Books - निरशा को पास न फटकने दें
Media: TEXT
Language: MARATHI
Language: MARATHI
निराशा से दूर ही रहिये
Listen online
View page note
Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
रात और दिन की तरह मनुष्य के जीवन में आशा, निराशा के क्षण आते-जाते रहते हैं। आशा जहां जीवन में संजीवनी शक्ति का संचार करती है, वहां निराशा मनुष्य को मृत्यु की ओर ले जाती है। क्योंकि निराश व्यक्ति जीवन से उदासीन और विरक्त होने लगता है। उसे अपने चारों ओर अन्धकार फैला हुआ दीखता है। एक दिन निराशा आत्महत्या तक के लिये मजबूर कर देती है मनुष्य को, जबकि मृत्यु के मुंह में जाता हुआ व्यक्ति भी आशावादी विचारों के कारण जी उठता है। श्रेयार्थी को निराशा की बीमारी से बचना आवश्यक है अन्यथा यह तन और मन दोनों को ही नष्ट कर देती है।
निराशा का बहुत कुछ सम्बन्ध मानसिक शिथिलता से भी होता है, जो किसी बीमारी या शरीर की गड़बड़ी से पैदा हो जाती है। कभी कई अप्रत्यक्ष रूप से भी शरीर की आन्तरिक स्थिति में परिवर्तित होते रहते हैं और उनका प्रभाव मानसिक स्थिति पर भी पड़ता है। शरीर की तनिक सी गड़बड़ी का प्रभाव भी मन पर पड़ता है। किसी बीमारी के बाद भी अक्सर हम में निराशा की भावना पैदा होती है। कभी-कभी कब्ज, गन्दी वायु, विश्राम का अभाव, दौड़ धूप का जीवन आदि के कारण भी निराशा, उदासीनता पैदा हो जाती है। लेकिन उपर्युक्त बातें ऐसी हैं जिन्हें सरलता से एक सामान्यज्ञान रखने वाला व्यक्ति भी ठीक कर सकता है। अपने स्वास्थ्य का सुधार, व्यवस्थित, सन्तुलित जीवन, प्राकृतिक नियमों का अवलम्बन लेकर निराशा के इन कारणों को सरलता से दूर किया जा सकता है।
स्वास्थ्य ठीक होते ही मन भी स्वस्थ हो जाता है। फिर उस पर ऐसे निषेधात्मक प्रभाव नहीं होते। कई बार निराशा का सम्बन्ध मनुष्य की अनुभूतियों से उत्पन्न प्रतिक्रिया या अन्तर्मन में छिपा हुआ असन्तोष, अशान्ति आदि होते हैं। कइयों की मानसिक स्थिति बड़ी जटिल होती है। निम्न बातों का ध्यान रख कर निराशा से बचा ही नहीं जा सकता, उसे सर्वथा दूर भी किया जा सकता है। हमारी निराशा का बहुत कुछ कारण होता है—यथार्थ को स्वीकार न करना, अपनी कल्पना और मनोभावों की दुनिया में रहना। यह ठीक है कि मनुष्य की कुछ अपनी भावनायें, कल्पनायें होती हैं, किन्तु सारा संसार वैसा ही बन जायगा यह सम्भव नहीं होता। हां, अपनी भावनाओं के अनुकूल जीवन भर काम करते रहना अलग बात है।
किन्तु दूसरे भी वैसा ही करने लगें, वैसे ही बन जायें यह कठिन है। यह ठीक उसी तरह है जैसे कोई व्यक्ति चाहे रात न हो केवल दिन ही दिन रहे या बरसात होवे नहीं। संसार परिवर्तनशील और वैभिन्यपूर्ण है। अपने मत से भिन्न व्यक्ति का भी सम्पर्क होता है। धरती पर मनुष्य के न चाहने पर भी बुढ़ापा, मृत्यु, संयोग-वियोग, लाभ-हानि के क्षण देखने पड़ते हैं। जीवन जैसा है उसी रूप में स्वीकार करने पर ही यहां जीवित रहा जा सकता है। यथार्थ का सामना करके ही आप जीवन-पथ पर चल सकते हैं। ऐसा हो नहीं सकता कि जीवन रहे और मनुष्य को विपरीतताओं का सामना न करना पड़े। यदि आप जीवन में आई विरोधी परिस्थितियों से हार बैठे हैं, अपनी भावनाओं के प्रतिकूल घटनाओं से ठोकर खा चुके हैं और फिर जीवन की उज्ज्वल सम्भावनाओं से निराश हो बैठे हैं तो उद्धार का एक ही मार्ग है—उठिए और जीवन-पथ की कठोरताओं को स्वीकार कर आगे बढ़िये। तभी कहीं आप उच्च मंजिल तक पहुंच सकते हैं। जीना है तो यथार्थ को अपनाना ही पड़ेगा। और कोई दूसरा मार्ग नहीं है जो बिना इसके मंजिल तक पहुंचा दे।
कई बार अप्रिय बातों को अक्सर हम रोक नहीं पाते। बहुत से व्यक्ति अपने बीते हुए जीवन की गलतियां, अपमान, हानि, पीड़ाओं का चिन्तन करके निराश हो जाते हैं और कई भविष्य के खतरों की कल्पना करके अवसादग्रस्त हो जाते हैं। लेकिन यह दोनों ही स्थितियां मानसिक अस्वस्थता के चिह्न हैं। जो बातें हो चुकीं, जो घटनायें बीत गईं उन पर विचार करना, उन्हें स्मरण करना उतनी ही बड़ी भूल है, जितना गड़े मुर्दे उखाड़ना। जो बातें बीत चुकीं उन्हें भुला देने के सिवा और कोई रास्ता नहीं है। इसी तरह भविष्य की भयावह तस्वीर बना लेना भी भूल है। कई बार वे बातें होती ही नहीं जिनकी हम पहले से कल्पना करके परेशान होते रहते हैं। आगे क्या होगा यह तो भविष्य ही बतायेगा, किन्तु निराशा से दूर रहने और जीवन को सरस आशावादी बनाये रखने का यह मार्ग है कि भविष्य के प्रति उज्ज्वल सम्भावनाओं का विचार किया जाय।
प्रसन्नता और सुख के जो क्षण आवें उनका पूरा-पूरा उपयोग किया जाये। सुखद भविष्य की कल्पनायें मानस-पटल पर संजोयी जायं। यह हो नहीं सकता कि किसी व्यक्ति के जीवन में केवल परेशानियां ही आवें, अन्धेरा ही हो। जीवन में उज्ज्वल पक्ष भी होता है। हम इस उज्ज्वल पक्ष को देखें, इस पर विचार करें तो निराशा पास नहीं फटक सकती। लेकिन हम जीवन के अन्धेरे पहलू को ही सामने रखकर विचार करते हैं और फलस्वरूप निराशा ही हाथ लगती है। निराशा का मनुष्य के दृष्टिकोण से अधिक सम्बन्ध होता है। जैसी उसकी भावनाएं होती हैं वैसी ही उसको प्रेरणाएं भी मिलती हैं।
जिनका दृष्टिकोण, भावनाएं स्वार्थप्रधान होती हैं, जो अपने ही लाभ के लिये जीवन भर व्यस्त रहते हैं, उन्हें निराशा, असन्तोष, अवसाद ही परिणाम में मिलता है। यह एक बहुत बड़ा मनोवैज्ञानिक सत्य है। जिनके जीवन में परमार्थ, सेवा, जन-कल्याण की भावनाएं काम करती हैं उनमें आशा, उत्साह, प्रसन्नता की धारा निःसृत होती रहती है। अतः हम दूसरों की सेवा करके, जरूरतमन्दों की मदद करके, दूसरों के लिये भले काम करके निराशा से पीछा छुड़ा सकते हैं। परमार्थ-जीवी व्यक्तियों के जीवन में कभी निराशा पैदा नहीं होती—यह उतना ही सत्य है जितना सूर्य अपनी यात्रा से कभी नहीं थकता। बड़े से बड़ा स्वार्थ सिद्ध होने पर भी मनुष्य को जीवन में एक अभाव महसूस होता है और उससे प्रेरित निराशा अवसाद उसे ग्रस्त कर लेते हैं। स्वार्थ-प्रधान जीवन ही निराशा के लिये उर्वरक क्षेत्र होता है। किसी बंधे-बंधाये खास ढर्रे पर चलते रहने से भी निराशा उत्पन्न हो जाती है।
