Books - भाषण और संभाषण की दिव्य क्षमता
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Language: HINDI
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सरल भाषण की कसौटी
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भाषण कला वस्तुतः संभाषण कौशल का ही विकसित रूप है। सम्भाषण में थोड़े लोग विचार विनिमय करते हैं। अपनी कहते—दूसरे की सुनते हैं। उसमें शंका-सन्देहों का निराकरण करने और प्रश्नोत्तर का क्रम चलता है। प्रतिक्रिया का पता चलता है, पर यह थोड़े लोगों के ही बीच की चीज है। यदि अधिक लोगों से एक ही समय में एक आदमी को अपनी बात कहनी है तो फिर भाषण की ही शैली अपनानी पड़ेगी। इसमें लाभ यह है कि एक व्यक्ति अनेक लोगों के सामने अपने विचार थोड़े ही समय में एक साथ रख सकता है। हानि यह है कि सुनने वालों पर क्या प्रतिक्रिया हुई उसने उसे किस रूप में समझा, अपनाया इसका कुछ पता नहीं चल सकता। यों लोगों के एक साथ हंसने—ताली बजाने जैसी प्रतिक्रियाओं से सुनने वालों की प्रसन्नता समझी जा सकती हैं, ध्वनि से, न सुनने, हिलने, चलने, परस्पर बातें करने लगने जैसे लक्षणों से उपेक्षा और विरोधी नारेबाजी से अप्रसन्नता का कुछ ही लोगों के मन की आधी-अधूरी सांकेतिक प्रतिक्रिया जानी जा सकती है। अधिकांश उपस्थित लोग चुपचाप बैठे रहते हैं, उनके बारे में कुछ नहीं कहा जा सकता। वक्ता का श्रम सार्थक हुआ कि नहीं—उसके उद्देश्य की पूर्ति किस मात्रा में हुई—उपस्थित लोगों से क्या आशा की जाय, यह जानना तो सम्भाषण में ही सम्भव है—भाषण में नहीं। इतना होते हुए भी उसकी महत्ता कम नहीं हो सकती। अधिक लोगों को कम समय में विचार देने के लिए जन समूह के सम्मुख भाषण देने के अतिरिक्त और कोई सरल उपाय नहीं है।
अपने भाव, इच्छा एवं उद्देश्य से दूसरों को परिचित, प्रभावित करने का सबसे सरल साधन भाषण हैं। वार्तालाप द्वारा विचार विनिमय करके परस्पर बहुत कुछ बौद्धिक आदान-प्रदान हो सकता है। एक को जानकारी से दूसरा परिचित हो सकता है। इस प्रकार चिन्तन को नये तथ्य-नये तर्क—नये आधार प्राप्त करने का अवसर मिलता है। इससे भ्रांतियों को दूर करने और वस्तुस्थिति को अधिक अच्छी तरह समझ सकने का अवसर मिलता है।
‘‘नालन्दा शब्द सागर’’ कोश में वक्तृत्व कला का अन्तर बताते हुए लिखा गया है—‘‘भाषण देने की योग्यता या शक्ति को वक्तृत्व कहते हैं। यदि वह व्यवस्थित और आकर्षक हो, तो वह वक्तृत्व कला कहलाती है। कलात्मक रीति से वक्तृत्व की योग्यता शक्ति व्यवस्था को प्रकट करती है। जिसमें आकर्षण टपकता हो वही वक्ता का प्राण है। निर्जीव वार्ता में प्राण फूंक देना ही कला है। जिसमें भावनात्मक हलचल उत्पन्न होती हो, उभार और उफान आते हों, दिशा मिलती हो और प्रेरणा प्राप्त होती हो वही कलात्मकता है। कलाओं में वक्तृता अग्रणी है। कलाकारों में कुशल वक्ता को मूर्धन्य कलाकार ही कहा जा सकता है।
जब भी भाषण करना हो तब सभा-पण्डाल में उपस्थित लोगों के स्तर की कल्पना करनी चाहिये और रुचिकर एवं सरल ढंग से क्या कहना, किस प्रकार कहना उपयुक्त होगा, उसका अनुमान लगाना चाहिये। इस परिकल्पना में संयोजन कर्ताओं और ऐसे लोगों से जानकारी प्राप्त की जा सकती है जिनका उस आयोजन में हाथ हो। संभावना की जो अधिक सही कल्पना करा सके ऐसे लोगों से सम्पर्क हो सकना कुछ कठिन नहीं है। फिर अपनी सूझ-बूझ भी तो काम करती है। उपस्थित जनता के सम्भावित स्तर के साथ ताल मेल बिठाते हुए तथ्यपूर्ण भाषण करने के लिए मनोयोग एवं अध्ययन के साथ तैयारी की जाय तो ऐसे आधार मिल सकते हैं जिनसे वक्ता का गौरव बढ़े और सुनने वालों को अपने समय का समुचित प्रतिफल मिल जाय।
बच्चों की, वयस्कों की वृद्धों की महिलाओं की मनःस्थिति भिन्न प्रकार की होती है। उनके समझाने और स्तर का ध्यान रखते हुए प्रवचन का आधार निर्धारित करना चाहिये। बच्चों में जो कहना हो कथा, कहानियों, घटनाओं, चित्रों उपकरणों के माध्यम से ठीक पड़ेगा दार्शनिकता तथा तथ्यपूर्ण प्रस्तुतीकरण वे अपने अल्प विकसित मस्तिष्क द्वारा समझ ही नहीं सकेंगे। बच्चों को समझाना तभी सम्भव हो सकता है, जब अपने को उसी स्तर का अनुभव करते हुए, उसी स्थिति में समझी जा सकने योग्य शैली अपनायें। युवकों की भावनाएं भड़काई जा सकती हैं, प्रौढ़ों को तर्क और तथ्य के सहारे किसी बात को समझाया जा सकता है। बूढ़े परम्परावादी हो जाते हैं अतः क्या होता चला आया है ऐसा इतिहास सुना कर उन्हें सहमत कर लेना अपेक्षाकृत सरल है। अविकसित महिलाओं के विचार घर परिवार के क्षेत्र तक सीमाबद्ध रहते हैं। उनका, उनके बच्चों तथा उनके पति और परिवार का हितसाधन जिस जिस प्रकार हो सकता है, उसी सीमा के अन्तर्गत जो कुछ कहा जायगा उन्हें अच्छा लगेगा उनका मन प्रायः मर्माहत रहता है, अतः सहानुभूति करुणा उत्पन्न करने वाली घटनाएं ही उन्हें अधिक प्रभावित करती हैं।
