Books - भाषण और संभाषण की दिव्य क्षमता
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Language: HINDI
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सभा मंच पर जाने से पूर्व इन बातों का ध्यान रखें
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आयोजन में उपस्थित लोग केवल श्रोता ही नहीं होते, साथ-साथ ही वे ‘दर्शक’ भी होते हैं। अक्सर सभा मंच के समीप खिसक कर आ बैठने की चेष्टा लोग करते रहते हैं। लाउडस्पीकर की सहायता से बात दूर बैठकर भी सुन ली जाती है, पर ठीक तरह से देख सकना निकट से ही बन पड़ता है। इसी उत्सुकता की तृप्ति के लिए लोग निकट से वक्ता को देखने के भी इच्छुक रहते हैं। इस देखने की आकांक्षा के पीछे व्यक्तित्व की परख करने की इच्छा काम करती है। आंखों से देख कर किसी के व्यक्तित्व की एक सीमा तक झांकी ही प्राप्त की ही जा सकती है।
आकृति की बनावट तो जैसी कुछ भगवान ने बनाई है वैसी ही रहती है। पर आदमी का स्तर बहुत हद तक उसकी भावभंगिमा, देखने, हंसने, बात करने, बैठते समय अपनाये गये ढंग से भी व्यक्तित्व के बारे में बहुत कुछ जानकारी प्राप्त हो सकती है। कपड़े कैसे किस ढंग से पहने हैं, और अंगों की हरकतें क्या हो रही हैं, यह देखकर लोग बहुत कुछ अनुमान लगा लेते हैं और उसमें बहुत कुछ सही भी होता है।
किसी का ज्ञानवान, बुद्धिमान, धनवान, सत्तावान, गुणवान होना एक बात है और प्रतिभावान, व्यक्तित्ववान होना दूसरी। केवल ज्ञानवान होना ही पर्याप्त नहीं, वक्ता को व्यक्तित्ववान भी होना चाहिए। यह बहुत कुछ मनुष्य की असावधानी-सावधानी, से संबन्धित है। जिनके स्वभाव में असावधानी, उपेक्षा, आलस्य और अव्यवस्था होगी उनके व्यक्तित्व का मूल्य सहज ही बहुत कुछ घट जायगा। इन त्रुटियों का होना भी शिष्टता चरित्र सम्बन्धी त्रुटि मानी जायगी। चोर-उचक्के ही चरित्रहीन नहीं माने जाते। गन्दे, फूहड़, अस्त-व्यस्त असावधान और आलसी लोग भी किसी कदर चरित्र दोषी ही गिने जाते हैं। सभ्यता और शिष्टता की परिधि में सतर्कता का भी महत्वपूर्ण स्थान है।
मैले-कुचैले, कटे-फटे बेढंगे, बेतरतीब खुले बटन, कपड़े अपने धारण करने वाले की चुगली करते हैं और परोक्ष रूप से दर्शकों को बताते हैं कि जिनने हमें धारण कर रखा है वह अस्त-व्यस्त और आलसी प्रकृति का है। उसी ने हमारी ऐसी दुर्गति कर रखी है। सतर्क निर्धन होने पर भी थोड़ा-सा श्रम करके अपने वस्त्रों को स्वच्छ व्यवस्थित कर सकते हैं। पर जिसे इन बातों का ध्यान ही नहीं वह या तो स्थितप्रज्ञ परमहंस होना चाहिए या फिर फूहड़, असामाजिक। बेढंगी और कुरुचिपूर्ण पोशाक दर्शकों के मन पर बुरा प्रभाव छोड़ती है। वक्ता नेता या मार्गदर्शक कहा जाता है। ऐसे व्यक्ति से ज्ञानी ही नहीं व्यवस्था और बुद्धि सम्पन्न होने की भी आशा की जाती है। उसमें त्रुटि होने से निराशा होती है।
आंखों में कीचड़ या काजल-सुरमा, नाक के छेद से बाहर झांकते हुए बड़े-बड़े बाल, बात करते समय दांत और होठों पर चिपकते हुए थूक के तार, बढ़ी हुई हजामत, जैसे चिह्न देखकर सहज ही यह अनुमान लगाया जा सकता है कि इस व्यक्ति को अपने महत्वपूर्ण अंगों को स्वच्छता तक का ध्यान नहीं तो यह और किस काम में व्यवस्थित होगा। कुछ ऐसे दार्शनिक, कवि कलाकार हुए हैं जो अपने तरीके से बाल रखाते थे। यह उनकी स्वाभाविक रुचि रही होगी या कलाकारिता। उसी की हूबहू नकल करके—वैसे ही बाल रखा कर कई व्यक्ति स्वयं को उन्हीं की प्रतिमूर्ति सिद्ध करना चाहते हैं। सिनेमा एक्टर जैसा वेष बनाते हैं सिनेमा बाज भी उसकी नकल उतारने लगते हैं। वीटल और हिप्पियों की विचित्र दार्शनिकता उनके बिखरे और बेतुके बालों के साथ जुड़ गई है। नकली हिप्पी, नकली मजनू का एक्टिंग करने वाले दो कदम और आगे बढ़ जाते हैं। वे भी आंखों को ढकने वाले बाल बखेरें फिरते हैं। अमुक कवि या कलाकार की नकल कई छिछोरे व्यक्ति उनके बालों के आधार पर बनाते देखे गये हैं। स्तर के वक्ता अपने को ऐसा अवधूत बना कर नहीं चलते। छिछोरापन और बड़प्पन के बीच जो अन्तर होना चाहिए उन्हें उसकी जानकारी रहती है, तदनुसार वे सतर्कता भी बरतते हैं।