अक्सर सरकारी नौकरी से निवृत्त होने वालों में से बहुत से जीवन के अन्तिम दिन बड़ी निराशा में बिताते हैं। इसी तरह केवल अपने रोज़गार में या किसी अन्य काम में एकाकी लगे रहने पर जीवन से ऊब पैदा हो जाती है और फिर यही निराशा का कारण बन जाता है। जीवन-निर्वाह के लिये हम कुछ भी काम करें यह बुरा नहीं है, किन्तु जीवन की अन्य प्रवृत्तियों को कुण्ठित कर लेना निराशा के लिये जिम्मेदार है। कला, संगीत, साहित्य, खेल, मनोरंजन, सामाजिक सम्पर्क, यात्रा, तीर्थाटन, धार्मिक कृत्य आदि जीवन के अनेक पहलू हैं जिन्हें अपने दैनिक-क्रम में स्थान देना आवश्यक है। निराशा का सम्बन्ध अपने बारे में बहुत ज्यादा सोचते रहने से भी है। क्योंकि इससे अपराध-भावना जोर पकड़ती है। मनुष्य अपने आपको अपराधी, कुकर्मी, पाप करने वाला समझता है। यों हर मनुष्य अपने जीवन में कभी न कभी बुराइयां कर बैठता है। बुरे काम हो जाते हैं।
लेकिन यह एक मानसिक कमज़ोरी है कि हम अपनी बुराइयों पर अधिक सोच-विचार करने लग जाते हैं। इससे बचपन में भूलवश किये गये मामूली कुकर्म भी भारी अपराध जान पड़ते हैं और हम अपने आपको एक बहुत बड़ा अपराधी समझने लगते हैं। इससे मनुष्य का मन गिर जाता है। हीनता की भावना पैदा होती है और फिर निराशा धर दबाती है। अपने बारे में अधिक सोच-विचार न करें। जीवन को एक खेल समझ कर जियें जिसमें भूल भी हो सकती है, हार भी होती है तो जीत भी। बचपन के कुसंग, अज्ञान प्रेरित भूलों के कारण भविष्य में होने वाले महापुरुष भी बड़ी-बड़ी बुराइयां कर सकते हैं। अज्ञान नासमझी की अवस्था में कुछ भी होना सम्भव है। समझ आने पर उसे दूर भी किया जा सकता है।
किन्तु एक सामयिक गलती को जीवन भर रटते रहना अपने मनोबल को क्षीण करते रहना है और उससे फिर निराशा ही पल्ले पड़ सकती है।
निराशा का बहुत कुछ सम्बन्ध मानसिक शिथिलता से भी होता है, जो किसी बीमारी या शरीर की गड़बड़ी से पैदा हो जाती है। कभी कई अप्रत्यक्ष रूप से भी शरीर की आन्तरिक स्थिति में परिवर्तित होते रहते हैं और उनका प्रभाव मानसिक स्थिति पर भी पड़ता है। शरीर की तनिक सी गड़बड़ी का प्रभाव भी मन पर पड़ता है। किसी बीमारी के बाद भी अक्सर हम में निराशा की भावना पैदा होती है। कभी-कभी कब्ज, गन्दी वायु, विश्राम का अभाव, दौड़ धूप का जीवन आदि के कारण भी निराशा, उदासीनता पैदा हो जाती है। लेकिन उपर्युक्त बातें ऐसी हैं जिन्हें सरलता से एक सामान्यज्ञान रखने वाला व्यक्ति भी ठीक कर सकता है। अपने स्वास्थ्य का सुधार, व्यवस्थित, सन्तुलित जीवन, प्राकृतिक नियमों का अवलम्बन लेकर निराशा के इन कारणों को सरलता से दूर किया जा सकता है।
