Books - प्रखर प्रतिभा की जननी इच्छा शक्ति
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साहस ही बनाता है मनुष्य को अपराजेय
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सामान्य मनुष्य सदैव साधन और अवसर की तलाश करते हैं। किन्तु जो संकल्प और साहस के धनी हैं, वे ऐसे कदम उठाते हैं जिससे विदित होता है कि इनके प्रयासों के पीछे न जाने कितनों का बाहुबल, बुद्धिबल और सहयोग काम कर रहा है। अनेकों ऐतिहासिक प्रसंग एवं आख्यान इसके प्रत्यक्ष प्रमाण हैं।
हनुमान बाल ब्रह्मचारी थे। उनका पराक्रम सर्वविदित है। पर्वत उठाने, समुद्र लांघने, लंका जलाने जैसे असम्भव कार्य जो उनने सम्पन्न कर दिखाये, मात्र मिथक नहीं हैं। लंका दहन के उपरान्त वे ताप मिटाने के लिए समुद्र में कूदे, तो उनके पसीने को मछली निगल गयी। कथा के अनुसार उस पसीने की शक्ति वह मछली हजम नहीं कर पाई और उससे मकरध्वज की उत्पत्ति हुई। हनुमान से जुड़ी पौराणिक कथायें, ग्रीक साहित्य में हरक्यूलिस से जुड़ी कथायें एवं कृष्ण के अग्रज बलराम के शौर्य-पराक्रम की गाथायें उस अपरिमित पराक्रम का परिचय देती हैं जो मानवी काया में असीम संभावनाओं के रूप में रोम-रोम में कूट-कूट कर भरा है। महर्षि दयानन्द ने अपने शक्ति बल से संयम की महत्ता जानने के उत्सुक एक जमींदार की घोड़ों से जूती बग्घी को एक हाथ से रोककर बता दिया था कि विभूतियों का सही उपयोग किया जाय, असंयम के छिद्रों से बहाया न जाय तो मनुष्य की शक्ति कितनी प्रचण्ड हो सकती है।
अमेरिका के रिचर्ड ने अपनी काया की क्षमता को इतना विकसित कर लिया था कि बड़े से बड़े हथौड़े, भारी वजनी लकड़े के लट्ठे, हाथी, तोप के गोले उसका कुछ नहीं बिगाड़ पाते। सैन फ्रांसिसकों के 6 भारी-भरकम पहलवान घूंसे मारते-मारते थक गये किंतु रिचर्ड ऐसे बैठा रहा जैसे उसकी मालिश की जा रही है। 1964 में 100 पौण्ड वजन तक के गोले का अभ्यास था किंतु 1966 में उसने एक प्रदर्शन में तोप के मुहाने के सामने खड़े होकर 150 पौण्ड वजन का गोला दगवाया किन्तु टेबल टेनिस की गेंद की तरह गोला छिटककर दूर जा गिरा और रिचर्ड अविचल खड़ा रहा। इस घटना के बाद वो ‘इस्पात का आदमी’ कहा जाने लगा।
निश्चय ही मनुष्य की संकल्प शक्ति का पारावार नहीं। यदि वह शारीरिक क्षमता बढ़ाने में ही अपने को लगा दे तो ऐसा दैत्य बन सकता है जिसे देखकर लोग आश्चर्य से चकित रह जायं। दृढ़ संकल्प के साथ उद्यम, आशा और साहस का संयुक्त समन्वय हो तो वह क्षय के रोगी से उछलकर चन्दगीराम बन सकता है। जुकाम से सदा ग्रस्त रहने वाले से विश्व विख्यात सेण्डो बन सकता है। वह संकल्प शक्ति के बल पर मांस-पेशियों को लोहे जैसी बना सकता है। सांस रोक सकता है और हृदय की धड़कन पर नियंत्रण करके समाधिस्थ हो सकता है। मुख सज्जा जितनी समस्त श्रृंगार साधनों से मिलकर हो सकती है, उससे असंख्य गुनी अधिक सुन्दरता वह मुस्कान, मस्ती और खिलखिलाहट के आधार पर अर्जित कर सकता है।
इंग्लैण्ड में एक ऐसी महिला जन्मी थीं, जिसके शरीर पर ज्वलनशील पदार्थों का कुछ भी प्रभाव नहीं पड़ता था। ‘नाइट्रिक एसिड’ को कुछ देर मुंह में रखकर जब उसने एक लोहे पर थूका तो उसमें लपटें निकलने लगीं। उबलते तेल को मुंह में रखे रहना, पिछले मोम को पानी की तरह मुंह में रखकर ऊपर से सील करवा देना, उबलते जस्ते को मुंह में डालकर उसे सिक्के के रूप में बदल देना, उसके लिए नितान्त आसान था। उसके विविध ऐसे प्रदर्शनों से यह सिद्ध हो गया था कि उसका शरीर एकदम ज्वलनशील नहीं है, न ही ज्वलनशीलता का उस पर किंचित प्रभाव पड़ता है।
इतिहास में ऐसे अनेकानेक व्यक्ति हुए हैं जिन्होंने असाधारण साहसिकता का प्रदर्शन कर जीवन भर योद्धा की तरह जीवन जिया। परिस्थितियां उन्हें कभी भी झुका नहीं सकीं।
फ्रांस के न्यूर्स प्रदेश का एक कप्तान मैलर मुस्टैमे जीवन भर युद्धों का अग्रिम मोर्चा संभालता रहा। उसने 122 युद्धों में भाग लिया और प्रत्येक में कई बार गंभीर घाव लगे। सभी का वह सामना करता रहा और अच्छा होता रहा। उसकी मृत्यु 134 वर्ष में हुई। अठारहवीं सदी में एक फ्रांसीसी जनरल के जीवन में भी ऐसी ही घटनायें घटी। वेपटिस्टे मान्टमारिन का जीवन अपने ढंग का अनोखा था। उन्होंने 20 वर्ष की आयु में सेना में प्रवेश लिया। 