Books - भाषण और संभाषण की दिव्य क्षमता
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Language: HINDI
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संभाषण के कुछ सारगर्भित सिद्धान्त
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मंच पर बैठकर उपस्थित जन-समुदाय के सम्मुख किसी एक विषय पर प्रवचन करना ऐसा सुयोग है जो कभी-कभी ही संभव हो सकता है। हर दिन हर समय वह किसी के लिए शक्य नहीं। न उससे काम ही चलता है। प्रशिक्षण, परामर्श, उद्बोधन, यदा-कदा की बात है। पर्व त्यौहारों का माहौल हर दिन नहीं रह सकता। उस उत्साह का प्रकटीकरण कभी-कभी ही उपयुक्त लगता है। शेष समय तो स्वाभाविक काम काजी स्थिति में ही गुजरता है।
आदान-प्रदान ही नित्यक्रम में स्थान पाता है। ग्राहक-व्यापारी एक दूसरे से अपनी बात कहते हैं और सौदा पटा लेते हैं। पूछ-ताछ जांच-पड़ताल, कुशल, क्षेत्र, स्वागत, विदाई, करना-कराना, शंका-समाधान; आदेश परिपालन, हंसना-हंसाना आदि के उपक्रम वार्तालाप के विषय होते हैं। इसी के सहारे बात बनती है और काम चलते हैं। साहित्यिक भाषा में इसे संभाषण कहते हैं। यह भी एक कला है। सच तो यह है कि सबकी प्रवीणता, मंचप्रवचनों से भी अधिक उपयोगी, तथा आवश्यक है। वार्ता कुशल व्यक्ति दूसरों को प्रभावित करते और अपनी मर्जी पर चलाते देखे गये हैं। जब कि इस कौशल से रहित व्यक्ति अपने मन की बात कह ही नहीं पाते, फलतः दूसरों को प्रभावित करना, अनुकूल बनाना, समर्थन पाना संभव ही नहीं होता। उलटे दूसरों के तर्क, कथन परामर्श एवं दबाव के नीचे आत्म समर्पण करते देखे जाते हैं।
वाक् चातुर्य में प्रवीण व्यक्ति उनसे येनकेन प्रकारैण ही करा लेते हैं। फिर वचन पालन की दुहाई देकर उसे करने का दबाव डालते हैं। यद्यपि वह बात उस दबाव से भी आधी-अधूरी ही गले उतरी थी और पीछे सोचने पर वह सर्वथा अनुपयुक्त प्रतीत हुई। तर्क करते टालते न आरंभ में बना और न इनकारी का साहस पीछे हुआ। इस पर न करने योग्य करते—न मानने योग्य मानते देखे जाते हैं। आत्महीनता के कारण अपना, तर्क, पक्ष, असमंजस, कारण प्रकट ही नहीं कर पाते और वह कह या कर बैठते हैं जो उपयुक्त नहीं था।
यह आत्म रक्षा वाला पक्ष हुआ। अब वह प्रसंग सामने आता है जिसमें अपनी बात किसी के सम्मुख रखनी है, उससे सहमत करना है, साथी बनाना या सहयोग लेना है। यह भी आवश्यक है। इस संसार में अकेलेपन से काम नहीं चलता। सहयोग आवश्यक है, सम्मिलित प्रयासों से ही छोटे-बड़े काम चलते हैं। शरीर के अवयव मिलजुल कर काम करें तो स्वास्थ्य ठीक रहे। घर के लोग हिल मिल कर रहें तो परिवार चले। व्यवसाय में भी यही बात है। पाठशाला से लेकर शासनतंत्र तक में सम्मिलित प्रयत्न ही अभीष्ट उद्देश्य की पूर्ति करते हैं। उनमें सहकार एवं अनुशासन की आवश्यकता पड़ती है। इसे बनाये रहने के लिए असन्तोष एवं विग्रह को टालने के लिए दूसरे की सुनना और अपनी कहना आवश्यक है। यही वार्तालाप या संभाषण है जिसे जीवन निर्वाह व्यवसाय जैसे निजी और समाज शासन जैसे सामूहिक क्षेत्रों में निरन्तर कार्यान्वित करना पड़ता है। जो नित्य ही करना है, उसके गुण-दोषों को सफलता के कारणों को, उपयुक्त स्तर की प्रयोग प्रक्रिया को भी जानना चाहिए। अन्यथा प्रसंग उपयुक्त एवं दोनों का हित होते हुए भी बात बिगड़ जायेगी। वाणी-दोष या व्यवहार अनगढ़ होने से सामने वाला चिढ़ जायेगा और उस चिढ़ की परिणति उस उद्देश्य की विफलता में होगी जिसे अच्छा ‘मूड’ रहने पर सरलता पूर्वक सहमति की सफलता तक पहुंचाया जा सकता था और उससे दोनों पक्षों को लाभ मिल सकता था।
हर प्रसंग की आरंभिक एवं आवश्यक जानकारी प्राप्त करनी होती है। रसोई पकाना-कपड़े धोना-ग्रह व्यवस्था में काम आने वाली साज-संभाल न आती हो तो नव-वधू को उलाहने सहने पड़ते हैं। अपेक्षा की जाती है कि वधू अपने पितृगृह से इतना तो सीख कर ही आई होगी। यही बात श्रमिकों के सम्बन्ध में है, वे जिस मजदूरी को करते हैं उसकी विधि व्यवस्था से पूर्व परिचित होते हैं तो स्थायी बन जाते हैं और अधिक पारिश्रमिक पाते हैं जब कि सर्वथा अपरिचित से इच्छा होते हुए भी कुछ करते धरते नहीं बनता। अनुभवहीनता के कारण पग-पग पर गलती होती है और झल्लाहट सुननी पड़ती है। इसी कठिनाई को समझते हुए हर महत्वपूर्ण काम के लिए भर्ती किये जाने वाले कर्मचारियों को ट्रेनिंग देनी पड़ती है। जब सामान्य ज्ञान और काम चलाऊ अभ्यास हो जाता है तभी कोई जिम्मेदारी का काम सौंपा जाता है।
यही बात वाक्चातुर्य या संभाषण की कुशलता के सम्बन्ध में भी है। जीभ एक अत्यन्त शक्तिशाली अस्त्र है। इसे दूसरों को अनुकूल बनाने या लाभ पहुंचाने के लिए अनिवार्य रूप से प्रयुक्त करना होता है। भ्रांतियों का निराकरण इसके बिना हो ही नहीं सकता। सुझाव देने और कुछ नये कदम उठाने के लिए उत्साह भरने में वार्तालाप की शैली परिष्कृत हो तो ही काम चलेगा अन्यथा अभ्यस्त चिन्तन को, आदत को, ढर्रे को बदलने के लिए किसी को सहमत कर सकना सरल नहीं है। शुरुआत अच्छी न हो, आरंभ में ही मक्खी छींक जाय, प्रथम मिलन ही अनुपयुक्त प्रभाव छोड़े तो समझना चाहिए कि गाड़ी पटरी से उतरी और बनती बात बिगड़ी।
दो व्यक्ति मिलते हैं तो मुख खोलने से पूर्व ही आदान-प्रदान आरंभ हो जाता है। यह प्रथम छाप छोड़ने से ही सम्बन्धित है। आंखें किसी को देखते ही उसके सम्बन्ध में मान्यता बना देती हैं और फिर स्तर की मान्यता के आधार पर वार्तालाप का सिलसिला आरंभ होता है। अनगढ़ वेशभूषा, खुलेबदन, हजामत, साथ में बेतुका सामान देखकर लगता है कोई अधपागल आया। कायदा, करीना, शरीर-सज्जा, साथ वाले सामान का स्वरूप, खड़ा होने, चलने का क्रम—यह बता देता है कि नवागन्तुक को सभ्य लोगों के बीच रहने, सुसंस्कारी लोगों के साथ व्यवहार करने का अवसर मिला है या नहीं, जूते कहां उतारे, छाता कहां रखे, कमरे में प्रवेश करने से पूर्व आज्ञा मांगी या नहीं, अभिवंदन किया या नहीं, चेहरे पर मिलन की सहज मुस्कान उभरी या नहीं, बैठने के लिए उपयुक्त स्थान परखा या नहीं—यह बातें बताती हैं कि आगन्तुक व्यावहारिक सभ्यता से परिचित है या नहीं। बिना मिलने वाले की सुविधा असुविधा का विचार किये दनदनाते हुए चले जाना और अन्यान्यों से चल रही वार्ता में व्यवधान उत्पन्न करते हुए सर्वप्रथम अपने साथ जुट जाने की आशा करना असभ्यता की निशानी है। ऐसे लोग महत्वपूर्ण होते हुए भी खीज उत्पन्न करते हैं और मिलते समय ही अपने अनगढ़ होने के एक-एक करके कई प्रमाण उपस्थित करते हैं। स्मरण रखा जाय कि अनगढ़ मिलन-व्यवहार भी ऐसा ही है जैसा कि किसी श्रमिक का ईमानदार मेहनती होने पर भी बताये हुए काम से अपरिचित होने के कारण बेतुकी हरकतें करने लगना। दो व्यक्तियों का मिलन एक सुसंयोग है उसे फलप्रद बनाने के लिए शुभारम्भ शालीनता की—सुसंस्कारिता की छाप छोड़ने से होना चाहिए।
यही बात मेजबान की ओर से मेहमान के साथ किए गए मिलन व्यवहार के सम्बन्ध में लागू होती है। उसे आगन्तुक को देखते ही प्रसन्नता व्यक्त करनी चाहिए और अभिवादन की परम्परा का तत्काल निर्वाह करना चाहिए। आवश्यक हो तो कुर्सी पर से खड़ा भी होना चाहिए और सम्मानपूर्वक बैठने का स्थान देना चाहिए। इसमें विलम्ब करना, चालू वार्ता या कार्य में रहना, फुरसत पाने पर स्वागत नमस्कार का उपक्रम करना यह बताता है कि आगन्तुक का मूल्यांकन नहीं हुआ। उसे सम्मान नहीं मिला, यह खटकने वाली स्थिति है। वार्ता आरम्भ होने से पूर्व ही वह पृष्ठभूमि बन जाती है जिसमें एक दूसरे के सम्बन्ध में धारणा बना ली जाती है और वह विचार-विनिमय में आदि से अन्त तक सहायक या बाधक बनी रहती है।
क्या कहा गया, उसमें क्या नफा नुकसान था, उसकी आवश्यकता उपयोगिता क्यों पड़ी, यह तब प्रकट होता है जब मिलन शिष्टाचार का—एक दूसरे के स्वरूप सामान को देखकर स्तर जांचने का—अध्याय पूरा हो लेता है। पुस्तकों के प्रथम अध्याय में भूमिका होती है। उसे पढ़कर यह अनुमान लग जाता है कि लेखक का क्या अभिप्राय है और पुस्तक में आगे चलकर क्या बताया जायेगा। ठीक इसी प्रकार मिलन के समय ही एक दूसरे के स्तर को समझने का सही गलत अनुमान लगा लेते हैं। बात काम की होगी या नहीं यह जानने से पूर्व यह जांच पड़ताल होती है कि आदमी वजनदार है या नहीं। यदि लगे कि आगन्तुक अनगढ़, असभ्य बेतुका या घटिया स्तर का है तो उसके साथ वार्त्ता में भी अरुचि होती है। लगता है इसके साथ वार्त्ता करने में जो समय लगेगा वह व्यर्थ ही चला जायेगा। तब प्रयत्न यह होता है कि आगन्तुक द्वारा आरम्भ की गई वार्त्ता को जितनी जल्दी संभव हो निपटा दिया जाय। उपेक्षा, असमर्थता, अनभिज्ञता, व्यस्तता, चिन्ता, अस्वस्थता आदि के कितने ही बहाने ऐसे हैं जिनका आभास देकर आगन्तुक को जल्दी चले जाने का संकेत किया जाता है। इतने पर भी वह न टले, तो फिर थोड़ा कड़क कर स्पष्ट शब्दों में विदा होने के लिए कहना पड़ता है। ढिठाई में यह दोष है कि अपनी ही कहती चली जाती है, दूसरे की इच्छा, सुविधा, स्थिति को देखती ही नहीं। ऐसे कहीं जाने पर उपेक्षित तिरस्कृत होकर लौटें तो उसे वार्त्ता के विषय की अनुपयुक्तता न मानकर यही कहना होगा कि मिलन के अवसर पर अच्छी छाप छोड़ने की बात बनी नहीं और बिना सिगनल के चल पड़ने वाली गाड़ी जैसा असमंजस खड़ा हो गया। वार्त्ता आरम्भ करने से पूर्व आधी बात समाप्त हो जाती है। वैसे ही जैसे कि जन्म लेने से पूर्व माता के उदर में बालक सुसंस्कार-कुसंस्कारों की पढ़ाई पूरी कर लेता है। वार्त्ता कि प्रसंग पर की जाती है—यह बाद की बात है। पहली यह है कि अपनी विनयशीलता का प्रदर्शन और दूसरे की सम्मान रक्षा का निर्वाह हुआ या नहीं। हर व्यक्ति जन्मजात स्वाभिमानी होता है। यह उसका मौलिक अधिकार भी है। आत्मा की विभिन्न भूखों और आवश्यकताओं में एक सम्मान रक्षा भी है। यही आगे चल कर यश-लिप्सा, ठाट-बाट, उद्धत प्रदर्शन, दुस्साहस आदि का रूप धारण करके ऐसे जाल-जंजाल बुनती है जो खर्चीले भी होते हैं और बेतुके भी। किन्तु किया क्या जाय, सम्मान पाने की आवश्यकता को सीधे रास्ते पूरा करने का मार्ग न मिले तो वह गलत मार्ग से फूटेगी। छोटे बच्चे भी सम्मान चाहते हैं और उसका परिचय प्यार दुलार के संकेतों द्वारा समझते हैं। तद्नुरूप अपनी प्रसन्नता-अप्रसन्नता व्यक्त करते हैं। यह मान रक्षा हर किसी की होनी चाहिए। यही शिष्टाचार व्यवहार है। इसका निर्वाह वार्त्ता के साथ-साथ भी होना चाहिए सद्गुणों की, सफलताओं की सूझ-बूझ की, बीच-बीच में चर्चा करते रहा जाय तो वार्ता निश्चित रूप से अधिक प्रभावी हो जायेगी। सम्मान पाकर हर किसी के गर्व की तुष्टि होती है। प्रशंसा सुनकर हर किसी की बांछें खिल उठती हैं। यह रिश्वत यदि सामने वाले को देते रहा जाय तो उसका समर्थन एवं अनुग्रह अर्जित करने के मार्ग की आधी कठिनाई दूर हो जायेगी।