किसी कॉलेज में प्रवचन करना हो तो उपस्थित छात्रों एवं अध्यापकों के अध्ययन विषय के साथ संगति मिलाते हुए अपनी जो बात कही जायगी, उसे अधिक रुचि पूर्वक सुना जायगा। मेडीकल कॉलेज के छात्रों के सम्मुख यदि शरीर शास्त्र के संदर्भ देते हुए उसी क्षेत्र के उदाहरणों को काम में लाते हुए अपनी बात कह सकना किसी अध्ययनशील वक्ता के लिए संभव हो सके तो वह अधिक गहरी छाप छोड़ेगा। यही बात अन्य वर्गों पर लागू होती है। व्यवसायी शिल्पी, कृषक, श्रमिक, बुद्धिजीवी आदि वर्गों का जहां बाहुल्य हो वहां उसी स्तर के संदर्भ देते हुए विषय का प्रतिपादन कर सकना वक्ता की विशिष्ट प्रतिभा और विस्तृत ज्ञान का प्रमाण माना जायगा और उसका अधिक प्रभाव पड़ेगा। यों ऐसा कर सकना हर किसी के लिए सरल नहीं है—तो भी यदि भाषण कर्ता को अपनी छाप छोड़नी हो तो अध्ययनशील एवं विचारक बनना चाहिए। जिस स्तर के लोगों से उसका वास्ता पड़ता है उनकी मनोभूमि का अनुमान लगाते हुए विषय प्रतिपादन का ढांचा खड़ा करना चाहिए। चाहे जिस स्तर के लोगों में—चाहे जो बात—चाहे जिस ढंग से कहने लगना यह सिद्ध करता है कि वक्ता को बौद्धिक आलस्य ने घेर रखा है, वह अपनी अभ्यस्त बात, अभ्यस्त ढंग से कह कर सरलता पूर्वक बेगार भुगत रहा है। एक ही बात अनेकों ढंगों से कही जा सकती है। उसमें संदर्भ, तथ्य, तर्क, प्रमाण, उदाहरण अलग-अलग प्रयुक्त हो सकते हैं। पर वैसा कर वही सकता है जिसने इस दृष्टिकोण से अध्ययन और चिन्तन किया हो एवं भाषण की तैयारी में पर्याप्त समय एवं मनोयोग लगाया हो।
प्रबुद्ध व्यक्तियों के लिए तर्क और तथ्य प्रस्तुत करते चलना ही ठीक है, पर जन साधारण के मन में कोई बात उतारने के लिए ऐतिहासिक एवं सामयिक घटनाओं का-कथा दृष्टान्तों का—संस्मरण उदाहरणों का समावेश करते चलना अच्छा प्रभावोत्पादक सिद्ध होता है। बौद्धिक प्रतिपादनों को समझने और हृदयंगम करने के लिए श्रोताओं का मस्तिष्क प्रबुद्ध स्तर का होना चाहिए। सामान्य लोग केवल मोटी बातों को ही समझ पाते हैं। बारीकियों को पकड़ सकना उनकी स्थिति से बाहर की बात होती है। ऐसी दशा में प्रतिपादन को रोचक आकर्षक बनाने के लिए उसके साथ घटनाओं का जोड़ना आवश्यक हो जाता है यों उन कथाओं संस्मरणों के कहने में बहुत सा समय चला जाता है पर उस मार्ग को छोड़ कर जन-सामान्य को समझाने और तथ्य को गले उतारने का और कोई उपाय है नहीं।
भाषण में ऐसी शब्द रचना का प्रयोग होना चाहिए जो उपस्थित लोगों के लिए सरल सुबोध पड़ती है। कठिन शब्दों का प्रयोग लोग अपने ऊंचे साहित्यिक ज्ञान के कारण—ऊंचे स्तर का वार्तालाप करने या वैसा ही लेखन करने के कारण—करने लग जाते हैं और फिर उन्हीं का सिलसिला भाषण में भी चल पड़ता है। इससे वक्ता के साहित्य ज्ञान की छाप तो पड़ती है पर उनका प्रभाव कम पड़ता है क्योंकि जो सहज स्वाभाविक नहीं है वह नीचे उतरने में अड़चन उत्पन्न करता है। सुनने वालों का मस्तिष्क जितनी देर में कठिन शब्दों के अर्थों का आभास पाने की चेष्टा करता है उतनी देर में प्रवाह और आगे बढ़ जाता है। यदि शब्द सरल रहे होते तो उनका अर्थबोध एक झंझट के रूप में सामने न आता और जो बात कही गई है वह सहज ही गले उतरती चली जाती, मस्तिष्क शब्द जंजाल की उलझनों में न पड़ कर प्रयोजन को सीधे ही हृदयंगम करने लगता है। अस्तु विद्वत्ता की छाप छोड़ने के झंझट में न पड़कर शब्द रचना को सरल बनाना चाहिए। बोल चाल की भाषा का प्रयोग करना चाहिए। जो सहज स्वाभाविक है उसी में प्रवाह भी बनता है। प्रवाह का अपना लालित्य है। विचार धारा स्निग्धता पूर्वक बिना रुके—बिना उलझे—अपनी सहज गति से प्रवाहित हो रही हो तो वह भी सुनने वालों को कम आकर्षक नहीं लगती। कहने और सुनने वाले के बीच तादात्म्य मिलाने में वह प्रवाह बहुत ही सहायक होता है।
सुनने वालों के भाषा ज्ञान का अनुमान लगाने की तरह ही उनकी पूर्व मान्यताओं, रुचिकर विषयों एवं चिन्तन के अभ्यस्त स्तरों की भी कुशल वक्ता जानकारी प्राप्त करते हैं और उनके साथ संगति मिलाते हुए अपनी बात का तारतम्य उसके साथ जोड़ते हैं।
जैसे किसी क्षेत्र में धार्मिक चर्चाएं अधिक होती रही हैं—सुनने वाले रामायण आदि की कथाओं से अधिक परिचित रहे हैं, उनका ज्ञान उसी क्षेत्र में कुछ बढ़ा हुआ है, तो वक्ता के लिए उचित है कि उन्हीं कथानकों के साथ अपने प्रतिपादन का सिलसिला मिलाते हुए बात को आगे बढ़ाये। सुनने वालों का पूर्व ज्ञान यदि किसी नई दिशा के साथ जुड़ जाय तो उन्हें प्रतिपादन सहज स्वाभाविक, प्रामाणिक और हृदय ग्राही लगेगा। उसे अधिक अच्छी तरह समझना और अपनाना उनके लिए सरल पड़ेगा। यदि इस प्रकार के लोगों के बीच वही बात राजनैतिक, मनोवैज्ञानिक, दार्शनिक, पृष्ठभूमि पर कही जायगी तो सम्भवतः श्रोता उसे कठिनाई से ही समझने अपनाने में समर्थ होंगे। वह जमाना अब बहुत पीछे छूट गया जब प्रवचन का साहस केवल आप्त पुरुष ही करते थे—उनका कथन आर्ष वचन माना जाता था। व्यास पीठ पर बैठा हुआ व्यक्ति ऋषि तत्व का प्रतिनिधि माना जाता था और उसकी वाणी को शास्त्र प्रमाण समझा जाता था। उन दिनों धर्मोंपदेशक वक्ता नहीं निर्देशक होते थे। उनके सुलझे हुए विचार और आदर्श चरित्र सहज श्रद्धा का संचार करते थे। तर्क और विवेक को उन दिनों इतना महत्व नहीं मिलता था। श्रद्धा सब कुछ थी। उन दिनों निर्देश की भाषा बोली जाती थी और उपस्थित लोगों को ऐसा करने, ऐसा न करने का आदेश दिया जाता था, जिसे जनता उचित भी समझती थी।