75 वर्ष की आयु होने पर सन् 1779 में मरे। इस बीच वे पूरे 55 वर्ष सेना में विभिन्न पदों पर काम करते रहे। वे युद्ध मोर्चा पर पांच बार भयंकर रूप से घायल हुए और मृतक घोषित किए जाते रहे। हर बार वे कब्रिस्तान पहुंचने से पूर्व ही जी उठे। उनका सारा शरीर अनेकों आपरेशनों से बेतरह कटा-फटा था। उन्होंने मरने तक कभी भी हिम्मत नहीं हारी। उन्हें फ्रांस का राणासांगा कहा जाये तो कोई अत्युक्ति न होगी। आस्ट्रिया के एक जनरल काउण्ट एन्टम ने अपने देश की सेना में 47 वर्ष तक काम किया। इस बीच उन्होंने 89 लड़ाइयां लड़ीं। इनमें उन्हें 84 भयंकर और सैकड़ों छोटे घाव लगे। उनकी मृत्यु युद्ध मोर्चे पर ही हुई। मरते समय उनके चेहरे पर कोई विषाद नहीं था। राष्ट्र के लिए संघर्ष करने-मरने-खपने वाले कभी अशांत स्थिति में शरीर नहीं छोड़ते। साहस कहीं आसमान से नहीं बरसता। यह तो सदैव अन्तःकरण में विद्यमान है। उसे समय आने पर जगाने भर की आवश्यकता होती है। सूझबूझ, दूरदर्शिता, प्रत्युत्पन्नमत्ति साहसियों को उचित सम्बल देती व श्रेय-सम्मान का अधिकारी बनाती है। फ्रांस के जनरल डुवेले की सेना एक बार किले में घिर गई। राशन भी समाप्त हो गया। शत्रु के चालीस हजार सैनिकों को चकमा दिया गया। रात के सघन कुहासे में घोड़ों पर आटे के बोरे इस तरह बांधे गये कि वे दैत्याकार सैनिक लगने लगे। साथ ही जानवरों के सींगों पर मशाल बांधकर रात भर उनसे किले के बुर्ज पर गश्त लगवाई गई। इतना अपार सेना बल देखकर उनसे लड़ने की शत्रु सैनिकों की हिम्मत न पड़ी और वे भाग खड़े हुए। हार-जीत में बदल गई।
साधन नहीं साहस प्रधान :
साधन बड़ा या साहस इसका निर्णय ढूंढ़ने के लिए नार्वे के एक उत्साही युवक थोर हेयर डेहले ने एक उदाहरण लोगों के सामने प्रस्तुत किया। यह उत्साही युवक साहस को प्रधान मानता और कहता कि साहसी या तो साधन प्राप्त कर लेता है अथवा न्यूनतम साधनों से भी आगे बढ़ने और सफलता पाने का रास्ता निकाल लेता है।
थोर का प्रयोग यह था कि ‘सरकण्डे’ की नाव के सहारे भी कठिन दीखने वाली लम्बी समुद्र यात्रा सफलतापूर्वक सम्पन्न की जा सकती है। इस लोहे के विशालकाय यन्त्र सज्जित जहाजों के जमाने में सरकंडे जैसे दुर्बल साधनों से बनी नाव की क्या तुलना हो सकती है। पर उसके उपयोग से यह तो साबित किया ही जा सकता है कि मनुष्य का पुरुषार्थ और मनोयोग इतना प्रबल है कि साधन न होने पर भी उसके द्वारा साधन सम्पन्नों जैसा कर्तृत्व दिखाया जा सके।
नार्वे के उपरोक्त युवक ने इथोपिया की कैड झील में काम करने वाले मछुआरों की सहायता से पहली सरकंडों से बनी नाव बनाई। यह उतनी अच्छी नहीं बनी और लक्ष्य को पूरा न कर सकी। वह 4352 मील चलकर अटलांटिक महासागर में अपना दम तोड़ गई, पर इससे थोर निराश नहीं हुआ। आरम्भिक असफलताओं से उसका मन जरा भी छोटा नहीं हुआ। हिम्मत हारने की तो इसमें बात ही क्या थी? सफलता एक बार के प्रयत्न से मिल जाया करे तो फिर उसे कोई भी प्राप्त कर लिया करे। साहस की परीक्षा तो असफलता की कसौटी पर ही होती है।
हेयर डेहल ने दूसरी नाव लैंटिन अमेरिका के बोलीविया क्षेत्र में स्थिति नितचाचा झील में काम करने वाले मछुआरों की सहायता से बनाई, यह भी सरकंडों की ही थी। इस नाव में विभिन्न देशों के सात अन्य यात्री भी अपने सामान सहित सवार हुए। 17 मई 1970 को मोरक्को (अफ्रीका) के साफी बन्दरगाह से यह नाव रवाना हुई और 12 जुलाई 70 को दक्षिणी अमेरिका के वारण्डोस क्षेत्र के ‘ब्रिज’ टाउन बन्दरगाह पर पहुंची।
ब्रिज टाउन पहुंचने पर इस सरकंडे की नाव पर उतना लम्बा और इतना दुस्साहसपूर्ण सफलर करने वाले दल की अगवानी बीस लकड़ी की नावों ने पंक्तिबद्ध होकर बड़े भावपूर्ण वातावरण में की। बन्दरगाह दर्शकों की भीड़ से खचाखच भरा हुआ था। स्वागत की आवश्यक सजधज लोगों ने पूरे उत्साह के साथ की थी। दर्शकों को इस निष्कर्ष पर पहुंचने में सहायता ही मिली कि अदम्य साहस, स्वल्प साधनों से भी मनुष्य बड़ी सफलतायें प्राप्त कर सकता है, जबकि मनोबल और पुरुषार्थ के अभाव में विपुल साधन रहते हुए भी असफलतायें ही हाथ लगती हैं। उक्त सरकंडे की नाव ओसलो (नार्वे) के कोनाटिकी संग्रहालय में अभी भी सुरक्षित है, जो दर्शकों को साहस एवं मनोबल की प्रचण्डता का महत्व समझने के लिये प्रेरित करती है।