प्रभावी वार्त्ता की दूसरी विशेषता है—कहने वाले की नम्रता-विनयशीलता इसे सज्जनता का एक अंग माना गया है। अपनी शेखी बघारते रहने वाले, पग-पग पर मियां मिट्ठू बनने वाले, अपनी योग्यता, सफलता, सम्पदा का बखान करते रहने वाले सोचते तो यह हैं इससे सामने वाले पर रोब गांठना सम्भव होगा और वह अपनी गरिमा के आगे नतमस्तक होगा। पर वस्तुतः यह दाव हमेशा खाली जाता है। इतना ही नहीं, उसका परिणाम कई बार तो ठीक उल्टा होता है। बखान सही ही किया जा रहा है, पर उसके वर्णन में जो दूसरों का समय लिया गया—उससे उत्पन्न हुई प्रतिक्रिया शेखीखोरी समझी जाती है और अहंकारी ठहराती है। इससे वक्ता के मान और स्तर दोनों को ही क्षति पहुंचती है।
वार्त्ता में यदि अत्यन्त आवश्यक हो-तो ही मैं......मैं का उच्चारण करना चाहिए अन्यथा उसकी चर्चा न करना ही अधिक उपयुक्त है। प्रसंगवश यदि अत्यन्त आवश्यक हो जाय तो वहां ‘हम लोग’ शब्द का प्रयोग करना चाहिए। नव-सृजन अभियान की गतिविधियों या विचार धारा के सम्बन्ध में तो यह और भी अधिक ध्यान रखने योग्य है। क्यों कि इस प्रसंग में यदि कोई सफलता मिली है तो उसका श्रेय किसी एक व्यक्ति को नहीं मिल सकता। उसके पीछे अनेकों का छोटा बड़ा सहयोग जुड़ रहा है। सफलता का श्रेय अपने ऊपर लेने मैं-मैं की बात बार-बार कहने से कई कठिनाइयां उत्पन्न होती हैं। एक तो यह है कि इस प्रकार के लोग अहंकारी माने जाते हैं। सामने वाले पर बड़प्पन की छाप छोड़ने वाला प्रकारान्तर से उसे नीचा दिखाने वाला सिद्ध होता है। दूसरा इसका अर्थ यही लेता है। नम्रता के व्यवहार में वह अपने को सम्मानित विजयी मानता है और वक्ता के बार-बार मैं-मैं कहने पर अनुभव करता है कि अपना बड़प्पन जताकर प्रकारान्तर से मुझे छोटा सिद्ध किया जा रहा है। इससे उसे चोट लगती है और मन ही मन अप्रसन्नता व्यक्त करता है। तीसरी एक और कठिनाई है कि साथियों में से कोई पास बैठा हुआ सुन रहा हो-या किसी के मुंह सुने तो उसे लगेगा कि जिस प्रयास या जिस सफलता में हम सब का भी छोटा-बड़ा योगदान रहा-उसको मटियामेट किया जा रहा है और श्रेय स्वयं लूटा जा रहा है। इस प्रकार साथियों के मन में असन्तोष पैदा होता है और परस्पर कलह के बीज अंकुरित होने लगते हैं। सामने वाला समझदार हुआ तो उसे भी इस बात का पता चलता है कि सम्मिलित प्रयत्नों द्वारा उपलब्ध हुई सफलताएं एक के प्रयत्न का प्रतिफल नहीं हो सकतीं। फिर जो उस संदर्भ में श्रेय सूचक विवरण मैं-मैं के साथ प्रस्तुत कर रहा है वह उथला-बचकाना होना चाहिए। यही है वह तथ्य जो मैं-मैं कह कर अपने बखान के लिए आतुरता व्यक्त करने वाला उलटा घाटे में रहता है। वह जितनी छाप छोड़ता है उससे अधिक सुनने वालों की आंखों में गिरता चला जाता है।
यदि वार्त्ता किसी प्रतिपादन सिद्धान्त या कार्यक्रम के संदर्भ में की जा रही है तो भी उसका उद्गम केन्द्र वक्ता नहीं, वह मात्र वाहक है। ऐसी दशा में भी किसी सिद्धान्त की महत्ता बतानी हो तो उसकी विशेषताओं का वर्णन कर देना ही पर्याप्त है। वह सिद्धान्त किसका है। किसने उसे प्रसारित किया उसके लिए श्रेय ऋषियों को, शास्त्रों को, आप्त पुरुषों को देना चाहिए। यदि इससे नीचे उतरना हो तो अपने मिशन को आगे रखा जा सकता है जिसने युगचेतना उत्पन्न करने वाली विचारधारा का सामयिक आवश्यकताओं के अनुरूप नये सिरे से निर्धारण किया है। सभी दृष्टि से ‘मैं मैं’। कहने की उपयोगिता सिद्ध नहीं होती और उसका जितनी बार उच्चारण किया जाता है उतने ही बार वक्ता का वजन घटता है और जो कहा जा रहा है उसके प्रति सामने वाले की सहानुभूति उत्पन्न होने का अवसर कम होता है।
नव-सृजन की विचारधारा का आमतौर से विज्ञ समाज में समर्थन होना चाहिए, पर यदि कहीं उपेक्षा अवहेलना हो रही हो तो देखना चाहिए कि इससे प्रस्तुतीकरण कहीं घटिया स्तर का—घटिया ढंग से तो नहीं हुआ। व्यवहार कुशलता में—वाक्पटुता में कमी होना एक ऐसा अवरोध है जो बनती बात को बिगाड़ देता है। प्रश्न सिद्धान्तों का न रहकर व्यक्तिगत रोष असंतोष का बन जाता है। उसका प्रभाव व्यक्तिगत विग्रह विरोध तक सीमित न रहकर सिद्धान्तों कार्यक्रमों का विरोध बनकर उभरता है। इसलिए आदर्शों की चर्चा करने वाले-दूसरे के गले उतारने वाले को बहुत ही सावधानी और दूरदर्शिता से काम लेना चाहिए। उसे दूसरों को मान देने और अपनी विनयशीलता प्रकट करने में कहीं भी चूक नहीं करनी चाहिए। बन पड़े तो बात-बात में ऐसे प्रसंगों का समावेश करते रहना चाहिए जिसमें अपनी नम्रता और सामने वाली की विशिष्टता की चर्चा होती चले। इसमें अत्युक्ति की-चापलूसी की भी आवश्यकता नहीं। हर व्यक्ति में जहां कुछ दोष होते हैं वहां उसमें गुण भी रहते हैं। दोषों पर ध्यान न देकर गुणों-सफलताओं पर दृष्टि डाली जाय तो कोई भी विशेषताओं से सर्वथा रहित नहीं मिलेगा। तिल का ताड़ बनाने की जरूरत नहीं है जिस प्रशंसा की गुंजाइश है उसी का उल्लेख कर देने से मान मिल जाता है। इस मनोवैज्ञानिक तथ्य को जो जानते हैं वे अपने-अपने क्षेत्रों में भरपूर सफलतायें पाते हैं। ठग-चापलूस प्रायः इसी हथियार को काम में लाते हैं। विलासी सामग्री बेचने वाली दुकान के ‘सेल्समैन’ इसी कला में प्रवीण होते हैं। जो इस हथियार का जितनी बार जितनी खूबसूरती से प्रयोग करता है वह उतना ही अधिक बिक्री कर लेता है। जब कि रूखी प्रकृति के कर्कश लोग तुलनात्मक दृष्टि से आधा-अधूरा लाभ भी अर्जित नहीं कर पाते। यहां ठगी-चापलूसी की शिक्षा नहीं दी जा रही है वरन् यह कहा जा रहा है कि जिस कुशलता को अपना कर ओछे उद्देश्यों में भी सफलता मिल सकती है, उसके उपयोग से उच्चस्तरीय कार्यों में अनुकूलता क्यों उत्पन्न नहीं की जा सकेगी?