दांतों से नाखून काटना, बार-बार सिर पेट, गरदन आदि खुजलाना, जांघों पर तबला बजाने की तरह थपकी लगाना, कंधे उचकाना, आंखें मिचकना, मूंछें मरोड़ना, नाक या कान में उंगली डालना, बात-बात में दांत निकालना, पास बैठे व्यक्ति से बाते करने में उसकी बांहें पकड़ना, झकझोरना, पास रखी चीजों को इधर-उधर करते रहना जैसी हरकतें कई आदमियों की आदतों में सम्मिलित हो जाती हैं। पीछे उन्हें यहां तक पता नहीं रहता कि इन बेतुकी आदतों का देखने वालों पर कैसा बुरा प्रभाव पड़ता है और वे उसके व्यक्तित्व को घटिया मान बैठते हैं। ऐसी मान्यता बहुत हद तक सही भी होती है, क्योंकि बेतुकापन एक ऐसी बीमारी है, जो केवल अंगों तक—कपड़ों तक—हरकतों तक सीमित नहीं रहती वरन् मनुष्य को व्यवस्था, बुद्धि, चरित्र, निष्ठा, व्यवहार, कुशलता, चिन्तन पद्धति एवं प्रामाणिकता तक को प्रभावित करती है। प्रायः इस तरह के व्यक्ति असफल एवं गैर जिम्मेदार देखे जाते हैं। ऐसी हरकतें यदि कोई वक्ता बैठा-बैठा स्टेज पर कर रहा हो तो सुनने के साथ देखने के भी इच्छुक उसके व्यक्तित्व का घटियापन भांप जायेंगे और उसका भाषण सुनने के पूर्व ही आधी श्रद्धा खो देंगे। आधा मूल्य तो इस प्रकार के बेतुकेपन द्वारा ही नष्ट कर दिया जाता है।
अपने ज्ञान की ही नहीं व्यक्तित्व की छाप भी वक्ता को उपस्थित समुदाय पर छोड़नी चाहिये। अस्तु, उसे अपने शरीर एवं बालों की स्वच्छता, सुव्यवस्था का पहले से ही ध्यान रखना चाहिए। मंच पर जितने समय बैठना है कम से कम उतने समय तक तो बेतुकी हरकतें नहीं ही करनी चाहिए। अनावश्यक परस्पर वार्तालाप करना पुस्तक पढ़ने बैठ जाना—इधर—उधर आंखें नचाना—मुंह फाड़कर जंभाई लेना; अंगड़ाई लेना— इशारेबाजी करना मंच-शिष्टाचार के विपरीत है।
शरीर की बनावट या मुखाकृति तो नहीं बदली जा सकती पर उसे थोड़ी सतर्कता बरतने पर प्रभावोत्पादक अवश्य बनाया जा सकता है। वक्ता की बात सुनने ही लोग नहीं आते वरन् उसका व्यक्तित्व भी देखते हैं। यों किसी की प्रतिभा, वरिष्ठता का मूल्यांकन तो उसके गुण, कर्म, स्वभाव का, अब तक के चरित्र एवं कर्तृत्व का परिचय, विश्लेषण करके ही किया जा सकता है, पर उसकी छोटी झलक—झांकी करा सकने में उसे देखना भी सहायक होता है। यही कारण है कि लोग वक्ता को देखने के लिए मंच के नजदीक बैठना पसन्द करते हैं। पूरा भाषण ने भी सुन सकें तो कम से कम ‘दर्शन’ करके ही कुछ सन्तोष कर लेते हैं। वक्ता जब मंच पर बैठता है और अपनी बात कहना आरम्भ करता है तो सहज ही सभी दर्शकों की आंखें उस पर जा टिकती हैं। कान सुनते हैं और आंखें देखती हैं। इस देखने के साथ-साथ दर्शकों की आंखें वक्ता के व्यक्तित्व में से कोई चीज ढूंढ़ना-खोजना चाहती हैं और उस आधार पर यह जानने का प्रयत्न करती हैं कि आखिर वह है क्या?
वक्ता को अजनबी की तरह—बोलने की मशीन की तरह मंच पर बिठा देना और उसे अपना प्रवचन शुरू करने का इशारा कर देना अनुपयुक्त है। उसका परिचय दिया जाना चाहिए। वह भी ऐसा जिससे सुनने वालों पर उनके व्यक्तित्व की छाप पड़ती हो और प्रतिपादित विषय पर उसकी विचारणा एवं निष्ठा का उत्साहवर्धक परिचय मिलता हो। उसमें उपस्थित लोगों की उत्सुकता बढ़ जाती है। केवल प्रवचन से ही नहीं प्रवचनकर्ता के व्यक्तित्व से भी लोग प्रभाव ग्रहण करते हैं। इसलिए सभा संचालक को संक्षिप्त किन्तु तथ्यपूर्ण परिचय देकर ही वक्ता से अपनी बात आरम्भ करने का अनुरोध करना चाहिए।
यह कार्य दूसरों का ही है। वक्ता स्वयं अपना परिचय देने लगे और वह भी डींगें हांकने जैसा, तो इससे उसका मान बढ़ेगा नहीं, घटेगा ही। लोग उसे शेखीखोर-अहंकारी आदि मानने लगेंगे इस प्रकार बात बिलकुल उल्टी हो जाती है। एक सज्जन भाषण के मूल विषय से उतर कर अपनी शेखीखोरी पर उतर आये। इतना दान दिया—इतनी संस्थाएं चलाईं—इतने लोकोपयोगी कार्य किये—इतने विरोधियों को इस प्रकार पछाड़ा आदि बातें जब बढ़ती गईं तो उकता कर एक व्यक्ति उठ खड़ा हुआ—‘‘धन्य हैं महाराज, आप न होने इस धरती का भार कौन उठाता!’’ उपस्थित जन समुदाय के चेहरों पर एक व्यंग्य भरी मुस्कराहट दौड़ गई और उन्हें लज्जित होकर अपना भाषण वहीं समेटना पड़ा। ऐसी भूलें वक्ताओं को नहीं ही करनी चाहिए। अपने मुंह मियां मिट्ठू बनने के छिछोरापन का सार्वजनिक भाषणों में तो बचाव करना ही चाहिए।
आत्मश्लाघा—अपने मुंह मियां मिट्ठू बनना मनुष्य के छिछोरपन का चिन्ह है। अपनी बड़ाई अपने मुंह शोभा नहीं देती। दूसरे वैसा कुछ कहें तो ही उचित है। ओछे मनुष्य अपना बड़प्पन सिद्ध करने वाली बातों अथवा घटनाओं को बार-बार समय-कुसमय दुहराया करते हैं। वे यह तक भूल जाते हैं कि यही बातें वे पहले भी कई बार सुना चुके हैं और बार-बार उन्हीं बातों के कहने से सुनने वालों पर क्या असर पड़ेगा। अपना अनावश्यक—अप्रासंगिक बखान करना शिष्टाचार का उल्लंघन करना है। इससे प्रकट होता है कि यह मनुष्य दूसरों पर अपने बड़प्पन की छाप डालने के लिए कितना आतुर हो रहा है। यह आतुरता किसी व्यक्ति की शालीनता प्रकट नहीं करती वरन् उसे दूसरों की आंखों में गिराती है। शेखीखोर का उद्देश्य मूर्खों में किसी कदर पूरा होता हो तो बात दूसरी है, विचारशीलों के समक्ष उसकी प्रतिक्रिया खराब की होती है। आत्मसलाघ की निंदा करते हुए शास्त्रकार कहते हैं—
आत्मा न स्तोतव्यः —चाणक्य सूत्र
