Books - गायत्री की अनुष्ठान एवं पुरश्चरण साधनाएँ
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Language: HINDI
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पाप पर से पर्दा हटाया जाय
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पापों के प्रकटीकरण की प्रक्रिया का एक स्वरूप तो मुण्डन कराने—बाल कटवाने के रूप में प्रतीक चिन्ह की तरह है। दूसरा चरण है प्रकटीकरण। यह मात्र किसी सत्पात्र के सम्मुख ही हो सकता है। सार्वजनिक घोषणा कर सकने का किसी में साहस हो तो और भी उत्तम। पर इस प्रकटीकरण में यह ध्यान रखना आवश्यक है कि व्यभिचार जैसी प्रक्रियाओं में साथी का नाम, पता आदि प्रकट न किया जाय।
पापों पर पड़े हुए पर्दे को उइाने और प्रकटीकरण की विधा पूरी करने के लिए शास्त्र निर्देश इस प्रकार है—
यथा यथा नरोऽधर्मं स्वयं कृत्वाऽनुभाषते ।
तथा तथा त्वचेवाहि स्तेनाधर्मेण मुच्यते ।।—मनुस्मृति
जैसे-जैसे मनुष्य अपना अधर्म लोगों में ज्यों का त्यों प्रकट करता है, वैसे वैसे ही वह अधर्म से उसी प्रकार मुक्त होता है जैसे केंचली से सांप।
समत्वे सति राजेन्द्र तयोः सुकृत पापेया।
गूहितस्य भवेद् वृद्धि कीर्तितस्य भवत् क्षयः ।। —महाभारत
राजेन्द्र जब पुण्य-पाप दोनों समान होते हैं, तब जिसको गुप्त रखा जाता है, उसकी वृद्धि होती है और जिसका वर्णन कर दिया जाता है उसका क्षय हो जाता है।
तस्मात् प्रकाशयेत् पापं स्वधर्म सततं चरेत् ।
क्लीवा दुःखी च कुष्ठी च सप्त जन्मानि वै नरः ।। —पाराशर स्मृति
पाप को छिपाने से मनुष्य, सात जन्मों तक कोढ़ी दुःखी, नपुंसक होता है। इसलिए पाप को प्रकट कर देना ही उत्तम है।
आचक्षाणेनतत्पापमेतत्कर्म्मास्मिशाधिमाम् ।
वह अपने किये हुए पाप को भी मुंह से कहता हुआ दौड़े कि मैं ऐसे कर्म के करने वाला हूं मुझे दण्डाज्ञा प्रदान कीजिए।
कृत्वा पापं न गूहेत् गुह्यमानं विवर्द्धते ।
स्वल्पं वाथ प्रभूतं वा धर्मविद्ध्यो निवेदयेत ।।
ते हि पापे कृते वेद्या हन्तारश्चैव पाप्मनाम् ।
व्याधितस्य यथा वैद्या बुद्धिमन्तो रुजापहाः ।। —पाराशर स्मृति
पाप कर्म बन पड़ने पर उसे छिपाना नहीं चाहिए। छिपाने से वह बहुत बढ़ता है। पाप छोटा हो या बड़ा उसे किसी धर्मज्ञ से प्रकट अवश्य कर देना चाहिए। इस प्रकार उसे प्रकट कर देने से पाप उसी तरह नष्ट हो जाते हैं जैसे चिकित्सा करा लेने पर रोग नष्ट हो जाते हैं।
रहस्यं प्रकश्यं च । —प्रायश्चितेन्दु शेखर
पापं नश्यति कीर्तनात् । —धर्म सिन्धु
रहस्य के पर्दे को उठा देना चाहिए। पाप के प्रकटीकरण से वे धुल जाते हैं।
तस्मात् पापं न गुह्येत् गुहमानं विवर्धयेत् ।
कृत्वातत् साधुरवमेयतेतत् शमयन्त्युत ।। —महा. अनु.
