस’’ कहते हैं।
दिव्य दर्शन (क्लेयर वाइन्स) दिव्य अनुभव (साइको मैन्ट्री) प्रभाव प्रेषण (टेलिपैथी) संकल्प प्रयोग (सजैशन) जैसे प्रयोग थोड़ी आत्मशक्ति विकसित होते ही आसानी से किये जा सकते हैं। इन विद्याओं पर पिछले दिनों से काफी शोध कार्य होता चला आ रहा है और उन प्रयासों के फलस्वरूप उपयोगी, निष्कर्ष सामने आये हैं। परामनोविज्ञान अतीन्द्रिय विज्ञान, मैटाफिजिक्स जैसी चेतनात्मक विद्यायें भी अब रेडियो विज्ञान तथा इलेक्ट्रोनिक्स की ही तरह विकसित हो रही हैं। अचेतन मन की सामर्थ्य के सम्बन्ध में जैसे-जैसे रहस्यमय जानकारियों के पर्त खुलते हैं, वैसे-वैसे यह स्पष्ट होता जाता है कि नर-पशु लगने वाला मनुष्य वस्तुतः असीम और अनन्त क्षमताओं का भण्डार है। कठिनाई इतनी भर है कि उसकी अधिकांश विकृतियां प्रसुप्त अविज्ञात स्थिति में पड़ी हैं। प्रकाश रश्मियों की लम्बाई एक इंच के सोलह से तीस लाखवें हिस्से के बराबर होती है। रेडियो पर सुनी जाने वाली ध्वनि तरंगों की गति एक सैकिण्ड के एक लाख छियासी हजार मील की होती है, वह एक सैकिण्ड में सारी धरती की सात परिक्रमा कर लेती हैं। शब्द और प्रकाश तरंगों का आकार एवं प्रवाह इतना सूक्ष्म एवं गतिशील है कि उन्हें बिना सूक्ष्म यन्त्रों की सहायता से हमारी इन्द्रियां अनुभव नहीं कर सकती हैं।
डा. जे.सी. ने ‘अणु और आत्मा’ ग्रन्थ में स्वीकार किया है कि मानव अणुओं की प्रकाश वाष्प न केवल मनुष्यों में वरन् अन्य जीवधारियों, वृक्ष वनस्पति, औषधि आदि में भी होती है, यह प्रकाश अणु ही जीवधारी के यथार्थ शरीरों का निर्माण करते हैं खनिज पदार्थों से बना मनुष्य या जीवों का शरीर तो तभी तक स्थिर रहना है, जब तक यह प्रकाश अणु शरीर में रहते हैं। इन प्रकाश अणुओं के हटते ही स्थूल शरीर बेकार हो जाता है, फिर उसे जलाते या गाढ़ते ही बनता है। खुला छोड़ देने पर तो उसकी सड़ांद से उसके पास एक क्षण भी ठहरना कठिन हो जाता है।
स्वभाव, संस्कार, इच्छाएं, क्रिया शक्ति यह सब इन प्रकाश अणुओं का ही खेल है। हम सब जानते हैं कि प्रकाश का एक अणु (फैटान) भी कई रंगों के अणुओं से मिलकर बना होता है। मनुष्य शरीर की प्रकाश भी कई रंगों से बनी होती है। डा. जे.सी. ट्रस्ट ने अनेक रोगियों, अपराधियों तथा सामान्य व श्रेष्ठ व्यक्तियों का सूक्ष्म निरीक्षण करके बताया है कि जो मनुष्य जितना श्रेष्ठ और अच्छे गुणों वाला होता है, उसके मानव अणु दिव्य तेज और आभा वाले होते हैं, जबकि अपराधी और रोगी व्यक्तियों के प्रकाश अणु क्षीण और अन्धकारपूर्ण होते हैं। उन्होंने बहुत से मनुष्यों के काले धब्बों को अपनी दिव्य दृष्टि से देखकर उनके रोगी या अपराधी होने की बात को बताकर लोगों को स्वीकार करा दिया था कि सचमुच रोग और अपराधी वृत्तियां काले रंग के अणुओं की उपस्थिति का प्रतिफल होते हैं, मनुष्य अपने स्वभाव में चाहते हुए भी तब तक परिवर्तन नहीं कर सकता, जब तक यह दूषित प्रकाश-अणु अपने अन्दर विद्यमान बने रहते हैं।