‘‘अपनी स्तुति अपने आप मत करो अपने मुंह मियां मिट्ठू न बनो।’’
पर स्तुत गुणों यस्तु निगुणोपि गुणी भवेत्। इन्द्रापि लघुत याति स्वयं मुख्यपितौ गुणै।। —महाभारत
‘‘दूसरों के मुख से प्रशंसा होने पर निर्गुणी भी गुणी मान लिए जाते हैं, पर अपने मुंह से प्रशंसा करने पर इन्द्र भी लघुता को प्राप्त होता है।’’
भाषण कितनी देर लेगा, यह पहले से ही निश्चित रहता है। उतनी ही देर में विषयों का विभाजन इस प्रकार करना चाहिए कि बात ठीक तरह पूरी हो जाय। आवश्यक नहीं कि विचारों को प्रकट करने के लिए लम्बा समय ही लगाया जाय। तथ्यों का समावेश करके महत्वपूर्ण वार्ता थोड़े समय में भी पूरी की जा सकती है। बहुत समय बोलना हो और तथ्य थोड़े हों तो कथा प्रसंगों को मिलाते हुए अपनी बात की पुष्टि में कितने ही घटना क्रम संस्मरण जोड़े जा सकते हैं और वक्तृता को रोचक तथा लम्बी बनाया जा सकता है। ठीक इसी प्रकार तथ्यों को यथा क्रम नपे तुले शब्दों में प्रस्तुत करते हुए घण्टों की बात मिनटों में कही जा सकती है। यदि वह संक्षिप्तीकरण व्यवस्थापूर्वक और रोचकता को जोड़ते हुए किया जाय तो कम समय में भी अपनी बात भली प्रकार रखी जा सकती है।
महत्वपूर्ण आयोजनों में कितने ही वक्ता आमंत्रित किये जा सकते हैं। उनमें सभी को बोलने के लिए समय दिया जाता है। वे लोग यदि घण्टों बोलने की बात सोचें तो फिर एक दो को ही बोलने का अवसर मिलेगा, शेष सब को चुप बैठना पड़ेगा। ऐसी गड़बड़ी उत्पन्न करने वाले—निर्धारित समय से ज्यादा खींचने वाले—अपना गौरव बढ़ाते नहीं घटाते हैं। वक्तृता की क्षमता अधिक होने की छाप छोड़ने के स्थान पर वे व्यवस्था और अनुशासन की अवज्ञा करने वाले अदूरदर्शी ठहराये जाते हैं। विदेशों में 45 मिनट का पूर्ण भाषण माना जाता है। उनमें इतने तथ्य रहते हैं कि सुनने वालों को अच्छे स्तर की प्रचुर मात्रा में विचार-सामग्री मिल जाती है। यह सामान्य सभाओं की बात हुई। विशिष्ट सम्मेलनों, गोष्ठियों एवं कमेटी मीटिंगों में हर किसी को अपनी बात संक्षेप में ही रखनी पड़ती है। वक्ता की एक विशेषता यह भी है कि जब उसे संक्षेप में कहना पड़े तो कम समय में ही अपनी बात के हर पक्ष को व्यवस्थित रूप में प्रस्तुत कर सके।
बहुत-सा शब्द-जाल खड़ा करे सुनने वालों को उसमें उलझा देना वक्तृता का गौरव नहीं है। उसकी महत्ता इसमें है कि कम शक्ति खर्च करके सुनने वालों के हृदय में उस सारतत्व का प्रवेश करा दिया जाय जो वक्ता को अभीष्ट है। इसके लिए वार्ता को बहुत लम्बी खींचने की आवश्यकता नहीं है। जितने शब्द बोलने आवश्यक हैं उतने का ही प्रयोग करके यह उद्देश्य पूरा किया जा सकता है। सारतत्व ध्यान में रख कर चलना चाहिए कि हमें श्रोताओं को कहां पहुंचाना है—उनको कहां ले जाना है। लक्ष्य स्पष्ट होगा तो दिशा भी ठीक रहेगी और चलना भी योजना बद्ध रहेगा। वक्ता जब बोलने के लिए बोलता है—जो जी में आता है वही कहता चला जाता है, तो बहुत बकझक करने पर भी सुनने वालों को हलका सा मनोरंजन और बोलने वालों की उछल कूद देखने के अतिरिक्त और कुछ नहीं मिलता। यह अनुचित है।
बर्क कहते थे—‘‘कम बातें करो—कम लोगों से बातें करो और काम की बातें करो।’’
जे. कृष्णमूर्ति ने लिखा है—‘‘कम बोलो—तब बोले जब यह विश्वास हो जाय कि जो बोलने जा रहे हो उसमें सत्य, न्याय और नम्रता का व्यतिक्रम न होगा।’’ वाणी में नम्रता, मिठास और मुहब्बत भरने का महत्व बताते हुए शेख सादी ने कहा है—‘‘मीठी जबान, मुहब्बत और मुस्कान से बटा हुआ एक धागा उच्छृंखलता के मदमस्त हाथी को जकड़ कर बांध सकता है।’’
कटु और कर्कश शब्दों की भर्त्सना करते हुए ‘हदोस’ में कहा गया है—‘‘ताने कसने वाला, कर्कश बोलने वाला, दुष्ट प्रकृति का मनुष्य धर्म को नहीं जानता।’’ वाणी के संयम और परिष्कार के सम्बन्ध में शास्त्र कारों के कुछ वचन इस प्रकार हैं—
मितं च सार बचो हि वाग्मिता। —नैषध
‘‘थोड़ा और सारयुक्त बोलना ही वाणी का पाण्डित्य है।’’ यो मुखा सञ्जतो भिक्खु मन्त भाषी अनुद्धतो। अत्थं धम्मञ्च दीपति मधुरं तस्स भासित।
‘‘जो वाणी का संयमी है—मनन करके बोलता है—नम्रतापूर्वक कहता है—भौतिक-आत्मिक लाभ की बात करता है, उसी का भाषण मधुर होता है।’’
वास्तुः वाचः सभा योग्या याश्चित्ताकर्षण क्षमाः। स्वेषां परेषां विदुषां द्विषां विदुषामपि।।
‘‘सभा में ऐसी परिष्कृत वाणी बोलनी चाहिए जो अपनों को- परायों को- विद्वानों को- अविद्वानों को यहां तक कि शत्रुओं को भी आकर्षक और ध्यान देने योग्य प्रतीत हो।’’ जिह्वाश्छे दनं नास्ति ताल्वश्च भेदनम्। अर्थस्य च व्ययो नास्ति वचने का दरिद्रता।।
‘‘मीठा बोलने में जीभ कटती नहीं, तालु में छेद नहीं होता, धन भी खर्च नहीं होता, फिर मधुर वचन बोलने में दरिद्रता क्यों?’’