पहली बार असहमति रहने पर भी संबंध तोड़कर, खोजकर अप्रसन्नता व्यक्त करते हुए, लांछन लगाते हुए नहीं लौटना चाहिए। वरन् आगे के लिए रास्ता खुला रखना चाहिए। विदाई यह कहते हुए ही लेनी चाहिए कि ‘‘अपनी बात को ठीक तरह प्रस्तुत कर सकना शायद इस बार बन नहीं पड़ा। अगली बार इस प्रसंग पर हम लोग फिर कभी अवसर मिलने पर शान्तचित्त से चर्चा करेंगे तो तथ्यों को समझने-समझाने का प्रयत्न करेंगे।’’ वार्त्ता की समाप्ति पर सुनने वाले का समय लिया गया उसके प्रति कृतज्ञता व्यक्त करना तो कभी भूलना ही नहीं चाहिए। हर व्यक्ति का समय अपना है, उसे अधिकार है कि अपनी वस्तु का मनमर्जी से खर्च करे। यदि किसी नवान्तुक ने बिना बुलाये आने और बिना पूछी बात का प्रसंग चालू कर दिया है तो वस्तुतः यह सामने वाले का अनपेक्षित समय लेना ही हुआ। अच्छा तो यह होता कि कहने से पूर्व ही यह पूछ लिया गया होता कि आपका कुछ समय अमुक सन्दर्भ में चर्चा के लिए लेना क्या इस समय शक्य है? ‘हाँ’ कहने पर ही वार्त्ता आरम्भ की जाय। पर यदि वैसा नहीं बन पड़ा तो चलते समय तो उस अनधिकारी अपहरण के लिए अपनी कृतज्ञता व्यक्त करने के साथ-साथ उसकी उदारता की भी सराहना करनी चाहिए। जो ऐसा नहीं करते, किसी के भी सिर पर समय-कुसमय जा चढ़ते हैं और मनचाहे समय तक बकवास करते रहने को अपना अधिकार मानते हैं वे सभ्यता के सामान्य नियमों से अपरिचित माने लाते हैं। ऐसा अनगढ़पन किसी भी संभाषणकर्ता को, वार्त्ता प्रसंग आरंभ करने वाले को प्रदर्शित नहीं करना चाहिए।
जो कहना हो वह लम्बी भूमिका बनाने की अपेक्षा संक्षिप्त किन्तु सारगर्भित कहना चाहिए। उस कथन के प्रतिपादन को कार्यान्वित करने पर व्यक्तिगत सामूहिक लाभ क्या हो सकते हैं, न अपनाये जाने पर इन दिनों क्या-क्या हानियां हो रही हैं और भविष्य में क्या हो सकती हैं इस प्रकार प्रकाश डालने से सुनने वाले का आकर्षण बढ़ता है और वह समझता है कि कोई महत्वपूर्ण चर्चा आरम्भ होने जा रही है। इतना न समझ सकने पर अपनी रुचि से भिन्न प्रकार की बात बेतुकी मानी जाती है और उसे करना तो दूर सुनना तक भारी पड़ता है। इसलिए प्रसंग की उपयोगिता, आवश्यकता, अनिवार्यता, महत्ता पर आरम्भ में ही प्रकाश डालना आवश्यक है। फिर जो कहना हो उसके पक्ष-विपक्ष के तर्क, तथ्य, प्रमाण, उदाहरण प्रस्तुत करते हुए अपनी बात वजनदार होने की छाप छोड़नी चाहिए। यह कार्य मात्र भावुकता व्यक्त करने या अपनी मान्यता सुना देने से नहीं हो सकता। लोग तर्क, तथ्यों से प्रभावित होते हैं। कोई क्या मान्यता रखता है, इससे किसी को क्या वास्ता? अपनी बात थोपना और तत्काल उससे सहमत करा लेना, अनाधिकार चेष्टा है, अपने पक्ष को कुशल वकील की तरह प्रस्तुत करना चाहिए और सुनने वाले को अदालत मानकर उसे अपने पक्ष में करने का धैर्यपूर्वक प्रयत्न करना चाहिए। सफलता न मिलने या आंशिक सहमति मिलने पर भी खीजने की आवश्यकता नहीं। कोई वकील किसी अदालत से इसलिए दुश्मनी नहीं बांधता कि उसके तर्क अमान्य ठहराये गये और फैसला वैसा नहीं हुआ जैसा कि उसने चाहा था। वकील सोचता है उसका काम अपना पक्ष मजबूती से प्रस्तुत कर देना भर था सो कर लिया गया। अदालत का सोचने का ढंग अपना है, वह अपने दृष्टिकोण से फैसला करेगी। इतनी धृष्टता कोई वकील नहीं करता कि पक्ष प्रस्तुत करने के साथ ही यह मान्यता भी बना ले कि अपनी मर्जी का फैसला लिखा कर हटेगा। संभाषण कर्त्ता की मनःस्थिति भी ऐसी ही होनी चाहिए। उसे हंसते-हंसाते अपना प्रसंग चलाना चाहिए और प्रारम्भ से ही यह गुंजाइश रखनी चाहिए कि यदि सहमति न हुई, सहयोग न मिला तो भी कटुता उत्पन्न न होने दी जायगी और भावी विचार-विनिमय का द्वार खुला रखा जायगा। विग्रह तभी खड़ा होता है जब थोपने की मुद्रा अपनाई जाय। इच्छित वस्तु लेकर हटने की मनोवृत्ति प्रकारान्तर से डाकुओं या बलात्कारियों जैसी मानी जाती है। यह लोकव्यवहार से बाहर की बात है। हर किसी को अपना पक्ष प्रस्तुत करने में कुशलता बरतने भर से सन्तुष्ट रहना चाहिए। दस जगह कहने पर एक जगह भी पूरी या अधूरी सफलता मिली तो उतने पर भी प्रसन्न रहा जा सकता है। बूंद-बूंद करके घट भरता है। एक-एक का समर्थन नित्य अर्जित करते चलने पर महीने में तीस को अनुकूल बना लेना कम प्रसन्नता की बात नहीं है। दस से कहने पर एक का ही समर्थन मिला इस सन्दर्भ में नौ की असफलता को नहीं, एक की सफलता को ही सौभाग्य मानना चाहिए। पनडुब्बे बार-बार डुबकी लगाते हैं, पर हर बार उन्हें मोतियों से झोली भरकर लौटने का अवसर कहां मिलता है। आतुर लोग ही तत्काल, भरपूर, मनचाही सफलता की आशा करते हैं। चर्चा करते ही समर्थन की अपेक्षा करते हैं। यह भावुकों, आतुरों का काम है। यथार्थतावादी समझते हैं कि प्रवाह के विपरीत चर्चा करते रहने पर भी सफलता सीमित ही मिलेगी। इसलिए सदा उपलब्धियों पर प्रसन्नता व्यक्त करने, सन्तुष्ट रहने और भविष्य में अधिक अनुकूलता उत्पन्न होने की आशा संजोये रहने का ही प्रयत्न करना चाहिए। जो असफलताओं का लेखा-जोखा रखते हैं उन्हें निराशा घेर लेती है। हाथ-पांव फूल जाते हैं और कुछ करते धरते नहीं बन पड़ता। इस विपन्नता से बचने के लिए खदानें खोजने के लिए वन-वन भटकने वालों से धैर्य धारण करना सीखना चाहिए।
किससे कितनी देर बात करनी चाहिए। इस संदर्भ में सामने वाले की मनःस्थिति और परिस्थिति को बारीकी से ताड़ना चाहिए। व्यस्त लोग थोड़ी देर में सार संक्षेप सुनने से ही जितना उनके काम का होता है समझ लेते हैं। छोटे बच्चों की तरह पाठ पढ़ाने, आल्हा गाने की आवश्यकता नहीं पड़ती। फिर कभी-कभी किसी का मूड बिगड़ा हुआ होता है, निजी कठिनाइयों के कारण उस समय मर्जी से भिन्न प्रकार की बातें सुनने का मन नहीं होता। ऐसी दशा में किसी पर लद पड़ना या अपने विचार थोपने की व्यग्रता दिखाना अनुपयुक्त है। अपनी सुविधा या मनःस्थिति क्या है, यही सब कुछ नहीं मान लेना चाहिए। सामने वाले को भी समझना चाहिए और परिस्थिति के साथ तालमेल बिठाते हुए वार्त्ता को हल्की या भारी करना चाहिए।