जलमार्ग द्वारा भू-परिक्रमा करने वाले वास्कोडिगामा और कोलम्बस की साहसिक गाथायें तो प्रसिद्ध ही हैं। संसार में ऐसे भी दुस्साहसी व्यक्ति हुए हैं, जिन्होंने वैज्ञानिक प्रगति के आरम्भिक दिनों में छोटे-मोटे जलयानों या गुब्बारों से ध्रुव प्रदेशों की यात्रायें कीं। भले ही आज उत्तरी व दक्षिणी ध्रुवों पर यात्रा आसान हो गयी है विज्ञान ने प्रतिकूल वातावरण में रहने के साधन जुटा लिए है एवं भांति-भांति के वैज्ञानिक अन्वेषण वहां सम्पन्न किये जाने लगे हैं। किन्तु इस सदी के प्रारम्भ में जब कि इन दोनों ही ध्रुवों की टोपोग्राफी का जरा भी अन्दाज न था कितने ही साहस के धनी व्यक्तियों ने यात्रा की, जोखिम उठाते हुए यह जानने का प्रयास किया कि ये कहां हैं व वहां परिस्थितियां कैसी हैं? उत्तरी ध्रुव की सर्व प्रथम यात्रा डा. फ्रेडरिक अल्बर्ट कुक ने की थी। इस अमेरिकन वैज्ञानिक ने अपने एस्किमो साथी व 26 कुत्ते साथ लिए। यह यात्रा उसने 23 मील प्रतिदिन के हिसाब से पूरी की। 21 मार्च 1908 को वह चला और 42 दिन में नार्थ सी के रास्ते चलकर वह एबरडीन (स्काटलैण्ड) लौट आया। इसी प्रकार दक्षिणी ध्रुव विजय का प्रथम श्रेय ब्रिटिश रॉयल नेवी के कैप्टन जेम्स कुक्स को जाता है। वे कुछ दिन जलयानों की सहायता से चले। बाद में कुत्ते जुती गाड़ियों पर 53 दिनों में अपना सफर पूरा कर वापस केप ऑफ गुडहोप होते हुए यू.के. लौट आये।
अलबर्ट कुक से भी पूर्व सन् 1783 में फ्रेंच वैज्ञानिक प्रो. एडविन चार्ल्स ने पहला गुब्बारा बनाया। इसके बाद उसकी क्षमता और आकृति में क्रमशः सुधार होता गया। उस समय का विकसित गुब्बारा जिसका नाम ‘जैपलीन’ था को लेकर कुछ दुस्साहसी युवक कठिन यात्रा के लिए चल पड़े।
उस योजना का संचालन किया जर्मन डा. उल्सवीन ने। जैपलीन में कुल 56 आदमी सवार थे, 40 चलाने वाले और 16 अनुसंधान करने वाले। गुब्बारा एक छोटे फुटबॉल मैदान के बराबर था और गिरजाघर जैसा ऊंचा जिसमें खटोले जैसी लटकने थीं, यात्री उन्हीं पर बैठते थे।
लेक कांसटैंस से उड़कर वह गुब्बारा जर्मनी, स्वीडन, एस्थोनिया, फिनलैण्ड, रूस की सीमायें पार करते हुए ध्रुव प्रदेश पर पहुंचा। एल्फोरा अन्तरीप से लेकर सुविस्तृत ध्रुवीय क्षेत्र पर उड़ानें भरी और चित्र-विचित्र फोटो लिए। लगभग एक सप्ताह तक वह गुब्बारा उड़ा—उस प्रारम्भिक साहस भरी यात्रा से अर्जित उपलब्धियां श्रेय की उतनी ही अधिकारी हैं जितनी कि आज के कम्प्यूटर युग की।
प्रतिकूलताओं के रहते हुए भी प्रगति संभव
यह आवश्यक नहीं कि किसी को उन्नतिशील बनने के लिए उसके पास समुचित साधन चाहिए अथवा उसके अभिभावकों द्वारा उसके लिए शिक्षा तथा सुविधा जुटाने का प्रबन्ध किया ही जाय। यह हों तो अच्छी बात है किंतु इनका अभाव रहने पर भी मनुष्य अपनी इच्छा शक्ति एवं तत्परता के बल पर प्रतिकूलताओं को भी अनुकूलताओं में बदल सकता है और साधारण स्थिति की रुकावटों को अपने मनोबल के आधार पर दूर करते हुए उन्नति के शिखर तक पहुंच सकता है।
डिजराइली का कथन है कि ‘सफलता का रहस्य उस कार्य में दृढ़ता और मनोयोगपूर्वक जुटे रहना है।’ कुछ लोगों का कहना है कि भौतिक सफलता अर्थहीन और बकवास है, सफलता के प्रतीक के रूप में धन का अपना महत्व है। लेखक, संगीतज्ञ, चित्रकार, मूर्तिकार, कृषक अथवा मजदूर पेटभर भोजन तो सबको चाहिए किन्तु रचनात्मक प्रवृत्तियों का लक्ष्य मात्र धनोपार्जन नहीं होना चाहिए। विश्व के अनेक मेधावी ऐसे हैं जो अभावों में जन्मे, असुविधाओं में पले और संघर्षों में जीकर भी सफलता के लक्ष्य तक जा पहुंचे।
सफलताओं के लिए सुविधायें ही आवश्यक हों ऐसी बात नहीं है। जिन्हें जीवनभर सुविधायें नहीं मिलीं और गरीबी व अभाव में जीकर भी उन्होंने ऐसे कार्य किये जो सुख-सुविधाओं में रहकर नहीं कर सके। सफलता के लिए सफलता की कामना और दृढ़ इच्छा ही मुख्य है।
अंध कवि होमर यूनान का विख्यात भिखारी था किन्तु अपनी कृति से आज भी अमर है। इसी प्रकार रोम का महाकवि विर्जिल साधारण बावर्ची का पुत्र था। अपने ढंग की बेजोड़ कथाओं का रचनाकार ईसप एक कुरूप-काला गुलाम था। डिमास्थेनस सिकलीगर परिवार में जन्मा था, उसका पिता छुरी-चाकू बनाकर आजीविका चलाता था किन्तु डिमास्थेनस के भाषणों को आज भी याद किया जाता है।
सुविख्यात पुस्तक ‘डान क्विस्कोट’ को लेखक सर बैटेस सेना का साधारण सिपाही था। अंग्रेजी का महान कवि कीट्स एक साधारण सईस का लड़का था। उसने अपने जीवन की शुरुआत दवा विक्रेता के यहां नौकरी करके आरम्भ की। होमर की कृतियों का अनुवादक एलेक्जेण्डर पोप एक व्यवसायी का पुत्र था। कवि एके साइड के पिता का व्यवसाय कसाई का था। स्काटलैण्ड के राष्ट्र कवि राबर्ट वर्नस ने अपना जीवन हलवाहे से आरम्भ किया। पैराडाइज लॉस्ट के लेखक मिल्टन एक स्कूल में अध्यापक थे। विख्यात कोषकार जानसन के पिता साधारण पुस्तक विक्रेता थे। पामेला और कैरिमा जैसे रोमांटिक उपन्यासों के विख्यात लेखक सैमुएल रिचार्डसन के पिता साधारण बढ़ई थे। अमेरिका की खोज करने वाला कोलम्बस जुलाहा था। बेंजामिन फ्रैंकलिन जो बाद में अमेरिका के राष्ट्रपति बने—छपाई का काम करते थे। पोप सिक्सटस पंचम कभी सूअर पालने का काम करता था। कलाकार होगराथ बर्तनों पर पच्चीकारी का काम भी करते तथा उन्होंने रेशमी वस्त्र विक्रेता के यहां नौकरी भी की। अभी प्रचलित पुच्छल तारे के आविष्कारक ‘एडमण्ड हैली’ जिसके नाम से यह प्रसिद्ध है—के यहां साबुन बनाने का धन्धा होता था। उसमें से निकलकर वह एक एस्ट्रानॉमर बन गया। हरशल एक गरीब संगीतकार था। रिचर्ड आर्क राइट बहुत दिनों तक हज्जाम का कार्य करते रहे। विख्यात वकील ब्लैक स्टोन बुनकर का पुत्र था।
