Books - इक्कीसवीं सदी बनाम उज्ज्वल भविष्य-भाग २
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अपने युग की असाधारण महाक्रांति
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विश्व इतिहास में कितनी ही ऐसी महाक्रान्तियाँ भी हुई हैं जो चिरकाल तक
स्मरण की जाती रहेंगी और लोकमानस को महत्त्वपूर्ण तथ्यों से अवगत कराती
रहेंगी। छिटपुट उलट- पुलट तो सामयिक स्तर पर हर क्षेत्रीय समस्या के समाधान
हेतु होती ही रहती है, पर विश्लेषण और विवेचन उन्हीं का होता है जिनमें
व्यापक के साथ- साथ प्रवाह परिवर्तन भी जुड़ा होता है, ऐसी घटनाएँ ही
महाक्रान्तियाँ कहलाती हैं।
पौराणिक- काल का समुद्र- मंथन वृत्तासुर वध, गंगावतरण, हिरण्याक्ष के बंधनों से पृथ्वी का विमोचन, परशुराम द्वारा कुपथगामियों से सत्ता छीनना आदि ऐसी महान घटनाओं को प्रमुख माना जाता है, जिनने कालचक्र के परिवर्तन की भूमिका निभाई। अन्य देशों व संस्कृतियों यथा ग्रीस, रोम, मेसोपोटामिया आदि की लोक कथाओं में भी ऐसे ही मिलते- जुलते अलंकारिक वर्णन हैं। यदि वे सब सही हैं तो मानना होगा कि महाक्रान्तियों का सिलसिला चिरपुरातन है।
इतिहास काल में भी कुछ बड़े शक्तिशाली परिवर्तन हुए हैं, जिनमें रामायण प्रसंग, महाभारत आयोजन और बुद्ध के धर्मचक्र प्रवर्तन प्रमुख हैं। लंका काण्ड के उपरांत रामराज्य के साथ सतयुग की वापसी संभव हुई। महाभारत काल के उपरांत भारत का विशाल भारत, महान भारत बनाने का लक्ष्य पूरा हुआ। बुद्ध के धर्मचक्र प्रवर्तन से तत्कालीन वह विचारक्रान्ति संपन्न हुई, जिसकी चिनगारियों ने अगणित क्षेत्रों के अगणित प्रसंगों को ऊर्जा और आभा से भर दिया, वह दावानल अनेक मंचों, धर्म संप्रदायों, संतों, समाज सुधारकों और शहीदों के रूप में पिछली शताब्दी तक अपनी परंपरा को विभिन्न रूपों में कायम रखे रहा। प्रजातंत्र और साम्यवाद की सशक्त नई विचारणा इस प्रकार उभरी, जिसने लगभग समूची विश्व वसुधा को आंदोलित करके रख दिया। पिछली क्रांतियों के संदर्भ में इतने ही संकेत पर्याप्त होने चाहिए जिनसे सिद्ध होता है कि मनीषा जब भी आदर्शवादी ऊर्जा से अनुप्राणित होती है तो अनेक सहचरों को खींच बुलाती है और वह कार्य कर दिखाती है जिसे आमतौर से मानवी कहना गले न उतरने पर ‘दैवी अनुग्रह’ की संज्ञा दी जाती है। पुरातन- कालों के ऐसे झंझावातों को अवतार की संज्ञा देकर संतोष कर लिया जाता है। असंभव को संभव कर दिखाने वाले महापराक्रमों को मनीषा की प्रखरता भी जनसहयोग के सहारे संपन्न कर सकती है, इसे सामान्य स्तर का जन समुदाय स्वीकार भी तो नहीं करता।