अच्छा हो चर्चा का आरम्भ सुनने वाले के स्वभाव, रुझान, व्यवसाय, परिवार के सम्बन्ध में रुचि लेते हुए, इस क्षेत्र की कठिनाइयों पर संवेदना सहानुभूति प्रकट करते हुए, सफलताओं पर प्रसन्नता व्यक्त करते हुए किया जाय। हर व्यक्ति अपने आप में व्यस्त और मस्त है। उसे अपनी स्थिति ही सर्वोपरि महत्व की प्रतीत होती है। उसमें रस लेने वाले हितैषी एवं आत्मीय माने जाते हैं। ऐसों की अन्य बातें भी सुहाती हैं। इसलिए पूरा समय सैद्धान्तिक चर्चा में ही न लगाकर, उसका आदि और अन्त ऐसा रखना चाहिए जिसमें आत्मीयता, घनिष्ठता, पारिवारिकता का भी पुट रहे। इस प्रसंग में यदि तिहाई-चौथाई समय लग जाय तो उसे निरर्थक नहीं मानना चाहिए वरन् बीज उगने के लिए खाद का जुगाड़ बिठाने की तरह आवश्यक ही मानना चाहिए।
आदान-प्रदान ही नित्यक्रम में स्थान पाता है। ग्राहक-व्यापारी एक दूसरे से अपनी बात कहते हैं और सौदा पटा लेते हैं। पूछ-ताछ जांच-पड़ताल, कुशल, क्षेत्र, स्वागत, विदाई, करना-कराना, शंका-समाधान; आदेश परिपालन, हंसना-हंसाना आदि के उपक्रम वार्तालाप के विषय होते हैं। इसी के सहारे बात बनती है और काम चलते हैं। साहित्यिक भाषा में इसे संभाषण कहते हैं। यह भी एक कला है। सच तो यह है कि सबकी प्रवीणता, मंचप्रवचनों से भी अधिक उपयोगी, तथा आवश्यक है। वार्ता कुशल व्यक्ति दूसरों को प्रभावित करते और अपनी मर्जी पर चलाते देखे गये हैं। जब कि इस कौशल से रहित व्यक्ति अपने मन की बात कह ही नहीं पाते, फलतः दूसरों को प्रभावित करना, अनुकूल बनाना, समर्थन पाना संभव ही नहीं होता। उलटे दूसरों के तर्क, कथन परामर्श एवं दबाव के नीचे आत्म समर्पण करते देखे जाते हैं।
वाक् चातुर्य में प्रवीण व्यक्ति उनसे येनकेन प्रकारैण ही करा लेते हैं। फिर वचन पालन की दुहाई देकर उसे करने का दबाव डालते हैं। यद्यपि वह बात उस दबाव से भी आधी-अधूरी ही गले उतरी थी और पीछे सोचने पर वह सर्वथा अनुपयुक्त प्रतीत हुई। तर्क करते टालते न आरंभ में बना और न इनकारी का साहस पीछे हुआ। इस पर न करने योग्य करते—न मानने योग्य मानते देखे जाते हैं। आत्महीनता के कारण अपना, तर्क, पक्ष, असमंजस, कारण प्रकट ही नहीं कर पाते और वह कह या कर बैठते हैं जो उपयुक्त नहीं था।
यह आत्म रक्षा वाला पक्ष हुआ। अब वह प्रसंग सामने आता है जिसमें अपनी बात किसी के सम्मुख रखनी है, उससे सहमत करना है, साथी बनाना या सहयोग लेना है। यह भी आवश्यक है। इस संसार में अकेलेपन से काम नहीं चलता। सहयोग आवश्यक है, सम्मिलित प्रयासों से ही छोटे-बड़े काम चलते हैं। शरीर के अवयव मिलजुल कर काम करें तो स्वास्थ्य ठीक रहे। घर के लोग हिल मिल कर रहें तो परिवार चले। व्यवसाय में भी यही बात है। पाठशाला से लेकर शासनतंत्र तक में सम्मिलित प्रयत्न ही अभीष्ट उद्देश्य की पूर्ति करते हैं। उनमें सहकार एवं अनुशासन की आवश्यकता पड़ती है। इसे बनाये रहने के लिए असन्तोष एवं विग्रह को टालने के लिए दूसरे की सुनना और अपनी कहना आवश्यक है। यही वार्तालाप या संभाषण है जिसे जीवन निर्वाह व्यवसाय जैसे निजी और समाज शासन जैसे सामूहिक क्षेत्रों में निरन्तर कार्यान्वित करना पड़ता है। जो नित्य ही करना है, उसके गुण-दोषों को सफलता के कारणों को, उपयुक्त स्तर की प्रयोग प्रक्रिया को भी जानना चाहिए। अन्यथा प्रसंग उपयुक्त एवं दोनों का हित होते हुए भी बात बिगड़ जायेगी। वाणी-दोष या व्यवहार अनगढ़ होने से सामने वाला चिढ़ जायेगा और उस चिढ़ की परिणति उस उद्देश्य की विफलता में होगी जिसे अच्छा ‘मूड’ रहने पर सरलता पूर्वक सहमति की सफलता तक पहुंचाया जा सकता था और उससे दोनों पक्षों को लाभ मिल सकता था।
हर प्रसंग की आरंभिक एवं आवश्यक जानकारी प्राप्त करनी होती है। रसोई पकाना-कपड़े धोना-ग्रह व्यवस्था में काम आने वाली साज-संभाल न आती हो तो नव-वधू को उलाहने सहने पड़ते हैं। अपेक्षा की जाती है कि वधू अपने पितृगृह से इतना तो सीख कर ही आई होगी। यही बात श्रमिकों के सम्बन्ध में है, वे जिस मजदूरी को करते हैं उसकी विधि व्यवस्था से पूर्व परिचित होते हैं तो स्थायी बन जाते हैं और अधिक पारिश्रमिक पाते हैं जब कि सर्वथा अपरिचित से इच्छा होते हुए भी कुछ करते धरते नहीं बनता। अनुभवहीनता के कारण पग-पग पर गलती होती है और झल्लाहट सुननी पड़ती है। इसी कठिनाई को समझते हुए हर महत्वपूर्ण काम के लिए भर्ती किये जाने वाले कर्मचारियों को ट्रेनिंग देनी पड़ती है। जब सामान्य ज्ञान और काम चलाऊ अभ्यास हो जाता है तभी कोई जिम्मेदारी का काम सौंपा जाता है।
यही बात वाक्चातुर्य या संभाषण की कुशलता के सम्बन्ध में भी है। जीभ एक अत्यन्त शक्तिशाली अस्त्र है। इसे दूसरों को अनुकूल बनाने या लाभ पहुंचाने के लिए अनिवार्य रूप से प्रयुक्त करना होता है। भ्रांतियों का निराकरण इसके बिना हो ही नहीं सकता। सुझाव देने और कुछ नये कदम उठाने के लिए उत्साह भरने में वार्तालाप की शैली परिष्कृत हो तो ही काम चलेगा अन्यथा अभ्यस्त चिन्तन को, आदत को, ढर्रे को बदलने के लिए किसी को सहमत कर सकना सरल नहीं है। शुरुआत अच्छी न हो, आरंभ में ही मक्खी छींक जाय, प्रथम मिलन ही अनुपयुक्त प्रभाव छोड़े तो समझना चाहिए कि गाड़ी पटरी से उतरी और बनती बात बिगड़ी।