शब्दाडम्बर को बहुत बढ़ा देना—छोटी-सी बात का बहुत विस्तार करना- अनावश्यक भूमिका बनाना वक्ता का गुण नहीं दोष है। अब फालतू समय काटने की समस्या नहीं रही, ताकि बैठा-ठाला आदमी निरर्थक गपशप सुन कर मनोरंजन करता रहे। अब व्यस्तता बढ़ रही है और लोग कम समय में अधिक लाभ प्राप्त करने की दृष्टि रखने लगे हैं। ऐसी दशा में समय की मांग है कि वक्ता अल्पभाषी बनें। जो बात जितने समय में कही जा सकती है उसे उतने में ही पूरी कर दें। शैतान की आंत की तरह उसे बढ़ाते ही न चलें। अन्य वक्ता भी सभा में होते हैं, उनको भी उचित अवसर मिलना न्याय संगत है। जनता कई व्यक्तियों के विचार सुनना चाहती है। ऐसी दशा में प्रत्येक विवेकवान वक्ता के लिए यही उचित है कि वह सारयुक्त शब्दावली का प्रयोग करके अपना मन्तव्य संक्षेप में किन्तु भली प्रकार स्पष्ट कर दे। वाचाल कहलाने की भर्त्सना के भाजन न बनें।
सुकरात के पास एक वाचाल युवक भाषण-कला सीखने आया। इसके लिए उन्होंने दूनी फीस मांगी। आश्चर्य से युवक ने पूछा कि मैं तो पहले ही बोलने का अभ्यस्त हूं तब भी मुझसे दूनी क्यों? इस पर सुकरात ने कहा- तुझे बोलना ही नहीं चुप रहना भी सिखाने में दूना श्रम करना पड़ेगा।
नीतिकारों की इस संदर्भ में कही गई कुछ उक्तियां बहुत ही मार्मिक और ध्यान देने योग्य हैं—
‘‘जो अधिक जानता है वह कम बोलता है और जो कम जानता है वह अधिक बोलता है।’’
‘‘शब्द उन पत्तों की तरह हैं जो अधिक घने होने पर निष्कर्ष रूपी फल को अपनी आड़ में छिपा कर बैठ जाते हैं।’’
‘‘जितना ज्यादा बोला जायगा लोग उसे उतना ही कम स्मरण रखेंगे।’’ बहु वचनमल्पसार यः कथयति प्रलापी सः।
‘‘जिसके भाषण में शब्द अधिक हों और सार कम उसे प्रलापी बकवादी कहते हैं।’’
अदक्ष वक्ता अक्सर यह भूल करते रहते हैं कि आरंभिक भूमिका भाग को आवश्यक रूप से बढ़ाते चले जाते हैं और जब समय पूरा होने को होता है तो महत्वपूर्ण तथ्यों को जल्दी में निपटाते हैं। यह ऐसा ही हो गया जैसे किसी का हाथ बहुत लम्बा और उंगलियां बहुत छोटी हों। समस्वरता और संतुलन बनाने में ही सुन्दरता और कलाकारिता है। दिनचर्या वही बुद्धिमत्तापूर्ण है जिसमें सभी आवश्यक कामों में महत्व और सुविधा की दृष्टि से यथा क्रम रखते हुए सीमित समय को फुर्ती के साथ किया जाता है। छोटे कामों में अधिक समय लगा देने से बड़े कामों के लिए अवकाश न बचेगा। व्यस्त और बुद्धिमान लोग अपने समय का उपयुक्त विभाजन कर दिनचर्या बनाते हैं। समझदार व्यापारी अपनी अर्थ-क्षमता को ध्यान में रखते हुए कारोबार फैलाते और बजट बनाते हैं। कुशल वक्ता को भी अपने भाषण-समय का ठीक इस प्रकार विभाजन करना पड़ता है कि उसमें तथ्यों को उनके महत्व की दृष्टि से समय एवं स्थान दिया जाय। जो इन बातों का ध्यान नहीं रखते उनके भाषण असन्तुलित और अव्यवस्थित माने जायेंगे, भले ही सामान्य श्रोताओं को उस भूल का पता न चले।
भाषण की लम्बाई नहीं उसकी सारगर्भित सराही जाती है। महत्वपूर्ण बातें कम समय में भी अच्छी तरह कही जा सकती हैं। जार्ज तृतीय के शासनकाल में इंग्लैण्ड की पार्लियामेंट एक महत्वपूर्ण बिल पर विचार कर रही थी। समर्थन और विरोध में वातावरण उग्र हो रहा था। वस्तु स्थिति को अच्छी तरह समझाने के लिए लार्ड चैथम से अनुरोध किया गया। वे कुशल वक्ता और सुलझे हुए मस्तिष्क के सदस्य थे। उन्हें एक घण्टा समय दिया गया। इस पर विरोधी पक्ष ने आपत्ति की। प्रतिपक्षी जानते थे कि लार्ड चैथम के विचार बिल के समर्थन में हैं, यदि वे अधिक समय तक बोलेंगे तो उनकी बात गिर जायगी। उन्होंने एक घण्टा समय को बहुत अधिक बताया और उसे कम करने पर जोर दिया। अन्ततः लार्ड चैथम ने स्वयं ही कटौती करदी और पांच मिनट पर्याप्त बताये। इतने कम समय में ही इतनी सारगर्भित बातें उनने कहीं कि सारा विवाद दूर हो गया और प्रतिपक्षी स्वयं सहमत हो गये। बिल सर्व सम्मति से पास हो गया। प्रतिपादन की दक्षता प्राप्त हो तो पन्द्रह मिनट में किसी विषय को बड़ी अच्छी तरह प्रस्तुत किया जा सकता है। प्रबुद्ध परम्परा के अनुसार तो पैंतालीस मिनट पूर्ण एवं पर्याप्त माने जाते हैं। समय अति मूल्यवान है, वक्ता का ही नहीं श्रोताओं का भी। अनावश्यक अपव्यय हर क्षेत्र में बुरा माना जाता है। भाषण के सन्दर्भ में भी यही बात है। विचारशीलता और व्यस्तता बढ़ने के साथ साथ भाषणों की लम्बाई घटाने और उनमें तथ्यों की गहराई बढ़ाने पर जोर दिया जाने लगा है। आगे चलकर इसी अनुशासन का पालन कड़ाई के साथ होने लगेगा। वक्तृता का स्तर उठाने के लिए यही उचित और आवश्यक भी है।
