Books - निरशा को पास न फटकने दें
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Language: MARATHI
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हम आशावादी बनें
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आशा मनुष्य का शुभ संकल्प है। प्राणियों में वह अमृत है। जैसे सारा वनस्पति जगत् सूर्य से पोषण पाता है वैसे ही मनुष्य में आशायें ही पूर्ण शक्ति का संचार करती हैं। मनुष्य की प्रत्येक उन्नति, जीवन की सफलता, जीवनलक्ष्य की प्राप्ति का संचालन आशाओं द्वारा होता है। आशायें न होतीं तो संसार नीरस, अव्यक्त और निश्चेष्ट-सा दिखाई देता।
इसलिये भारतीय आचार्यों ने सदैव मानव समाज को यही समझाया है— निराशया समं पापं मानवस्य न विद्यते । तां समूलं समुत्सार्य ह्याशाबादपरो भव ।। मनुष्य के लिये निराशा से बढ़कर दूसरा कोई पाप नहीं इसलिये इसका समूल नाश करके आशावादी धर्म बनाना है। मानवीय प्रगति का आधार आशावादिता को ही मानते हुए उन्होंने आगे और भी कहा है— मानवस्योन्नतिः सर्वा साफल्यं जीवनस्य च । चरितार्थ्यं तथा सृष्टेराशावादे प्रतिष्ठितम् ।। संसार में आने के उद्देश्य की पूर्ति के लिये हे मनुष्यो! तुम्हें सर्व प्रथम आशावादिता का आश्रय लेना चाहिये। संसार के सारे कार्य आशाओं पर चलते हैं। विद्यार्थी अपना समय, धन लगाकर दिन-रात श्रमपूर्वक अध्ययन में लगा रहता है। अध्यापकों की झिड़कियां सुनता है अपना सुख-चैन सभी कुछ छोड़ कर केवल ज्ञानार्जन में लगा रहता है।
इसीलिये कि उसे यह आशा होती है कि वह पढ़-लिखकर सभ्य सुशिक्षित नागरिक बनेगा। देश जाति के उत्थान में भागीदार बनेगा। सम्मान-पूर्वक जीवन जिएगा। खेत खलिहानों से लेकर कल कारखानों तक में जितने भी व्यवसाय फैले हैं उनके मूल में कोई आशा ही क्रियाशील होती है। आशायें जीवन का शुभ लक्षण हैं। इनके सहारे मनुष्य घोर विपत्तियों में दुश्चिन्ताओं को हंसते-हंसते जीत लेता है। जो केवल दुनिया का रोना रोते रहते हैं उन्हें अर्द्धमृत ही समझना चाहिए, किन्तु आशावान् व्यक्ति पौरुष के लिये सदैव समुद्यत रहता है। वह अपने हाथ में फावड़ा लेकर टूट पड़ता है खेतों में, और मिट्टी से सोना पैदा कर लेता है। आशावान् व्यक्ति अपने भाग्य का निर्माण स्वयं करता है। वह औरों के आगे अपना हाथ नहीं बढ़ाता बल्कि औरों को जीवन देता है। तुर्क सम्राट् तैमूरलंग कई युद्धों में लगातार पराजित होता रहा। 21वीं बार उसके अंग-रक्षक सैनिकों को छोड़कर और कोई शेष न रहा।