इतिहास के पन्ने ऐसे प्रतिभाशालियों की पुरुषार्थ गाथाओं से भरे पड़े हैं जिनने अपने संकल्प एवं पुरुषार्थ के बल पर अपने को ऊंचा उठाया और स्वयं को कुछ से कुछ बनकर दिखाया जिनने विभिन्न प्रकार की बलिष्ठताओं सम्बन्ध कीर्तिमान स्थापित किये हैं। उनमें से अधिकांश ऐसे थे जिन्हें आरम्भिक दिनों में गया-गुजरा ही माना जाता था, पर अपने मनोबल का उपयोग करके आश्चर्यजनक प्रगति कर सकने में समर्थ हुए।
हरियाणा के चन्दगीराम आरम्भिक दिनों में क्षय से बुरी तरह ग्रसित थे। यूरोप के सैण्डो जुकाम से बुरी तरह पीड़ित रहते थे और शरीर हड्डियों का ढांचा मात्र था, पर जब उन्होंने अपने शरीर को संभालने का निश्चय किया और सुधार के नियमों को दृढ़तापूर्वक कार्यान्वित करने लगे तो संसार के माने हुए पहलवानों में उनकी गणना होने लगी और स्थिति में कायाकल्प जैसा परिवर्तन हो गया।
कालिदास और वरदराज युवावस्था तक मूढ़मति समझे जाते थे। विश्व विख्यात वैज्ञानिक आइन्स्टीन तक की बुद्धि आरम्भिक दिनों में बहुत मोटी थी किन्तु इन लोगों ने जब अपने बुद्धि पक्ष में तीक्ष्णता लाने का दृढ़ निश्चय किया तो उनकी विद्वता प्रथम श्रेणी के मनीषियों में गिनी जाने लगी। ओलम्पिक खेलों और सरकसों में अद्भुत काम करने वाले, कीर्तिमान स्थापित करने वाले आरम्भ से ही वैसी स्थिति में नहीं थे। उनने अपने को किसी विशेष ढांचे में ढालने का सच्चे मन से प्रयत्न किया और उस स्थिति तक जा पहुंचे जिसे देखकर साथियों को उनकी प्रगति के पीछे कोई जादू चमत्कार दीखने लगा।
अमेरिका के राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन दयनीय-दरिद्रता वाले परिवार में उत्पन्न हुए। उपयुक्त वातावरण और साधन न होते हुए भी ऊंचे दर्जे के वकील बने, राजनीति में प्रवेश किया तो चुनावों में 13 बार हारे।इतने पर भी उनने अपना मन छोटा न होने दिया। मनोबल स्थिर रखा और प्रयत्नों में ढील नहीं की। अन्ततः अमेरिका के अद्वितीय प्रतिभावान् राष्ट्रपति बन सके। इन अमेरिकी राष्ट्रपतियों में जार्ज वाशिंगटन और गिरफीटा जैसों को पैतृक सुविधा-साधन नहीं मिले वरन् अभावों और प्रतिकूलताओं से जूझते हुए अपना रास्ता आप बनाते हुए आगे बढ़ सके।
इतिहास के पृष्ठ पलटे जायं तो सुविधा-साधनों के आधार पर व्यक्तित्व का विकास करने वाले लोग बहुत ही कम मिलेंगे। वे सुविधाओं की बहुलता का विलासी उपयोग करने में ही व्यक्तित्व की दृष्टि से हेय और हीन बनते गये हैं। प्रगतिशीलों की जीवन गाथा बताती है कि मनोबल और साहस ही छोटी परिस्थिति वालों को प्रगति के उच्च शिखर तक पहुंचाने में समर्थ हुए हैं। जिनने अपने ऊपर नियमित व्यवस्था, दृढ़ता और साहसिकता का अंकुश रखा उनके प्रगति पथ को कोई भी अवरुद्ध न कर सका।
यह मनोबल किसी के द्वारा अनुदान में नहीं मिलता। अपनी व्यक्तिगत सूझ-बूझ के सहारे ही उसे बढ़ाया जाता है। मनोबल का प्रथम प्रयोग और अभ्यास अपने दुर्गुणों से जूझने और सद्गुणों को बढ़ाने के माध्यम से किया जाता है। लोग यह भूल जाते हैं कि छोटी-छोटी दुर्बलतायें मनुष्य को उसी प्रकार छूंछ बना देती हैं जैसे कि फूटे घड़े में से बूंद-बूंद पानी रिसते रहने पर उसे खाली कर देता है और इसके विपरीत एक-एक जमा करने से मनभर का बड़ा पात्र भर जाता है।
दुर्गुणों में चोरी-बेईमानी जैसे दोषों की प्रमुखतया निन्दा की जाती है किन्तु सच पूछा जाय तो आलस्य और प्रमाद सबसे बड़े दुर्गुण हैं। अस्त-व्यस्तता और अव्यवस्था के रहते कोई व्यक्ति न तो प्रतिभावान बन सकता है और न अन्यान्यों पर अपनी छाप छोड़ सकता है, भले ही वह कितना ही योग्य क्यों न हो। वह जिस काम में हाथ डालेगा उसमें खामियां ही खामियां भरी दृष्टिगोचर होंगी। ऐसे लोगों को कोई दायित्वपूर्ण काम सौंपने में भी लोग कतराते हैं और बेईमान न होने पर भी अव्यवस्था के कारण उसे गया-गुजरा मानते हैं। ऐसे लोग एक प्रकार से अपनी प्रतिष्ठा ही गंवा बैठते हैं, उन्नति के अवसर प्राप्त करना तो दूर की बात रही। जो अपनी खामियों पर तीखी दृष्टि नहीं रखता और उन्हें सुधारने का प्रयास नहीं करता, समझना चाहिए कि उसका विधाता सदा बांया प्रतिकूल ही रहेगा।