अब स्थिति बदल गई। व्यक्ति के स्थान पर तर्क और तथ्यों को प्रामाणिक ठहरा दिया गया है। व्यक्ति चाहे कितना ही बड़ा विद्वान या धर्मात्मा क्यों न हो उसके विचार भ्रान्त और अनुपयुक्त हो सकते हैं। मनुष्य त्रुटिपूर्ण और अपूर्ण है। सत्य के अधिकाधिक समीप पहुंचने के लिए अभी हर किसी को प्रयत्न करना चाहिए और यह नहीं मान लेना चाहिए कि हम जैसा सोचते मानते या कहते हैं वही अन्तिम है। इसके अतिरिक्त बातें गलत हैं। अब अपने मत को ही सत्य ठहराने वाले और उन्हीं को मानने का आग्रह करने वाले धृष्ट माने जाते हैं और समझा जाता है कि यह दूसरे के विवेक का अपमान हो रहा है। हर व्यक्ति को स्वतंत्र चिन्तन का और विवेक के सहारे निष्कर्ष पर पहुंचने का अधिकार है। ऐसी दशा में लोक-विवेक को ही अन्तिम निर्णय करने देना चाहिए और फैसले का भार उसी पर छोड़ना चाहिए।
फैसला न्यायाधीश को करना है। वकील अपनी दलीलें देकर न्यायाधीश को उचित निर्णय तक पहुंचने में सहायता भर दे सकता है। कानून ने वकील की मर्यादा इतनी ही सीमित रखी है। इससे आगे बढ़कर यदि वह अदालत को निर्देश देते लगे और ऐसी भाषा कहने लगे जिसका अर्थ अमुक फैसला करने का आग्रह करना या दबाव डालना होता हो तो उसकी यह चेष्टा ‘अदालत का अपमान’ करने की अपराध संहिता में आ जायगी और वकील दण्डनीय होगा। सभा मंच पर बैठ कर कोई वक्ता यदि अपने को न्यायाधीश मान बैठता है और जनता को ऐसा करने, ऐसा न करने का निर्देश देता है तो वह अपनी स्थिति से बाहर निकल जाता है और शिष्टता की मर्यादा का अतिक्रमण करता है। इस युग में वक्ता की स्थिति परामर्श दाता की रह गई है। अब उसके हाथ से निर्णायक के अधिकार वापिस ले लिये गये है।
अपने तर्कों को इस कुशलता के साथ रखा जाना चाहिए जिससे सुनने वालों का सहज विवेक वक्ता के पक्ष में ढुलने लगे। अधिक से अधिक न्याय और औचित्य का ध्यान रखकर जनश्रुतियों और अनुपयुक्त प्रचलनों से ऊंचे उठकर—नये सिरे से निष्कर्ष पर पहुंचने की अपील जनता से की जा सकती है और उसकी स्वतंत्र चेतना को विवेकानुयायी होने के लिए प्रोत्साहित किया जा सकता है। बस वक्ता का कार्य समाप्त हो गया।
भाषणों को वर्गीकरण की दृष्टि से चार भागों में विभक्त किया जा सकता है—(1) वर्णन प्रधान (2) विचार प्रधान (3) समीक्षा प्रधान (4) भावना प्रधान। यों हर भाषण में इन चारों तथ्यों का न्यूनाधिक समावेश होता है, पर जिसकी प्रधानता रहे, उसे उसी वर्ग में गिनना उचित होगा।
वर्णन प्रधान भाषणों में घटनाओं की चर्चा अधिक मात्रा में विस्तार पूर्वक होती है। उनके आधार पर निष्कर्ष प्रस्तुत किये जाते हैं। इसमें कथानक, दृष्टान्त, संस्मरण, प्रसंग इस प्रकार फिट किये जाते हैं कि सुनने वालों को अपनी बात से सहमत किया जा सके। ऐसे भाषण सरल होते हैं, उसके लिए वक्ता को बहुत अधिक मानसिक श्रम नहीं करना पड़ता। वे रोचक भी होते हैं। बाल वृद्ध, शिक्षित अशिक्षित उन्हें भाव पूर्वक सुनते हैं। मनोरंजन और उत्सुकता बनी रहने से वे किसी को भार रूप प्रतीत नहीं होते। पर उससे ज्ञान-संवर्धन कम ही होता है। जिन्हें विवेचना में गहराई तक उतरने में रुचि नहीं होती, उनके लिए इस प्रकार की हल्की-फुलकी वक्तृताएं सरल पड़ती हैं। वे देर तक चलती रहने पर भी वक्ता या श्रोता को थकाती नहीं।
विचार प्रधान भाषणों को छोटे शोध निबंध कह सकते हैं। उनमें प्रतिपादित पक्ष के समर्थन में और विपरीत पक्ष के खण्डन में तर्क, तथ्य, प्रमाण, आंकड़े और उदाहरणों का जितना अधिक समावेश होगा उतने ही वे प्रभावोत्पादक होंगे। यह एक कुशाग्र बुद्धि, अध्ययनशील एवं परिश्रमी वकील द्वारा की गई तैयारी की तरह है। युनिवर्सिटी से ‘डॉक्टरेट’ प्राप्त करने वाले छात्र जिस प्रकार अपने निबन्ध से संबद्ध सामग्री जुटाने में कुछ कमी नहीं रखते, उसी प्रकार प्रधान भाषणों में सुनने वालों को प्रभावित करने के लिए इतनी अधिक सामग्री जमा करनी पड़ती है कि एक बार तो उससे सहमत होने के अतिरिक्त और कोई चारा ही न रह जाय।
समीक्षा-प्रधान भाषण वे हैं जिसमें किसी दूरस्थ व्यक्ति द्वारा घटनाक्रम के उतार—चढ़ावों की परिस्थितियों के परिवर्तन की-व्यक्तियों की त्रुटियों और तत्परताओं की चर्चा करते हुए वस्तुस्थिति प्रस्तुत की जाती है। सुनने वाले को पक्ष-विपक्ष की परिस्थितियों से परिचित कराया जाता है और उसे प्रतिपाद्य विषय के सम्बन्ध में आदि से अन्त तक के हेर फेरो की जानकारी कराई जाती है। यह इतिहासकारों जैसा दृष्टिकोण है—न्यायाधीशों के फैसले भी इसी आधार पर लिखे गये होते हैं। वकील एक ही पक्ष की बातें करते हैं, पर जूरी वैसा नहीं करते। वे दोनों पक्षों द्वारा प्रस्तुत किये गये घटना चक्र पर विचार करते हैं किसने कितनी भूल की और उस भूल से दोषी कौन कितना ठहरा, उसी अनुमान से वे दण्ड देने या छोड़ने की सलाह न्यायाधीश को देते हैं। सभी समीक्षात्मक भाषण जूरी के स्तर पर खड़े होकर देने पड़ते हैं और उनमें जनता को न्यायाधीश मान कर उसे किस निर्णय पर पहुंचना चाहिये इसकी पृष्ठ भूमि बनाई जाती है। ऐसे भाषण में वक्ता अपने को निष्पक्ष सिद्ध करता और गुण-दोष की विवेचना करते हुए किसी निर्णय पर पहुंचने की अपनी स्थिति प्रकट करता है, भले ही उसका झुकाव किसी पक्ष विशेष की ओर भीतर ही भीतर क्यों न रहा हो। ऐसे भाषण अपेक्षाकृत कठिन पड़ते हैं। उनका निर्वाह अधिक सूक्ष्मदर्शी ही कर सकते हैं।
