Books - प्रखर प्रतिभा की जननी इच्छा शक्ति
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Language: HINDI
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सामान्य से असामान्य बनाने वाली शक्ति
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मनुष्य शरीर में सबसे अधिक संवेदनशील अवयव मस्तिष्क है। वह मात्र सोचने-विचारने के ही काम नहीं आता वरन् उसमें उत्पन्न होने वाली विद्युत सम्पूर्ण शरीर का क्रिया संचालन करती है। अचेतन मस्तिष्क से सम्बन्धित असंख्यों तार शरीर के प्रत्येक घटक तक पहुंचते हैं, उसकी सुव्यवस्था रखते हैं, आवश्यक आदेश देते हैं तथा समस्याओं का समाधान करते हैं।
यह शरीर चर्चा की बात हुई, इसके अतिरिक्त सचेतन भाग द्वारा विभिन्न आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए मन और बुद्धि द्वारा निर्णय किए जाते हैं और उनकी पूर्ति के लिए योजना बनाने और कार्यान्वित करने का उत्तरदायित्व उठाया जाता है। इसके प्रखर होने पर ही मनुष्य प्रतिभावान बनता है और अनेक सफलतायें अर्जित करता है। बाह्य मस्तिष्क का स्तर मन्द होने पर मनुष्य मूर्ख कहलाता है और उसका चिन्तन अटपटा रहता है।
जीवन के हर क्षेत्र को मस्तिष्क प्रभावित करता है। उसके स्तर के अनुरूप शारीरिक स्वास्थ्य में उतार-चढ़ाव आते रहते हैं। मनोविकार स्वास्थ्य को गिराने और व्यक्तित्व को अटपटा बनाने के प्रधान कारण होते हैं। इसी प्रकार किसी व्यक्ति के व्यक्तित्व की—गुण, कर्म, स्वभाव की दिशाधारा इसी आधार पर बनती है कि मस्तिष्क को किस प्रकार प्रशिक्षित एवं अभ्यस्त किया गया।
यों कोई व्यक्ति आकांक्षाओं के अनुरूप अपने मनोबल को विकसित कर सकता है, तदनुरूप साधन जुटा सकता है और उस दिशा में सहायक सिद्ध होने वाले व्यक्तियों के साथ सम्पर्क बना सकता है, पर यह अपवाद रूप ही होता है और साथी, सहयोगी, कुटुम्बी जिस मार्ग पर चलते हैं उसी का अनुकरण होने लगता है। सत्संग की ही तुलना में स्वाध्याय भी प्रभावशाली होता है। यदि उन्नतिशील बनाने वाले तथ्यों से भरा-पूरा साहित्य मिलता रहे और उसमें प्रस्तुत किए गये विवेकपूर्ण तथ्यों को विवेकपूर्वक अपनाया जाता रहे तो भी सम्वेदनशील मस्तिष्क उसी प्रकार के ढांचे में ढलने लगते हैं जैसे कि वातावरण प्रभावित करता है।
प्रकृति भी ऋतुओं के—वय के अनुरूप मनुष्य में कई परिवर्तन करती रहती है। काम वासना, मनोरंजन के लिए उमंग यों हारमोनों से सम्बन्धित हैं किन्तु संचित संस्कार भी भले-बुरे कामों के लिए उत्साह प्रदान करते हैं। मस्तिष्क माता के गुण-कर्मों से अत्यधिक प्रभावित होता है। इसलिए कहा जाता है कि सुसन्तति प्राप्त करने की आकांक्षा की पूर्ति के लिए जननी का स्तर ऊंचा उठाया जाना चाहिए उसके स्वास्थ्य, शिक्षण के अतिरिक्त ऐसा वातावरण दिया जाना चाहिए जिसमें प्रसन्नता के साथ-साथ नैतिकता की प्रेरणा भी मिलती रहे। सुयोग्य सन्तान के लिए जननी का स्तर उठाने का प्रयत्न करना चाहिए। दूध पीने की तरह वह स्वभाव की विशेषतायें भी बहुत कुछ माता से ही प्राप्त करता है।
यह मानसिक विकास का प्रथम अध्याय है। दूसरे अध्याय में स्कूली प्रशिक्षण को महत्व दिया जाता है। पाठ्यक्रम के सहारे विविध-विधि जानकारियों की आवश्यकता है। किन्तु अध्यापकों और साथियों के स्वभाव से बनने वाला वातावरण भी मानसिक विकास में कम सहायक नहीं होता। इसलिए जिन्हें बुद्धिमान बनना है, उन्हें ऐसे वातावरण में बढ़ाया जाना चाहिए, जहां मूर्खतापूर्ण बातें न होती हों।