संकल्पबल, साहस और बनोबल की अभिवृद्धि का यदि महत्व समझ लिया गया तो यह समझना चाहिए कि आत्म सन्तोष और लोक सम्मान का सुनिश्चित मार्ग मिल गया—निजी व्यक्तित्व को निखारने एवं प्रतिभावान् बनने का राज मार्ग यही है।
हनुमान बाल ब्रह्मचारी थे। उनका पराक्रम सर्वविदित है। पर्वत उठाने, समुद्र लांघने, लंका जलाने जैसे असम्भव कार्य जो उनने सम्पन्न कर दिखाये, मात्र मिथक नहीं हैं। लंका दहन के उपरान्त वे ताप मिटाने के लिए समुद्र में कूदे, तो उनके पसीने को मछली निगल गयी। कथा के अनुसार उस पसीने की शक्ति वह मछली हजम नहीं कर पाई और उससे मकरध्वज की उत्पत्ति हुई। हनुमान से जुड़ी पौराणिक कथायें, ग्रीक साहित्य में हरक्यूलिस से जुड़ी कथायें एवं कृष्ण के अग्रज बलराम के शौर्य-पराक्रम की गाथायें उस अपरिमित पराक्रम का परिचय देती हैं जो मानवी काया में असीम संभावनाओं के रूप में रोम-रोम में कूट-कूट कर भरा है। महर्षि दयानन्द ने अपने शक्ति बल से संयम की महत्ता जानने के उत्सुक एक जमींदार की घोड़ों से जूती बग्घी को एक हाथ से रोककर बता दिया था कि विभूतियों का सही उपयोग किया जाय, असंयम के छिद्रों से बहाया न जाय तो मनुष्य की शक्ति कितनी प्रचण्ड हो सकती है।
अमेरिका के रिचर्ड ने अपनी काया की क्षमता को इतना विकसित कर लिया था कि बड़े से बड़े हथौड़े, भारी वजनी लकड़े के लट्ठे, हाथी, तोप के गोले उसका कुछ नहीं बिगाड़ पाते। सैन फ्रांसिसकों के 6 भारी-भरकम पहलवान घूंसे मारते-मारते थक गये किंतु रिचर्ड ऐसे बैठा रहा जैसे उसकी मालिश की जा रही है। 1964 में 100 पौण्ड वजन तक के गोले का अभ्यास था किंतु 1966 में उसने एक प्रदर्शन में तोप के मुहाने के सामने खड़े होकर 150 पौण्ड वजन का गोला दगवाया किन्तु टेबल टेनिस की गेंद की तरह गोला छिटककर दूर जा गिरा और रिचर्ड अविचल खड़ा रहा। इस घटना के बाद वो ‘इस्पात का आदमी’ कहा जाने लगा।
निश्चय ही मनुष्य की संकल्प शक्ति का पारावार नहीं। यदि वह शारीरिक क्षमता बढ़ाने में ही अपने को लगा दे तो ऐसा दैत्य बन सकता है जिसे देखकर लोग आश्चर्य से चकित रह जायं। दृढ़ संकल्प के साथ उद्यम, आशा और साहस का संयुक्त समन्वय हो तो वह क्षय के रोगी से उछलकर चन्दगीराम बन सकता है। जुकाम से सदा ग्रस्त रहने वाले से विश्व विख्यात सेण्डो बन सकता है। वह संकल्प शक्ति के बल पर मांस-पेशियों को लोहे जैसी बना सकता है। सांस रोक सकता है और हृदय की धड़कन पर नियंत्रण करके समाधिस्थ हो सकता है। मुख सज्जा जितनी समस्त श्रृंगार साधनों से मिलकर हो सकती है, उससे असंख्य गुनी अधिक सुन्दरता वह मुस्कान, मस्ती और खिलखिलाहट के आधार पर अर्जित कर सकता है।
इंग्लैण्ड में एक ऐसी महिला जन्मी थीं, जिसके शरीर पर ज्वलनशील पदार्थों का कुछ भी प्रभाव नहीं पड़ता था। ‘नाइट्रिक एसिड’ को कुछ देर मुंह में रखकर जब उसने एक लोहे पर थूका तो उसमें लपटें निकलने लगीं। उबलते तेल को मुंह में रखे रहना, पिछले मोम को पानी की तरह मुंह में रखकर ऊपर से सील करवा देना, उबलते जस्ते को मुंह में डालकर उसे सिक्के के रूप में बदल देना, उसके लिए नितान्त आसान था। उसके विविध ऐसे प्रदर्शनों से यह सिद्ध हो गया था कि उसका शरीर एकदम ज्वलनशील नहीं है, न ही ज्वलनशीलता का उस पर किंचित प्रभाव पड़ता है।
इतिहास में ऐसे अनेकानेक व्यक्ति हुए हैं जिन्होंने असाधारण साहसिकता का प्रदर्शन कर जीवन भर योद्धा की तरह जीवन जिया। परिस्थितियां उन्हें कभी भी झुका नहीं सकीं।
फ्रांस के न्यूर्स प्रदेश का एक कप्तान मैलर मुस्टैमे जीवन भर युद्धों का अग्रिम मोर्चा संभालता रहा। उसने 122 युद्धों में भाग लिया और प्रत्येक में कई बार गंभीर घाव लगे। सभी का वह सामना करता रहा और अच्छा होता रहा। उसकी मृत्यु 134 वर्ष में हुई। अठारहवीं सदी में एक फ्रांसीसी जनरल के जीवन में भी ऐसी ही घटनायें घटी। वेपटिस्टे मान्टमारिन का जीवन अपने ढंग का अनोखा था। उन्होंने 20 वर्ष की आयु में सेना में प्रवेश लिया। 