भावना प्रधान भाषणों में संवेदना को—भावुकता को—आदर्शवादिता को उभारा जाता है। उनमें कवित्व को भूमिका होती है। श्रद्धा, भक्ति, प्रेम, करुणा, संयम, उदारता आदि के पक्ष में तर्क उतने नहीं होते जितनी की भावनाएं। आस्तिकता, आध्यात्मिकता एवं धार्मिकता जैसे भाव प्रधान विषयों में श्रद्धा एवं भावुक संवेदनाओं का ही बाहुल्य रहता है। तर्क और प्रमाणों के आधार पर भी इन्हें कहा तो जा सकता है, पर भावुकता का पुट चढ़ाये बिना वे बातें आधी, अधूरी, नीरस रहती हैं और तर्क भी अकाट्य नहीं होते। इसलिए कोमल संवेदनाओं को उभार कर ही जन समुदाय को अपने प्रवाह में बहकाया जा सकता है। कालिदास रचित ‘मेघदूत’ (संस्कृत काव्य) में भावुक कल्पनाओं की ही भरमार है। छायावादी एवं भाव प्रधान कविताओं में यह रस ही प्रधान होता है।
क्रौंच पक्षी का तीर से घायल होता, उसके साथी का विलाप करना—उस क्रन्दन से वाल्मीकि का हृदय पसीजना उससे करुणा की धार बहना और उस प्रवाह में आदि कवि का कवित्व फूट पड़ना, घटनाक्रम की दृष्टि से सामान्य बात है। पर यदि इतने से प्रसंग में सन्निहित भाव उभार को प्रस्तुत किया जा सके तो वह किसी संवेदन शील चित्रकार द्वारा प्रस्तुत किये करुणार्थ और रुला देने वाले चित्र से कम मार्मिक नहीं। ऐसी चर्चाएं करके कुशल वक्ता श्रोताओं को हंसाते, रुलाते और विभिन्न स्तर की अनुभूतियां कराते हुए उन्हें अपने साथ बिना पंखों के ही उड़ा ले जाते हैं और वहां ले जाकर खड़ा कर देते हैं जहां पहुंच सकना सामान्य तर्क बुद्धि का काम न था। यह बुद्धि का नहीं हृदय का खेल है। अभिनय की तरह कुछ अभ्यास कर लिया हो, रट लिया हो तो बात अलग, अन्यथा ऐसे भाषण दे सकना संवेदनशील कवि मानस का ही काम है। भाव चित्रों को उभारना और उनमें नयनाभिराम रंग भरना निस्सन्देह तार्किक, दार्शनिक से भी अधिक गहरी अन्तःचेतना का काम है। जिनमें ऐसी प्रतिभा होती है वे जनता की शिथिलता को उत्साह में, उपेक्षा को आक्रोश में, पूर्वाग्रह को नवीनता में, अश्रद्धा को श्रद्धा में और श्रद्धा को अश्रद्धा में बदल देने में सहज ही सफल हो जाते हैं। संसार में उग्र आन्दोलनों का अपना अलग ही इतिहास है। वे जनता को आवेशग्रस्त करके ही सफल बनाये गये हैं। कई बार आवेशों को शान्त करना भी जादू की छड़ी घुमाना जैसा होता है। असहमत जनता को इसी आधार पर सहमत कर सकना संभव होता है। पाकिस्तान की मांग कांग्रेस द्वारा स्वीकृत करा लेने में राजगोपालाचार्य के भाषण ने ऐसी ही जादू की छड़ी घुमाई थी। सरदार भगतसिंह को फांसी न लगाने का आग्रह देश के समस्त नेताओं ने एक स्वर से किया था। ब्रिटिश सरकार ने उसे न माना। इस उत्तेजना से अंग्रेजों के प्रति भारतीय जनता में अत्यधिक आवेश था और उनके स्वराज्य सम्बन्धी प्रस्ताव को पूर्णतया ठुकरा देने के पक्ष में लोग थे। तो भी गान्धी ने कांग्रेस से वह सहमति का प्रस्ताव पास करा लिया। यह जन मत की उलट देने की अद्भुत सफलता थी। ऐसे अवसरों पर तक कम और भावनाओं का उभार मुख्य होता है। भावनाओं के साथ खेलना भाव-शक्ति सम्पन्न वक्ता का ही काम है। वह जन-मानस पर छा जाने और लोक प्रवाह को अपने साथ वहां ले जाने में अधिक सफल होता है।
उपरोक्त चारों स्तर एक के बाद एक अपेक्षाकृत अधिक कठिन हैं। वर्णनात्मक शैली सबसे सरल है। इसके बाद विचार प्रभावों का वजन है। यों अभीष्ट उद्देश्य की पूर्ति के लिए दोनों ही अपनी प्रखरता और जन स्तर को देखते हुए प्रभावोत्पादक होते हैं, समीक्षा के लिए दार्शनिक एवं विवेचनात्मक-विश्लेषणात्मक प्रतिभा चाहिए और सुनने वालों का स्तर न्यायाधीश स्तर पर निष्कर्ष निकाल सकने जैसा होना चाहिए। भावनात्मक भाषणों का निर्वाह जितना स्वाभाविक होगा उतना ही मार्मिक बनेगा। नाटकीय और असंबद्ध भाव चित्रण बहुत भोंड़ा हो जाता है। उसके लिए कवि और कलाकार की प्रतिभा चाहिए। पिछले तीन अभ्यास के आधार पर बन पड़ते हैं, श्रम और मनोयोग से वैसे भाषण तैयार किये जा सकते हैं। पर भावुकता का कोई नियम या स्कूल नहीं। उस सम्बन्ध में इतना ही हो सकता है कि भाव प्रधान गद्य-पद्य पढ़े जायें, चित्र देखे जांय और उस प्रकार अवसरों पर उपस्थित होकर कोमल संवेदनाओं को उभारा जाय। इससे थोड़ी मदद तो मिल सकती है। भावाभिव्यक्ति कर सकने वाले शब्दों का चयन हो सकता है। पर विभिन्न घटनाओं या विषयों के साथ किस स्तर की अभिनव संवेदना जोड़ दी जाय यह मौलिक प्रतिभा का ही काम है। जिनमें वह तत्व हो वे उसे विकसित करने और खरीदने का प्रयत्न जारी रख सकते हैं और कलात्मक प्रवचनों में अभ्यस्त हो सकते हैं।
शरीर का सुडोल गठन, ऊंचा और तीखा कंठस्वर शब्दों का गठन तथ्यों और भावों का समावेश-वक्ता की भावतन्मयता आदि विशेषताओं के कारण भाषण प्रभावशाली बनते हैं। इनमें से कुछ बातें ईश्वर प्रदत्त हैं और कुछ प्रयास और अभ्यासजन्य। शरीर का गठन ईश्वर प्रदत्त है, पर उसे शालीनता प्रकट करने की स्थिति में रखना अपने हाथ की बात है। कंठस्वर की ध्वनि ईश्वर प्रदत्त है, पर उसमें शब्दों का—भावों का और प्रवाह-क्रम का समावेश करना प्रयत्न साध्य है। उथले और अन्यमनस्क मन से बोलने पर भाषण स्वभावतः घटिया रहेगा। पर जब उसे पूरी तैयारी अध्ययन और विधि-व्यवस्था के साथ प्रस्तुत किया जायगा और तन्मयतापूर्वक बोला जायगा तो उसे सहज ही बढ़िया और प्रभावशाली होने का श्रेय मिल जायगा।