कई बार वक्ता को बिना लाउडस्पीकर के ही बोलना पड़ता है। ऐसी दशा में आवाज ऊंची रखनी चाहिए ताकि सब लोग आसानी से पूरी बात सुन सकें। आरम्भ में ही यह देख लेना चाहिए कि लाउडस्पीकर ठीक काम करता है या नहीं। यदि गड़बड़ी हो तो उसके ठीक होने तक रुकना चाहिए, ताकि बीच में गड़बड़ी उत्पन्न न हो। इसी प्रकार यदि बिना लाउडस्पीकर के बोलना पड़ता है तो लोगों को लम्बाई की अपेक्षा घेरा बनाकर मंच के आस-पास बैठने को कहना चाहिये और आवाज ऊंची रखकर बोलना चाहिए। सुनने वाले पूरी बात सुन और समझ सकें, इसके लिए यह आवश्यक है कि उच्चारण स्पष्ट और प्रवाह मध्यम गति का हो। जल्दी-जल्दी बहुत सी बातें कहने के लोभ में कई वक्ता रेलगाड़ी जैसी दौड़ लगाते हैं। इससे शब्द आपस में उलझते हैं—सुनने वालों का मस्तिष्क उस तेज गति को ठीक तरह पकड़ने, समझने में असमर्थ रहता है। ऐसी कठिनाई उत्पन्न होने न पावे इसके लिए आवश्यक है कि शब्द प्रवाह में अनावश्यक तेजी न लाई जाय। उच्चारण को स्पष्ट रखा जाय। एक के बाद दूसरा शब्द इस गति से बोले जाने चाहिए कि वे उलझने न पायें और सामान्य मस्तिष्क और सामान्य शिक्षा वालों को भी पूरी बात सुनने समझने का अवसर मिल जाय।
आकृति की बनावट तो जैसी कुछ भगवान ने बनाई है वैसी ही रहती है। पर आदमी का स्तर बहुत हद तक उसकी भावभंगिमा, देखने, हंसने, बात करने, बैठते समय अपनाये गये ढंग से भी व्यक्तित्व के बारे में बहुत कुछ जानकारी प्राप्त हो सकती है। कपड़े कैसे किस ढंग से पहने हैं, और अंगों की हरकतें क्या हो रही हैं, यह देखकर लोग बहुत कुछ अनुमान लगा लेते हैं और उसमें बहुत कुछ सही भी होता है।
किसी का ज्ञानवान, बुद्धिमान, धनवान, सत्तावान, गुणवान होना एक बात है और प्रतिभावान, व्यक्तित्ववान होना दूसरी। केवल ज्ञानवान होना ही पर्याप्त नहीं, वक्ता को व्यक्तित्ववान भी होना चाहिए। यह बहुत कुछ मनुष्य की असावधानी-सावधानी, से संबन्धित है। जिनके स्वभाव में असावधानी, उपेक्षा, आलस्य और अव्यवस्था होगी उनके व्यक्तित्व का मूल्य सहज ही बहुत कुछ घट जायगा। इन त्रुटियों का होना भी शिष्टता चरित्र सम्बन्धी त्रुटि मानी जायगी। चोर-उचक्के ही चरित्रहीन नहीं माने जाते। गन्दे, फूहड़, अस्त-व्यस्त असावधान और आलसी लोग भी किसी कदर चरित्र दोषी ही गिने जाते हैं। सभ्यता और शिष्टता की परिधि में सतर्कता का भी महत्वपूर्ण स्थान है।
मैले-कुचैले, कटे-फटे बेढंगे, बेतरतीब खुले बटन, कपड़े अपने धारण करने वाले की चुगली करते हैं और परोक्ष रूप से दर्शकों को बताते हैं कि जिनने हमें धारण कर रखा है वह अस्त-व्यस्त और आलसी प्रकृति का है। उसी ने हमारी ऐसी दुर्गति कर रखी है। सतर्क निर्धन होने पर भी थोड़ा-सा श्रम करके अपने वस्त्रों को स्वच्छ व्यवस्थित कर सकते हैं। पर जिसे इन बातों का ध्यान ही नहीं वह या तो स्थितप्रज्ञ परमहंस होना चाहिए या फिर फूहड़, असामाजिक। बेढंगी और कुरुचिपूर्ण पोशाक दर्शकों के मन पर बुरा प्रभाव छोड़ती है। वक्ता नेता या मार्गदर्शक कहा जाता है। ऐसे व्यक्ति से ज्ञानी ही नहीं व्यवस्था और बुद्धि सम्पन्न होने की भी आशा की जाती है। उसमें त्रुटि होने से निराशा होती है।
आंखों में कीचड़ या काजल-सुरमा, नाक के छेद से बाहर झांकते हुए बड़े-बड़े बाल, बात करते समय दांत और होठों पर चिपकते हुए थूक के तार, बढ़ी हुई हजामत, जैसे चिह्न देखकर सहज ही यह अनुमान लगाया जा सकता है कि इस व्यक्ति को अपने महत्वपूर्ण अंगों को स्वच्छता तक का ध्यान नहीं तो यह और किस काम में व्यवस्थित होगा। कुछ ऐसे दार्शनिक, कवि कलाकार हुए हैं जो अपने तरीके से बाल रखाते थे। यह उनकी स्वाभाविक रुचि रही होगी या कलाकारिता। उसी की हूबहू नकल करके—वैसे ही बाल रखा कर कई व्यक्ति स्वयं को उन्हीं की प्रतिमूर्ति सिद्ध करना चाहते हैं। सिनेमा एक्टर जैसा वेष बनाते हैं सिनेमा बाज भी उसकी नकल उतारने लगते हैं। वीटल और हिप्पियों की विचित्र दार्शनिकता उनके बिखरे और बेतुके बालों के साथ जुड़ गई है। नकली हिप्पी, नकली मजनू का एक्टिंग करने वाले दो कदम और आगे बढ़ जाते हैं। वे भी आंखों को ढकने वाले बाल बखेरें फिरते हैं। अमुक कवि या कलाकार की नकल कई छिछोरे व्यक्ति उनके बालों के आधार पर बनाते देखे गये हैं। स्तर के वक्ता अपने को ऐसा अवधूत बना कर नहीं चलते। छिछोरापन और बड़प्पन के बीच जो अन्तर होना चाहिए उन्हें उसकी जानकारी रहती है, तदनुसार वे सतर्कता भी बरतते हैं।