दो व्यक्ति मिलते हैं तो मुख खोलने से पूर्व ही आदान-प्रदान आरंभ हो जाता है। यह प्रथम छाप छोड़ने से ही सम्बन्धित है। आंखें किसी को देखते ही उसके सम्बन्ध में मान्यता बना देती हैं और फिर स्तर की मान्यता के आधार पर वार्तालाप का सिलसिला आरंभ होता है। अनगढ़ वेशभूषा, खुलेबदन, हजामत, साथ में बेतुका सामान देखकर लगता है कोई अधपागल आया। कायदा, करीना, शरीर-सज्जा, साथ वाले सामान का स्वरूप, खड़ा होने, चलने का क्रम—यह बता देता है कि नवागन्तुक को सभ्य लोगों के बीच रहने, सुसंस्कारी लोगों के साथ व्यवहार करने का अवसर मिला है या नहीं, जूते कहां उतारे, छाता कहां रखे, कमरे में प्रवेश करने से पूर्व आज्ञा मांगी या नहीं, अभिवंदन किया या नहीं, चेहरे पर मिलन की सहज मुस्कान उभरी या नहीं, बैठने के लिए उपयुक्त स्थान परखा या नहीं—यह बातें बताती हैं कि आगन्तुक व्यावहारिक सभ्यता से परिचित है या नहीं। बिना मिलने वाले की सुविधा असुविधा का विचार किये दनदनाते हुए चले जाना और अन्यान्यों से चल रही वार्ता में व्यवधान उत्पन्न करते हुए सर्वप्रथम अपने साथ जुट जाने की आशा करना असभ्यता की निशानी है। ऐसे लोग महत्वपूर्ण होते हुए भी खीज उत्पन्न करते हैं और मिलते समय ही अपने अनगढ़ होने के एक-एक करके कई प्रमाण उपस्थित करते हैं। स्मरण रखा जाय कि अनगढ़ मिलन-व्यवहार भी ऐसा ही है जैसा कि किसी श्रमिक का ईमानदार मेहनती होने पर भी बताये हुए काम से अपरिचित होने के कारण बेतुकी हरकतें करने लगना। दो व्यक्तियों का मिलन एक सुसंयोग है उसे फलप्रद बनाने के लिए शुभारम्भ शालीनता की—सुसंस्कारिता की छाप छोड़ने से होना चाहिए।
यही बात मेजबान की ओर से मेहमान के साथ किए गए मिलन व्यवहार के सम्बन्ध में लागू होती है। उसे आगन्तुक को देखते ही प्रसन्नता व्यक्त करनी चाहिए और अभिवादन की परम्परा का तत्काल निर्वाह करना चाहिए। आवश्यक हो तो कुर्सी पर से खड़ा भी होना चाहिए और सम्मानपूर्वक बैठने का स्थान देना चाहिए। इसमें विलम्ब करना, चालू वार्ता या कार्य में रहना, फुरसत पाने पर स्वागत नमस्कार का उपक्रम करना यह बताता है कि आगन्तुक का मूल्यांकन नहीं हुआ। उसे सम्मान नहीं मिला, यह खटकने वाली स्थिति है। वार्ता आरम्भ होने से पूर्व ही वह पृष्ठभूमि बन जाती है जिसमें एक दूसरे के सम्बन्ध में धारणा बना ली जाती है और वह विचार-विनिमय में आदि से अन्त तक सहायक या बाधक बनी रहती है।
क्या कहा गया, उसमें क्या नफा नुकसान था, उसकी आवश्यकता उपयोगिता क्यों पड़ी, यह तब प्रकट होता है जब मिलन शिष्टाचार का—एक दूसरे के स्वरूप सामान को देखकर स्तर जांचने का—अध्याय पूरा हो लेता है। पुस्तकों के प्रथम अध्याय में भूमिका होती है। उसे पढ़कर यह अनुमान लग जाता है कि लेखक का क्या अभिप्राय है और पुस्तक में आगे चलकर क्या बताया जायेगा। ठीक इसी प्रकार मिलन के समय ही एक दूसरे के स्तर को समझने का सही गलत अनुमान लगा लेते हैं। बात काम की होगी या नहीं यह जानने से पूर्व यह जांच पड़ताल होती है कि आदमी वजनदार है या नहीं। यदि लगे कि आगन्तुक अनगढ़, असभ्य बेतुका या घटिया स्तर का है तो उसके साथ वार्त्ता में भी अरुचि होती है। लगता है इसके साथ वार्त्ता करने में जो समय लगेगा वह व्यर्थ ही चला जायेगा। तब प्रयत्न यह होता है कि आगन्तुक द्वारा आरम्भ की गई वार्त्ता को जितनी जल्दी संभव हो निपटा दिया जाय। उपेक्षा, असमर्थता, अनभिज्ञता, व्यस्तता, चिन्ता, अस्वस्थता आदि के कितने ही बहाने ऐसे हैं जिनका आभास देकर आगन्तुक को जल्दी चले जाने का संकेत किया जाता है। इतने पर भी वह न टले, तो फिर थोड़ा कड़क कर स्पष्ट शब्दों में विदा होने के लिए कहना पड़ता है। ढिठाई में यह दोष है कि अपनी ही कहती चली जाती है, दूसरे की इच्छा, सुविधा, स्थिति को देखती ही नहीं। ऐसे कहीं जाने पर उपेक्षित तिरस्कृत होकर लौटें तो उसे वार्त्ता के विषय की अनुपयुक्तता न मानकर यही कहना होगा कि मिलन के अवसर पर अच्छी छाप छोड़ने की बात बनी नहीं और बिना सिगनल के चल पड़ने वाली गाड़ी जैसा असमंजस खड़ा हो गया। वार्त्ता आरम्भ करने से पूर्व आधी बात समाप्त हो जाती है। वैसे ही जैसे कि जन्म लेने से पूर्व माता के उदर में बालक सुसंस्कार-कुसंस्कारों की पढ़ाई पूरी कर लेता है। वार्त्ता कि प्रसंग पर की जाती है—यह बाद की बात है। पहली यह है कि अपनी विनयशीलता का प्रदर्शन और दूसरे की सम्मान रक्षा का निर्वाह हुआ या नहीं। हर व्यक्ति जन्मजात स्वाभिमानी होता है। यह उसका मौलिक अधिकार भी है। आत्मा की विभिन्न भूखों और आवश्यकताओं में एक सम्मान रक्षा भी है। यही आगे चल कर यश-लिप्सा, ठाट-बाट, उद्धत प्रदर्शन, दुस्साहस आदि का रूप धारण करके ऐसे जाल-जंजाल बुनती है जो खर्चीले भी होते हैं और बेतुके भी। किन्तु किया क्या जाय, सम्मान पाने की आवश्यकता को सीधे रास्ते पूरा करने का मार्ग न मिले तो वह गलत मार्ग से फूटेगी। छोटे बच्चे भी सम्मान चाहते हैं और उसका परिचय प्यार दुलार के संकेतों द्वारा समझते हैं। तद्नुरूप अपनी प्रसन्नता-अप्रसन्नता व्यक्त करते हैं। यह मान रक्षा हर किसी की होनी चाहिए। यही शिष्टाचार व्यवहार है। इसका निर्वाह वार्त्ता के साथ-साथ भी होना चाहिए सद्गुणों की, सफलताओं की सूझ-बूझ की, बीच-बीच में चर्चा करते रहा जाय तो वार्ता निश्चित रूप से अधिक प्रभावी हो जायेगी। सम्मान पाकर हर किसी के गर्व की तुष्टि होती है। प्रशंसा सुनकर हर किसी की बांछें खिल उठती हैं। यह रिश्वत यदि सामने वाले को देते रहा जाय तो उसका समर्थन एवं अनुग्रह अर्जित करने के मार्ग की आधी कठिनाई दूर हो जायेगी।