भाषण की प्रशंसा इस बात में है कि वह आवश्यकतानुसार सभी प्रकार की संतुलित चर्चाएं बिना लड़खड़ाए कर सकने में समक्ष हों। आक्रमण, संरक्षण, वर्णनात्मक, भावोद्दीपक, प्रेम, उत्साह वर्धक, गले उतर सकने वाले तथ्यों से युक्त हो। उसमें कई रसों का समावेश होना चाहिये। असभ्य असत्य, विवेकहीन, अण्ट सण्ट बोलना वक्तृत्व कला का अपमान है। भाषण अर्थपूर्ण, दिशा सूचक, सारगर्भित, साध्य-साधक, सविनय होना चाहिए। उसमें जनमानस में प्रवेश कर सकने की क्षमता रहना चाहिए। हमें यह पूरी तरह समझ लेना चाहिए कि वक्तृत्व-शक्ति कोई ईश्वरीय देन नहीं है। वह पूर्णतया प्रयत्न साध्य है, अध्यवसाय और अभ्यास के आधार पर उसे हर कोई उच्चस्तर तक विकसित कर सकता है।
अपने भाव, इच्छा एवं उद्देश्य से दूसरों को परिचित, प्रभावित करने का सबसे सरल साधन भाषण हैं। वार्तालाप द्वारा विचार विनिमय करके परस्पर बहुत कुछ बौद्धिक आदान-प्रदान हो सकता है। एक को जानकारी से दूसरा परिचित हो सकता है। इस प्रकार चिन्तन को नये तथ्य-नये तर्क—नये आधार प्राप्त करने का अवसर मिलता है। इससे भ्रांतियों को दूर करने और वस्तुस्थिति को अधिक अच्छी तरह समझ सकने का अवसर मिलता है।
‘‘नालन्दा शब्द सागर’’ कोश में वक्तृत्व कला का अन्तर बताते हुए लिखा गया है—‘‘भाषण देने की योग्यता या शक्ति को वक्तृत्व कहते हैं। यदि वह व्यवस्थित और आकर्षक हो, तो वह वक्तृत्व कला कहलाती है। कलात्मक रीति से वक्तृत्व की योग्यता शक्ति व्यवस्था को प्रकट करती है। जिसमें आकर्षण टपकता हो वही वक्ता का प्राण है। निर्जीव वार्ता में प्राण फूंक देना ही कला है। जिसमें भावनात्मक हलचल उत्पन्न होती हो, उभार और उफान आते हों, दिशा मिलती हो और प्रेरणा प्राप्त होती हो वही कलात्मकता है। कलाओं में वक्तृता अग्रणी है। कलाकारों में कुशल वक्ता को मूर्धन्य कलाकार ही कहा जा सकता है।
जब भी भाषण करना हो तब सभा-पण्डाल में उपस्थित लोगों के स्तर की कल्पना करनी चाहिये और रुचिकर एवं सरल ढंग से क्या कहना, किस प्रकार कहना उपयुक्त होगा, उसका अनुमान लगाना चाहिये। इस परिकल्पना में संयोजन कर्ताओं और ऐसे लोगों से जानकारी प्राप्त की जा सकती है जिनका उस आयोजन में हाथ हो। संभावना की जो अधिक सही कल्पना करा सके ऐसे लोगों से सम्पर्क हो सकना कुछ कठिन नहीं है। फिर अपनी सूझ-बूझ भी तो काम करती है। उपस्थित जनता के सम्भावित स्तर के साथ ताल मेल बिठाते हुए तथ्यपूर्ण भाषण करने के लिए मनोयोग एवं अध्ययन के साथ तैयारी की जाय तो ऐसे आधार मिल सकते हैं जिनसे वक्ता का गौरव बढ़े और सुनने वालों को अपने समय का समुचित प्रतिफल मिल जाय।
बच्चों की, वयस्कों की वृद्धों की महिलाओं की मनःस्थिति भिन्न प्रकार की होती है। उनके समझाने और स्तर का ध्यान रखते हुए प्रवचन का आधार निर्धारित करना चाहिये। बच्चों में जो कहना हो कथा, कहानियों, घटनाओं, चित्रों उपकरणों के माध्यम से ठीक पड़ेगा दार्शनिकता तथा तथ्यपूर्ण प्रस्तुतीकरण वे अपने अल्प विकसित मस्तिष्क द्वारा समझ ही नहीं सकेंगे। बच्चों को समझाना तभी सम्भव हो सकता है, जब अपने को उसी स्तर का अनुभव करते हुए, उसी स्थिति में समझी जा सकने योग्य शैली अपनायें। युवकों की भावनाएं भड़काई जा सकती हैं, प्रौढ़ों को तर्क और तथ्य के सहारे किसी बात को समझाया जा सकता है। बूढ़े परम्परावादी हो जाते हैं अतः क्या होता चला आया है ऐसा इतिहास सुना कर उन्हें सहमत कर लेना अपेक्षाकृत सरल है। अविकसित महिलाओं के विचार घर परिवार के क्षेत्र तक सीमाबद्ध रहते हैं। उनका, उनके बच्चों तथा उनके पति और परिवार का हितसाधन जिस जिस प्रकार हो सकता है, उसी सीमा के अन्तर्गत जो कुछ कहा जायगा उन्हें अच्छा लगेगा उनका मन प्रायः मर्माहत रहता है, अतः सहानुभूति करुणा उत्पन्न करने वाली घटनाएं ही उन्हें अधिक प्रभावित करती हैं।
किसी कॉलेज में प्रवचन करना हो तो उपस्थित छात्रों एवं अध्यापकों के अध्ययन विषय के साथ संगति मिलाते हुए अपनी जो बात कही जायगी, उसे अधिक रुचि पूर्वक सुना जायगा। मेडीकल कॉलेज के छात्रों के सम्मुख यदि शरीर शास्त्र के संदर्भ देते हुए उसी क्षेत्र के उदाहरणों को काम में लाते हुए अपनी बात कह सकना किसी अध्ययनशील वक्ता के लिए संभव हो सके तो वह अधिक गहरी छाप छोड़ेगा। यही बात अन्य वर्गों पर लागू होती है। व्यवसायी शिल्पी, कृषक, श्रमिक, बुद्धिजीवी आदि वर्गों का जहां बाहुल्य हो वहां उसी स्तर के संदर्भ देते हुए विषय का प्रतिपादन कर सकना वक्ता की विशिष्ट प्रतिभा और विस्तृत ज्ञान का प्रमाण माना जायगा और उसका अधिक प्रभाव पड़ेगा। यों ऐसा कर सकना हर किसी के लिए सरल नहीं है—तो भी यदि भाषण कर्ता को अपनी छाप छोड़नी हो तो अध्ययनशील एवं विचारक बनना चाहिए। जिस स्तर के लोगों से उसका वास्ता पड़ता है उनकी मनोभूमि का अनुमान लगाते हुए विषय प्रतिपादन का ढांचा खड़ा करना चाहिए। चाहे जिस स्तर के लोगों में—चाहे जो बात—चाहे जिस ढंग से कहने लगना यह सिद्ध करता है कि वक्ता को बौद्धिक आलस्य ने घेर रखा है, वह अपनी अभ्यस्त बात, अभ्यस्त ढंग से कह कर सरलता पूर्वक बेगार भुगत रहा है। एक ही बात अनेकों ढंगों से कही जा सकती है। उसमें संदर्भ, तथ्य, तर्क, प्रमाण, उदाहरण अलग-अलग प्रयुक्त हो सकते हैं। पर वैसा कर वही सकता है जिसने इस दृष्टिकोण से अध्ययन और चिन्तन किया हो एवं भाषण की तैयारी में पर्याप्त समय एवं मनोयोग लगाया हो।