मानव मन की भिन्नताओं और विशेषताओं में प्रकृतिगत सूक्ष्म प्रवाहों का भी प्रभाव पड़ता है। हर मस्तिष्क की संरचना देखने पर एक जैसी लगते हुए भी उसके न्यूरोन घटकों के आकार-प्रकार में बहुत अन्तर होता है। जिस प्रकार हथेली की लकीरें और पोरवों पर रहने वाले अंकनों में प्रत्येक मनुष्य की स्थिति भिन्न होती है, उसी प्रकार मस्तिष्कीय न्यूरोन, जीव कोष तथा विद्युत कम्पनों में भिन्नता रहती है। मस्तिष्क में दो प्रधान ग्रन्थियां हैं। एक पिट्युटरी, दूसरी पीनियल। इनसे हारमोन स्तर के स्रावों का प्रवाह बहता रहता है। उसकी न्यूनाधिकता तथा दिशाधारा के अनुरूप मनुष्य की अभिरुचि तथा प्रतिभा प्रवाहित होती है। वंशानुक्रम से पीढ़ियों के मिले उत्तराधिकार भी इसी क्षेत्र में विद्यमान रहते हैं। ग्रह-नक्षत्रों के विकिरण एक मस्तिष्क पर एक प्रकार का प्रभाव डालते हैं, तो दूसरे पर दूसरे प्रकार का। ऐसे ही अनेक कारणों को देखते हुए लगता है कि मस्तिष्क एक प्रकृतिगत देन है और उसी आधार पर मनुष्य मूर्ख या बुद्धिमान होता है। स्वभाव और चिन्तन की दृष्टि से भी वह इन्हीं कारणों से प्रभावित रहता है। यह तथ्य बताते हैं कि सौन्दर्य और कुरूपता की तरह मस्तिष्कीय विलक्षणतायें भी प्राकृतिक कारणों एवं जन्मजात संस्कारों से प्रभावित होती हैं। इतने पर भी वातावरण एवं संकल्प का अपना महत्व है। वह इन सब प्राकृतिक कारणों को बदल सकने में समर्थ है। कालिदास, वरदराज आदि के उदाहरण ऐसे हैं जिनमें उनकी आरम्भिक स्थिति देखते हुए अनुमान होता था कि ये सदा मूर्ख रहेंगे। विद्याध्ययन में भी इन्हें सफलता न मिलेगी, पर जब उनने संकल्पपूर्वक विद्वान बनने का निश्चय किया तो प्राकृतिक संरचना को उलटकर उनने तीक्ष्णता अर्जित कर ली और सामान्यजनों की अपेक्षा अधिक ऊंचे स्तर के विद्वान बन गये। इससे प्रतीत होता है कि संरचना और वातावरण का प्रभाव कैसा ही क्यों न हो, मनुष्य उसमें आश्चर्यजनक परिवर्तन कर सकता है। सुधारना ही नहीं बिगाड़ना भी सम्भव है।
जिस प्रकार औषधियों का शरीर के विभिन्न अवयवों पर प्रभाव पड़ता है उसी प्रकार संकल्प भी शरीर के ढांचे को—स्वास्थ्य को ही नहीं, मानसिक क्षमता को भी प्रभावित करता है और स्वभाव तक में आश्चर्यजनक परिवर्तन लाता है। जिस प्रकार आहार का शरीर क्रम के साथ भारी सम्बन्ध है, उसी प्रकार आकांक्षा, चिन्तन प्रक्रिया और संकल्प शक्ति मनःसंस्थान को प्रभावित करती है। उसकी संरचना का कितना ही महत्व क्यों न हो—वातावरण से, प्रकृति प्रवाहों से वह कितना ही प्रभावित क्यों न रहता हो, पर इस सबमें इतनी शक्ति नहीं है कि वह निश्चयपूर्ण संकल्पों के दबाव से अस्वीकार कर सके। शरीर के अन्यान्य अवयवों को हम इच्छानुसार मोड़ने-मरोड़ने में एक सीमा तक ही सफल हो सकते हैं पर मस्तिष्क के सम्बन्ध में बात दूसरी है उसे सुधारा, बदला ही नहीं उलटा तक जा सकता है। इस दृष्टि से वह जितना सशक्त और महत्वपूर्ण है, उतना ही कोमल भी है। वह शरीर में सबसे ऊंचे स्थान पर अवस्थित है। इतने पर भी वह संकल्प शक्ति से ऊपर नहीं है। संसार में ऐसे अगणित व्यक्ति हुए हैं, जिनका आरम्भिक जीवन साधारण ही नहीं हेय स्तर का भा था, किन्तु जब उनने अपने आपे को उच्चस्तरीय बनाने का निश्चय कर लिया तो अभ्यस्त आदतें जो परिवर्तन स्वीकारने में आना-कानी करती थीं, संकल्प शक्ति के दबाव से आमूल-चूल परिवर्तित हो गयीं। सामान्य व्यक्ति असामान्य बन गये।