प्रभावी वार्त्ता की दूसरी विशेषता है—कहने वाले की नम्रता-विनयशीलता इसे सज्जनता का एक अंग माना गया है। अपनी शेखी बघारते रहने वाले, पग-पग पर मियां मिट्ठू बनने वाले, अपनी योग्यता, सफलता, सम्पदा का बखान करते रहने वाले सोचते तो यह हैं इससे सामने वाले पर रोब गांठना सम्भव होगा और वह अपनी गरिमा के आगे नतमस्तक होगा। पर वस्तुतः यह दाव हमेशा खाली जाता है। इतना ही नहीं, उसका परिणाम कई बार तो ठीक उल्टा होता है। बखान सही ही किया जा रहा है, पर उसके वर्णन में जो दूसरों का समय लिया गया—उससे उत्पन्न हुई प्रतिक्रिया शेखीखोरी समझी जाती है और अहंकारी ठहराती है। इससे वक्ता के मान और स्तर दोनों को ही क्षति पहुंचती है।
वार्त्ता में यदि अत्यन्त आवश्यक हो-तो ही मैं......मैं का उच्चारण करना चाहिए अन्यथा उसकी चर्चा न करना ही अधिक उपयुक्त है। प्रसंगवश यदि अत्यन्त आवश्यक हो जाय तो वहां ‘हम लोग’ शब्द का प्रयोग करना चाहिए। नव-सृजन अभियान की गतिविधियों या विचार धारा के सम्बन्ध में तो यह और भी अधिक ध्यान रखने योग्य है। क्यों कि इस प्रसंग में यदि कोई सफलता मिली है तो उसका श्रेय किसी एक व्यक्ति को नहीं मिल सकता। उसके पीछे अनेकों का छोटा बड़ा सहयोग जुड़ रहा है। सफलता का श्रेय अपने ऊपर लेने मैं-मैं की बात बार-बार कहने से कई कठिनाइयां उत्पन्न होती हैं। एक तो यह है कि इस प्रकार के लोग अहंकारी माने जाते हैं। सामने वाले पर बड़प्पन की छाप छोड़ने वाला प्रकारान्तर से उसे नीचा दिखाने वाला सिद्ध होता है। दूसरा इसका अर्थ यही लेता है। नम्रता के व्यवहार में वह अपने को सम्मानित विजयी मानता है और वक्ता के बार-बार मैं-मैं कहने पर अनुभव करता है कि अपना बड़प्पन जताकर प्रकारान्तर से मुझे छोटा सिद्ध किया जा रहा है। इससे उसे चोट लगती है और मन ही मन अप्रसन्नता व्यक्त करता है। तीसरी एक और कठिनाई है कि साथियों में से कोई पास बैठा हुआ सुन रहा हो-या किसी के मुंह सुने तो उसे लगेगा कि जिस प्रयास या जिस सफलता में हम सब का भी छोटा-बड़ा योगदान रहा-उसको मटियामेट किया जा रहा है और श्रेय स्वयं लूटा जा रहा है। इस प्रकार साथियों के मन में असन्तोष पैदा होता है और परस्पर कलह के बीज अंकुरित होने लगते हैं। सामने वाला समझदार हुआ तो उसे भी इस बात का पता चलता है कि सम्मिलित प्रयत्नों द्वारा उपलब्ध हुई सफलताएं एक के प्रयत्न का प्रतिफल नहीं हो सकतीं। फिर जो उस संदर्भ में श्रेय सूचक विवरण मैं-मैं के साथ प्रस्तुत कर रहा है वह उथला-बचकाना होना चाहिए। यही है वह तथ्य जो मैं-मैं कह कर अपने बखान के लिए आतुरता व्यक्त करने वाला उलटा घाटे में रहता है। वह जितनी छाप छोड़ता है उससे अधिक सुनने वालों की आंखों में गिरता चला जाता है।
यदि वार्त्ता किसी प्रतिपादन सिद्धान्त या कार्यक्रम के संदर्भ में की जा रही है तो भी उसका उद्गम केन्द्र वक्ता नहीं, वह मात्र वाहक है। ऐसी दशा में भी किसी सिद्धान्त की महत्ता बतानी हो तो उसकी विशेषताओं का वर्णन कर देना ही पर्याप्त है। वह सिद्धान्त किसका है। किसने उसे प्रसारित किया उसके लिए श्रेय ऋषियों को, शास्त्रों को, आप्त पुरुषों को देना चाहिए। यदि इससे नीचे उतरना हो तो अपने मिशन को आगे रखा जा सकता है जिसने युगचेतना उत्पन्न करने वाली विचारधारा का सामयिक आवश्यकताओं के अनुरूप नये सिरे से निर्धारण किया है। सभी दृष्टि से ‘मैं मैं’। कहने की उपयोगिता सिद्ध नहीं होती और उसका जितनी बार उच्चारण किया जाता है उतने ही बार वक्ता का वजन घटता है और जो कहा जा रहा है उसके प्रति सामने वाले की सहानुभूति उत्पन्न होने का अवसर कम होता है।
नव-सृजन की विचारधारा का आमतौर से विज्ञ समाज में समर्थन होना चाहिए, पर यदि कहीं उपेक्षा अवहेलना हो रही हो तो देखना चाहिए कि इससे प्रस्तुतीकरण कहीं घटिया स्तर का—घटिया ढंग से तो नहीं हुआ। व्यवहार कुशलता में—वाक्पटुता में कमी होना एक ऐसा अवरोध है जो बनती बात को बिगाड़ देता है। प्रश्न सिद्धान्तों का न रहकर व्यक्तिगत रोष असंतोष का बन जाता है। उसका प्रभाव व्यक्तिगत विग्रह विरोध तक सीमित न रहकर सिद्धान्तों कार्यक्रमों का विरोध बनकर उभरता है। इसलिए आदर्शों की चर्चा करने वाले-दूसरे के गले उतारने वाले को बहुत ही सावधानी और दूरदर्शिता से काम लेना चाहिए। उसे दूसरों को मान देने और अपनी विनयशीलता प्रकट करने में कहीं भी चूक नहीं करनी चाहिए। बन पड़े तो बात-बात में ऐसे प्रसंगों का समावेश करते रहना चाहिए जिसमें अपनी नम्रता और सामने वाली की विशिष्टता की चर्चा होती चले। इसमें अत्युक्ति की-चापलूसी की भी आवश्यकता नहीं। हर व्यक्ति में जहां कुछ दोष होते हैं वहां उसमें गुण भी रहते हैं। दोषों पर ध्यान न देकर गुणों-सफलताओं पर दृष्टि डाली जाय तो कोई भी विशेषताओं से सर्वथा रहित नहीं मिलेगा। तिल का ताड़ बनाने की जरूरत नहीं है जिस प्रशंसा की गुंजाइश है उसी का उल्लेख कर देने से मान मिल जाता है। इस मनोवैज्ञानिक तथ्य को जो जानते हैं वे अपने-अपने क्षेत्रों में भरपूर सफलतायें पाते हैं। ठग-चापलूस प्रायः इसी हथियार को काम में लाते हैं। विलासी सामग्री बेचने वाली दुकान के ‘सेल्समैन’ इसी कला में प्रवीण होते हैं। जो इस हथियार का जितनी बार जितनी खूबसूरती से प्रयोग करता है वह उतना ही अधिक बिक्री कर लेता है। जब कि रूखी प्रकृति के कर्कश लोग तुलनात्मक दृष्टि से आधा-अधूरा लाभ भी अर्जित नहीं कर पाते। यहां ठगी-चापलूसी की शिक्षा नहीं दी जा रही है वरन् यह कहा जा रहा है कि जिस कुशलता को अपना कर ओछे उद्देश्यों में भी सफलता मिल सकती है, उसके उपयोग से उच्चस्तरीय कार्यों में अनुकूलता क्यों उत्पन्न नहीं की जा सकेगी?