पिछले महान परिवर्तनों को युगांतरीय या युग परिवर्तनकारी भी कहा जाता रहा है। इन दिनों ऐसे ही प्रचण्ड प्रवाह के अवतरण का समय है, जिसे पिछले समस्त परिवर्तनों की संयुक्त शक्ति का एकात्म समीकरण कहा जा सकता है। पिछले परिवर्तनों में कितना समय लगता रहा है? इसके संबंध में सही विवरण तो उपलब्ध नहीं, पर वर्तमान महाक्रान्ति का स्वरूप समग्र रूप से परिलक्षित होने में प्राय: सौ वर्ष का समय महत्त्वपूर्ण होगा। यों उसका तारतम्य अब से काफी पहले से भी चल रहा है और पूरी तरह चरितार्थ होने के बाद भी कुछ समय चलता रहेगा।
अपने समय का महापरिवर्तन ‘‘युगांतर’’ के नाम से जाना जा सकता है। युग परिवर्तन की प्रस्तुत प्रक्रिया का एक ज्वलंत पक्ष तब देखने में आया जब प्राय: दो हजार वर्षों से चले आ रहे आक्रमणों- अनाचारों से छुटकारा मिला। शक, हूण, कोल, किरात यवन लगातार इस देश पर आक्रमण करते रहे हैं। यहाँ का वैभव बुरी तरह लुटता रहा है। विपन्नता ने इतना पराक्रम भी शेष नहीं रहने दिया था कि आक्रान्ताओं को उल्टे पैरों लौटाया जा सके, फिर भी महाक्रान्ति ने अपना स्वरूप प्रकट किया। दो विश्व युद्धों ने अहंकारियों की कमर तोड़ दी और दिखा दिया कि विनाश पर उतारू होने वाली कोई भी शक्ति नफे में नहीं रह सकती। भारत में लंबे समय से चली आ रही राजनैतिक पराधीनता का जुआ देखते- देखते उतार फेंका गया। दावानल इतने तक ही रुका नहीं, अफ्रीका महाद्वीप के अधिकांश देश- उपनिवेश साधारण से प्रयत्नों के सहारे स्वतंत्र हो गए। इसके अतिरिक्त छोटे- छोटे द्वीपों तक ने राजनैतिक स्वतंत्रता प्राप्त कर ली, इस प्रकार उपनिवेशवाद समाप्त हो गया।
इसी बीच सामाजिक क्रान्ति किसी क्षेत्र विशेष तक सीमित नहीं रही वरन् उसने समस्त विश्व को प्रभावित किया। दास- दासियों की लूट- खसोट और खरीद- फरोख्त वहाँ बंद हुई, इतने पुराने प्रचलन को इतनी तेजी से उखाड़ना संभव हुआ मानों किसी बड़े तूफान ने सब कुछ उलट- पलट कर रख दिया हो! राजतंत्र का संसार भर में बोलबाला था, सामंतों की सर्वथा तूती बोलती थी, अमीर, उमराव और जमींदार की ही सर्वत्र तूती बोलती थी, अमीर, उमराव और जमींदार ही छत्रप बने हुए थे। वे न जाने किस हवा के झोंके के साथ टूटी पतंग की तरह उड़ गए। स्त्री और शूद्र के रूप में तीन चौथाई जनता किसी प्रकार अपने मालिकों के अनुग्रह पर निर्भर रहकर जीवनयापन भर के साधन बिना सम्मान के स्वीकार कर लेने पर भी कामचलाऊ मात्रा में उपलब्ध कर पाती थी। वह स्थिति अब नहीं रहीं, ‘‘नर और नारी एक समान’’ ‘‘जाति वंश सब एक समान’’ का निर्धारण प्राय: विश्व के अधिकांश भागों में सिद्धांतत: स्वीकार कर लिया गया है। व्यवहार में उतरने में कुछ समय तो लग रहा है, कठिनाई भी पड़ रही है पर देर- सबेर में यह समस्या भी सुलझ जाएगी, यह भी परिवर्तन इसी बीसवीं सदी में हुए हैं जबकि इन्हें जड़ें जमाने में हजारों वर्ष लग गए थे।