प्रबुद्ध व्यक्तियों के लिए तर्क और तथ्य प्रस्तुत करते चलना ही ठीक है, पर जन साधारण के मन में कोई बात उतारने के लिए ऐतिहासिक एवं सामयिक घटनाओं का-कथा दृष्टान्तों का—संस्मरण उदाहरणों का समावेश करते चलना अच्छा प्रभावोत्पादक सिद्ध होता है। बौद्धिक प्रतिपादनों को समझने और हृदयंगम करने के लिए श्रोताओं का मस्तिष्क प्रबुद्ध स्तर का होना चाहिए। सामान्य लोग केवल मोटी बातों को ही समझ पाते हैं। बारीकियों को पकड़ सकना उनकी स्थिति से बाहर की बात होती है। ऐसी दशा में प्रतिपादन को रोचक आकर्षक बनाने के लिए उसके साथ घटनाओं का जोड़ना आवश्यक हो जाता है यों उन कथाओं संस्मरणों के कहने में बहुत सा समय चला जाता है पर उस मार्ग को छोड़ कर जन-सामान्य को समझाने और तथ्य को गले उतारने का और कोई उपाय है नहीं।
भाषण में ऐसी शब्द रचना का प्रयोग होना चाहिए जो उपस्थित लोगों के लिए सरल सुबोध पड़ती है। कठिन शब्दों का प्रयोग लोग अपने ऊंचे साहित्यिक ज्ञान के कारण—ऊंचे स्तर का वार्तालाप करने या वैसा ही लेखन करने के कारण—करने लग जाते हैं और फिर उन्हीं का सिलसिला भाषण में भी चल पड़ता है। इससे वक्ता के साहित्य ज्ञान की छाप तो पड़ती है पर उनका प्रभाव कम पड़ता है क्योंकि जो सहज स्वाभाविक नहीं है वह नीचे उतरने में अड़चन उत्पन्न करता है। सुनने वालों का मस्तिष्क जितनी देर में कठिन शब्दों के अर्थों का आभास पाने की चेष्टा करता है उतनी देर में प्रवाह और आगे बढ़ जाता है। यदि शब्द सरल रहे होते तो उनका अर्थबोध एक झंझट के रूप में सामने न आता और जो बात कही गई है वह सहज ही गले उतरती चली जाती, मस्तिष्क शब्द जंजाल की उलझनों में न पड़ कर प्रयोजन को सीधे ही हृदयंगम करने लगता है। अस्तु विद्वत्ता की छाप छोड़ने के झंझट में न पड़कर शब्द रचना को सरल बनाना चाहिए। बोल चाल की भाषा का प्रयोग करना चाहिए। जो सहज स्वाभाविक है उसी में प्रवाह भी बनता है। प्रवाह का अपना लालित्य है। विचार धारा स्निग्धता पूर्वक बिना रुके—बिना उलझे—अपनी सहज गति से प्रवाहित हो रही हो तो वह भी सुनने वालों को कम आकर्षक नहीं लगती। कहने और सुनने वाले के बीच तादात्म्य मिलाने में वह प्रवाह बहुत ही सहायक होता है।
सुनने वालों के भाषा ज्ञान का अनुमान लगाने की तरह ही उनकी पूर्व मान्यताओं, रुचिकर विषयों एवं चिन्तन के अभ्यस्त स्तरों की भी कुशल वक्ता जानकारी प्राप्त करते हैं और उनके साथ संगति मिलाते हुए अपनी बात का तारतम्य उसके साथ जोड़ते हैं।
जैसे किसी क्षेत्र में धार्मिक चर्चाएं अधिक होती रही हैं—सुनने वाले रामायण आदि की कथाओं से अधिक परिचित रहे हैं, उनका ज्ञान उसी क्षेत्र में कुछ बढ़ा हुआ है, तो वक्ता के लिए उचित है कि उन्हीं कथानकों के साथ अपने प्रतिपादन का सिलसिला मिलाते हुए बात को आगे बढ़ाये। सुनने वालों का पूर्व ज्ञान यदि किसी नई दिशा के साथ जुड़ जाय तो उन्हें प्रतिपादन सहज स्वाभाविक, प्रामाणिक और हृदय ग्राही लगेगा। उसे अधिक अच्छी तरह समझना और अपनाना उनके लिए सरल पड़ेगा। यदि इस प्रकार के लोगों के बीच वही बात राजनैतिक, मनोवैज्ञानिक, दार्शनिक, पृष्ठभूमि पर कही जायगी तो सम्भवतः श्रोता उसे कठिनाई से ही समझने अपनाने में समर्थ होंगे। वह जमाना अब बहुत पीछे छूट गया जब प्रवचन का साहस केवल आप्त पुरुष ही करते थे—उनका कथन आर्ष वचन माना जाता था। व्यास पीठ पर बैठा हुआ व्यक्ति ऋषि तत्व का प्रतिनिधि माना जाता था और उसकी वाणी को शास्त्र प्रमाण समझा जाता था। उन दिनों धर्मोंपदेशक वक्ता नहीं निर्देशक होते थे। उनके सुलझे हुए विचार और आदर्श चरित्र सहज श्रद्धा का संचार करते थे। तर्क और विवेक को उन दिनों इतना महत्व नहीं मिलता था। श्रद्धा सब कुछ थी। उन दिनों निर्देश की भाषा बोली जाती थी और उपस्थित लोगों को ऐसा करने, ऐसा न करने का आदेश दिया जाता था, जिसे जनता उचित भी समझती थी।
अब स्थिति बदल गई। व्यक्ति के स्थान पर तर्क और तथ्यों को प्रामाणिक ठहरा दिया गया है। व्यक्ति चाहे कितना ही बड़ा विद्वान या धर्मात्मा क्यों न हो उसके विचार भ्रान्त और अनुपयुक्त हो सकते हैं। मनुष्य त्रुटिपूर्ण और अपूर्ण है। सत्य के अधिकाधिक समीप पहुंचने के लिए अभी हर किसी को प्रयत्न करना चाहिए और यह नहीं मान लेना चाहिए कि हम जैसा सोचते मानते या कहते हैं वही अन्तिम है। इसके अतिरिक्त बातें गलत हैं। अब अपने मत को ही सत्य ठहराने वाले और उन्हीं को मानने का आग्रह करने वाले धृष्ट माने जाते हैं और समझा जाता है कि यह दूसरे के विवेक का अपमान हो रहा है। हर व्यक्ति को स्वतंत्र चिन्तन का और विवेक के सहारे निष्कर्ष पर पहुंचने का अधिकार है। ऐसी दशा में लोक-विवेक को ही अन्तिम निर्णय करने देना चाहिए और फैसले का भार उसी पर छोड़ना चाहिए।