वह एक गुफा में बैठा विचार कर रहा था, तभी एक चिकने पत्थर पर चढ़ने का प्रयास करती हुई चींटी दिखाई दी। वह बार-बार गिर जाती किन्तु ऊपर चढ़ने की आशा से पुनः प्रयास करती। यह देखकर तैमूर के हृदय में फिर से आशा का संचार हुआ। उसने सोचा यदि छोटी-सी चींटी इतनी बार असफल होने पर भी निराश नहीं होती और वह अपना प्रयत्न नहीं छोड़ती, इतना साहस देख सोचा तो मैं ही हिम्मत क्यों हारूं? वह नई शक्ति जुटाने में लग पड़ा और फिर से दुश्मन पर विजय पाई। आशायें पुरुषार्थ को जगा देती हैं जिससे मनुष्य बड़े-से-बड़े कार्य करने में तैमूरलंग के समान ही समर्थ होता है। चरित्रवान् व्यक्ति कभी निराश नहीं होते क्योंकि उनकी भावनायें उदात्त एवं ऊर्ध्वगामी होती हैं। वे हर क्षण कठिनाइयों से लड़कर अपना अभीष्ट पा लेने की क्षमता रखते हैं।
प्रतिभाशाली व्यक्तियों को निराशा के क्षणों में भी आशा का प्रकाश दिखाई देता है, इसी के सहारे वे अपनी परिस्थितियों में सुधार कर लेते हैं। सत्यवादी हरिश्चन्द्र यदि गुरु-दक्षिणा चुकाने में निराश हो गये होते तो आज संसार में उन्हें कौन जानता? उनके पास वह सब कुछ तो नहीं था जिसकी उनके गुरुदेव ने याचना की थी। पर स्वयं को मुसीबतों में डालकर, पत्नी और बच्चे को भी बेचकर अपनी गुरु-दक्षिणा चुकायी और आशावादिता के शुभ लक्षणों का परिचय दिया। मनुष्य परिस्थितियों का वशवर्ती नहीं वह अपने भाग्य का स्वयं निर्माण करता है, किन्तु यह तभी सम्भव है जब वह आशावादी हो। ऐसा व्यक्ति किसी भी कार्य को करने के पहले उस पर गम्भीरता पूर्वक विचार करता है। आने वाली कठिनाइयों का निराकरण खोज निकालता है, आवश्यक साधन जुटा लेता है, तब पूर्ण तत्परता व लगन के साथ कार्य में प्रवृत्त होता है। जिससे बड़ी-से-बड़ी परिस्थितियां भी उसका कुछ बिगाड़ नहीं पातीं। सफलता ऐसे ही व्यक्ति पाया करते हैं। आशा और आत्म विश्वास चिर संगी हैं।
समुद्र में लहरें स्वाभाविक हैं, दीप शिखा का प्रकाश से अटूट सम्बन्ध है, अग्नि में ऊष्मा होगी ही। आशावादी व्यक्ति का आत्म–विश्वासी होना भी आवश्यम्भावी है। आत्म-विश्वास से आन्तरिक शक्तियां जागृत होती हैं। इन शक्तियों को वह जिस कार्य में जुटा दे वहीं आश्चर्यजनक सफलता दिखाई देने लगेगी। सम्पूर्ण मानसिक चेष्टाओं से किये हुए कार्य प्रायः असफल नहीं होते। किन्तु निराशा वह मानवीय दुर्गुण है जो बुद्धि को भ्रमित कर देता है। मानसिक शक्तियों को लुंज-पुंज कर देता है। ऐसा व्यक्ति आधे मन से डरा-डरा-सा कार्य करेगा। ऐसी अवस्था में सफलता प्राप्त कर सकना ही क्या होगा? जहां आशा नहीं वहां प्रयत्न नहीं। बिना प्रयत्न के ध्येय की प्राप्ति न आज तक कोई कर सका है न आगे सम्भव है।
विद्वान् विचारक स्वेट मार्डेन ने लिखा है ‘‘निराशावाद भयंकर राक्षस है जो हमारी नाश के ताक में बैठा रहता है’’। निराशावादी प्रगति की भावना का त्याग कर देते हैं।’’ यदि कभी उन्नति करने का कुछ ख्याल आया भी तो विपत्तियों के पहाड़ उन्हें दिखाई देने लगते हैं। कार्य आरम्भ नहीं हुआ कि चिन्ताओं के बादल मंडराने लगे। पर आशावादी व्यक्ति प्रसन्न होकर कार्य प्रारम्भ करता है।