बुझता हुआ दीपक पूरी लौ से उठता है। रात्रि के अंतिम चरण में अँधेरा सबसे अधिक गहरा होता है। हारता जुआरी दूना दुस्साहस दिखाता है। ‘मरता सो क्या न करता’ वाली उक्ति ऐसे ही समय पर चरितार्थ होती है। वैसा ही इन दिनों भी हो रहा है। नीति और अनीति के बीच इन दिनों घमासान युद्ध हो रहा है। कुहराम और धकापेल का ऐसा माहौल है, जिसमें सूझ नहीं पड़ता कि आखिर हो क्या रहा है? इस आँख मिचौनी में धूप- छाँव में किसे पता चल रहा है कि क्या हो रहा है? कौन जीता और हार कौन रहा है? इतने पर भी जो अदृश्य को देख सकते हैं, वे सुनिश्चित आधारों के सहारे विश्वास करते हैं कि सृजन ही जीतेगा। विजय सत्य की ही होनी है। उज्ज्वल भविष्य का दिनमान उदय होकर ही रहना है और आँखों को धोखे में डालने वाला तम सुनिश्चित रूप से मिटना है।
महाक्रान्ति के वर्तमान दौर में क्या हो रहा है? क्या होने जा रहा है? क्या बन रहा है? क्या बिगड़ रहा है? इसका ठीक तरह सही स्वरूप देख पाना सर्वसाधारण के लिए संभव नहीं। दो। पहलवान जब अखाड़े में लड़ते हैं, तो दर्शकों को ठीक तरह पता नहीं चल पाता कौन हार रहा है और कौन जीतने जा रहा है, पर यह असमंजस अधिक समय नहीं रहता। वास्तविकता सामने आकर ही रहती है। वर्तमान में बिगाड़ होता अधिक दीखता है और सुधार की गति धीमी प्रतीत होती है, फिर भी प्रवाह की गति को देखते हुए यह कहा जा सकता है कि हम पीछे नहीं हट रहे, आगे ही बढ़ रहे हैं। अनौचित्य का समापन और औचित्य का अभिवर्धन ही निष्कर्ष का सार संक्षेप है।
भविष्य का एकदम सुनिश्चित निर्धारण तो नहीं हो सकता क्योंकि मनुष्य अपने भाग्य का निर्माता आप है। वह उसे बना भी सकता है बिगाड़ भी। बदलती हुई परिस्थितियाँ भी पासा पलट सकती हैं। इतने पर भी अनुमान और आँकलन यदि सही हो तो संभावना की पूर्व जानकारी का अधिकतर पता चल जाता है। इसी आधार पर संसार की अनेक योजनाएँ बनती और गति-विधियाँ चलती हैं। यदि भावी अनुमान के संबंध में स्थिति सर्वथा अनिश्चित रहे, तो किसी महत्वपूर्ण विषय पर कुछ सोच सकना संभव न हो सकेगा।
यह महाक्रान्ति की बेला है, युग परिवर्तन की भी। अशुभ की दिशा से शुभ की ओर प्रयाण चल रहा है, प्रवाह बह रहा है। तूफान की दिशा और गति को देखते हुए अनुमान लगाया जा सकता है कि वस्तुओं की किस दिशा में धकेला और बढ़ाया जाता है। नदी के प्रवाह में गिरे हुए झंखाड़ बहाव की दिशा में ही दौड़ते चले जाते हैं। तूफानों की जो दिशा होती है उसी में तिनके पत्ते और धूलिकण उड़ते चले जाते हैं। महाक्रान्ति सदा सृजन और संतुलन के निमित्त उभरती हैं। पतन और पराभव की विडंबनाएँ तो कुसंस्कारी वातावरण आए दिन रचता रहता है। पेड़ पर लगा हुआ फल नीचे की ओर गिरता है। पानी भी ढलान की ओर बहकर निचाई की ओर चलता जाता है। किंतु असंतुलन को संतुलन में बदलने के लिए जब महाक्रान्तियाँ उभरती हैं तो उसका प्रभाव परिणाम ऊर्ध्वगमन उत्कर्ष, अभ्युदय के रूप में ही होता है। उस उभार को देखते हुए, यह विश्वास किया जा सकता है कि भविष्य उज्ज्वल है। हम सब शान्ति और प्रगति के लक्ष्य की दिशा में चल रहे हैं और उसे प्राप्त करके भी रहेंगे।