फैसला न्यायाधीश को करना है। वकील अपनी दलीलें देकर न्यायाधीश को उचित निर्णय तक पहुंचने में सहायता भर दे सकता है। कानून ने वकील की मर्यादा इतनी ही सीमित रखी है। इससे आगे बढ़कर यदि वह अदालत को निर्देश देते लगे और ऐसी भाषा कहने लगे जिसका अर्थ अमुक फैसला करने का आग्रह करना या दबाव डालना होता हो तो उसकी यह चेष्टा ‘अदालत का अपमान’ करने की अपराध संहिता में आ जायगी और वकील दण्डनीय होगा। सभा मंच पर बैठ कर कोई वक्ता यदि अपने को न्यायाधीश मान बैठता है और जनता को ऐसा करने, ऐसा न करने का निर्देश देता है तो वह अपनी स्थिति से बाहर निकल जाता है और शिष्टता की मर्यादा का अतिक्रमण करता है। इस युग में वक्ता की स्थिति परामर्श दाता की रह गई है। अब उसके हाथ से निर्णायक के अधिकार वापिस ले लिये गये है।
अपने तर्कों को इस कुशलता के साथ रखा जाना चाहिए जिससे सुनने वालों का सहज विवेक वक्ता के पक्ष में ढुलने लगे। अधिक से अधिक न्याय और औचित्य का ध्यान रखकर जनश्रुतियों और अनुपयुक्त प्रचलनों से ऊंचे उठकर—नये सिरे से निष्कर्ष पर पहुंचने की अपील जनता से की जा सकती है और उसकी स्वतंत्र चेतना को विवेकानुयायी होने के लिए प्रोत्साहित किया जा सकता है। बस वक्ता का कार्य समाप्त हो गया।
भाषणों को वर्गीकरण की दृष्टि से चार भागों में विभक्त किया जा सकता है—(1) वर्णन प्रधान (2) विचार प्रधान (3) समीक्षा प्रधान (4) भावना प्रधान। यों हर भाषण में इन चारों तथ्यों का न्यूनाधिक समावेश होता है, पर जिसकी प्रधानता रहे, उसे उसी वर्ग में गिनना उचित होगा।
वर्णन प्रधान भाषणों में घटनाओं की चर्चा अधिक मात्रा में विस्तार पूर्वक होती है। उनके आधार पर निष्कर्ष प्रस्तुत किये जाते हैं। इसमें कथानक, दृष्टान्त, संस्मरण, प्रसंग इस प्रकार फिट किये जाते हैं कि सुनने वालों को अपनी बात से सहमत किया जा सके। ऐसे भाषण सरल होते हैं, उसके लिए वक्ता को बहुत अधिक मानसिक श्रम नहीं करना पड़ता। वे रोचक भी होते हैं। बाल वृद्ध, शिक्षित अशिक्षित उन्हें भाव पूर्वक सुनते हैं। मनोरंजन और उत्सुकता बनी रहने से वे किसी को भार रूप प्रतीत नहीं होते। पर उससे ज्ञान-संवर्धन कम ही होता है। जिन्हें विवेचना में गहराई तक उतरने में रुचि नहीं होती, उनके लिए इस प्रकार की हल्की-फुलकी वक्तृताएं सरल पड़ती हैं। वे देर तक चलती रहने पर भी वक्ता या श्रोता को थकाती नहीं।
विचार प्रधान भाषणों को छोटे शोध निबंध कह सकते हैं। उनमें प्रतिपादित पक्ष के समर्थन में और विपरीत पक्ष के खण्डन में तर्क, तथ्य, प्रमाण, आंकड़े और उदाहरणों का जितना अधिक समावेश होगा उतने ही वे प्रभावोत्पादक होंगे। यह एक कुशाग्र बुद्धि, अध्ययनशील एवं परिश्रमी वकील द्वारा की गई तैयारी की तरह है। युनिवर्सिटी से ‘डॉक्टरेट’ प्राप्त करने वाले छात्र जिस प्रकार अपने निबन्ध से संबद्ध सामग्री जुटाने में कुछ कमी नहीं रखते, उसी प्रकार प्रधान भाषणों में सुनने वालों को प्रभावित करने के लिए इतनी अधिक सामग्री जमा करनी पड़ती है कि एक बार तो उससे सहमत होने के अतिरिक्त और कोई चारा ही न रह जाय।
समीक्षा-प्रधान भाषण वे हैं जिसमें किसी दूरस्थ व्यक्ति द्वारा घटनाक्रम के उतार—चढ़ावों की परिस्थितियों के परिवर्तन की-व्यक्तियों की त्रुटियों और तत्परताओं की चर्चा करते हुए वस्तुस्थिति प्रस्तुत की जाती है। सुनने वाले को पक्ष-विपक्ष की परिस्थितियों से परिचित कराया जाता है और उसे प्रतिपाद्य विषय के सम्बन्ध में आदि से अन्त तक के हेर फेरो की जानकारी कराई जाती है। यह इतिहासकारों जैसा दृष्टिकोण है—न्यायाधीशों के फैसले भी इसी आधार पर लिखे गये होते हैं। वकील एक ही पक्ष की बातें करते हैं, पर जूरी वैसा नहीं करते। वे दोनों पक्षों द्वारा प्रस्तुत किये गये घटना चक्र पर विचार करते हैं किसने कितनी भूल की और उस भूल से दोषी कौन कितना ठहरा, उसी अनुमान से वे दण्ड देने या छोड़ने की सलाह न्यायाधीश को देते हैं। सभी समीक्षात्मक भाषण जूरी के स्तर पर खड़े होकर देने पड़ते हैं और उनमें जनता को न्यायाधीश मान कर उसे किस निर्णय पर पहुंचना चाहिये इसकी पृष्ठ भूमि बनाई जाती है। ऐसे भाषण में वक्ता अपने को निष्पक्ष सिद्ध करता और गुण-दोष की विवेचना करते हुए किसी निर्णय पर पहुंचने की अपनी स्थिति प्रकट करता है, भले ही उसका झुकाव किसी पक्ष विशेष की ओर भीतर ही भीतर क्यों न रहा हो। ऐसे भाषण अपेक्षाकृत कठिन पड़ते हैं। उनका निर्वाह अधिक सूक्ष्मदर्शी ही कर सकते हैं।
भावना प्रधान भाषणों में संवेदना को—भावुकता को—आदर्शवादिता को उभारा जाता है। उनमें कवित्व को भूमिका होती है। श्रद्धा, भक्ति, प्रेम, करुणा, संयम, उदारता आदि के पक्ष में तर्क उतने नहीं होते जितनी की भावनाएं। आस्तिकता, आध्यात्मिकता एवं धार्मिकता जैसे भाव प्रधान विषयों में श्रद्धा एवं भावुक संवेदनाओं का ही बाहुल्य रहता है। तर्क और प्रमाणों के आधार पर भी इन्हें कहा तो जा सकता है, पर भावुकता का पुट चढ़ाये बिना वे बातें आधी, अधूरी, नीरस रहती हैं और तर्क भी अकाट्य नहीं होते। इसलिए कोमल संवेदनाओं को उभार कर ही जन समुदाय को अपने प्रवाह में बहकाया जा सकता है। कालिदास रचित ‘मेघदूत’ (संस्कृत काव्य) में भावुक कल्पनाओं की ही भरमार है। छायावादी एवं भाव प्रधान कविताओं में यह रस ही प्रधान होता है।