गतिमान् बने रहने के लिये मुसीबतों को सहायक मानकर चलता है। उत्साहपूर्वक अन्त तक पूर्व नियोजित कार्य में सन्नद्ध रहता है इसी से उसकी आशायें फलवती होती हैं। आशा ही जीवन है, निराशा को तो मृत्यु ही मानना चाहिये।
इसलिये भारतीय आचार्यों ने सदैव मानव समाज को यही समझाया है— निराशया समं पापं मानवस्य न विद्यते । तां समूलं समुत्सार्य ह्याशाबादपरो भव ।। मनुष्य के लिये निराशा से बढ़कर दूसरा कोई पाप नहीं इसलिये इसका समूल नाश करके आशावादी धर्म बनाना है। मानवीय प्रगति का आधार आशावादिता को ही मानते हुए उन्होंने आगे और भी कहा है— मानवस्योन्नतिः सर्वा साफल्यं जीवनस्य च । चरितार्थ्यं तथा सृष्टेराशावादे प्रतिष्ठितम् ।। संसार में आने के उद्देश्य की पूर्ति के लिये हे मनुष्यो! तुम्हें सर्व प्रथम आशावादिता का आश्रय लेना चाहिये। संसार के सारे कार्य आशाओं पर चलते हैं। विद्यार्थी अपना समय, धन लगाकर दिन-रात श्रमपूर्वक अध्ययन में लगा रहता है। अध्यापकों की झिड़कियां सुनता है अपना सुख-चैन सभी कुछ छोड़ कर केवल ज्ञानार्जन में लगा रहता है।
इसीलिये कि उसे यह आशा होती है कि वह पढ़-लिखकर सभ्य सुशिक्षित नागरिक बनेगा। देश जाति के उत्थान में भागीदार बनेगा। सम्मान-पूर्वक जीवन जिएगा। खेत खलिहानों से लेकर कल कारखानों तक में जितने भी व्यवसाय फैले हैं उनके मूल में कोई आशा ही क्रियाशील होती है। आशायें जीवन का शुभ लक्षण हैं। इनके सहारे मनुष्य घोर विपत्तियों में दुश्चिन्ताओं को हंसते-हंसते जीत लेता है। जो केवल दुनिया का रोना रोते रहते हैं उन्हें अर्द्धमृत ही समझना चाहिए, किन्तु आशावान् व्यक्ति पौरुष के लिये सदैव समुद्यत रहता है। वह अपने हाथ में फावड़ा लेकर टूट पड़ता है खेतों में, और मिट्टी से सोना पैदा कर लेता है। आशावान् व्यक्ति अपने भाग्य का निर्माण स्वयं करता है। वह औरों के आगे अपना हाथ नहीं बढ़ाता बल्कि औरों को जीवन देता है। तुर्क सम्राट् तैमूरलंग कई युद्धों में लगातार पराजित होता रहा। 21वीं बार उसके अंग-रक्षक सैनिकों को छोड़कर और कोई शेष न रहा।
वह एक गुफा में बैठा विचार कर रहा था, तभी एक चिकने पत्थर पर चढ़ने का प्रयास करती हुई चींटी दिखाई दी। वह बार-बार गिर जाती किन्तु ऊपर चढ़ने की आशा से पुनः प्रयास करती। यह देखकर तैमूर के हृदय में फिर से आशा का संचार हुआ। उसने सोचा यदि छोटी-सी चींटी इतनी बार असफल होने पर भी निराश नहीं होती और वह अपना प्रयत्न नहीं छोड़ती, इतना साहस देख सोचा तो मैं ही हिम्मत क्यों हारूं? वह नई शक्ति जुटाने में लग पड़ा और फिर से दुश्मन पर विजय पाई। आशायें पुरुषार्थ को जगा देती हैं जिससे मनुष्य बड़े-से-बड़े कार्य करने में तैमूरलंग के समान ही समर्थ होता है। चरित्रवान् व्यक्ति कभी निराश नहीं होते क्योंकि उनकी भावनायें उदात्त एवं ऊर्ध्वगामी होती हैं। वे हर क्षण कठिनाइयों से लड़कर अपना अभीष्ट पा लेने की क्षमता रखते हैं।