75 वर्ष की आयु होने पर सन् 1779 में मरे। इस बीच वे पूरे 55 वर्ष सेना में विभिन्न पदों पर काम करते रहे। वे युद्ध मोर्चा पर पांच बार भयंकर रूप से घायल हुए और मृतक घोषित किए जाते रहे। हर बार वे कब्रिस्तान पहुंचने से पूर्व ही जी उठे। उनका सारा शरीर अनेकों आपरेशनों से बेतरह कटा-फटा था। उन्होंने मरने तक कभी भी हिम्मत नहीं हारी। उन्हें फ्रांस का राणासांगा कहा जाये तो कोई अत्युक्ति न होगी। आस्ट्रिया के एक जनरल काउण्ट एन्टम ने अपने देश की सेना में 47 वर्ष तक काम किया। इस बीच उन्होंने 89 लड़ाइयां लड़ीं। इनमें उन्हें 84 भयंकर और सैकड़ों छोटे घाव लगे। उनकी मृत्यु युद्ध मोर्चे पर ही हुई। मरते समय उनके चेहरे पर कोई विषाद नहीं था। राष्ट्र के लिए संघर्ष करने-मरने-खपने वाले कभी अशांत स्थिति में शरीर नहीं छोड़ते। साहस कहीं आसमान से नहीं बरसता। यह तो सदैव अन्तःकरण में विद्यमान है। उसे समय आने पर जगाने भर की आवश्यकता होती है। सूझबूझ, दूरदर्शिता, प्रत्युत्पन्नमत्ति साहसियों को उचित सम्बल देती व श्रेय-सम्मान का अधिकारी बनाती है। फ्रांस के जनरल डुवेले की सेना एक बार किले में घिर गई। राशन भी समाप्त हो गया। शत्रु के चालीस हजार सैनिकों को चकमा दिया गया। रात के सघन कुहासे में घोड़ों पर आटे के बोरे इस तरह बांधे गये कि वे दैत्याकार सैनिक लगने लगे। साथ ही जानवरों के सींगों पर मशाल बांधकर रात भर उनसे किले के बुर्ज पर गश्त लगवाई गई। इतना अपार सेना बल देखकर उनसे लड़ने की शत्रु सैनिकों की हिम्मत न पड़ी और वे भाग खड़े हुए। हार-जीत में बदल गई।
साधन नहीं साहस प्रधान :
साधन बड़ा या साहस इसका निर्णय ढूंढ़ने के लिए नार्वे के एक उत्साही युवक थोर हेयर डेहले ने एक उदाहरण लोगों के सामने प्रस्तुत किया। यह उत्साही युवक साहस को प्रधान मानता और कहता कि साहसी या तो साधन प्राप्त कर लेता है अथवा न्यूनतम साधनों से भी आगे बढ़ने और सफलता पाने का रास्ता निकाल लेता है।
थोर का प्रयोग यह था कि ‘सरकण्डे’ की नाव के सहारे भी कठिन दीखने वाली लम्बी समुद्र यात्रा सफलतापूर्वक सम्पन्न की जा सकती है। इस लोहे के विशालकाय यन्त्र सज्जित जहाजों के जमाने में सरकंडे जैसे दुर्बल साधनों से बनी नाव की क्या तुलना हो सकती है। पर उसके उपयोग से यह तो साबित किया ही जा सकता है कि मनुष्य का पुरुषार्थ और मनोयोग इतना प्रबल है कि साधन न होने पर भी उसके द्वारा साधन सम्पन्नों जैसा कर्तृत्व दिखाया जा सके।
नार्वे के उपरोक्त युवक ने इथोपिया की कैड झील में काम करने वाले मछुआरों की सहायता से पहली सरकंडों से बनी नाव बनाई। यह उतनी अच्छी नहीं बनी और लक्ष्य को पूरा न कर सकी। वह 4352 मील चलकर अटलांटिक महासागर में अपना दम तोड़ गई, पर इससे थोर निराश नहीं हुआ। आरम्भिक असफलताओं से उसका मन जरा भी छोटा नहीं हुआ। हिम्मत हारने की तो इसमें बात ही क्या थी? सफलता एक बार के प्रयत्न से मिल जाया करे तो फिर उसे कोई भी प्राप्त कर लिया करे। साहस की परीक्षा तो असफलता की कसौटी पर ही होती है।
हेयर डेहल ने दूसरी नाव लैंटिन अमेरिका के बोलीविया क्षेत्र में स्थिति नितचाचा झील में काम करने वाले मछुआरों की सहायता से बनाई, यह भी सरकंडों की ही थी। इस नाव में विभिन्न देशों के सात अन्य यात्री भी अपने सामान सहित सवार हुए। 17 मई 1970 को मोरक्को (अफ्रीका) के साफी बन्दरगाह से यह नाव रवाना हुई और 12 जुलाई 70 को दक्षिणी अमेरिका के वारण्डोस क्षेत्र के ‘ब्रिज’ टाउन बन्दरगाह पर पहुंची।
ब्रिज टाउन पहुंचने पर इस सरकंडे की नाव पर उतना लम्बा और इतना दुस्साहसपूर्ण सफलर करने वाले दल की अगवानी बीस लकड़ी की नावों ने पंक्तिबद्ध होकर बड़े भावपूर्ण वातावरण में की। बन्दरगाह दर्शकों की भीड़ से खचाखच भरा हुआ था। स्वागत की आवश्यक सजधज लोगों ने पूरे उत्साह के साथ की थी। दर्शकों को इस निष्कर्ष पर पहुंचने में सहायता ही मिली कि अदम्य साहस, स्वल्प साधनों से भी मनुष्य बड़ी सफलतायें प्राप्त कर सकता है, जबकि मनोबल और पुरुषार्थ के अभाव में विपुल साधन रहते हुए भी असफलतायें ही हाथ लगती हैं। उक्त सरकंडे की नाव ओसलो (नार्वे) के कोनाटिकी संग्रहालय में अभी भी सुरक्षित है, जो दर्शकों को साहस एवं मनोबल की प्रचण्डता का महत्व समझने के लिये प्रेरित करती है।
जलमार्ग द्वारा भू-परिक्रमा करने वाले वास्कोडिगामा और कोलम्बस की साहसिक गाथायें तो प्रसिद्ध ही हैं। संसार में ऐसे भी दुस्साहसी व्यक्ति हुए हैं, जिन्होंने वैज्ञानिक प्रगति के आरम्भिक दिनों में छोटे-मोटे जलयानों या गुब्बारों से ध्रुव प्रदेशों की यात्रायें कीं। भले ही आज उत्तरी व दक्षिणी ध्रुवों पर यात्रा आसान हो गयी है विज्ञान ने प्रतिकूल वातावरण में रहने के साधन जुटा लिए है एवं भांति-भांति के वैज्ञानिक अन्वेषण वहां सम्पन्न किये जाने लगे हैं। किन्तु इस सदी के प्रारम्भ में जब कि इन दोनों ही ध्रुवों की टोपोग्राफी का जरा भी अन्दाज न था कितने ही साहस के धनी व्यक्तियों ने यात्रा की, जोखिम उठाते हुए यह जानने का प्रयास किया कि ये कहां हैं व वहां परिस्थितियां कैसी हैं? उत्तरी ध्रुव की सर्व प्रथम यात्रा डा. फ्रेडरिक अल्बर्ट कुक ने की थी। इस अमेरिकन वैज्ञानिक ने अपने एस्किमो साथी व 26 कुत्ते साथ लिए। यह यात्रा उसने 23 मील प्रतिदिन के हिसाब से पूरी की। 21 मार्च 1908 को वह चला और 42 दिन में नार्थ सी के रास्ते चलकर वह एबरडीन (स्काटलैण्ड) लौट आया। इसी प्रकार दक्षिणी ध्रुव विजय का प्रथम श्रेय ब्रिटिश रॉयल नेवी के कैप्टन जेम्स कुक्स को जाता है। वे कुछ दिन जलयानों की सहायता से चले। बाद में कुत्ते जुती गाड़ियों पर 53 दिनों में अपना सफर पूरा कर वापस केप ऑफ गुडहोप होते हुए यू.के. लौट आये।