दांतों से नाखून काटना, बार-बार सिर पेट, गरदन आदि खुजलाना, जांघों पर तबला बजाने की तरह थपकी लगाना, कंधे उचकाना, आंखें मिचकना, मूंछें मरोड़ना, नाक या कान में उंगली डालना, बात-बात में दांत निकालना, पास बैठे व्यक्ति से बाते करने में उसकी बांहें पकड़ना, झकझोरना, पास रखी चीजों को इधर-उधर करते रहना जैसी हरकतें कई आदमियों की आदतों में सम्मिलित हो जाती हैं। पीछे उन्हें यहां तक पता नहीं रहता कि इन बेतुकी आदतों का देखने वालों पर कैसा बुरा प्रभाव पड़ता है और वे उसके व्यक्तित्व को घटिया मान बैठते हैं। ऐसी मान्यता बहुत हद तक सही भी होती है, क्योंकि बेतुकापन एक ऐसी बीमारी है, जो केवल अंगों तक—कपड़ों तक—हरकतों तक सीमित नहीं रहती वरन् मनुष्य को व्यवस्था, बुद्धि, चरित्र, निष्ठा, व्यवहार, कुशलता, चिन्तन पद्धति एवं प्रामाणिकता तक को प्रभावित करती है। प्रायः इस तरह के व्यक्ति असफल एवं गैर जिम्मेदार देखे जाते हैं। ऐसी हरकतें यदि कोई वक्ता बैठा-बैठा स्टेज पर कर रहा हो तो सुनने के साथ देखने के भी इच्छुक उसके व्यक्तित्व का घटियापन भांप जायेंगे और उसका भाषण सुनने के पूर्व ही आधी श्रद्धा खो देंगे। आधा मूल्य तो इस प्रकार के बेतुकेपन द्वारा ही नष्ट कर दिया जाता है।
अपने ज्ञान की ही नहीं व्यक्तित्व की छाप भी वक्ता को उपस्थित समुदाय पर छोड़नी चाहिये। अस्तु, उसे अपने शरीर एवं बालों की स्वच्छता, सुव्यवस्था का पहले से ही ध्यान रखना चाहिए। मंच पर जितने समय बैठना है कम से कम उतने समय तक तो बेतुकी हरकतें नहीं ही करनी चाहिए। अनावश्यक परस्पर वार्तालाप करना पुस्तक पढ़ने बैठ जाना—इधर—उधर आंखें नचाना—मुंह फाड़कर जंभाई लेना; अंगड़ाई लेना— इशारेबाजी करना मंच-शिष्टाचार के विपरीत है।
शरीर की बनावट या मुखाकृति तो नहीं बदली जा सकती पर उसे थोड़ी सतर्कता बरतने पर प्रभावोत्पादक अवश्य बनाया जा सकता है। वक्ता की बात सुनने ही लोग नहीं आते वरन् उसका व्यक्तित्व भी देखते हैं। यों किसी की प्रतिभा, वरिष्ठता का मूल्यांकन तो उसके गुण, कर्म, स्वभाव का, अब तक के चरित्र एवं कर्तृत्व का परिचय, विश्लेषण करके ही किया जा सकता है, पर उसकी छोटी झलक—झांकी करा सकने में उसे देखना भी सहायक होता है। यही कारण है कि लोग वक्ता को देखने के लिए मंच के नजदीक बैठना पसन्द करते हैं। पूरा भाषण ने भी सुन सकें तो कम से कम ‘दर्शन’ करके ही कुछ सन्तोष कर लेते हैं। वक्ता जब मंच पर बैठता है और अपनी बात कहना आरम्भ करता है तो सहज ही सभी दर्शकों की आंखें उस पर जा टिकती हैं। कान सुनते हैं और आंखें देखती हैं। इस देखने के साथ-साथ दर्शकों की आंखें वक्ता के व्यक्तित्व में से कोई चीज ढूंढ़ना-खोजना चाहती हैं और उस आधार पर यह जानने का प्रयत्न करती हैं कि आखिर वह है क्या?
वक्ता को अजनबी की तरह—बोलने की मशीन की तरह मंच पर बिठा देना और उसे अपना प्रवचन शुरू करने का इशारा कर देना अनुपयुक्त है। उसका परिचय दिया जाना चाहिए। वह भी ऐसा जिससे सुनने वालों पर उनके व्यक्तित्व की छाप पड़ती हो और प्रतिपादित विषय पर उसकी विचारणा एवं निष्ठा का उत्साहवर्धक परिचय मिलता हो। उसमें उपस्थित लोगों की उत्सुकता बढ़ जाती है। केवल प्रवचन से ही नहीं प्रवचनकर्ता के व्यक्तित्व से भी लोग प्रभाव ग्रहण करते हैं। इसलिए सभा संचालक को संक्षिप्त किन्तु तथ्यपूर्ण परिचय देकर ही वक्ता से अपनी बात आरम्भ करने का अनुरोध करना चाहिए।
यह कार्य दूसरों का ही है। वक्ता स्वयं अपना परिचय देने लगे और वह भी डींगें हांकने जैसा, तो इससे उसका मान बढ़ेगा नहीं, घटेगा ही। लोग उसे शेखीखोर-अहंकारी आदि मानने लगेंगे इस प्रकार बात बिलकुल उल्टी हो जाती है। एक सज्जन भाषण के मूल विषय से उतर कर अपनी शेखीखोरी पर उतर आये। इतना दान दिया—इतनी संस्थाएं चलाईं—इतने लोकोपयोगी कार्य किये—इतने विरोधियों को इस प्रकार पछाड़ा आदि बातें जब बढ़ती गईं तो उकता कर एक व्यक्ति उठ खड़ा हुआ—‘‘धन्य हैं महाराज, आप न होने इस धरती का भार कौन उठाता!’’ उपस्थित जन समुदाय के चेहरों पर एक व्यंग्य भरी मुस्कराहट दौड़ गई और उन्हें लज्जित होकर अपना भाषण वहीं समेटना पड़ा। ऐसी भूलें वक्ताओं को नहीं ही करनी चाहिए। अपने मुंह मियां मिट्ठू बनने के छिछोरापन का सार्वजनिक भाषणों में तो बचाव करना ही चाहिए।
आत्मश्लाघा—अपने मुंह मियां मिट्ठू बनना मनुष्य के छिछोरपन का चिन्ह है। अपनी बड़ाई अपने मुंह शोभा नहीं देती। दूसरे वैसा कुछ कहें तो ही उचित है। ओछे मनुष्य अपना बड़प्पन सिद्ध करने वाली बातों अथवा घटनाओं को बार-बार समय-कुसमय दुहराया करते हैं। वे यह तक भूल जाते हैं कि यही बातें वे पहले भी कई बार सुना चुके हैं और बार-बार उन्हीं बातों के कहने से सुनने वालों पर क्या असर पड़ेगा। अपना अनावश्यक—अप्रासंगिक बखान करना शिष्टाचार का उल्लंघन करना है। इससे प्रकट होता है कि यह मनुष्य दूसरों पर अपने बड़प्पन की छाप डालने के लिए कितना आतुर हो रहा है। यह आतुरता किसी व्यक्ति की शालीनता प्रकट नहीं करती वरन् उसे दूसरों की आंखों में गिराती है। शेखीखोर का उद्देश्य मूर्खों में किसी कदर पूरा होता हो तो बात दूसरी है, विचारशीलों के समक्ष उसकी प्रतिक्रिया खराब की होती है। आत्मसलाघ की निंदा करते हुए शास्त्रकार कहते हैं—