पौराणिक- काल का समुद्र- मंथन वृत्तासुर वध, गंगावतरण, हिरण्याक्ष के बंधनों से पृथ्वी का विमोचन, परशुराम द्वारा कुपथगामियों से सत्ता छीनना आदि ऐसी महान घटनाओं को प्रमुख माना जाता है, जिनने कालचक्र के परिवर्तन की भूमिका निभाई। अन्य देशों व संस्कृतियों यथा ग्रीस, रोम, मेसोपोटामिया आदि की लोक कथाओं में भी ऐसे ही मिलते- जुलते अलंकारिक वर्णन हैं। यदि वे सब सही हैं तो मानना होगा कि महाक्रान्तियों का सिलसिला चिरपुरातन है।
इतिहास काल में भी कुछ बड़े शक्तिशाली परिवर्तन हुए हैं, जिनमें रामायण प्रसंग, महाभारत आयोजन और बुद्ध के धर्मचक्र प्रवर्तन प्रमुख हैं। लंका काण्ड के उपरांत रामराज्य के साथ सतयुग की वापसी संभव हुई। महाभारत काल के उपरांत भारत का विशाल भारत, महान भारत बनाने का लक्ष्य पूरा हुआ। बुद्ध के धर्मचक्र प्रवर्तन से तत्कालीन वह विचारक्रान्ति संपन्न हुई, जिसकी चिनगारियों ने अगणित क्षेत्रों के अगणित प्रसंगों को ऊर्जा और आभा से भर दिया, वह दावानल अनेक मंचों, धर्म संप्रदायों, संतों, समाज सुधारकों और शहीदों के रूप में पिछली शताब्दी तक अपनी परंपरा को विभिन्न रूपों में कायम रखे रहा। प्रजातंत्र और साम्यवाद की सशक्त नई विचारणा इस प्रकार उभरी, जिसने लगभग समूची विश्व वसुधा को आंदोलित करके रख दिया। पिछली क्रांतियों के संदर्भ में इतने ही संकेत पर्याप्त होने चाहिए जिनसे सिद्ध होता है कि मनीषा जब भी आदर्शवादी ऊर्जा से अनुप्राणित होती है तो अनेक सहचरों को खींच बुलाती है और वह कार्य कर दिखाती है जिसे आमतौर से मानवी कहना गले न उतरने पर ‘दैवी अनुग्रह’ की संज्ञा दी जाती है। पुरातन- कालों के ऐसे झंझावातों को अवतार की संज्ञा देकर संतोष कर लिया जाता है। असंभव को संभव कर दिखाने वाले महापराक्रमों को मनीषा की प्रखरता भी जनसहयोग के सहारे संपन्न कर सकती है, इसे सामान्य स्तर का जन समुदाय स्वीकार भी तो नहीं करता।
पिछले महान परिवर्तनों को युगांतरीय या युग परिवर्तनकारी भी कहा जाता रहा है। इन दिनों ऐसे ही प्रचण्ड प्रवाह के अवतरण का समय है, जिसे पिछले समस्त परिवर्तनों की संयुक्त शक्ति का एकात्म समीकरण कहा जा सकता है। पिछले परिवर्तनों में कितना समय लगता रहा है? इसके संबंध में सही विवरण तो उपलब्ध नहीं, पर वर्तमान महाक्रान्ति का स्वरूप समग्र रूप से परिलक्षित होने में प्राय: सौ वर्ष का समय महत्त्वपूर्ण होगा। यों उसका तारतम्य अब से काफी पहले से भी चल रहा है और पूरी तरह चरितार्थ होने के बाद भी कुछ समय चलता रहेगा।