अलबर्ट कुक से भी पूर्व सन् 1783 में फ्रेंच वैज्ञानिक प्रो. एडविन चार्ल्स ने पहला गुब्बारा बनाया। इसके बाद उसकी क्षमता और आकृति में क्रमशः सुधार होता गया। उस समय का विकसित गुब्बारा जिसका नाम ‘जैपलीन’ था को लेकर कुछ दुस्साहसी युवक कठिन यात्रा के लिए चल पड़े।
उस योजना का संचालन किया जर्मन डा. उल्सवीन ने। जैपलीन में कुल 56 आदमी सवार थे, 40 चलाने वाले और 16 अनुसंधान करने वाले। गुब्बारा एक छोटे फुटबॉल मैदान के बराबर था और गिरजाघर जैसा ऊंचा जिसमें खटोले जैसी लटकने थीं, यात्री उन्हीं पर बैठते थे।
लेक कांसटैंस से उड़कर वह गुब्बारा जर्मनी, स्वीडन, एस्थोनिया, फिनलैण्ड, रूस की सीमायें पार करते हुए ध्रुव प्रदेश पर पहुंचा। एल्फोरा अन्तरीप से लेकर सुविस्तृत ध्रुवीय क्षेत्र पर उड़ानें भरी और चित्र-विचित्र फोटो लिए। लगभग एक सप्ताह तक वह गुब्बारा उड़ा—उस प्रारम्भिक साहस भरी यात्रा से अर्जित उपलब्धियां श्रेय की उतनी ही अधिकारी हैं जितनी कि आज के कम्प्यूटर युग की।
प्रतिकूलताओं के रहते हुए भी प्रगति संभव
यह आवश्यक नहीं कि किसी को उन्नतिशील बनने के लिए उसके पास समुचित साधन चाहिए अथवा उसके अभिभावकों द्वारा उसके लिए शिक्षा तथा सुविधा जुटाने का प्रबन्ध किया ही जाय। यह हों तो अच्छी बात है किंतु इनका अभाव रहने पर भी मनुष्य अपनी इच्छा शक्ति एवं तत्परता के बल पर प्रतिकूलताओं को भी अनुकूलताओं में बदल सकता है और साधारण स्थिति की रुकावटों को अपने मनोबल के आधार पर दूर करते हुए उन्नति के शिखर तक पहुंच सकता है।
डिजराइली का कथन है कि ‘सफलता का रहस्य उस कार्य में दृढ़ता और मनोयोगपूर्वक जुटे रहना है।’ कुछ लोगों का कहना है कि भौतिक सफलता अर्थहीन और बकवास है, सफलता के प्रतीक के रूप में धन का अपना महत्व है। लेखक, संगीतज्ञ, चित्रकार, मूर्तिकार, कृषक अथवा मजदूर पेटभर भोजन तो सबको चाहिए किन्तु रचनात्मक प्रवृत्तियों का लक्ष्य मात्र धनोपार्जन नहीं होना चाहिए। विश्व के अनेक मेधावी ऐसे हैं जो अभावों में जन्मे, असुविधाओं में पले और संघर्षों में जीकर भी सफलता के लक्ष्य तक जा पहुंचे।
सफलताओं के लिए सुविधायें ही आवश्यक हों ऐसी बात नहीं है। जिन्हें जीवनभर सुविधायें नहीं मिलीं और गरीबी व अभाव में जीकर भी उन्होंने ऐसे कार्य किये जो सुख-सुविधाओं में रहकर नहीं कर सके। सफलता के लिए सफलता की कामना और दृढ़ इच्छा ही मुख्य है।
अंध कवि होमर यूनान का विख्यात भिखारी था किन्तु अपनी कृति से आज भी अमर है। इसी प्रकार रोम का महाकवि विर्जिल साधारण बावर्ची का पुत्र था। अपने ढंग की बेजोड़ कथाओं का रचनाकार ईसप एक कुरूप-काला गुलाम था। डिमास्थेनस सिकलीगर परिवार में जन्मा था, उसका पिता छुरी-चाकू बनाकर आजीविका चलाता था किन्तु डिमास्थेनस के भाषणों को आज भी याद किया जाता है।
सुविख्यात पुस्तक ‘डान क्विस्कोट’ को लेखक सर बैटेस सेना का साधारण सिपाही था। अंग्रेजी का महान कवि कीट्स एक साधारण सईस का लड़का था। उसने अपने जीवन की शुरुआत दवा विक्रेता के यहां नौकरी करके आरम्भ की। होमर की कृतियों का अनुवादक एलेक्जेण्डर पोप एक व्यवसायी का पुत्र था। कवि एके साइड के पिता का व्यवसाय कसाई का था। स्काटलैण्ड के राष्ट्र कवि राबर्ट वर्नस ने अपना जीवन हलवाहे से आरम्भ किया। पैराडाइज लॉस्ट के लेखक मिल्टन एक स्कूल में अध्यापक थे। विख्यात कोषकार जानसन के पिता साधारण पुस्तक विक्रेता थे। पामेला और कैरिमा जैसे रोमांटिक उपन्यासों के विख्यात लेखक सैमुएल रिचार्डसन के पिता साधारण बढ़ई थे। अमेरिका की खोज करने वाला कोलम्बस जुलाहा था। बेंजामिन फ्रैंकलिन जो बाद में अमेरिका के राष्ट्रपति बने—छपाई का काम करते थे। पोप सिक्सटस पंचम कभी सूअर पालने का काम करता था। कलाकार होगराथ बर्तनों पर पच्चीकारी का काम भी करते तथा उन्होंने रेशमी वस्त्र विक्रेता के यहां नौकरी भी की। अभी प्रचलित पुच्छल तारे के आविष्कारक ‘एडमण्ड हैली’ जिसके नाम से यह प्रसिद्ध है—के यहां साबुन बनाने का धन्धा होता था। उसमें से निकलकर वह एक एस्ट्रानॉमर बन गया। हरशल एक गरीब संगीतकार था। रिचर्ड आर्क राइट बहुत दिनों तक हज्जाम का कार्य करते रहे। विख्यात वकील ब्लैक स्टोन बुनकर का पुत्र था।