आत्मा न स्तोतव्यः —चाणक्य सूत्र
‘‘अपनी स्तुति अपने आप मत करो अपने मुंह मियां मिट्ठू न बनो।’’
पर स्तुत गुणों यस्तु निगुणोपि गुणी भवेत्। इन्द्रापि लघुत याति स्वयं मुख्यपितौ गुणै।। —महाभारत
‘‘दूसरों के मुख से प्रशंसा होने पर निर्गुणी भी गुणी मान लिए जाते हैं, पर अपने मुंह से प्रशंसा करने पर इन्द्र भी लघुता को प्राप्त होता है।’’
भाषण कितनी देर लेगा, यह पहले से ही निश्चित रहता है। उतनी ही देर में विषयों का विभाजन इस प्रकार करना चाहिए कि बात ठीक तरह पूरी हो जाय। आवश्यक नहीं कि विचारों को प्रकट करने के लिए लम्बा समय ही लगाया जाय। तथ्यों का समावेश करके महत्वपूर्ण वार्ता थोड़े समय में भी पूरी की जा सकती है। बहुत समय बोलना हो और तथ्य थोड़े हों तो कथा प्रसंगों को मिलाते हुए अपनी बात की पुष्टि में कितने ही घटना क्रम संस्मरण जोड़े जा सकते हैं और वक्तृता को रोचक तथा लम्बी बनाया जा सकता है। ठीक इसी प्रकार तथ्यों को यथा क्रम नपे तुले शब्दों में प्रस्तुत करते हुए घण्टों की बात मिनटों में कही जा सकती है। यदि वह संक्षिप्तीकरण व्यवस्थापूर्वक और रोचकता को जोड़ते हुए किया जाय तो कम समय में भी अपनी बात भली प्रकार रखी जा सकती है।
महत्वपूर्ण आयोजनों में कितने ही वक्ता आमंत्रित किये जा सकते हैं। उनमें सभी को बोलने के लिए समय दिया जाता है। वे लोग यदि घण्टों बोलने की बात सोचें तो फिर एक दो को ही बोलने का अवसर मिलेगा, शेष सब को चुप बैठना पड़ेगा। ऐसी गड़बड़ी उत्पन्न करने वाले—निर्धारित समय से ज्यादा खींचने वाले—अपना गौरव बढ़ाते नहीं घटाते हैं। वक्तृता की क्षमता अधिक होने की छाप छोड़ने के स्थान पर वे व्यवस्था और अनुशासन की अवज्ञा करने वाले अदूरदर्शी ठहराये जाते हैं। विदेशों में 45 मिनट का पूर्ण भाषण माना जाता है। उनमें इतने तथ्य रहते हैं कि सुनने वालों को अच्छे स्तर की प्रचुर मात्रा में विचार-सामग्री मिल जाती है। यह सामान्य सभाओं की बात हुई। विशिष्ट सम्मेलनों, गोष्ठियों एवं कमेटी मीटिंगों में हर किसी को अपनी बात संक्षेप में ही रखनी पड़ती है। वक्ता की एक विशेषता यह भी है कि जब उसे संक्षेप में कहना पड़े तो कम समय में ही अपनी बात के हर पक्ष को व्यवस्थित रूप में प्रस्तुत कर सके।
बहुत-सा शब्द-जाल खड़ा करे सुनने वालों को उसमें उलझा देना वक्तृता का गौरव नहीं है। उसकी महत्ता इसमें है कि कम शक्ति खर्च करके सुनने वालों के हृदय में उस सारतत्व का प्रवेश करा दिया जाय जो वक्ता को अभीष्ट है। इसके लिए वार्ता को बहुत लम्बी खींचने की आवश्यकता नहीं है। जितने शब्द बोलने आवश्यक हैं उतने का ही प्रयोग करके यह उद्देश्य पूरा किया जा सकता है। सारतत्व ध्यान में रख कर चलना चाहिए कि हमें श्रोताओं को कहां पहुंचाना है—उनको कहां ले जाना है। लक्ष्य स्पष्ट होगा तो दिशा भी ठीक रहेगी और चलना भी योजना बद्ध रहेगा। वक्ता जब बोलने के लिए बोलता है—जो जी में आता है वही कहता चला जाता है, तो बहुत बकझक करने पर भी सुनने वालों को हलका सा मनोरंजन और बोलने वालों की उछल कूद देखने के अतिरिक्त और कुछ नहीं मिलता। यह अनुचित है।
बर्क कहते थे—‘‘कम बातें करो—कम लोगों से बातें करो और काम की बातें करो।’’
जे. कृष्णमूर्ति ने लिखा है—‘‘कम बोलो—तब बोले जब यह विश्वास हो जाय कि जो बोलने जा रहे हो उसमें सत्य, न्याय और नम्रता का व्यतिक्रम न होगा।’’ वाणी में नम्रता, मिठास और मुहब्बत भरने का महत्व बताते हुए शेख सादी ने कहा है—‘‘मीठी जबान, मुहब्बत और मुस्कान से बटा हुआ एक धागा उच्छृंखलता के मदमस्त हाथी को जकड़ कर बांध सकता है।’’
कटु और कर्कश शब्दों की भर्त्सना करते हुए ‘हदोस’ में कहा गया है—‘‘ताने कसने वाला, कर्कश बोलने वाला, दुष्ट प्रकृति का मनुष्य धर्म को नहीं जानता।’’ वाणी के संयम और परिष्कार के सम्बन्ध में शास्त्र कारों के कुछ वचन इस प्रकार हैं—
मितं च सार बचो हि वाग्मिता। —नैषध
‘‘थोड़ा और सारयुक्त बोलना ही वाणी का पाण्डित्य है।’’ यो मुखा सञ्जतो भिक्खु मन्त भाषी अनुद्धतो। अत्थं धम्मञ्च दीपति मधुरं तस्स भासित।
‘‘जो वाणी का संयमी है—मनन करके बोलता है—नम्रतापूर्वक कहता है—भौतिक-आत्मिक लाभ की बात करता है, उसी का भाषण मधुर होता है।’’
वास्तुः वाचः सभा योग्या याश्चित्ताकर्षण क्षमाः। स्वेषां परेषां विदुषां द्विषां विदुषामपि।।
‘‘सभा में ऐसी परिष्कृत वाणी बोलनी चाहिए जो अपनों को- परायों को- विद्वानों को- अविद्वानों को यहां तक कि शत्रुओं को भी आकर्षक और ध्यान देने योग्य प्रतीत हो।’’ जिह्वाश्छे दनं नास्ति ताल्वश्च भेदनम्। अर्थस्य च व्ययो नास्ति वचने का दरिद्रता।।
‘‘मीठा बोलने में जीभ कटती नहीं, तालु में छेद नहीं होता, धन भी खर्च नहीं होता, फिर मधुर वचन बोलने में दरिद्रता क्यों?’’