स्वास्थ्य ठीक होते ही मन भी स्वस्थ हो जाता है। फिर उस पर ऐसे निषेधात्मक प्रभाव नहीं होते। कई बार निराशा का सम्बन्ध मनुष्य की अनुभूतियों से उत्पन्न प्रतिक्रिया या अन्तर्मन में छिपा हुआ असन्तोष, अशान्ति आदि होते हैं। कइयों की मानसिक स्थिति बड़ी जटिल होती है। निम्न बातों का ध्यान रख कर निराशा से बचा ही नहीं जा सकता, उसे सर्वथा दूर भी किया जा सकता है। हमारी निराशा का बहुत कुछ कारण होता है—यथार्थ को स्वीकार न करना, अपनी कल्पना और मनोभावों की दुनिया में रहना। यह ठीक है कि मनुष्य की कुछ अपनी भावनायें, कल्पनायें होती हैं, किन्तु सारा संसार वैसा ही बन जायगा यह सम्भव नहीं होता। हां, अपनी भावनाओं के अनुकूल जीवन भर काम करते रहना अलग बात है।
किन्तु दूसरे भी वैसा ही करने लगें, वैसे ही बन जायें यह कठिन है। यह ठीक उसी तरह है जैसे कोई व्यक्ति चाहे रात न हो केवल दिन ही दिन रहे या बरसात होवे नहीं। संसार परिवर्तनशील और वैभिन्यपूर्ण है। अपने मत से भिन्न व्यक्ति का भी सम्पर्क होता है। धरती पर मनुष्य के न चाहने पर भी बुढ़ापा, मृत्यु, संयोग-वियोग, लाभ-हानि के क्षण देखने पड़ते हैं। जीवन जैसा है उसी रूप में स्वीकार करने पर ही यहां जीवित रहा जा सकता है। यथार्थ का सामना करके ही आप जीवन-पथ पर चल सकते हैं। ऐसा हो नहीं सकता कि जीवन रहे और मनुष्य को विपरीतताओं का सामना न करना पड़े। यदि आप जीवन में आई विरोधी परिस्थितियों से हार बैठे हैं, अपनी भावनाओं के प्रतिकूल घटनाओं से ठोकर खा चुके हैं और फिर जीवन की उज्ज्वल सम्भावनाओं से निराश हो बैठे हैं तो उद्धार का एक ही मार्ग है—उठिए और जीवन-पथ की कठोरताओं को स्वीकार कर आगे बढ़िये। तभी कहीं आप उच्च मंजिल तक पहुंच सकते हैं। जीना है तो यथार्थ को अपनाना ही पड़ेगा। और कोई दूसरा मार्ग नहीं है जो बिना इसके मंजिल तक पहुंचा दे।
कई बार अप्रिय बातों को अक्सर हम रोक नहीं पाते। बहुत से व्यक्ति अपने बीते हुए जीवन की गलतियां, अपमान, हानि, पीड़ाओं का चिन्तन करके निराश हो जाते हैं और कई भविष्य के खतरों की कल्पना करके अवसादग्रस्त हो जाते हैं। लेकिन यह दोनों ही स्थितियां मानसिक अस्वस्थता के चिह्न हैं। जो बातें हो चुकीं, जो घटनायें बीत गईं उन पर विचार करना, उन्हें स्मरण करना उतनी ही बड़ी भूल है, जितना गड़े मुर्दे उखाड़ना। जो बातें बीत चुकीं उन्हें भुला देने के सिवा और कोई रास्ता नहीं है। इसी तरह भविष्य की भयावह तस्वीर बना लेना भी भूल है। कई बार वे बातें होती ही नहीं जिनकी हम पहले से कल्पना करके परेशान होते रहते हैं। आगे क्या होगा यह तो भविष्य ही बतायेगा, किन्तु निराशा से दूर रहने और जीवन को सरस आशावादी बनाये रखने का यह मार्ग है कि भविष्य के प्रति उज्ज्वल सम्भावनाओं का विचार किया जाय।
प्रसन्नता और सुख के जो क्षण आवें उनका पूरा-पूरा उपयोग किया जाये। सुखद भविष्य की कल्पनायें मानस-पटल पर संजोयी जायं। यह हो नहीं सकता कि किसी व्यक्ति के जीवन में केवल परेशानियां ही आवें, अन्धेरा ही हो। जीवन में उज्ज्वल पक्ष भी होता है। हम इस उज्ज्वल पक्ष को देखें, इस पर विचार करें तो निराशा पास नहीं फटक सकती। लेकिन हम जीवन के अन्धेरे पहलू को ही सामने रखकर विचार करते हैं और फलस्वरूप निराशा ही हाथ लगती है। निराशा का मनुष्य के दृष्टिकोण से अधिक सम्बन्ध होता है। जैसी उसकी भावनाएं होती हैं वैसी ही उसको प्रेरणाएं भी मिलती हैं।