यह शरीर चर्चा की बात हुई, इसके अतिरिक्त सचेतन भाग द्वारा विभिन्न आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए मन और बुद्धि द्वारा निर्णय किए जाते हैं और उनकी पूर्ति के लिए योजना बनाने और कार्यान्वित करने का उत्तरदायित्व उठाया जाता है। इसके प्रखर होने पर ही मनुष्य प्रतिभावान बनता है और अनेक सफलतायें अर्जित करता है। बाह्य मस्तिष्क का स्तर मन्द होने पर मनुष्य मूर्ख कहलाता है और उसका चिन्तन अटपटा रहता है।
जीवन के हर क्षेत्र को मस्तिष्क प्रभावित करता है। उसके स्तर के अनुरूप शारीरिक स्वास्थ्य में उतार-चढ़ाव आते रहते हैं। मनोविकार स्वास्थ्य को गिराने और व्यक्तित्व को अटपटा बनाने के प्रधान कारण होते हैं। इसी प्रकार किसी व्यक्ति के व्यक्तित्व की—गुण, कर्म, स्वभाव की दिशाधारा इसी आधार पर बनती है कि मस्तिष्क को किस प्रकार प्रशिक्षित एवं अभ्यस्त किया गया।
यों कोई व्यक्ति आकांक्षाओं के अनुरूप अपने मनोबल को विकसित कर सकता है, तदनुरूप साधन जुटा सकता है और उस दिशा में सहायक सिद्ध होने वाले व्यक्तियों के साथ सम्पर्क बना सकता है, पर यह अपवाद रूप ही होता है और साथी, सहयोगी, कुटुम्बी जिस मार्ग पर चलते हैं उसी का अनुकरण होने लगता है। सत्संग की ही तुलना में स्वाध्याय भी प्रभावशाली होता है। यदि उन्नतिशील बनाने वाले तथ्यों से भरा-पूरा साहित्य मिलता रहे और उसमें प्रस्तुत किए गये विवेकपूर्ण तथ्यों को विवेकपूर्वक अपनाया जाता रहे तो भी सम्वेदनशील मस्तिष्क उसी प्रकार के ढांचे में ढलने लगते हैं जैसे कि वातावरण प्रभावित करता है।
प्रकृति भी ऋतुओं के—वय के अनुरूप मनुष्य में कई परिवर्तन करती रहती है। काम वासना, मनोरंजन के लिए उमंग यों हारमोनों से सम्बन्धित हैं किन्तु संचित संस्कार भी भले-बुरे कामों के लिए उत्साह प्रदान करते हैं। मस्तिष्क माता के गुण-कर्मों से अत्यधिक प्रभावित होता है। इसलिए कहा जाता है कि सुसन्तति प्राप्त करने की आकांक्षा की पूर्ति के लिए जननी का स्तर ऊंचा उठाया जाना चाहिए उसके स्वास्थ्य, शिक्षण के अतिरिक्त ऐसा वातावरण दिया जाना चाहिए जिसमें प्रसन्नता के साथ-साथ नैतिकता की प्रेरणा भी मिलती रहे। सुयोग्य सन्तान के लिए जननी का स्तर उठाने का प्रयत्न करना चाहिए। दूध पीने की तरह वह स्वभाव की विशेषतायें भी बहुत कुछ माता से ही प्राप्त करता है।
यह मानसिक विकास का प्रथम अध्याय है। दूसरे अध्याय में स्कूली प्रशिक्षण को महत्व दिया जाता है। पाठ्यक्रम के सहारे विविध-विधि जानकारियों की आवश्यकता है। किन्तु अध्यापकों और साथियों के स्वभाव से बनने वाला वातावरण भी मानसिक विकास में कम सहायक नहीं होता। इसलिए जिन्हें बुद्धिमान बनना है, उन्हें ऐसे वातावरण में बढ़ाया जाना चाहिए, जहां मूर्खतापूर्ण बातें न होती हों।