शब्दाडम्बर को बहुत बढ़ा देना—छोटी-सी बात का बहुत विस्तार करना- अनावश्यक भूमिका बनाना वक्ता का गुण नहीं दोष है। अब फालतू समय काटने की समस्या नहीं रही, ताकि बैठा-ठाला आदमी निरर्थक गपशप सुन कर मनोरंजन करता रहे। अब व्यस्तता बढ़ रही है और लोग कम समय में अधिक लाभ प्राप्त करने की दृष्टि रखने लगे हैं। ऐसी दशा में समय की मांग है कि वक्ता अल्पभाषी बनें। जो बात जितने समय में कही जा सकती है उसे उतने में ही पूरी कर दें। शैतान की आंत की तरह उसे बढ़ाते ही न चलें। अन्य वक्ता भी सभा में होते हैं, उनको भी उचित अवसर मिलना न्याय संगत है। जनता कई व्यक्तियों के विचार सुनना चाहती है। ऐसी दशा में प्रत्येक विवेकवान वक्ता के लिए यही उचित है कि वह सारयुक्त शब्दावली का प्रयोग करके अपना मन्तव्य संक्षेप में किन्तु भली प्रकार स्पष्ट कर दे। वाचाल कहलाने की भर्त्सना के भाजन न बनें।
सुकरात के पास एक वाचाल युवक भाषण-कला सीखने आया। इसके लिए उन्होंने दूनी फीस मांगी। आश्चर्य से युवक ने पूछा कि मैं तो पहले ही बोलने का अभ्यस्त हूं तब भी मुझसे दूनी क्यों? इस पर सुकरात ने कहा- तुझे बोलना ही नहीं चुप रहना भी सिखाने में दूना श्रम करना पड़ेगा।
नीतिकारों की इस संदर्भ में कही गई कुछ उक्तियां बहुत ही मार्मिक और ध्यान देने योग्य हैं—
‘‘जो अधिक जानता है वह कम बोलता है और जो कम जानता है वह अधिक बोलता है।’’
‘‘शब्द उन पत्तों की तरह हैं जो अधिक घने होने पर निष्कर्ष रूपी फल को अपनी आड़ में छिपा कर बैठ जाते हैं।’’
‘‘जितना ज्यादा बोला जायगा लोग उसे उतना ही कम स्मरण रखेंगे।’’ बहु वचनमल्पसार यः कथयति प्रलापी सः।
‘‘जिसके भाषण में शब्द अधिक हों और सार कम उसे प्रलापी बकवादी कहते हैं।’’
अदक्ष वक्ता अक्सर यह भूल करते रहते हैं कि आरंभिक भूमिका भाग को आवश्यक रूप से बढ़ाते चले जाते हैं और जब समय पूरा होने को होता है तो महत्वपूर्ण तथ्यों को जल्दी में निपटाते हैं। यह ऐसा ही हो गया जैसे किसी का हाथ बहुत लम्बा और उंगलियां बहुत छोटी हों। समस्वरता और संतुलन बनाने में ही सुन्दरता और कलाकारिता है। दिनचर्या वही बुद्धिमत्तापूर्ण है जिसमें सभी आवश्यक कामों में महत्व और सुविधा की दृष्टि से यथा क्रम रखते हुए सीमित समय को फुर्ती के साथ किया जाता है। छोटे कामों में अधिक समय लगा देने से बड़े कामों के लिए अवकाश न बचेगा। व्यस्त और बुद्धिमान लोग अपने समय का उपयुक्त विभाजन कर दिनचर्या बनाते हैं। समझदार व्यापारी अपनी अर्थ-क्षमता को ध्यान में रखते हुए कारोबार फैलाते और बजट बनाते हैं। कुशल वक्ता को भी अपने भाषण-समय का ठीक इस प्रकार विभाजन करना पड़ता है कि उसमें तथ्यों को उनके महत्व की दृष्टि से समय एवं स्थान दिया जाय। जो इन बातों का ध्यान नहीं रखते उनके भाषण असन्तुलित और अव्यवस्थित माने जायेंगे, भले ही सामान्य श्रोताओं को उस भूल का पता न चले।
भाषण की लम्बाई नहीं उसकी सारगर्भित सराही जाती है। महत्वपूर्ण बातें कम समय में भी अच्छी तरह कही जा सकती हैं। जार्ज तृतीय के शासनकाल में इंग्लैण्ड की पार्लियामेंट एक महत्वपूर्ण बिल पर विचार कर रही थी। समर्थन और विरोध में वातावरण उग्र हो रहा था। वस्तु स्थिति को अच्छी तरह समझाने के लिए लार्ड चैथम से अनुरोध किया गया। वे कुशल वक्ता और सुलझे हुए मस्तिष्क के सदस्य थे। उन्हें एक घण्टा समय दिया गया। इस पर विरोधी पक्ष ने आपत्ति की। प्रतिपक्षी जानते थे कि लार्ड चैथम के विचार बिल के समर्थन में हैं, यदि वे अधिक समय तक बोलेंगे तो उनकी बात गिर जायगी। उन्होंने एक घण्टा समय को बहुत अधिक बताया और उसे कम करने पर जोर दिया। अन्ततः लार्ड चैथम ने स्वयं ही कटौती करदी और पांच मिनट पर्याप्त बताये। इतने कम समय में ही इतनी सारगर्भित बातें उनने कहीं कि सारा विवाद दूर हो गया और प्रतिपक्षी स्वयं सहमत हो गये। बिल सर्व सम्मति से पास हो गया। प्रतिपादन की दक्षता प्राप्त हो तो पन्द्रह मिनट में किसी विषय को बड़ी अच्छी तरह प्रस्तुत किया जा सकता है। प्रबुद्ध परम्परा के अनुसार तो पैंतालीस मिनट पूर्ण एवं पर्याप्त माने जाते हैं। समय अति मूल्यवान है, वक्ता का ही नहीं श्रोताओं का भी। अनावश्यक अपव्यय हर क्षेत्र में बुरा माना जाता है। भाषण के सन्दर्भ में भी यही बात है। विचारशीलता और व्यस्तता बढ़ने के साथ साथ भाषणों की लम्बाई घटाने और उनमें तथ्यों की गहराई बढ़ाने पर जोर दिया जाने लगा है। आगे चलकर इसी अनुशासन का पालन कड़ाई के साथ होने लगेगा। वक्तृता का स्तर उठाने के लिए यही उचित और आवश्यक भी है।
कई बार वक्ता को बिना लाउडस्पीकर के ही बोलना पड़ता है। ऐसी दशा में आवाज ऊंची रखनी चाहिए ताकि सब लोग आसानी से पूरी बात सुन सकें। आरम्भ में ही यह देख लेना चाहिए कि लाउडस्पीकर ठीक काम करता है या नहीं। यदि गड़बड़ी हो तो उसके ठीक होने तक रुकना चाहिए, ताकि बीच में गड़बड़ी उत्पन्न न हो। इसी प्रकार यदि बिना लाउडस्पीकर के बोलना पड़ता है तो लोगों को लम्बाई की अपेक्षा घेरा बनाकर मंच के आस-पास बैठने को कहना चाहिये और आवाज ऊंची रखकर बोलना चाहिए। सुनने वाले पूरी बात सुन और समझ सकें, इसके लिए यह आवश्यक है कि उच्चारण स्पष्ट और प्रवाह मध्यम गति का हो। जल्दी-जल्दी बहुत सी बातें कहने के लोभ में कई वक्ता रेलगाड़ी जैसी दौड़ लगाते हैं। इससे शब्द आपस में उलझते हैं—सुनने वालों का मस्तिष्क उस तेज गति को ठीक तरह पकड़ने, समझने में असमर्थ रहता है। ऐसी कठिनाई उत्पन्न होने न पावे इसके लिए आवश्यक है कि शब्द प्रवाह में अनावश्यक तेजी न लाई जाय। उच्चारण को स्पष्ट रखा जाय। एक के बाद दूसरा शब्द इस गति से बोले जाने चाहिए कि वे उलझने न पायें और सामान्य मस्तिष्क और सामान्य शिक्षा वालों को भी पूरी बात सुनने समझने का अवसर मिल जाय।