अपने समय का महापरिवर्तन ‘‘युगांतर’’ के नाम से जाना जा सकता है। युग परिवर्तन की प्रस्तुत प्रक्रिया का एक ज्वलंत पक्ष तब देखने में आया जब प्राय: दो हजार वर्षों से चले आ रहे आक्रमणों- अनाचारों से छुटकारा मिला। शक, हूण, कोल, किरात यवन लगातार इस देश पर आक्रमण करते रहे हैं। यहाँ का वैभव बुरी तरह लुटता रहा है। विपन्नता ने इतना पराक्रम भी शेष नहीं रहने दिया था कि आक्रान्ताओं को उल्टे पैरों लौटाया जा सके, फिर भी महाक्रान्ति ने अपना स्वरूप प्रकट किया। दो विश्व युद्धों ने अहंकारियों की कमर तोड़ दी और दिखा दिया कि विनाश पर उतारू होने वाली कोई भी शक्ति नफे में नहीं रह सकती। भारत में लंबे समय से चली आ रही राजनैतिक पराधीनता का जुआ देखते- देखते उतार फेंका गया। दावानल इतने तक ही रुका नहीं, अफ्रीका महाद्वीप के अधिकांश देश- उपनिवेश साधारण से प्रयत्नों के सहारे स्वतंत्र हो गए। इसके अतिरिक्त छोटे- छोटे द्वीपों तक ने राजनैतिक स्वतंत्रता प्राप्त कर ली, इस प्रकार उपनिवेशवाद समाप्त हो गया।
इसी बीच सामाजिक क्रान्ति किसी क्षेत्र विशेष तक सीमित नहीं रही वरन् उसने समस्त विश्व को प्रभावित किया। दास- दासियों की लूट- खसोट और खरीद- फरोख्त वहाँ बंद हुई, इतने पुराने प्रचलन को इतनी तेजी से उखाड़ना संभव हुआ मानों किसी बड़े तूफान ने सब कुछ उलट- पलट कर रख दिया हो! राजतंत्र का संसार भर में बोलबाला था, सामंतों की सर्वथा तूती बोलती थी, अमीर, उमराव और जमींदार की ही सर्वत्र तूती बोलती थी, अमीर, उमराव और जमींदार ही छत्रप बने हुए थे। वे न जाने किस हवा के झोंके के साथ टूटी पतंग की तरह उड़ गए। स्त्री और शूद्र के रूप में तीन चौथाई जनता किसी प्रकार अपने मालिकों के अनुग्रह पर निर्भर रहकर जीवनयापन भर के साधन बिना सम्मान के स्वीकार कर लेने पर भी कामचलाऊ मात्रा में उपलब्ध कर पाती थी। वह स्थिति अब नहीं रहीं, ‘‘नर और नारी एक समान’’ ‘‘जाति वंश सब एक समान’’ का निर्धारण प्राय: विश्व के अधिकांश भागों में सिद्धांतत: स्वीकार कर लिया गया है। व्यवहार में उतरने में कुछ समय तो लग रहा है, कठिनाई भी पड़ रही है पर देर- सबेर में यह समस्या भी सुलझ जाएगी, यह भी परिवर्तन इसी बीसवीं सदी में हुए हैं जबकि इन्हें जड़ें जमाने में हजारों वर्ष लग गए थे।