यही नहीं जन्म-जन्मान्तरों तक खराब प्रकाश अणुओं की उपस्थिति मनुष्य से बलात्, दुष्कर्म कराती रहती है, इस तरह मनुष्य पतन के खड्डे में बार-बार गिरता और अपनी आत्मा को दुःखी बनाता रहता है। जब तक यह अणु नहीं बदलते न निष्क्रिय होते तब तक मनुष्य किसी भी परिस्थिति में अपनी दशा नहीं सुधार पाता।
यह तो है कि अपने प्रकाश अणुओं में यदि तीव्रता है तो उससे दूसरों को आकस्मिक सहायता दी जा सकती है। रोग दूर किये जा सकते हैं। खराब विचार वालों को कुछ देर के लिये अच्छे सन्त स्वभाव में बदला जा सकता है। महर्षि नारद के सम्पर्क में आते ही डाकू बाल्मीकि के प्रकाश अणुओं में तीव्र झटका लगा और वह अपने आपको परिवर्तित कर डालने को विवश हुआ। भगवान बुद्ध के इन प्रकाश अणुओं से निकलने वाली विद्युत विस्तार सीमा में आते ही डाकू अंगुलिमाल की विचारधारायें पलट गई थीं। ऋषियों के आश्रमों में गाय और शेर एक घाट पानी पी आते थे, वह इन प्रकाश-अणुओं की ही तीव्रता के कारण होता था। उस वातावरण से निकलते ही व्यक्तिगत प्रकाश अणु फिर बलवान हो उठने में लोग पुनः दुष्कर्म करने लगते हैं इसलिए किसी को आत्म-शक्ति या अपना प्राण देने की अपेक्षा भारतीय आचार्यों ने एक पद्धति का प्रसार किया था, जिसमें इन प्रकाश-अणुओं का विकास कोई भी व्यक्ति इच्छानुसार कर सकता था। देव उपासना उसी का नाम है। उपासना एक वैज्ञानिक प्रक्रिया है, जिसमें हम अपने भीतर के काले, मटमैले और पापाचरण को प्रोत्साहन देने वाले प्रकाश-अणुओं को दिव्य तेजस्वी, सदाचरण और शान्ति एवं प्रसन्नता की वृद्धि करने वाले मानव-अणुओं में परिवर्तित करते हैं। विकास की इस प्रक्रिया में किसी नैसर्गिक, तत्व, पिण्ड या ग्रह नक्षत्र की साझेदारी होती है—उदाहरण के लिए जब हम गायत्री की उपासना करते हैं तो हमारे भीतर के दूषित प्रकाश-अणुओं को हटाने और उसके स्थान पर दिव्य प्रकाश अणु भर देने का माध्यम ‘गायत्री’ का देवता अर्थात् सूर्य होता है।
वर्ण रचना और प्रकाश की दृष्टि से यह मानव-अणु भिन्न-भिन्न स्वभाव के होते हैं। मनुष्य का जो कुछ भी स्वभाव आज दिखाई देता है, वह इन्हीं अणुओं की उपस्थिति के कारण होता है, यदि इस विज्ञान को समझा जा सके तो न केवल अपना जीवन शुद्ध, सात्विक, सफल रोगमुक्त बनाया जा सकता है, वरन् औरों को भी प्रभावित और इन लाभों से लाभान्वित किया जा सकता है। परलोक और इन लाभों से लाभान्वित किया जा सकता है। परलोक और सद्गति के आधार भी यह प्रकाश अणु या मानव अणु ही हैं।