जिनका दृष्टिकोण, भावनाएं स्वार्थप्रधान होती हैं, जो अपने ही लाभ के लिये जीवन भर व्यस्त रहते हैं, उन्हें निराशा, असन्तोष, अवसाद ही परिणाम में मिलता है। यह एक बहुत बड़ा मनोवैज्ञानिक सत्य है। जिनके जीवन में परमार्थ, सेवा, जन-कल्याण की भावनाएं काम करती हैं उनमें आशा, उत्साह, प्रसन्नता की धारा निःसृत होती रहती है। अतः हम दूसरों की सेवा करके, जरूरतमन्दों की मदद करके, दूसरों के लिये भले काम करके निराशा से पीछा छुड़ा सकते हैं। परमार्थ-जीवी व्यक्तियों के जीवन में कभी निराशा पैदा नहीं होती—यह उतना ही सत्य है जितना सूर्य अपनी यात्रा से कभी नहीं थकता। बड़े से बड़ा स्वार्थ सिद्ध होने पर भी मनुष्य को जीवन में एक अभाव महसूस होता है और उससे प्रेरित निराशा अवसाद उसे ग्रस्त कर लेते हैं। स्वार्थ-प्रधान जीवन ही निराशा के लिये उर्वरक क्षेत्र होता है। किसी बंधे-बंधाये खास ढर्रे पर चलते रहने से भी निराशा उत्पन्न हो जाती है।
अक्सर सरकारी नौकरी से निवृत्त होने वालों में से बहुत से जीवन के अन्तिम दिन बड़ी निराशा में बिताते हैं। इसी तरह केवल अपने रोज़गार में या किसी अन्य काम में एकाकी लगे रहने पर जीवन से ऊब पैदा हो जाती है और फिर यही निराशा का कारण बन जाता है। जीवन-निर्वाह के लिये हम कुछ भी काम करें यह बुरा नहीं है, किन्तु जीवन की अन्य प्रवृत्तियों को कुण्ठित कर लेना निराशा के लिये जिम्मेदार है। कला, संगीत, साहित्य, खेल, मनोरंजन, सामाजिक सम्पर्क, यात्रा, तीर्थाटन, धार्मिक कृत्य आदि जीवन के अनेक पहलू हैं जिन्हें अपने दैनिक-क्रम में स्थान देना आवश्यक है। निराशा का सम्बन्ध अपने बारे में बहुत ज्यादा सोचते रहने से भी है। क्योंकि इससे अपराध-भावना जोर पकड़ती है। मनुष्य अपने आपको अपराधी, कुकर्मी, पाप करने वाला समझता है। यों हर मनुष्य अपने जीवन में कभी न कभी बुराइयां कर बैठता है। बुरे काम हो जाते हैं।
लेकिन यह एक मानसिक कमज़ोरी है कि हम अपनी बुराइयों पर अधिक सोच-विचार करने लग जाते हैं। इससे बचपन में भूलवश किये गये मामूली कुकर्म भी भारी अपराध जान पड़ते हैं और हम अपने आपको एक बहुत बड़ा अपराधी समझने लगते हैं। इससे मनुष्य का मन गिर जाता है। हीनता की भावना पैदा होती है और फिर निराशा धर दबाती है। अपने बारे में अधिक सोच-विचार न करें। जीवन को एक खेल समझ कर जियें जिसमें भूल भी हो सकती है, हार भी होती है तो जीत भी। बचपन के कुसंग, अज्ञान प्रेरित भूलों के कारण भविष्य में होने वाले महापुरुष भी बड़ी-बड़ी बुराइयां कर सकते हैं। अज्ञान नासमझी की अवस्था में कुछ भी होना सम्भव है। समझ आने पर उसे दूर भी किया जा सकता है।
किन्तु एक सामयिक गलती को जीवन भर रटते रहना अपने मनोबल को क्षीण करते रहना है और उससे फिर निराशा ही पल्ले पड़ सकती है।