पहली बार असहमति रहने पर भी संबंध तोड़कर, खोजकर अप्रसन्नता व्यक्त करते हुए, लांछन लगाते हुए नहीं लौटना चाहिए। वरन् आगे के लिए रास्ता खुला रखना चाहिए। विदाई यह कहते हुए ही लेनी चाहिए कि ‘‘अपनी बात को ठीक तरह प्रस्तुत कर सकना शायद इस बार बन नहीं पड़ा। अगली बार इस प्रसंग पर हम लोग फिर कभी अवसर मिलने पर शान्तचित्त से चर्चा करेंगे तो तथ्यों को समझने-समझाने का प्रयत्न करेंगे।’’ वार्त्ता की समाप्ति पर सुनने वाले का समय लिया गया उसके प्रति कृतज्ञता व्यक्त करना तो कभी भूलना ही नहीं चाहिए। हर व्यक्ति का समय अपना है, उसे अधिकार है कि अपनी वस्तु का मनमर्जी से खर्च करे। यदि किसी नवान्तुक ने बिना बुलाये आने और बिना पूछी बात का प्रसंग चालू कर दिया है तो वस्तुतः यह सामने वाले का अनपेक्षित समय लेना ही हुआ। अच्छा तो यह होता कि कहने से पूर्व ही यह पूछ लिया गया होता कि आपका कुछ समय अमुक सन्दर्भ में चर्चा के लिए लेना क्या इस समय शक्य है? ‘हाँ’ कहने पर ही वार्त्ता आरम्भ की जाय। पर यदि वैसा नहीं बन पड़ा तो चलते समय तो उस अनधिकारी अपहरण के लिए अपनी कृतज्ञता व्यक्त करने के साथ-साथ उसकी उदारता की भी सराहना करनी चाहिए। जो ऐसा नहीं करते, किसी के भी सिर पर समय-कुसमय जा चढ़ते हैं और मनचाहे समय तक बकवास करते रहने को अपना अधिकार मानते हैं वे सभ्यता के सामान्य नियमों से अपरिचित माने लाते हैं। ऐसा अनगढ़पन किसी भी संभाषणकर्ता को, वार्त्ता प्रसंग आरंभ करने वाले को प्रदर्शित नहीं करना चाहिए।
जो कहना हो वह लम्बी भूमिका बनाने की अपेक्षा संक्षिप्त किन्तु सारगर्भित कहना चाहिए। उस कथन के प्रतिपादन को कार्यान्वित करने पर व्यक्तिगत सामूहिक लाभ क्या हो सकते हैं, न अपनाये जाने पर इन दिनों क्या-क्या हानियां हो रही हैं और भविष्य में क्या हो सकती हैं इस प्रकार प्रकाश डालने से सुनने वाले का आकर्षण बढ़ता है और वह समझता है कि कोई महत्वपूर्ण चर्चा आरम्भ होने जा रही है। इतना न समझ सकने पर अपनी रुचि से भिन्न प्रकार की बात बेतुकी मानी जाती है और उसे करना तो दूर सुनना तक भारी पड़ता है। इसलिए प्रसंग की उपयोगिता, आवश्यकता, अनिवार्यता, महत्ता पर आरम्भ में ही प्रकाश डालना आवश्यक है। फिर जो कहना हो उसके पक्ष-विपक्ष के तर्क, तथ्य, प्रमाण, उदाहरण प्रस्तुत करते हुए अपनी बात वजनदार होने की छाप छोड़नी चाहिए। यह कार्य मात्र भावुकता व्यक्त करने या अपनी मान्यता सुना देने से नहीं हो सकता। लोग तर्क, तथ्यों से प्रभावित होते हैं। कोई क्या मान्यता रखता है, इससे किसी को क्या वास्ता? अपनी बात थोपना और तत्काल उससे सहमत करा लेना, अनाधिकार चेष्टा है, अपने पक्ष को कुशल वकील की तरह प्रस्तुत करना चाहिए और सुनने वाले को अदालत मानकर उसे अपने पक्ष में करने का धैर्यपूर्वक प्रयत्न करना चाहिए। सफलता न मिलने या आंशिक सहमति मिलने पर भी खीजने की आवश्यकता नहीं। कोई वकील किसी अदालत से इसलिए दुश्मनी नहीं बांधता कि उसके तर्क अमान्य ठहराये गये और फैसला वैसा नहीं हुआ जैसा कि उसने चाहा था। वकील सोचता है उसका काम अपना पक्ष मजबूती से प्रस्तुत कर देना भर था सो कर लिया गया। अदालत का सोचने का ढंग अपना है, वह अपने दृष्टिकोण से फैसला करेगी। इतनी धृष्टता कोई वकील नहीं करता कि पक्ष प्रस्तुत करने के साथ ही यह मान्यता भी बना ले कि अपनी मर्जी का फैसला लिखा कर हटेगा। संभाषण कर्त्ता की मनःस्थिति भी ऐसी ही होनी चाहिए। उसे हंसते-हंसाते अपना प्रसंग चलाना चाहिए और प्रारम्भ से ही यह गुंजाइश रखनी चाहिए कि यदि सहमति न हुई, सहयोग न मिला तो भी कटुता उत्पन्न न होने दी जायगी और भावी विचार-विनिमय का द्वार खुला रखा जायगा। विग्रह तभी खड़ा होता है जब थोपने की मुद्रा अपनाई जाय। इच्छित वस्तु लेकर हटने की मनोवृत्ति प्रकारान्तर से डाकुओं या बलात्कारियों जैसी मानी जाती है। यह लोकव्यवहार से बाहर की बात है। हर किसी को अपना पक्ष प्रस्तुत करने में कुशलता बरतने भर से सन्तुष्ट रहना चाहिए। दस जगह कहने पर एक जगह भी पूरी या अधूरी सफलता मिली तो उतने पर भी प्रसन्न रहा जा सकता है। बूंद-बूंद करके घट भरता है। एक-एक का समर्थन नित्य अर्जित करते चलने पर महीने में तीस को अनुकूल बना लेना कम प्रसन्नता की बात नहीं है। दस से कहने पर एक का ही समर्थन मिला इस सन्दर्भ में नौ की असफलता को नहीं, एक की सफलता को ही सौभाग्य मानना चाहिए। पनडुब्बे बार-बार डुबकी लगाते हैं, पर हर बार उन्हें मोतियों से झोली भरकर लौटने का अवसर कहां मिलता है। आतुर लोग ही तत्काल, भरपूर, मनचाही सफलता की आशा करते हैं। चर्चा करते ही समर्थन की अपेक्षा करते हैं। यह भावुकों, आतुरों का काम है। यथार्थतावादी समझते हैं कि प्रवाह के विपरीत चर्चा करते रहने पर भी सफलता सीमित ही मिलेगी। इसलिए सदा उपलब्धियों पर प्रसन्नता व्यक्त करने, सन्तुष्ट रहने और भविष्य में अधिक अनुकूलता उत्पन्न होने की आशा संजोये रहने का ही प्रयत्न करना चाहिए। जो असफलताओं का लेखा-जोखा रखते हैं उन्हें निराशा घेर लेती है। हाथ-पांव फूल जाते हैं और कुछ करते धरते नहीं बन पड़ता। इस विपन्नता से बचने के लिए खदानें खोजने के लिए वन-वन भटकने वालों से धैर्य धारण करना सीखना चाहिए।
किससे कितनी देर बात करनी चाहिए। इस संदर्भ में सामने वाले की मनःस्थिति और परिस्थिति को बारीकी से ताड़ना चाहिए। व्यस्त लोग थोड़ी देर में सार संक्षेप सुनने से ही जितना उनके काम का होता है समझ लेते हैं। छोटे बच्चों की तरह पाठ पढ़ाने, आल्हा गाने की आवश्यकता नहीं पड़ती। फिर कभी-कभी किसी का मूड बिगड़ा हुआ होता है, निजी कठिनाइयों के कारण उस समय मर्जी से भिन्न प्रकार की बातें सुनने का मन नहीं होता। ऐसी दशा में किसी पर लद पड़ना या अपने विचार थोपने की व्यग्रता दिखाना अनुपयुक्त है। अपनी सुविधा या मनःस्थिति क्या है, यही सब कुछ नहीं मान लेना चाहिए। सामने वाले को भी समझना चाहिए और परिस्थिति के साथ तालमेल बिठाते हुए वार्त्ता को हल्की या भारी करना चाहिए।
अच्छा हो चर्चा का आरम्भ सुनने वाले के स्वभाव, रुझान, व्यवसाय, परिवार के सम्बन्ध में रुचि लेते हुए, इस क्षेत्र की कठिनाइयों पर संवेदना सहानुभूति प्रकट करते हुए, सफलताओं पर प्रसन्नता व्यक्त करते हुए किया जाय। हर व्यक्ति अपने आप में व्यस्त और मस्त है। उसे अपनी स्थिति ही सर्वोपरि महत्व की प्रतीत होती है। उसमें रस लेने वाले हितैषी एवं आत्मीय माने जाते हैं। ऐसों की अन्य बातें भी सुहाती हैं। इसलिए पूरा समय सैद्धान्तिक चर्चा में ही न लगाकर, उसका आदि और अन्त ऐसा रखना चाहिए जिसमें आत्मीयता, घनिष्ठता, पारिवारिकता का भी पुट रहे। इस प्रसंग में यदि तिहाई-चौथाई समय लग जाय तो उसे निरर्थक नहीं मानना चाहिए वरन् बीज उगने के लिए खाद का जुगाड़ बिठाने की तरह आवश्यक ही मानना चाहिए।