प्रतिभाशाली व्यक्तियों को निराशा के क्षणों में भी आशा का प्रकाश दिखाई देता है, इसी के सहारे वे अपनी परिस्थितियों में सुधार कर लेते हैं। सत्यवादी हरिश्चन्द्र यदि गुरु-दक्षिणा चुकाने में निराश हो गये होते तो आज संसार में उन्हें कौन जानता? उनके पास वह सब कुछ तो नहीं था जिसकी उनके गुरुदेव ने याचना की थी। पर स्वयं को मुसीबतों में डालकर, पत्नी और बच्चे को भी बेचकर अपनी गुरु-दक्षिणा चुकायी और आशावादिता के शुभ लक्षणों का परिचय दिया। मनुष्य परिस्थितियों का वशवर्ती नहीं वह अपने भाग्य का स्वयं निर्माण करता है, किन्तु यह तभी सम्भव है जब वह आशावादी हो। ऐसा व्यक्ति किसी भी कार्य को करने के पहले उस पर गम्भीरता पूर्वक विचार करता है। आने वाली कठिनाइयों का निराकरण खोज निकालता है, आवश्यक साधन जुटा लेता है, तब पूर्ण तत्परता व लगन के साथ कार्य में प्रवृत्त होता है। जिससे बड़ी-से-बड़ी परिस्थितियां भी उसका कुछ बिगाड़ नहीं पातीं। सफलता ऐसे ही व्यक्ति पाया करते हैं। आशा और आत्म विश्वास चिर संगी हैं।
समुद्र में लहरें स्वाभाविक हैं, दीप शिखा का प्रकाश से अटूट सम्बन्ध है, अग्नि में ऊष्मा होगी ही। आशावादी व्यक्ति का आत्म–विश्वासी होना भी आवश्यम्भावी है। आत्म-विश्वास से आन्तरिक शक्तियां जागृत होती हैं। इन शक्तियों को वह जिस कार्य में जुटा दे वहीं आश्चर्यजनक सफलता दिखाई देने लगेगी। सम्पूर्ण मानसिक चेष्टाओं से किये हुए कार्य प्रायः असफल नहीं होते। किन्तु निराशा वह मानवीय दुर्गुण है जो बुद्धि को भ्रमित कर देता है। मानसिक शक्तियों को लुंज-पुंज कर देता है। ऐसा व्यक्ति आधे मन से डरा-डरा-सा कार्य करेगा। ऐसी अवस्था में सफलता प्राप्त कर सकना ही क्या होगा? जहां आशा नहीं वहां प्रयत्न नहीं। बिना प्रयत्न के ध्येय की प्राप्ति न आज तक कोई कर सका है न आगे सम्भव है।
विद्वान् विचारक स्वेट मार्डेन ने लिखा है ‘‘निराशावाद भयंकर राक्षस है जो हमारी नाश के ताक में बैठा रहता है’’। निराशावादी प्रगति की भावना का त्याग कर देते हैं।’’ यदि कभी उन्नति करने का कुछ ख्याल आया भी तो विपत्तियों के पहाड़ उन्हें दिखाई देने लगते हैं। कार्य आरम्भ नहीं हुआ कि चिन्ताओं के बादल मंडराने लगे। पर आशावादी व्यक्ति प्रसन्न होकर कार्य प्रारम्भ करता है।
गतिमान् बने रहने के लिये मुसीबतों को सहायक मानकर चलता है। उत्साहपूर्वक अन्त तक पूर्व नियोजित कार्य में सन्नद्ध रहता है इसी से उसकी आशायें फलवती होती हैं। आशा ही जीवन है, निराशा को तो मृत्यु ही मानना चाहिये।