मानव मन की भिन्नताओं और विशेषताओं में प्रकृतिगत सूक्ष्म प्रवाहों का भी प्रभाव पड़ता है। हर मस्तिष्क की संरचना देखने पर एक जैसी लगते हुए भी उसके न्यूरोन घटकों के आकार-प्रकार में बहुत अन्तर होता है। जिस प्रकार हथेली की लकीरें और पोरवों पर रहने वाले अंकनों में प्रत्येक मनुष्य की स्थिति भिन्न होती है, उसी प्रकार मस्तिष्कीय न्यूरोन, जीव कोष तथा विद्युत कम्पनों में भिन्नता रहती है। मस्तिष्क में दो प्रधान ग्रन्थियां हैं। एक पिट्युटरी, दूसरी पीनियल। इनसे हारमोन स्तर के स्रावों का प्रवाह बहता रहता है। उसकी न्यूनाधिकता तथा दिशाधारा के अनुरूप मनुष्य की अभिरुचि तथा प्रतिभा प्रवाहित होती है। वंशानुक्रम से पीढ़ियों के मिले उत्तराधिकार भी इसी क्षेत्र में विद्यमान रहते हैं। ग्रह-नक्षत्रों के विकिरण एक मस्तिष्क पर एक प्रकार का प्रभाव डालते हैं, तो दूसरे पर दूसरे प्रकार का। ऐसे ही अनेक कारणों को देखते हुए लगता है कि मस्तिष्क एक प्रकृतिगत देन है और उसी आधार पर मनुष्य मूर्ख या बुद्धिमान होता है। स्वभाव और चिन्तन की दृष्टि से भी वह इन्हीं कारणों से प्रभावित रहता है। यह तथ्य बताते हैं कि सौन्दर्य और कुरूपता की तरह मस्तिष्कीय विलक्षणतायें भी प्राकृतिक कारणों एवं जन्मजात संस्कारों से प्रभावित होती हैं। इतने पर भी वातावरण एवं संकल्प का अपना महत्व है। वह इन सब प्राकृतिक कारणों को बदल सकने में समर्थ है। कालिदास, वरदराज आदि के उदाहरण ऐसे हैं जिनमें उनकी आरम्भिक स्थिति देखते हुए अनुमान होता था कि ये सदा मूर्ख रहेंगे। विद्याध्ययन में भी इन्हें सफलता न मिलेगी, पर जब उनने संकल्पपूर्वक विद्वान बनने का निश्चय किया तो प्राकृतिक संरचना को उलटकर उनने तीक्ष्णता अर्जित कर ली और सामान्यजनों की अपेक्षा अधिक ऊंचे स्तर के विद्वान बन गये। इससे प्रतीत होता है कि संरचना और वातावरण का प्रभाव कैसा ही क्यों न हो, मनुष्य उसमें आश्चर्यजनक परिवर्तन कर सकता है। सुधारना ही नहीं बिगाड़ना भी सम्भव है।
जिस प्रकार औषधियों का शरीर के विभिन्न अवयवों पर प्रभाव पड़ता है उसी प्रकार संकल्प भी शरीर के ढांचे को—स्वास्थ्य को ही नहीं, मानसिक क्षमता को भी प्रभावित करता है और स्वभाव तक में आश्चर्यजनक परिवर्तन लाता है। जिस प्रकार आहार का शरीर क्रम के साथ भारी सम्बन्ध है, उसी प्रकार आकांक्षा, चिन्तन प्रक्रिया और संकल्प शक्ति मनःसंस्थान को प्रभावित करती है। उसकी संरचना का कितना ही महत्व क्यों न हो—वातावरण से, प्रकृति प्रवाहों से वह कितना ही प्रभावित क्यों न रहता हो, पर इस सबमें इतनी शक्ति नहीं है कि वह निश्चयपूर्ण संकल्पों के दबाव से अस्वीकार कर सके। शरीर के अन्यान्य अवयवों को हम इच्छानुसार मोड़ने-मरोड़ने में एक सीमा तक ही सफल हो सकते हैं पर मस्तिष्क के सम्बन्ध में बात दूसरी है उसे सुधारा, बदला ही नहीं उलटा तक जा सकता है। इस दृष्टि से वह जितना सशक्त और महत्वपूर्ण है, उतना ही कोमल भी है। वह शरीर में सबसे ऊंचे स्थान पर अवस्थित है। इतने पर भी वह संकल्प शक्ति से ऊपर नहीं है। संसार में ऐसे अगणित व्यक्ति हुए हैं, जिनका आरम्भिक जीवन साधारण ही नहीं हेय स्तर का भा था, किन्तु जब उनने अपने आपे को उच्चस्तरीय बनाने का निश्चय कर लिया तो अभ्यस्त आदतें जो परिवर्तन स्वीकारने में आना-कानी करती थीं, संकल्प शक्ति के दबाव से आमूल-चूल परिवर्तित हो गयीं। सामान्य व्यक्ति असामान्य बन गये।