इतिहास के पन्ने ऐसे प्रतिभाशालियों की पुरुषार्थ गाथाओं से भरे पड़े हैं जिनने अपने संकल्प एवं पुरुषार्थ के बल पर अपने को ऊंचा उठाया और स्वयं को कुछ से कुछ बनकर दिखाया जिनने विभिन्न प्रकार की बलिष्ठताओं सम्बन्ध कीर्तिमान स्थापित किये हैं। उनमें से अधिकांश ऐसे थे जिन्हें आरम्भिक दिनों में गया-गुजरा ही माना जाता था, पर अपने मनोबल का उपयोग करके आश्चर्यजनक प्रगति कर सकने में समर्थ हुए।
हरियाणा के चन्दगीराम आरम्भिक दिनों में क्षय से बुरी तरह ग्रसित थे। यूरोप के सैण्डो जुकाम से बुरी तरह पीड़ित रहते थे और शरीर हड्डियों का ढांचा मात्र था, पर जब उन्होंने अपने शरीर को संभालने का निश्चय किया और सुधार के नियमों को दृढ़तापूर्वक कार्यान्वित करने लगे तो संसार के माने हुए पहलवानों में उनकी गणना होने लगी और स्थिति में कायाकल्प जैसा परिवर्तन हो गया।
कालिदास और वरदराज युवावस्था तक मूढ़मति समझे जाते थे। विश्व विख्यात वैज्ञानिक आइन्स्टीन तक की बुद्धि आरम्भिक दिनों में बहुत मोटी थी किन्तु इन लोगों ने जब अपने बुद्धि पक्ष में तीक्ष्णता लाने का दृढ़ निश्चय किया तो उनकी विद्वता प्रथम श्रेणी के मनीषियों में गिनी जाने लगी। ओलम्पिक खेलों और सरकसों में अद्भुत काम करने वाले, कीर्तिमान स्थापित करने वाले आरम्भ से ही वैसी स्थिति में नहीं थे। उनने अपने को किसी विशेष ढांचे में ढालने का सच्चे मन से प्रयत्न किया और उस स्थिति तक जा पहुंचे जिसे देखकर साथियों को उनकी प्रगति के पीछे कोई जादू चमत्कार दीखने लगा।
अमेरिका के राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन दयनीय-दरिद्रता वाले परिवार में उत्पन्न हुए। उपयुक्त वातावरण और साधन न होते हुए भी ऊंचे दर्जे के वकील बने, राजनीति में प्रवेश किया तो चुनावों में 13 बार हारे।इतने पर भी उनने अपना मन छोटा न होने दिया। मनोबल स्थिर रखा और प्रयत्नों में ढील नहीं की। अन्ततः अमेरिका के अद्वितीय प्रतिभावान् राष्ट्रपति बन सके। इन अमेरिकी राष्ट्रपतियों में जार्ज वाशिंगटन और गिरफीटा जैसों को पैतृक सुविधा-साधन नहीं मिले वरन् अभावों और प्रतिकूलताओं से जूझते हुए अपना रास्ता आप बनाते हुए आगे बढ़ सके।
इतिहास के पृष्ठ पलटे जायं तो सुविधा-साधनों के आधार पर व्यक्तित्व का विकास करने वाले लोग बहुत ही कम मिलेंगे। वे सुविधाओं की बहुलता का विलासी उपयोग करने में ही व्यक्तित्व की दृष्टि से हेय और हीन बनते गये हैं। प्रगतिशीलों की जीवन गाथा बताती है कि मनोबल और साहस ही छोटी परिस्थिति वालों को प्रगति के उच्च शिखर तक पहुंचाने में समर्थ हुए हैं। जिनने अपने ऊपर नियमित व्यवस्था, दृढ़ता और साहसिकता का अंकुश रखा उनके प्रगति पथ को कोई भी अवरुद्ध न कर सका।
यह मनोबल किसी के द्वारा अनुदान में नहीं मिलता। अपनी व्यक्तिगत सूझ-बूझ के सहारे ही उसे बढ़ाया जाता है। मनोबल का प्रथम प्रयोग और अभ्यास अपने दुर्गुणों से जूझने और सद्गुणों को बढ़ाने के माध्यम से किया जाता है। लोग यह भूल जाते हैं कि छोटी-छोटी दुर्बलतायें मनुष्य को उसी प्रकार छूंछ बना देती हैं जैसे कि फूटे घड़े में से बूंद-बूंद पानी रिसते रहने पर उसे खाली कर देता है और इसके विपरीत एक-एक जमा करने से मनभर का बड़ा पात्र भर जाता है।
दुर्गुणों में चोरी-बेईमानी जैसे दोषों की प्रमुखतया निन्दा की जाती है किन्तु सच पूछा जाय तो आलस्य और प्रमाद सबसे बड़े दुर्गुण हैं। अस्त-व्यस्तता और अव्यवस्था के रहते कोई व्यक्ति न तो प्रतिभावान बन सकता है और न अन्यान्यों पर अपनी छाप छोड़ सकता है, भले ही वह कितना ही योग्य क्यों न हो। वह जिस काम में हाथ डालेगा उसमें खामियां ही खामियां भरी दृष्टिगोचर होंगी। ऐसे लोगों को कोई दायित्वपूर्ण काम सौंपने में भी लोग कतराते हैं और बेईमान न होने पर भी अव्यवस्था के कारण उसे गया-गुजरा मानते हैं। ऐसे लोग एक प्रकार से अपनी प्रतिष्ठा ही गंवा बैठते हैं, उन्नति के अवसर प्राप्त करना तो दूर की बात रही। जो अपनी खामियों पर तीखी दृष्टि नहीं रखता और उन्हें सुधारने का प्रयास नहीं करता, समझना चाहिए कि उसका विधाता सदा बांया प्रतिकूल ही रहेगा।
संकल्पबल, साहस और बनोबल की अभिवृद्धि का यदि महत्व समझ लिया गया तो यह समझना चाहिए कि आत्म सन्तोष और लोक सम्मान का सुनिश्चित मार्ग मिल गया—निजी व्यक्तित्व को निखारने एवं प्रतिभावान् बनने का राज मार्ग यही है।