बुझता हुआ दीपक पूरी लौ से उठता है। रात्रि के अंतिम चरण में अँधेरा सबसे अधिक गहरा होता है। हारता जुआरी दूना दुस्साहस दिखाता है। ‘मरता सो क्या न करता’ वाली उक्ति ऐसे ही समय पर चरितार्थ होती है। वैसा ही इन दिनों भी हो रहा है। नीति और अनीति के बीच इन दिनों घमासान युद्ध हो रहा है। कुहराम और धकापेल का ऐसा माहौल है, जिसमें सूझ नहीं पड़ता कि आखिर हो क्या रहा है? इस आँख मिचौनी में धूप- छाँव में किसे पता चल रहा है कि क्या हो रहा है? कौन जीता और हार कौन रहा है? इतने पर भी जो अदृश्य को देख सकते हैं, वे सुनिश्चित आधारों के सहारे विश्वास करते हैं कि सृजन ही जीतेगा। विजय सत्य की ही होनी है। उज्ज्वल भविष्य का दिनमान उदय होकर ही रहना है और आँखों को धोखे में डालने वाला तम सुनिश्चित रूप से मिटना है।
महाक्रान्ति के वर्तमान दौर में क्या हो रहा है? क्या होने जा रहा है? क्या बन रहा है? क्या बिगड़ रहा है? इसका ठीक तरह सही स्वरूप देख पाना सर्वसाधारण के लिए संभव नहीं। दो। पहलवान जब अखाड़े में लड़ते हैं, तो दर्शकों को ठीक तरह पता नहीं चल पाता कौन हार रहा है और कौन जीतने जा रहा है, पर यह असमंजस अधिक समय नहीं रहता। वास्तविकता सामने आकर ही रहती है। वर्तमान में बिगाड़ होता अधिक दीखता है और सुधार की गति धीमी प्रतीत होती है, फिर भी प्रवाह की गति को देखते हुए यह कहा जा सकता है कि हम पीछे नहीं हट रहे, आगे ही बढ़ रहे हैं। अनौचित्य का समापन और औचित्य का अभिवर्धन ही निष्कर्ष का सार संक्षेप है।
भविष्य का एकदम सुनिश्चित निर्धारण तो नहीं हो सकता क्योंकि मनुष्य अपने भाग्य का निर्माता आप है। वह उसे बना भी सकता है बिगाड़ भी। बदलती हुई परिस्थितियाँ भी पासा पलट सकती हैं। इतने पर भी अनुमान और आँकलन यदि सही हो तो संभावना की पूर्व जानकारी का अधिकतर पता चल जाता है। इसी आधार पर संसार की अनेक योजनाएँ बनती और गति-विधियाँ चलती हैं। यदि भावी अनुमान के संबंध में स्थिति सर्वथा अनिश्चित रहे, तो किसी महत्वपूर्ण विषय पर कुछ सोच सकना संभव न हो सकेगा।
यह महाक्रान्ति की बेला है, युग परिवर्तन की भी। अशुभ की दिशा से शुभ की ओर प्रयाण चल रहा है, प्रवाह बह रहा है। तूफान की दिशा और गति को देखते हुए अनुमान लगाया जा सकता है कि वस्तुओं की किस दिशा में धकेला और बढ़ाया जाता है। नदी के प्रवाह में गिरे हुए झंखाड़ बहाव की दिशा में ही दौड़ते चले जाते हैं। तूफानों की जो दिशा होती है उसी में तिनके पत्ते और धूलिकण उड़ते चले जाते हैं। महाक्रान्ति सदा सृजन और संतुलन के निमित्त उभरती हैं। पतन और पराभव की विडंबनाएँ तो कुसंस्कारी वातावरण आए दिन रचता रहता है। पेड़ पर लगा हुआ फल नीचे की ओर गिरता है। पानी भी ढलान की ओर बहकर निचाई की ओर चलता जाता है। किंतु असंतुलन को संतुलन में बदलने के लिए जब महाक्रान्तियाँ उभरती हैं तो उसका प्रभाव परिणाम ऊर्ध्वगमन उत्कर्ष, अभ्युदय के रूप में ही होता है। उस उभार को देखते हुए, यह विश्वास किया जा सकता है कि भविष्य उज्ज्वल है। हम सब शान्ति और प्रगति के लक्ष्य की दिशा में चल रहे हैं और उसे प्राप्त करके भी रहेंगे।