अतः अपने पाप को न छिपावे, छिपाया हुआ पाप बढ़ता है। यदि कभी पाप बन गया हो तो उसे साधु पुरुषों से कह देना चाहिए। वे उसकी शान्ति कर देते हैं।
तद् यदिह परुषस्य पाप कृतम्भवति तदा निष्करोति यदि है न दपि रहसीव कूर्वन्मन्यतेथ हैन दाविरेव करोति ।
तस्याद्वाव पापं न कुर्यात् । —जैमिनीयोपनिषद ब्राह्मण
जब मनुष्य में दिव्य वाणी प्रकट होती है तब वह अपने पाप प्रकट करती है। मनुष्य ने जो पाप नितान्त गोपनीय रखे थे उन्हें भी वह प्रकट कर देती है।
दुष्कर्मों के कितने ही बुरे प्रभाव अन्तः क्षेत्र पर पड़ते हैं। वे कुकृत्य चेतना की गहराई में पहुंच कर कुसंस्कारों के रूप में जड़ जमा कर बैठ जाते हैं और धुन की तरह उस क्षेत्र की गरिमा को नष्ट करते चले जाते हैं। उनके दुष्परिणाम समय-समय पर आधि-व्याधि और आकस्मिक दुर्घटनाओं के रूप में सामने आते रहते हैं।
मनोविज्ञान शास्त्र के अनुसार अन्तः भूमि को क्षत-विक्षत करने वाला सबसे बड़ा कारण है दुराव। दुष्कर्मों के करते समय भी सामने वाले से छल करना पड़ता है। वस्तुस्थिति जान लेने पर तो आक्रमण सफल ही न हो सकेगा। इसके उपरान्त राज दण्ड तथा समाज दण्ड से बचने के लिए उन कुकृत्यों को छिपा कर रखा जाता है। किसी पर प्रकट नहीं होने दिया जाता। यह दुराव हजम तो होता नहीं। पारा खा लेने पर वह पचता नहीं, वह फूट-फूटकर शरीर में से फोड़े और घाव बनकर निकलता रहता है। ठीक इसी प्रकार कुकृत्यों का दुराव भी अनेकों प्रकार के मानसिक और शारीरिक रोग उत्पन्न करता और आजीवन कष्ट देता रहता है। अन्तर्द्वन्द तब तक चलता ही रहता है जब तक उसका प्रकटीकरण और प्रायश्चित करके परिशोधन न कर दिया जाय।
परिशोधन प्रक्रिया में प्रकटीकरण भी एक उपचार है। जो कुकृत्य बन पड़े हैं उनका प्रकटीकरण आवश्यक है। पर वह होना उन्हीं के सामने चाहिए जो इतना उदार हो कि चिकित्सक की करुणा से अपराधों को धैर्यपूर्वक सुन कसे और घृणा धारण किये बिना उन्हें अपने भीतर पचा सके। प्रकट करने वाले की निन्दा न होने दें। उसे उसे प्रकटीकरण के कारण लोक निन्दा के द्वारा होने वाली क्षति न पहुंचने दें, वरन् उसे स्नेहपूर्वक सत्परामर्श देकर सुधरने में सहायता करें। ऐसे व्यक्ति जब तक न मिले तब तक प्रकटीकरण नहीं ही करना उचित है। ईसाई धर्म में मरने से पूर्व पाप स्वीकृति का वर्णन— कनफेक्शन आवश्यक धर्मकृत्य माना जाता है। समय रहते पादरी को बुलाया जाता है। एकान्त में मरणासन्न व्यक्ति जीवन भर के अपने सारे पापों को विस्तारपूर्वक बताता है और जी हलका करता है। पादरी को पिता कहते हैं। उसमें परम करुणा रहती है। वह धैर्य और शान्तिपूर्वक उसे सुनता है और ईश्वर से क्षमा की प्रार्थना करता है। न उसके मन में घृणा होती है और न औरों पर प्रकट करने की क्षुद्रता का परिचय देना ही उसकी गरिमा के उपयुक्त होता है।