वस्तुयें हम प्रकाश की सहायता से देख सकते हैं। किन्तु साधारण प्रकाश कणों की सहायता से हम शरीर के कोश (सैल) को देखना चाहें तो वह इतने सूक्ष्म हैं कि उन्हें देख नहीं सकते। इलेक्ट्रानों को जब 5000 वोल्ट आवेश पर सूक्ष्मदर्शी (माइक्रोस्कोप) में भेजा जाता है तो उनकी तरंग दैर्ध्य श्वेत प्रकाश कणों की तुलना में 1/10000 भाग सूक्ष्म होता है, तब वह हाइड्रोजन के परमाणु का जितना व्यास होता है, उसके भी 42.3 वें हिस्से छोटे परमाणु में भी प्रवेश करके वहां की गतिविधियां दिखा सकती हैं। उदाहरण के लिए यदि मनुष्य की आंख एक इंच घेरे को देख सकती है तो उससे भी 500 अंश कम को प्रकाश-सूक्ष्मदर्शी और 10000 अंश छोटे भाग को सूक्ष्मदर्शी। इसी से अनुमान लगा सकते हैं कि मनुष्य शरीर के कोश (सेल्स) का चेतन भाग कितना सूक्ष्म होना चाहिए। इस तरह के सूक्ष्मदर्शी से जब कोश का निरीक्षण किया गया तो उसमें भी एक टिमटिमाता हुआ प्रकाश दिखाई दिया। चेतना या महत्तत्व इस प्रकार प्रकाश की ही अति सूक्ष्म स्फुरणा है, यह विज्ञान भी मानता है।
भारतीय योगियों ने ब्रह्मरन्ध्र स्थित जिन षटचक्रों की खोज की है, सहस्रार कमल उनसे बिल्कुल अलग सर्वप्रभुता सम्पन्न है। यह स्थान कनपटियों से दो इंच अन्दर भृकुटि से लगभग ढाई या तीन इंच अन्दर छोटे से पोले में प्रकाश पुंज के रूप में हैं। तत्वदर्शियों के अनुसार यह स्थान उलटे छाते या कटोरे के समान 17 प्रधान प्रकाश तत्वों से बना होता है, देखने में मर्करी लाइट के समान दिखाई देता है। छान्दोग्य उपनिषद् में सहस्रार दर्शन की सिद्धि पांच अक्षरों में इस तरह प्रतिपादित की ‘तस्य सर्वेषु लोकेषु कामचारी भवति’ अर्थात् सहस्रार प्राप्त कर लेने वाला योगी सम्पूर्ण भौतिक विज्ञान प्राप्त करने में समर्थ हो जाता है। यही वह शक्ति केन्द्र है जहां से मस्तिष्क शरीर का नियंत्रण करता है और विश्व में जो कुछ भी मानवकृत विलक्षण विज्ञान दिखाई देता है, उनका सम्पादन करता है।
आत्मा या चेतना जिन अणुओं से अपने को अभिव्यक्त करती है, वह यह प्रकाश अणु ही है, जबकि आत्मा स्वयं उससे भिन्न है। प्रकाश अणुओं को प्राण, विधायक शक्ति, अग्नि, तेजस कहना चाहिए, वह जितने शुद्ध दिव्य और तेजस्वी होंगे, व्यक्ति उतना ही महान् तेजस्वी, यशस्वी, वीर साहसी और कलाकार होगा। महापुरुषों के तेजोवलय उसी बात के प्रतीक हैं जबकि निकृष्ट कोटि के व्यक्तियों में यह अणु अत्यन्त शिथिल मन्द और काले होते हैं। हमें चाहिए कि हम इन दूषित प्रकाश अणुओं को दिव्य अणुओं में बदलें और अपने को भी महापुरुषों की श्रेणी में ले जाने का यत्न करें। गायत्री उपासना में सविता देवता का ध्यान न करने की प्रक्रिया इसलिए की जाती है कि अन्तर के कण कण में सर्वव्याप्त प्रकाश आभा की अधिक दीप्तिमान बनने का अवसर मिले। अपने ब्रह्म रंध्र में अवस्थित सहस्रांशु आदित्य सहस्रदल कमल को खिलाये और उसकी प्रत्येक पंखुड़ी में सन्निहित दिव्य कलाओं के उदय का लाभ साधक को मिले।
ब्रह्म विद्या का उद्गाता ‘तमसो मा ज्योतिर्गमय’ की प्रार्थना में इस दिव्य प्रकाश की याचना करता है। इसी की प्रत्येक जागृत आत्मा को आवश्यकता अनुभव होती हैं अस्तु गायत्री उपासक अपने जप प्रयोजन में इसी ज्योति को अन्तः भूमिका में अवतरण करने के लिये सविता का ध्यान करता है।