क्रौंच पक्षी का तीर से घायल होता, उसके साथी का विलाप करना—उस क्रन्दन से वाल्मीकि का हृदय पसीजना उससे करुणा की धार बहना और उस प्रवाह में आदि कवि का कवित्व फूट पड़ना, घटनाक्रम की दृष्टि से सामान्य बात है। पर यदि इतने से प्रसंग में सन्निहित भाव उभार को प्रस्तुत किया जा सके तो वह किसी संवेदन शील चित्रकार द्वारा प्रस्तुत किये करुणार्थ और रुला देने वाले चित्र से कम मार्मिक नहीं। ऐसी चर्चाएं करके कुशल वक्ता श्रोताओं को हंसाते, रुलाते और विभिन्न स्तर की अनुभूतियां कराते हुए उन्हें अपने साथ बिना पंखों के ही उड़ा ले जाते हैं और वहां ले जाकर खड़ा कर देते हैं जहां पहुंच सकना सामान्य तर्क बुद्धि का काम न था। यह बुद्धि का नहीं हृदय का खेल है। अभिनय की तरह कुछ अभ्यास कर लिया हो, रट लिया हो तो बात अलग, अन्यथा ऐसे भाषण दे सकना संवेदनशील कवि मानस का ही काम है। भाव चित्रों को उभारना और उनमें नयनाभिराम रंग भरना निस्सन्देह तार्किक, दार्शनिक से भी अधिक गहरी अन्तःचेतना का काम है। जिनमें ऐसी प्रतिभा होती है वे जनता की शिथिलता को उत्साह में, उपेक्षा को आक्रोश में, पूर्वाग्रह को नवीनता में, अश्रद्धा को श्रद्धा में और श्रद्धा को अश्रद्धा में बदल देने में सहज ही सफल हो जाते हैं। संसार में उग्र आन्दोलनों का अपना अलग ही इतिहास है। वे जनता को आवेशग्रस्त करके ही सफल बनाये गये हैं। कई बार आवेशों को शान्त करना भी जादू की छड़ी घुमाना जैसा होता है। असहमत जनता को इसी आधार पर सहमत कर सकना संभव होता है। पाकिस्तान की मांग कांग्रेस द्वारा स्वीकृत करा लेने में राजगोपालाचार्य के भाषण ने ऐसी ही जादू की छड़ी घुमाई थी। सरदार भगतसिंह को फांसी न लगाने का आग्रह देश के समस्त नेताओं ने एक स्वर से किया था। ब्रिटिश सरकार ने उसे न माना। इस उत्तेजना से अंग्रेजों के प्रति भारतीय जनता में अत्यधिक आवेश था और उनके स्वराज्य सम्बन्धी प्रस्ताव को पूर्णतया ठुकरा देने के पक्ष में लोग थे। तो भी गान्धी ने कांग्रेस से वह सहमति का प्रस्ताव पास करा लिया। यह जन मत की उलट देने की अद्भुत सफलता थी। ऐसे अवसरों पर तक कम और भावनाओं का उभार मुख्य होता है। भावनाओं के साथ खेलना भाव-शक्ति सम्पन्न वक्ता का ही काम है। वह जन-मानस पर छा जाने और लोक प्रवाह को अपने साथ वहां ले जाने में अधिक सफल होता है।
उपरोक्त चारों स्तर एक के बाद एक अपेक्षाकृत अधिक कठिन हैं। वर्णनात्मक शैली सबसे सरल है। इसके बाद विचार प्रभावों का वजन है। यों अभीष्ट उद्देश्य की पूर्ति के लिए दोनों ही अपनी प्रखरता और जन स्तर को देखते हुए प्रभावोत्पादक होते हैं, समीक्षा के लिए दार्शनिक एवं विवेचनात्मक-विश्लेषणात्मक प्रतिभा चाहिए और सुनने वालों का स्तर न्यायाधीश स्तर पर निष्कर्ष निकाल सकने जैसा होना चाहिए। भावनात्मक भाषणों का निर्वाह जितना स्वाभाविक होगा उतना ही मार्मिक बनेगा। नाटकीय और असंबद्ध भाव चित्रण बहुत भोंड़ा हो जाता है। उसके लिए कवि और कलाकार की प्रतिभा चाहिए। पिछले तीन अभ्यास के आधार पर बन पड़ते हैं, श्रम और मनोयोग से वैसे भाषण तैयार किये जा सकते हैं। पर भावुकता का कोई नियम या स्कूल नहीं। उस सम्बन्ध में इतना ही हो सकता है कि भाव प्रधान गद्य-पद्य पढ़े जायें, चित्र देखे जांय और उस प्रकार अवसरों पर उपस्थित होकर कोमल संवेदनाओं को उभारा जाय। इससे थोड़ी मदद तो मिल सकती है। भावाभिव्यक्ति कर सकने वाले शब्दों का चयन हो सकता है। पर विभिन्न घटनाओं या विषयों के साथ किस स्तर की अभिनव संवेदना जोड़ दी जाय यह मौलिक प्रतिभा का ही काम है। जिनमें वह तत्व हो वे उसे विकसित करने और खरीदने का प्रयत्न जारी रख सकते हैं और कलात्मक प्रवचनों में अभ्यस्त हो सकते हैं।
शरीर का सुडोल गठन, ऊंचा और तीखा कंठस्वर शब्दों का गठन तथ्यों और भावों का समावेश-वक्ता की भावतन्मयता आदि विशेषताओं के कारण भाषण प्रभावशाली बनते हैं। इनमें से कुछ बातें ईश्वर प्रदत्त हैं और कुछ प्रयास और अभ्यासजन्य। शरीर का गठन ईश्वर प्रदत्त है, पर उसे शालीनता प्रकट करने की स्थिति में रखना अपने हाथ की बात है। कंठस्वर की ध्वनि ईश्वर प्रदत्त है, पर उसमें शब्दों का—भावों का और प्रवाह-क्रम का समावेश करना प्रयत्न साध्य है। उथले और अन्यमनस्क मन से बोलने पर भाषण स्वभावतः घटिया रहेगा। पर जब उसे पूरी तैयारी अध्ययन और विधि-व्यवस्था के साथ प्रस्तुत किया जायगा और तन्मयतापूर्वक बोला जायगा तो उसे सहज ही बढ़िया और प्रभावशाली होने का श्रेय मिल जायगा।
भाषण की प्रशंसा इस बात में है कि वह आवश्यकतानुसार सभी प्रकार की संतुलित चर्चाएं बिना लड़खड़ाए कर सकने में समक्ष हों। आक्रमण, संरक्षण, वर्णनात्मक, भावोद्दीपक, प्रेम, उत्साह वर्धक, गले उतर सकने वाले तथ्यों से युक्त हो। उसमें कई रसों का समावेश होना चाहिये। असभ्य असत्य, विवेकहीन, अण्ट सण्ट बोलना वक्तृत्व कला का अपमान है। भाषण अर्थपूर्ण, दिशा सूचक, सारगर्भित, साध्य-साधक, सविनय होना चाहिए। उसमें जनमानस में प्रवेश कर सकने की क्षमता रहना चाहिए। हमें यह पूरी तरह समझ लेना चाहिए कि वक्तृत्व-शक्ति कोई ईश्वरीय देन नहीं है। वह पूर्णतया प्रयत्न साध्य है, अध्यवसाय और अभ्यास के आधार पर उसे हर कोई उच्चस्तर तक विकसित कर सकता है।